वंशावली सुरक्षित रखने की परंपरा -----
Tuesday, 1 July 2025
वंशावली सुरक्षित रखने की परंपरा -----
भगवान शिव की मानस-कन्या "नर्मदा" नदी .....
पवित्र नदियों के दो रूप होते हैं -- एक तो स्थूल जल रूप है और दूसरा सूक्ष्म दैवीय रूप है जिसकी अनुभूति ध्यान में सिद्धों को होती है| वैसे तो भारत की सभी नदियाँ पवित्र हैं पर नर्मदा का एक विशेष महत्व है .....
"नर्मदा सरितां श्रेष्ठा रुद्रतेजात् विनि:सृता |तार्येत् सर्वभूतानि स्थावरानि चरानी च ||"
समस्त नदियों में श्रेष्ठ नदी नर्मदा रूद्र के तेज से उत्पन्न हुई है और स्थावर, अस्थावर आदि सब किसी का परित्राण करती है|
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"सर्वसिद्धिमेवाप्नोति तस्या तट परिक्र्मात्" उसके तट की परिक्रमा से सर्व सिद्धियों की प्राप्ति होती है|
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नर्मदा नदी भगवान शिव जी की मानस कन्या है| नर्मदा जी के बारे में बंगाल के स्वामी लोकनाथ ब्रह्मचारी जी जो महातप:सिद्ध शिवदेहधारी महातपस्वी महात्मा थे ने अपने शिष्यों को बताया था कि वे एक बार नर्मदा परिक्रमा के समय एक विशिष्ट घाट पर बैठे थे कि एक काले रंग की गाय नदी में उतरी और जब वह नहा कर बाहर निकली तो उसका रंग गोरा हो गया| ध्यानस्थ होकर उन्होंने इसका रहस्य जानना चाहा तो उन्होंने देखा कि वह कृष्णा गाय और कोई नहीं स्वयं गंगा माता थीं| माँ गंगा भी नर्मदा में स्नान करने आती हैं|
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विद्युत् प्रभा के रंग जैसी, हाथ में त्रिशूल लिए नौ-दस वर्ष की कन्या के रूप में प्रकट होकर माँ नर्मदा ने अपने तट पर तपस्यारत महात्माओं की सदा रक्षा की है| इसी लिए पूरा नर्मदा तट एक तपोभूमि रहा है|
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अमरकंटक के शिखर पर भगवान शिव एक बार गहरे ध्यान में थे कि सहसा उनके नीले कंठ से एक कन्या का आविर्भाव हुआ जिसके दाहिने हाथ में कमंडल और बाएँ हाथ में जपमाला थी| वह कन्या उनके दाहिने पाँव पर खड़ी हुई और घोर तपस्या में लीन हो गयी| जब शिवजी का ध्यान भंग हुआ तो उन्होंने उस कन्या का ध्यान तुड़ाकर पूछा कि हे भद्रे तुम कौन हो? मैं तुम्हारी तपस्या से अत्यंत प्रसन्न हुआ हूँ| तब उस कन्या ने उत्तर दिया .... समुद्र मंथन के समय जो हलाहल निकला था और जिसका पान करने से आप नीलकंठ कहलाये, मेरा जन्म उसी नीलकंठ से हुआ है| मेरी आपसे विनती है कि मैं इसी प्रकार आपसे सदा जुडी रहूँ|
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भगवान शिव ने कहा .... तथास्तु ! पुत्री तुम मेरे तेज से जन्मी हो, इसलिए तुम न केवल मेरे संग सदा के लिए जुड़ी रहोगी बल्कि तुम महा मोक्षप्रदा नित्य सिद्धि प्रदायक रहोगी|
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वरदान देने के बाद भगवान शिव तुरंत अंतर्ध्यान हो गए और वह कन्या पुनश्चः तपस्या में लीन हो गयी| भगवान शिव पुन: कुछ समय पश्चात उस कन्या के समक्ष प्रकट हुए और कहा कि तुम मेरा जलस्वरूप बनोगी, मैं तुम्हे 'नर्मदा' नाम देता हूँ और तुम्हारे पुत्र के रूप में सदा तुम्हारी गोद में बिराजूँगा| हे महातेजस्वी कन्ये ! मैं अभी से तुम्हारी गोद में चिन्मयशक्ति संपन्न होकर शिवलिंग के रूप में बहना आरम्भ करूंगा|
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तभी से जल रूप में नर्मदा ने विन्ध्याचल और सतपूड़ा की पर्वतमालाओ के मध्य से पश्चिम दिशा की ओर बहना आरम्भ किया|
इस कथा को पढने और सुनने मात्र से ही सभी का कल्याण होता है|
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हर नर्मदे हर | ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||
कृपाशंकर
२६ मार्च २०१३
धर्म कभी नष्ट नहीं हो सकता ---
धर्म कभी नष्ट नहीं हो सकता। धर्म ही इस सृष्टि का संचालन कर रहा है। यह सृष्टि अंधकार और प्रकाश का खेल है। अंधकार के बिना भी यह सृष्टि नहीं चल सकती। अंधकार ही तमोगुण है। हमारे सारे दुःखों, कष्टों और पीड़ाओं का मुख्य कारण -- तमोगुण की प्रधानता है। हमें तमोगुण से रजोगुण, रजोगुण से सतोगुण, और सतोगुण से गुणातीत होने की साधना करनी ही पड़ेगी। साधना द्वारा वीतराग और स्थितप्रज्ञ भी होना होगा।
हमारी स्वयं की तपस्या/साधना/भक्ति ही हमारे काम आयेगी, दूसरों की नहीं ---
हमारी स्वयं की तपस्या/साधना/भक्ति ही हमारे काम आयेगी, दूसरों की नहीं ---
विश्व युद्ध किसे कहेंगे ?
विश्व युद्ध किसे कहेंगे ?
जितना जो भी किसी के समझ में आ गया है, वह परमात्मा को पाने के लिए पर्याप्त है ---
जितना जो भी किसी के समझ में आ गया है, वह परमात्मा को पाने के लिए पर्याप्त है। नियमित उपासना किसी भी परिस्थिति में नहीं छोड़नी चाहिए। नियमित उपासना नहीं करने से भगवान को पाने की अभीप्सा (अतृप्त प्यास और तड़प) और भक्ति (परमप्रेम) समाप्त हो जाती है।
अपने अनुभवों पर चर्चा भी गुरु-परंपरा के भीतर ही करनी चाहिए, बाहर नहीं ---
अनेक गूढ़ रहस्य हैं जो साधनाकाल में गुरुकृपा से स्वतः ही समझ में आते हैं| सार्वजनिक मंचों से उन पर चर्चा नहीं की जा सकती, करनी भी नहीं चाहिए| सर्वश्रेष्ठ तो यही है कि अपने इष्ट देव के प्रति समर्पित होकर उनका यथासंभव अधिकाधिक ध्यान करो| किसी को बताना भी नहीं चाहिए कि हमारे इष्ट देव कौन हैं| गुरु-परंपरा से जो भी साधना मिली है वह करते रहो| अपने अनुभवों पर चर्चा भी गुरु-परंपरा के भीतर ही करनी चाहिए, बाहर नहीं|