भगवान का बड़े से बड़ा आश्वासन ---
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निम्न श्लोक स्वयं भगवान का आश्वासन है इस विश्व को। इससे बड़ा आश्वासन आज तक किसी ने भी नहीं दिया है। थोड़ा बहुत जो भी साधन हम करते है, वह इस संसार (भवसागर) के महाभय से हमारी रक्षा करेगा।
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"नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।
अर्थात् -- इसमें क्रमनाश और प्रत्यवाय दोष नहीं है। इस धर्म (योग) का अल्प अभ्यास भी महा भय से रक्षण करता है॥
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व्याख्या -- आरम्भका नाम 'अभिक्रम' है इस कर्मयोगरूप मोक्षमार्ग में अभिक्रम यानी आरंभ का नाश नहीं होता है। योगविषयक आरंभ का फल अनैकान्तिक (संशययुक्त) नहीं है। इसमें प्रत्यवाय (विपरीत फल) भी नहीं होता है। इस कर्मयोगरूप धर्म का थोड़ा सा भी अनुष्ठान (साधन) जन्म-मरण रूप महा संसारभय से हमारी रक्षा करता है।
On this Path, endeavour is never wasted, nor can it ever be repressed. Even a very little of its practice protects one from great danger.
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वेदों के कर्मकाण्ड में वर्णित यज्ञयागादि के अनुष्ठान में क्रमानुसार क्रिया विधि न करने पर यज्ञ का फल नहीं मिलता। इतना ही नहीं यदि वेद प्रतिपादित कर्मों को न किया जाय तो वह "प्रत्यवाय दोष" कहलाता है जिसका अनिष्ट फल कर्त्ता (जीव) को भोगना पड़ता है। लौकिक फल प्राप्ति में यही बातें देखी जाती हैं। भौतिक जगत् में भी इसी प्रकार के अनेक उदाहरण हैं जैसे गलत औषधियों के प्रयोग से रोगी को अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ता है। कर्म क्षेत्र में इन दोषों के होने से हमें इष्टफल नहीं मिल पाता। भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ उपर्युक्त दोनों दोषों से सर्वथा मुक्त और सुरक्षित होने का आश्वासन देते हैं।
(उपरोक्त पंक्तियाँ लिखने से पूर्व मैंने दो महान भाष्यकारों के भाष्यों का स्वाध्याय किया था, इसलिए उनके भी अनेक शब्द और भाव यहाँ आ गये हैं। उन महान भाष्यकारों को नमन)
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ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२७ जून २०२५
पुनश्च : --- सभी से क्षमा याचना करता हूँ कि चाह कर भी इस विषय को मैं ठीक से समझा नहीं सका। यहाँ मेरा भाषा और शब्दों का ज्ञान काम नहीं आया। फिर भी जो समझना चाहते हैं वे सभी इसे समझ पायेंगे।
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