Saturday, 28 June 2025

अलादीन के चिराग का जिन्न और हमारा चित्त दोनों एक जैसे ही हैं ---

 अलादीन के चिराग का जिन्न और हमारा चित्त दोनों एक जैसे ही हैं...

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अलादीन ने चिराग को रगडा तो एक जिन्न (ब्रह्मराक्षस की श्रेणी का एक प्रेत) प्रकट हुआ| जिन्न ने कहा ... मेरे आक़ा, मुझे हुक्म दो मैं क्या काम करूँ? अलादीन जो भी आदेश देता, जिन्न उसे तुरंत पूरा कर देता| जिन्न ने यह भी कहा कि जब तक तुम मुझसे निरंतर काम करवाते रहोगे मैं तब तक तुम्हारे वश में हूँ, जब कोई काम नहीं रहेगा तब मैं गला घोट कर तुम्हारी ह्त्या कर दूंगा| मनुष्य का चित्त वही जिन्न है| इसे निरंतर कहीं ना कहीं लगाए रखना पड़ता है| खाली होते ही यह मनुष्य को वासनाओं के जाल में ऐसा फँसाता है जहाँ से बाहर निकलना अति दुर्धर्ष हो जाता है| चित्त स्वयं को वासनाओं के रूप में व्यक्त करता है| वासनायें ही चित्त की वृत्तियाँ हैं जिन के निरोध को "योगः चित्तवृत्ति निरोधः" कहा गया है| इस की वृत्तियाँ अधोगामी हैं, जिन्हें साधना द्वारा ऊर्ध्वगामी बना देने पर यह मनुष्य को परमात्मा तक ले जाता है|
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भगवान श्रीकृष्ण जो साकार रूप में परम ब्रह्म हैं, का आदेश है ....
"मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि| अथ चेत्त्वमहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि||१८:५८||
अर्थात् मुझमें ही चित्त लगा चुकने पर तूँ मेरी कृपा से इस संसार रूपी दुर्ग के सारे संकटों को पार कर लेगा| पर यदि अहङ्कार के कारण मेरी बात नहीं मागेगा तो तू विनष्ट हो जायेगा|
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चित्त का अधिष्ठान "सच्चिदानन्द ब्रह्म" ही है| सारी सृष्टि का एकमात्र प्रयोजन यही है कि हम सच्चिदानंद परमात्मा में स्थित हो जाएँ| सांसारिक भोगों के लिये यह संसार नहीं बनाया गया है, यह तो परमेश्वर के ज्ञान के लिये बनाया गया है| परमात्मा की सुन्दर सृष्टि को सब देखते हैं, पर उसे कोई नहीं देखता| भगवान के अनुग्रह से ही हम इस मायावी संसार को पार कर सकते हैं, निज प्रयास से नहीं| दूसरे शब्दों में जब तक हम जीव की चेतना में हैं, माया का अनंत आवरण नहीं हटेगा| परमात्मा को समर्पित होने के बाद ही उनकी ही कृपा से यह अनंत मायाजाल दूर होगा| अनंत विघ्नों को कहाँ तक पार करेंगे? अतः प्रकृति के आधीन न रहकर परमात्मा के आधीन रहें|
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जहाँ अहंकार होगा वहाँ विनाश ही होगा| भगवान के वचन प्रमाण हैं| उनसे ऊपर कुछ नहीं है| अतः उनकी आज्ञा माननी ही पड़ेगी ....
"तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम् |
मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् ||११:३३||
अर्थात् .... इसलिए तुम उठ खड़े हो जाओ और यश को प्राप्त करो; शत्रुओं को जीतकर समृद्ध राज्य को भोगो| ये सब पहले से ही मेरे द्वारा मारे जा चुके हैं। हे सव्यसाचिन्! तुम केवल निमित्त ही बनो||
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मेरा बहुत अच्छा प्रेम एक बहुत ही उच्च कोटि के शक्ति-साधक महात्मा से था| अब तो वे इस संसार में नहीं हैं| दो बार नवरात्रों में उनके साथ रहा था| उनका आदेश था कि मैं सत्यनिष्ठा से कम से कम एकसौ माला नित्य अपने गुरुप्रदत्त बीजमंत्र की मानसिक रूप से जपूँगा| वे कहते थे कि एक क्षण भी व्यर्थ नहीं जाना चाहिए| हर समय भगवती का जप चलते रहना चाहिए| चित्त को अन्यत्र कहीं भी जाने का अवसर नहीं देना चाहिए|
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स्वतन्त्रता सिर्फ परमात्मा में है, संसार में नहीं| ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२९ जून २०२०

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