भगवान क्या खाते हैं ?? इसका उत्तर भगवान स्वयं देते हैं --
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"पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः॥९:२६॥"
अर्थात् - जो भक्त मुझे पत्र, पुष्प, फल, और जल आदि कुछ भी वस्तु भक्तिपूर्वक देता है, उस प्रयतात्मा, शुद्धबुद्धि भक्त के द्वारा भक्तिपूर्वक अर्पण किये हुए वे पत्र पुष्पादि मैं (स्वयं) खाता हूँ, अर्थात् ग्रहण करता हूँ।
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भक्तों को अपुनरावृत्तिरूप अनन्त फल मिलता है। भगवान बड़े भोले हैं, उन्हें हम प्रेम से जो भी अर्पण करते हैं, उसे ही वे खा लेते हैं। वास्तव में हम जो कुछ भी खाते हैं, वह सब भगवान ही खाते हैं, जिससे समस्त सृष्टि का भरण-पोषण होता है। भगवान स्वयं वेश्वानर के रूप में उसे ग्रहण कर जठराग्नि द्वारा चार प्रकार के अन्नों (भक्ष्य, भोज्य, लेह्य, चोष्य) को पचाते हैं --
"अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः।
प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम्॥१५:१४॥"
अर्थात् - "मैं ही समस्त प्राणियों के देह में स्थित वैश्वानर अग्निरूप होकर प्राण और अपान से युक्त चार प्रकार के अन्न को पचाता हूँ॥"
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हम जहाँ भोजन करते हैं, वहाँ का स्थान, वायुमण्डल, दृश्य तथा जिस आसन पर बैठकर भोजन करते हैं, वह आसन भी शुद्ध और पवित्र होना चाहिये। भोजन करते समय प्राण जब अन्न ग्रहण करते हैं, तब वे शरीर के आसपास के परमाणुओं को भी खींचते/ग्रहण करते हैं। हम भगवान को क्या खिलाते हैं, उसी के अनुसार मन बनेगा। भोजन बनाने वाले के भाव, विचार भी शुद्ध और सात्त्विक होने चाहियें।
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भोजन से पूर्व हाथ पैर मुख पवित्र जल से साफ कर के बैठिए। दायें हाथ में जल लेकर मानसिक रूप से गीता के इस मंत्र से आचमन करें ---
"ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना॥४:२४॥"
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आचमन के पश्चात पहले ग्रास के साथ मानसिक रूप से मंत्र "ॐ प्राणाय स्वाहा" अवश्य कहें। प्रत्येक ग्रास को चबाते समय मानसिक रूप से भगवन्नाम-जप करते रहना चाहिए। भोजन करते समय मानसिक रूप से भगवन्नाम-जप करते रहने से अन्नदोष दूर हो जाता है।
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यदि आप भगवती अन्नपूर्णा के भक्त है तो उपरोक्त सब विधियों के साथ साथ आरंभ में भगवती अन्नपूर्णा का मंत्र भी मानसिक रूप से पूर्ण भक्ति-भाव से अवश्य कहना चाहिए --
"अन्नपूर्णे सदापूर्णे शंकर प्राण वल्लभे।
ज्ञान वैराग्य सिध्यर्थं भिक्षां देहि च पार्वति॥"
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ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
३० जून २०२२
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टिप्पणी :--- "प्रयतात्मा" का अर्थ शब्दकोश के अनुसार - संयमी, जितेंद्रिय है।
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