Saturday, 28 June 2025

धर्म का पालन ही धर्म की रक्षा है ---

 जैसे जैसे मैं इस लोकयात्रा में आगे बढ़ता जा रहा हूँ, यह प्रत्यक्ष अनुभूत कर रहा हूँ कि धर्म का पालन ही धर्म की रक्षा है। हम यथासंभव अपने धर्म का पालन करें, यही रक्षा हम अपने धर्म की कर सकते हैं। हमारा समाज विश्व का सबसे अधिक जागृत, संगठित और प्रबुद्ध समाज है। इसे जगाने की नहीं, स्वयं के जागने की आवश्यकता है। हम स्वयं तो जागते नहीं, और बातें करते हैं समाज को जगाने की। यह अनुचित और गलत है।

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एक षडयंत्र के अंतर्गत धर्म-निरपेक्षता के नाम पर कानूनी प्रावधानों द्वारा हमारे समाज को धर्म-शिक्षा से वंचित रखा गया है। जब हमारे बालक/बालिकाओं को धर्म की शिक्षा मिलने लगेगी तब हमारा समाज पुनश्च: चैतन्य हो जायेगा। धर्म ही हमारा जीवन है।
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हम एक शाश्वत आत्मा हैं, यह शरीर नहीं। आत्मा का धर्म है -- परमात्मा को उपलब्ध होने की अभीप्सा। हम परमात्मा का चिंतन, मनन, निदिध्यासन और ध्यान करेंगे तो समय के साथ स्वयं को परमात्मा के साथ एक पायेंगे। हम कोई पापी नहीं, हम परमात्मा के अमृतपुत्र हैं। श्वेताश्वतरोपनिषद् के द्वितीय अध्याय का पाँचवाँ मंत्र हमें अमृत पुत्र कहता है --
"युजे वां ब्रह्म पूर्व्यं नमोभिर्विश्लोक एतु पथ्येव सूरेः।
शृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्रा आ ये धामानि दिव्यानि तस्थुः॥"
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गीता में भगवान कहते हैं --
"वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही॥२:२२॥"
"नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्॥२:४०॥"
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भगवान के चरण -चिह्नों का अनुसरण करते हुए मैं प्रार्थना करता हूँ कि अनादि ब्रह्म में हम सब का विलयन हो, परमात्मा की महिमा हम सब में व्यक्त हो, और हम सब परमात्मा के दिव्य धाम में निवास करें॥ ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२९ जून २०२४

1 comment:

  1. "अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
    साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः॥९:३०॥"
    क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
    कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति॥९:३१॥"
    "मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
    मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः॥९:३४॥"

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