जिसे हम खोज रहे हैं, वह तो हम स्वयं हैं। भगवान से पृथकता ही हमारे सब दु:खों का कारण है। अन्य कोई कारण नहीं है। उन से जुड़ाव ही आनंद है, बाकि सब एक मृगमरीचिका है, जिसकी परिणिति मृत्यु है। भगवान को अपने भीतर प्रवाहित होने दो, फिर उस प्रवाह में सब कुछ समर्पित कर दो। कहीं पर भी कोई अवरोध नहीं होना चाहिए। दिन का प्रकाश, रात्रि का अन्धकार, प्रकृति का सौंदर्य, फूलों की महक, पक्षियों की चहचहाहट, सूर्योदय और सूर्यास्त, प्रकृति की सौम्यता और विकरालता, यह सारा विस्तार और उस से परे जो कुछ भी है, सर्वव्यापकता, सर्वशक्तिमत्ता, सर्वज्ञता, सारे विचार, सारे दृश्य और सम्पूर्ण अस्तित्व मैं हूँ। मुझ से परे अन्य कुछ भी नहीं है। मैं यह देह नहीं, परमशिव हूँ।
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आनंदस्वरूप तो हम स्वयं हैं, सुख की खोज स्वयं की खोज है, बाहर की खोज एक पराधीनता है; पराधीन व्यक्ति कभी सुखी नहीं हो सकत।
“Knock, And He'll open the door
Vanish, And He'll make you shine like the sun
Fall, And He'll raise you to the heavens
Become nothing, And He'll turn you into everything.” (Rumi)
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इस सृष्टि में जिसे मैं ढूँढ़ रहा हूँ, वह तो मैं स्वयं ही हूँ। सारी दुनिया भाग रही है, लेकिन मैं उसके साथ नहीं भाग सकता, कयोंकि यह एक अंतहीन दौड़ है। इस सारी भागदौड़ का एक ही उद्देष्य है --सुख की प्राप्ति। सुख की खोज के लिए मुनष्य दिन रात एक करता है, खून पसीना बहाता है, और आकाश-पाताल एक करता है। सुख की खोज के लिए ही व्यक्ति धर्म-अधर्म से धन-सम्पत्ति एकत्र करता है, दूसरों का शोषण करता है, और पूरा जीवन खर्च कर देता है। पर क्या वास्तव में उसे सुख मिलता है? मनुष्य जो भी मौज-मस्ती करता है, वह करता है सुख के लिए| सुखी होना चाहता है आनंद के लिए। पर क्या वह कभी आनंद को पा सकता है? मेरा तो अनुभव तो यही है कि आनंद न तो बाहर है और न भीतर है। जिस सुख और आनंद को हम बाहर और भीतर ढूंढ रहे हैं, वह आनंदस्वरूप तो हम स्वयं हैं। सुख की खोज स्वयं की खोज है। बाहर और भीतर की खोज एक गुलामी यानी पराधीनता है। पराधीन व्यक्ति कभी सुखी नहीं हो सकता।
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एक आदमी ने एक बैल को रस्सी से बाँध रखा है और सोचता है की बैल उसका गुलाम है। पर जितना बैल उसका गुलाम है उतना ही वह भी बैल का भी गुलाम है। हम स्वयं आनंदस्वरूप हैं, हम सच्चिदानंद स्वरुप हैं। उस आत्म तत्व को खोजिये जिसकी कभी कभी एक झलक मिल जाती है। उस झलक मात्र में जो आनंद है, पता नहीं उसको पा लेने के बाद तो जीवन में आनंद के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं बचेगा। उस आत्म-तत्व के अलावा सब कुछ दु:ख और भटकाव ही है।
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१० अक्तूबर २०२१
कई बार अनुभूत होता है कि जन्म, मृत्यु और पृथकता का बोध एक दुःस्वप्न है| कुछ भी हमारे से पृथक नहीं है| परमात्मा की पूर्णता और अनंतता ही हमारा अस्तित्व है| हम यह देह नहीं, अपितु सर्वव्यापी परम चैतन्य हैं|
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