"धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो।"
यह कोई नारा मात्र ही नहीं, हमारी साधना का एकमात्र उद्देश्य है। ईश्वर के सारे अवतार -- धर्म की रक्षा और अधर्म के नाश के लिए ही अवतृत हुए हैं। सारे महान योगी इसी उद्देश्य के लिए साधना करते हैं। आत्मा का स्वधर्म होता है -- समर्पण द्वारा परमात्मा की प्राप्ति। यह परमात्मा की प्राप्ति यानि भगवत्-प्राप्ति ही हमारा स्वधर्म है, जिसके लिए हम साधना करते हैं। अनादि काल से भारत के सभी सम्राटों के शासन का लक्ष्य "धर्मरक्षा" ही था। भारत में ऐसे ऐसे महान राजा हुए हैं जिनके राज्य में कोई चोरी नहीं करता था, कोई मदिरापान नहीं करता था, और कोई किसी भी तरह का दुराचार नहीं करता था। धर्म क्या है, इसे मनुस्मृति और महाभारत में बहुत अच्छी तरह से समझाया गया है। वैशेषिक सूत्रों में दी गयी इसकी परिभाषा सर्वमान्य है। ॐ तत्सत्॥
कृपा शंकर
२६ जून २०२५
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