भगवान की पराभक्ति के लिए समत्व में स्थित होना आवश्यक है .....
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भगवान की पराभक्ति के लिए भी अति गहन साधना करनी पड़ती है| सिर्फ पढने या इच्छा करने मात्र से वह नहीं मिलती| साधना व उसका फल .... दोनों ही भगवान की कृपा पर निर्भर हैं| गीता में भगवान कहते हैं .....
"ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति| समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्"||१८:५४||
अर्थात् ..... जो साधक ब्रह्ममय बन गया है, वह प्रसन्नमना न आकांक्षा करता है और न शोक| समस्त भूतों के प्रति सम होकर वह मेरी परा भक्ति को प्राप्त करता है ||
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यह श्लोक और इसका भावार्थ दोनों ही अति सरल हैं| निज विवेक से कोई भी इनका अर्थ समझ सकता है| पर दूसरी पंक्ति में लिखा .... "समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्" वाक्य अत्यधिक महत्वपूर्ण है| इस पर गहन चिंतन की आवश्यकता है|
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समत्व के बारे में भगवान कह चुके हैं .....
"योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय | सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते" ||२:४८||
अर्थात् .... हे धनंजय आसक्ति को त्याग कर तथा सिद्धि और असिद्धि में समभाव होकर योग में स्थित हुये तुम कर्म करो, यह समभाव ही योग कहलाता है|
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भगवान के अनुसार समत्व ही योग है| जो समत्व को उपलब्ध हो चुका है वही पराभक्ति को प्राप्त होता है| यहाँ यह विषय बहुत जटिल हो गया है| तीन-चार बार मनन करेंगे तो भगवान की कृपा से समझ में आ जाएगा|
आप सब को सादर सप्रेम नमन ! शुभ कामनाएँ !!
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२३ जून २०१८
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भगवान की पराभक्ति के लिए भी अति गहन साधना करनी पड़ती है| सिर्फ पढने या इच्छा करने मात्र से वह नहीं मिलती| साधना व उसका फल .... दोनों ही भगवान की कृपा पर निर्भर हैं| गीता में भगवान कहते हैं .....
"ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति| समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्"||१८:५४||
अर्थात् ..... जो साधक ब्रह्ममय बन गया है, वह प्रसन्नमना न आकांक्षा करता है और न शोक| समस्त भूतों के प्रति सम होकर वह मेरी परा भक्ति को प्राप्त करता है ||
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यह श्लोक और इसका भावार्थ दोनों ही अति सरल हैं| निज विवेक से कोई भी इनका अर्थ समझ सकता है| पर दूसरी पंक्ति में लिखा .... "समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्" वाक्य अत्यधिक महत्वपूर्ण है| इस पर गहन चिंतन की आवश्यकता है|
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समत्व के बारे में भगवान कह चुके हैं .....
"योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय | सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते" ||२:४८||
अर्थात् .... हे धनंजय आसक्ति को त्याग कर तथा सिद्धि और असिद्धि में समभाव होकर योग में स्थित हुये तुम कर्म करो, यह समभाव ही योग कहलाता है|
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भगवान के अनुसार समत्व ही योग है| जो समत्व को उपलब्ध हो चुका है वही पराभक्ति को प्राप्त होता है| यहाँ यह विषय बहुत जटिल हो गया है| तीन-चार बार मनन करेंगे तो भगवान की कृपा से समझ में आ जाएगा|
आप सब को सादर सप्रेम नमन ! शुभ कामनाएँ !!
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२३ जून २०१८
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