जितना जो भी किसी के समझ में आ गया है, वह परमात्मा को पाने के लिए पर्याप्त है। नियमित उपासना किसी भी परिस्थिति में नहीं छोड़नी चाहिए। नियमित उपासना नहीं करने से भगवान को पाने की अभीप्सा (अतृप्त प्यास और तड़प) और भक्ति (परमप्रेम) समाप्त हो जाती है।
.
बौद्धिक रूप से कुछ भी समझने की एक सीमा होती है। उससे परे की बात जो समझ में नहीं आये वह भगवान पर छोड़ देनी चाहिए।
भगवान की उपस्थिति के आभास से अधिक आनंददायक अन्य कुछ भी नहीं है। निरंतर प्रयासपूर्वक पूर्ण प्रेम से उन्हें अपनी स्मृति में रखें। हमारे ह्रदय में परमात्मा के प्रति अहैतुकी परम प्रेम यानि पूर्ण भक्ति हो।
.
रामचरितमानस में देवों के देव भगवान शिव भी झोली फैलाकर मांग रहे हैं --
"बार बार बर माँगऊ हरषि देइ श्रीरंग।
पद सरोज अनपायनी भगति सदा सत्संग॥"
हे मेरे श्रीरंग, अर्थात श्री के साथ रमण करने वाले नारायण, मुझे भिक्षा दीजिए।
भगवान बोले, क्या दूं?
तपस्वी बने शिव बोले, आपके चरणों का सदा अनुपायन करता रहूँ, आपकी भक्ति और सत्संग कभी न छूटे।
.
गीता में भगवान कहते हैं --
"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे॥१८:६५॥"
अर्थात् - तुम मच्चित, मद्भक्त और मेरे पूजक (मद्याजी) बनो और मुझे नमस्कार करो; (इस प्रकार) तुम मुझे ही प्राप्त होगे; यह मैं तुम्हे सत्य वचन देता हूँ,(क्योंकि) तुम मेरे प्रिय हो॥
"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥१८:६६॥"
अर्थात् - सब धर्मों का परित्याग करके तुम एक मेरी ही शरण में आओ, मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो॥
(यह गीता का चरम श्लोक है। इस से बड़ा कोई दूसरा उपदेश नहीं है)
.
उन परमात्मा को नमन जो यह सब मुझ से लिखवा रहे हैं। ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१ जुलाई २०२२
No comments:
Post a Comment