Wednesday, 2 July 2025

अपना मन और बुद्धि -- दोनों ही परमात्मा को अर्पित किये बिना साधना में जरा सी भी प्रगति नहीं होती।

 अपना मन और बुद्धि -- दोनों ही परमात्मा को अर्पित किये बिना साधना में जरा सी भी प्रगति नहीं होती।

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श्रीमदभगवद्गीता के अक्षरब्रह्मयोग (अध्याय ८) में यह भगवान का स्पष्ट आदेश है, और मेरा निजी अनुभव भी। भगवान के इन वचनों का हम निरंतर स्मरण करें --
"अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः॥८:५॥"
"यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः॥८:६॥"
"तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्॥८:७॥"
"हे कौन्तेय ! (यह जीव) अन्तकाल में जिस किसी भी भाव को स्मरण करता हुआ शरीर को त्यागता है, वह सदैव उस भाव के चिन्तन के फलस्वरूप उसी भाव को ही प्राप्त होता है।।
अर्थात् - और जो कोई पुरुष अन्तकाल में मुझे ही स्मरण करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता है, वह मेरे स्वरूप को प्राप्त होता है, इसमें कुछ भी संशय नहीं॥
हे कौन्तेय ! (यह जीव) अन्तकाल में जिस किसी भी भाव को स्मरण करता हुआ शरीर को त्यागता है, वह सदैव उस भाव के चिन्तन के फलस्वरूप उसी भाव को ही प्राप्त होता है॥
इसलिए, तुम सब काल में मेरा निरन्तर स्मरण करो; और युद्ध करो मुझमें अर्पण किये मन, बुद्धि से युक्त हुए निःसन्देह तुम मुझे ही प्राप्त होओगे॥
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यहाँ सातवें श्लोक में "च" शब्द बहुत अधिक महत्वपूर्ण है। इसका शाब्दिक अर्थ तो "और" है। जीवन भर भगवान का स्मरण करते हुये हम अपने कर्तव्यों का निर्वाह करेंगे तब जाकर हम अपने मन और बुद्धि का भगवान में समर्पण कर सकेंगे। यह इतना सरल नहीं हैं, जितना हम सोचते हैं। युद्ध का अर्थ सारे सांसारिक दायित्व भी हैं।
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व्यावहारिक रूप से खेचरी या अर्धखेचरी मुद्रा लगाकर मूर्धा में अक्षरब्रह्म परमात्मा का निरंतर मानसिक जप करें। खेचरी मुद्रा तो युवावस्था में ही सिद्ध हो सकती है, लेकिन अर्धखेचरी वृद्ध भी सिद्ध कर सकते हैं। अपनी जीभ को ऊपर की ओर मोड़ कर जितना पीछे ले जा सकते हैं उतनी पीछे ले जाकर तालु से सटाकर रखें, और मूर्धा में अक्षरब्रह्म परमात्मा का निरंतर मानसिक जप करते रहें। ऊपर के दांतों से ऊपर के खोपड़ी के भाग को मूर्धा कहते हैं। इस विषय पर और नहीं लिखूंगा अन्यथा इस विषय का अत्यधिक विस्तार हो जाएगा। किसी भी तरह की कोई कामना न करें। बुद्धि बहुत सारे सुझाव देगी, उन सब को श्रीकृष्ण समर्पण कर दें। श्रीकृष्ण में समर्पण का भाव ही मुख्य है, और कुछ भी नहीं। हमारे हृदय में (विचारों में) पवित्रता होगी तो भगवान स्वयं सारी बात समझा देंगे। भगवान वहीं आते हैं जहां विचारों में पवित्रता होती है। मन में जहां कुटिलता होती है, वहाँ भगवान नहीं आते। हरिः ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३ जुलाई २०२५

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