Tuesday, 31 August 2021

भक्ति और आस्था के संगम --

 

भक्ति और आस्था के संगम --
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(१) राजस्थान के झुंझुनूं जिले के लोहार्गल तीर्थक्षेत्र में प्रति वर्ष गोगा-नवमी से भाद्रपद अमावस्या तक अरावली पर्वत माला की हरी-भरी उपत्यकाओं में वैष्णव खाकी अखाड़े के साधू-संतों के नेतृत्व में ठाकुर जी की पालकी के साथ-साथ निकलने वाली मालकेतु पर्वत (ढाई हजार फीट ऊँचा) की ७ दिवसीय, २४ कोसीय परिक्रमा पिछले वर्ष की भाँति इस वर्ष भी कोरोना महामारी के कारण नहीं निकल रही है।
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मालकेतु पर्वत को साक्षात विष्णु का रूप माना जाता है। इस पर्वत के चारों ओर परिक्रमा पथ पर ७ स्थानों से जलधाराएँ निकलती हैं, जिन के दर्शन, और उन के विशाल कुंडों में स्नान लाखों श्रद्धालु भक्त करते हैं। भगवान विष्णु को इस पर्वत के रूप में पूजा जाता है। परिक्रमा में आगे आगे वैष्णव साधु पालकी में ठाकुर जी को लेकर चलते हैं, और पीछे पीछे भजन-कीर्तन करते हुए उनके लाखों भक्त चलते हैं। यह पूरे राजस्थान में होने वाली सबसे बड़ी परिक्रमा है। इस यात्रा में धरती बिछौना होता है और आसमान छत होती है। भाद्रपद अमावस्या के दिन लोहार्गल में बहुत अधिक श्रद्धालु एकत्र हो जाते हैं, जो सूर्यकुंड में स्नान कर अपने अपने घरों को बापस चले जाते हैं। महाभारत युद्ध के पश्चात् इसी दिन पांडवों ने जब यहाँ सूर्यकुंड में स्नान किया तो भीम की लोहे की गदा गल गयी थी, जिससे इस तीर्थ का नाम लोहार्गल पड़ा। अरावली पर्वत माला की घाटियों में यह यात्रा अति मनोरम होती है। अनेक स्वयंसेवी संस्थाएँ पदयात्रियों की हर सुविधा का ध्यान रखती हैं। वर्षा ऋतु में इस क्षेत्र की अरावली के पहाड़ हरे-भरे हो जाते हैं, लेकिन मार्ग पथरीला और कंटकाकीर्ण रहता है। मालकेत बाबा का मंदिर पहाड़ की थोड़ी ही ऊंचाई पर लोहार्गल तीर्थ में स्थित है।
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(२) भाद्रपद अमावस्या पर झुंझुनूं के विश्व प्रसिद्ध श्रीराणीसती जी मन्दिर सहित जिले के सभी सती मंदिरों की वार्षिक पूजा होती है, जो पिछले वर्ष की भाँति इस वर्ष भी स्थगित है। इन पूजाओं में पूरे विश्व से लाखों श्रद्धालु आते हैं।
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(३) राजस्थान के भादरा तहसील के अंतर्गत आने वाले गांव गोगामेड़ी में रक्षाबंधन के दिन से ही पूरे एक माह तक आयोजित होने वाला मेला भी पिछले वर्ष की भाँति इस वर्ष भी स्थगित है। गोगा-नवमी के दिन तो यह चरम पर होता है। इस मेले में भी लाखों की संख्या में श्रद्धालु आते हैं।
उपरोक्त तीनों मेले भक्ति और आस्था के संगम होते हैं।
 
३१ अगस्त २०२१

Saturday, 28 August 2021

कर्म प्रधान विश्व रचि राखा, जो जस करहि सो तस फल चाखा ---

 

मेरा लिखना छूट जाये, उस से पूर्व मैं तीन महत्वपूर्ण बातें और लिखना चाहता हूँ, जिसके पश्चात मेरे द्वारा लिखने को अन्य कुछ भी नहीं है। मैं जो कुछ भी लिख रहा हूँ, वह अपनी स्वयं की अनुभूतियों से लिख रहा हूँ, अतः उसकी न तो कहीं कोई कड़ी (Link) है, न कोई स्त्रोत (Source), और न कोई संदर्भ (Reference)। एकमात्र स्त्रोत, संदर्भ और कड़ी - मेरी निजात्मा है।
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कल मैंने लिखा था कि हमारा पुनर्जन्म भगवान की इच्छा से नहीं, हमारी स्वयं की इच्छा से होता है। हमारे मन में छिपी कामनाएँ ही हमारे पूनर्जन्म का कारण हैं, न कि भगवान की इच्छा। यह शत-प्रतिशत सत्य है। आत्मा की शाश्वतता, कर्मफलों की प्राप्ति, और पुनर्जन्म -- ये तीनों ही शाश्वत सत्य हैं -- जिन पर हमारा सनातन धर्म आधारित है। चूंकि हमारा सनातन धर्म -- सत्य पर आधारित है, इसीलिए वह कभी नष्ट नहीं हो सकता। संसार मे यदि सभी हिंदुओं की हत्या कर भी दी जाये तो भी सनातन धर्म नष्ट नहीं हो सकता, क्योंकि जिन अपरिवर्तनीय सत्य शाश्वत सिद्धांतों पर यह खड़ा है उनको फिर कोई मनीषी अनावृत कर देगा। संसार में यदि कहीं कोई सुख-शांति है तो वह इन मूलभूत सत्य सिद्धांतों के कारण ही है। जहाँ पर इन सत्य सिद्धांतों की मान्यता नहीं है, वहाँ अशांति ही अशांति है। राग-द्वेष व अहंकार से मुक्ति -- वीतरागता कहलाती है। यह वीतरागता और सत्यनिष्ठा ही मोक्ष का हेतु है। एकमात्र सत्य -- भगवान हैं। भगवान से परमप्रेम और समर्पण -- सत्यनिष्ठा कहलाते है।
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सत्य की खोज -- मनुष्य की एक शाश्वत जिज्ञासा है, वह शाश्वत जिज्ञासा ही इन सत्य सनातन सिद्धांतों को पुनः अनावृत कर देगी। भौतिक देह की मृत्यु के समय जैसे विचार हमारे अवचेतन मन में होते हैं, वैसा ही हमारा पुनर्जन्म होता है। हमारे पुनर्जन्म का कारण हमारे अवचेतन में छिपी हुई सुप्त कामनाएँ हैं, न कि भगवान की इच्छा।
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हम अपनी भक्ति के कारण ही कहते हैं कि यह सृष्टि भगवान की है, अन्य कोई कारण नहीं है। हम भगवान के अंश हैं अतः भगवान ने हमें भी अपनी सृष्टि रचित करने की छूट दी है। भगवान की सृष्टि में कोई कमी नहीं है। कमी यदि कहीं है तो वह अपनी स्वयं की सृष्टि में है। ये चाँद-तारे, ग्रह-नक्षत्र, और प्रकृति -- भगवान की सृष्टि है, और हमारे चारों ओर का घटनाक्रम -- हमारी स्वयं की सृष्टि है, भगवान की नहीं।
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(१) हमारे सामूहिक विचार ही घनीभूत होकर हमारे चारों ओर सृष्ट हो रहे हैं। जिन व्यक्तियों की चेतना जितनी अधिक उन्नत है, उनके विचार उतने ही अधिक प्रभावी होते हैं। अतः हमारे चारों ओर की सृष्टि -- हमारी स्वयं की सृष्टि है, भगवान की नहीं।
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(२) हम जो कुछ भी हैं, वह अपने स्वयं के ही अनेक पूर्व जन्मों के विचारों और भावों के कारण हैं, न कि भगवान की इच्छा से। हमारे विचार और भाव ही हमारे कर्म हैं, जिनका फल निश्चित रूप से मिलता है। इन कर्मफलों से हम मुक्त भी हो सकते हैं, जिसकी एकमात्र विधि गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने बताई है। अन्य कोई विधि नहीं है।
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(३) प्रकृति के नियमों के अनसार कुछ भी निःशुल्क नहीं है। हर चीज की कीमत चुकानी पड़ती है। बिना कीमत चुकाये मुफ्त में कुछ भी नहीं मिलता। कुछ भी प्राप्त करने के लिए निष्ठा पूर्वक परिश्रम करना पड़ता है। हमारी निष्ठा और परिश्रम ही वह कीमत है। भगवान को प्राप्त करने के लिए भी भक्ति, समर्पण, श्रद्धा-विश्वास, लगन, और निष्ठा रूपी कीमत चुकानी होती है। मुफ्त में भगवान भी नहीं मिलते।
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कभी मैं भिखारियों की भीड़ देखता हूँ तो उनमें मुझे कई तो पूर्व जन्मों के बड़े-बड़े हाकिम (प्रशासक) दिखाई देते हैं, जिनसे कभी दुनियाँ डरती थी। उनकी मांगने की आदत नहीं गई तो भगवान ने इस जन्म में उनकी नियुक्ति (duty) यहाँ लगा दी। जो जितने बड़े घूसखोर, कामचोर, ठग, छल-कपट करने वाले, दूसरों का अधिकार छीनने वाले, और पाप-कर्म में रत रहने वाले अत्याचारी हैं -- उन को ब्याज सहित सब कुछ बापस चुकाना पड़ेगा। प्रकृति उन्हें कभी क्षमा नहीं करेगी। नर्क की भयानक यातनाओं के रूप में उनसे उनके पापकर्म की कीमत बसूली जाएगी।
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आप सब के हृदय में प्रतिष्ठित परमात्मा को मैं नमन करता हूँ। वे ही मेरे प्राण और अस्तित्व हैं। ॐ स्वस्ति !! ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२८ अगस्त २०२१
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पुनश्च :--- "कर्म प्रधान विश्व रचि राखा, जो जस करहि सो तस फल चाखा।"
इसमें ईश्वर मात्र दृष्टा हैं। करुणानिधान होने के कारण मनुष्य को सही मार्ग दिखाने का प्रयास करते हैं लेकिन हस्तक्षेप नहीं करते। कर्मफल में उनकी कोई भूमिका नहीं होती है।

हमारा पुनर्जन्म भगवान की इच्छा से नहीं, हमारी स्वयं की इच्छा से होता है ---

 

हमारा पुनर्जन्म भगवान की इच्छा से नहीं, हमारी स्वयं की इच्छा से होता है ---
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हम पहले से ही नित्यमुक्त और मोक्ष को प्राप्त हैं। यह हमारा अंतिम जन्म है, लेकिन इसे हम नहीं जानते। इसे हम जान सकते हैं, यदि उपासना द्वारा यह समझ लें --
"बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः॥७:१९॥" (गीता)
अर्थात् "बहुत जन्मों के अन्त में (किसी एक जन्म विशेष में) ज्ञान को प्राप्त होकर कि 'यह सब वासुदेव है' ज्ञानी भक्त मुझे प्राप्त होता है; ऐसा महात्मा अति दुर्लभ है॥"
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भगवान की ओर से तो यह अंतिम जन्म है, लेकिन हम अनेक कामनाओं को पाल कर कर्मानुसार पुनर्जन्म को बाध्य हो जाते हैं। भगवान की कृपा कोई साधारण नहीं होती। भगवान ने हमें निष्काम होने का उपदेश देकर मुक्ति का अवसर दिया, लेकिन हम उसका लाभ नहीं उठा पाते। गीता का स्वाध्याय करें, सब समझ में आ जायेगा। ॐ तत्सत् !!
२७ अगस्त २०२१
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पुनश्च: --- हमारे हृदय की बात वे ही समझ सकते हैं, क्योंकि उनका निवास हमारे हृदय में है। हमारा हृदय सर्वत्र और सर्वव्यापी है जिसका केंद्र सर्वत्र है, लेकिन परिधि कहीं भी नहीं।

साधना ---

 

साधना ---
शिवनेत्र होकर यानि दोनों आँखों की पुतलियों को भ्रूमध्य के समीप लाकर, भ्रूमध्य में प्रणव यानि ॐकार से लिपटी हुई दिव्य ज्योतिर्मय सर्वव्यापी आत्मा का चिंतन करते-करते, एक दिन ध्यान में विद्युत् आभा सदृश्य देदीप्यमान ब्रह्मज्योति प्रकट होती है। यह ब्रहमज्योति -- इस सृष्टि का बीज, और परमात्मा का द्वार है। इसे 'कूटस्थ' कहते हैं। इस अविनाशी ब्रह्मज्योति और उसके साथ सुनाई देने वाले प्रणवनाद में लय रहना 'कूटस्थ चैतन्य' है। यह सर्वव्यापी, निरंतर गतिशील, ज्योति और नाद - 'कूटस्थ ब्रह्म' हैं।
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इस की स्थिति भी परिवर्तनशील ऊर्ध्वगामी है। कूटस्थ चैतन्य में प्रयासपूर्वक निरंतर स्थिति 'योग-साधना' है। शनैः शनैः बड़ी शान से एक राजकुमारी की भाँति भगवती कुंडलिनी महाशक्ति जागृत होती है जो स्वयं जागृत होकर हमें भी जगाती है। साधना करते करते सुषुम्ना की ब्रह्मनाड़ी में स्थित सभी चक्रों को भेदते हुये, सभी अनंत आकाशों से परे 'परमशिव' में इसका विलीन होना परमसिद्धि है। यही योगसाधना का लक्ष्य है। फिर हम परमशिव के साथ एक होकर स्वयं परमशिव हो जाते हैं। कहीं कोई भेद नहीं रहता।
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परमात्मा की कृपा ही हमें पार लगाती है। परमात्मा अपरिछिन्न हैं। परिछिन्नता का बोध हमें चंचल मन के कारण होता है। मन के शांत होने पर अपरिछिन्नता का पता चलता है। कूटस्थ में ध्यान -श्रीगुरु चरणों का ध्यान है। कूटस्थ में स्थिति - श्रीगुरु चरणों में आश्रय है। कूटस्थ ही पारब्रह्म परमात्मा है। कूटस्थ ज्योति - साक्षात सद्गुरु है। कूटस्थ प्रणव-नाद -- गुरु-वाक्य है। शिव शिव शिव शिव शिव॥
ॐ तत्सत् !! गुरु ॐ !! जय गुरु !!
कृपा शंकर
२७ अगस्त २०२१

समय बड़ा बलवान होता है ---

 

"तुलसी नर का क्या बड़ा, समय बड़ा बलवान | 
भीलां लूटी गोपियाँ, वही अर्जुन वही बाण ||"
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महाभारत के युद्ध में अर्जुन के प्रहार से कर्ण का रथ झटका खाकर बहुत पीछे चला जाता था, पर कर्ण के प्रहार से अर्जुन का रथ झटका खाकर वहीं स्थिर रहता था| अर्जुन को कुछ अभिमान हो गया जिसे दूर करने के लिए भगवान ने ध्वज पर बैठे हनुमान जी को संकेत किया जिससे वे वहाँ से चले गए| अब की बार कर्ण ने प्रहार किया तो अर्जुन का रथ युद्धभूमि से ही बाहर हो गया|
युद्ध की समाप्ति के पश्चात भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को रथ से नीचे उतरने का आदेश दिया और तत्पश्चात वे स्वयं उतरे| उनके उतरते ही रथ जलकर भस्म हो गया| भगवान ने कहा कि इस रथ पर इतने दिव्यास्त्रों का प्रहार हुआ था जिनसे इस रथ को बहुत पहिले ही जल जाना चाहिए था, पर यह मेरे योगबल से ही चलता रहा|
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द्वारका डूबने के पश्चात अर्जुन वहाँ की स्त्रियों को बापस सुरक्षित इंद्रप्रस्थ ला रहे थे| रास्ते में वर्तमान राजस्थान में अजमेर के पास जहाँ भीलवाड़ा नगर है, उस स्थान पर भीलों ने अर्जुन को लूट लिया| अर्जुन का न तो गाँडीव धनुष काम आया और न ही उसके दिव्य बाण| उनको चलाने के सारे मंत्र अर्जुन की स्मृति में ही नहीं आए क्योंकि भगवान श्रीकृष्ण इस धरा को छोड़कर अपने दिव्य धाम चले गए थे| वे अर्जुन के साथ नहीं थे|
"तुलसी नर का क्या बड़ा, समय बड़ा बलवान| भीलां लूटी गोपियाँ, वही अर्जुन वही बाण||"
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हमारे इस देह रूपी रथ के सारथी ही नहीं, रथी भी स्वयं पार्थसारथी भगवान श्रीकृष्ण ही हैं| कठोपनिषद में जीवात्मा को रथी, शरीर को उसका रथ, बुद्धि को सारथी, और मन को लगाम बताया गया है --
"आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु|
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च||"
"इंद्रियाणि हयानाहुर्विषयांस्तेषु गोचरान्|
आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः||"
(कठोपनिषद्, अध्याय १, वल्ली ३, मंत्र ३ व ४)
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इस बुद्धि रूपी सारथी की पीठ हमारी ओर व मुँह दूसरी ओर होता है| हम उसके चेहरे के भावों को नहीं देख सकते| यह बुद्धि रूपी सारथी कुबुद्धि भी हो सकता है| अतः पार्थसारथी वासुदेव भगवान श्रीकृष्ण को ही अपना रथी बना कर उन्हीं को पूरी तरह समर्पित हो जाना ही श्रेयस्कर है|
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गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं .....
"ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति|
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया||१८:६१||
अर्थात, हे अर्जुन, (मानों किसी) यन्त्र पर आरूढ़ समस्त भूतों को ईश्वर अपनी माया से घुमाता हुआ (भ्रामयन्) भूतमात्र के हृदय में स्थित रहता है||
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रामचरितमानस में भी कहा गया है .....
"उमा दारु जोषित की नाईं, सबहि नचावत रामु गोसाईं |"
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अर्जुन का अर्थ है जो शुक्ल, स्वच्छ, शुद्ध, और पवित्र अन्तःकरण से युक्त हो| भगवान श्रीकृष्ण, अर्जुन से संवाद करते हैं क्योंकि अर्जुन का अंतःकरण पूरी तरह पवित्र है| हमारा अन्तःकरण भी जब पवित्र होगा तब भगवान हमसे भी संवाद करेंगे| जब भी कर्तापन का अभिमान आता है, बुद्धि काम करना बंद कर देती है|
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आप सब महान आत्माओं को नमन !
ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२६ अगस्त २०२०

मेरी हर साँस परमात्मा की साँस है ---

 

मेरी हर साँस परमात्मा की साँस है। मेरे माध्यम से पूरा ब्रह्मांड, समस्त सृष्टि, और स्वयं परमात्मा साँसें ले रहे हैं। मेरा अस्तित्व सम्पूर्ण सृष्टि का, और स्वयं परमात्मा का अस्तित्व है। जिनके संकल्प मात्र से इस समस्त सृष्टि की रचना हुई है, मैं उन परमशिव के साथ एक हूँ।
"ॐ नमः शम्भवाय च, मयोभवाय च, नमः शंकराय च, मयस्कराय च, नमः शिवाय च, शिवतराय च॥"
ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवांसस्तनूभि र्व्यशेम देवहितं यदायुः
स्वस्ति न इन्द्रो वॄद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥
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भगवान की भक्ति वीरों का काम है। जो वीर नहीं, उससे भक्ति नहीं हो सकती, क्योंकि वह प्रेम से नहीं, डर से बंधा है। श्रुति भगवती तो कहती है --
"अहं इन्द्रो न पराजिग्ये" अर्थात मैं इंद्र हूँ, मेरा पराभव नहीं हो सकता।
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श्रुति भगवती के अनुसार बलहीन व प्रमादी को भगवान की प्राप्ति नहीं हो सकती --
"नायमात्मा बलहीनेन लभ्यो न च प्रमादात्‌ तपसो वाप्यलिङ्गात्‌।"
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शौनक ऋषि ने महर्षि अंगिरस से जाकर पूछा कि वह कौन है, जिसके जान लेने पर सब कुछ जान लिया जाता है? महर्षि अंगिरस ने शौनक को 'परा-अपरा' विद्या के बारे में बताया जिन्हें जानने के पश्चात किसी अन्य को जानने की आवश्यकता नहीं रहती है।
अपरा - यौगिक साधना है, और परा - अध्यात्मिक ज्ञान है।
 
ब्रह्म यानि परमात्मा) निरंतर ब्रह्ममय आचरण को ब्रह्मचर्य कहते हैं। जिसका आचरण और चेतना निरंतर ब्रह्ममय है, वही ब्रह्मचारी है। ब्रह्मचर्य का व्रत देवताओं को भी दुर्लभ है। जो ब्रह्मचर्य का पालन नहीं कर सकते, उन्हें अपने अगले जन्मों में इसका अवसर मिलेगा।
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जो साधक परमात्मा को प्राप्त होना चाहते हैं, उन्हें अपने विचारों और आचरण को शुद्ध रखना और नियमित गहन ध्यान-साधना करना आवश्यक है| लिखते लिखते बात जब - आत्मतत्व, आत्मज्ञान, वेदान्त, पारब्रह्म व परमशिव तक आ पहुँची है, तो अब लिखने को बचा ही क्या है? अब तो सिर्फ मौन ही मौन, एकांत ही एकांत, और ध्यान ही ध्यान-साधना बची है; अन्य कुछ भी नहीं।
जब लक्ष्य ही आत्मानुसंधान है तब सब कुछ हरिःइच्छानुसार ही होगा।
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सारी अभीप्साएँ तृप्त हों, सारे भटकाव समाप्त हों, सारी अपेक्षाओं व कामनाओं का अंत हो।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२२ अगस्त २०२१
 


परमात्मा से विरह में भी एक आनंद है ---

 

परमात्मा से विरह में भी एक आनंद है ---
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परमात्मा से विरह में भी एक काल्पनिक आनंद है| विरह में मिलने की प्रसन्नता छिपी हुई है, और मिलने में बिछुड़ने का भय है| वास्तव में यह मिलना और बिछुड़ना एक भ्रम मात्र है| जिस से हम मिलना चाहते हैं, वह तो हम स्वयं हैं| बिछुड़ने का भय भी आधारहीन है, क्योंकि हमारे सिवाय अन्य कोई तो है ही नहीं| हम स्वयं ही यह पूरी समष्टि हैं, हमारे से अन्य कोई नहीं है| भौतिक जगत में जो कुछ भी हमें दिखाई दे रहा है वह अनेक ऊर्जाखंडों का विभिन्न आवृतियों पर स्पंदन मात्र है| हर दृश्य के पीछे एक ऊर्जा (Energy), आवृति (Frequency), और स्पंदन (Vibration) है| इन सब के पीछे एक चेतना है, जिसके पीछे एक विचार है| वह विचार जिनका है, वे ही परमात्मा हैं, जो जानने योग्य हैं| उन परमात्मा से हम पृथक नहीं, उनके साथ एक हैं|
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इस माया-जगत में हम जो भी हैं, अपने अतीत के विचारों से हैं, भविष्य में भी हम वही होंगे जैसे वर्तमान में हमारे विचार हैं| विचारों के प्रति सजग रहें| आत्म-प्रशंसा एक बहुत बड़ा अवगुण है| कभी भूल से भी आत्म-प्रशंसा न करें| हम सब के भीतर एक आध्यात्मिक चुम्बकत्व होता है, जो बिना कुछ कहे ही हमारी महिमा का स्वतः ही बखान कर देता है| उस चुंबक को ही बोलने दें| ध्यान-साधना और भक्ति से उस आध्यात्मिक चुम्बकत्व का विकास करें|
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हृदय की अभीप्सा (कभी न बुझने वाली प्यास), तड़प और परमप्रेम कभी कम न हों, निरंतर बढ़ते ही रहें| हर सोच-विचार और क्रिया में परमात्मा का बोध, अपना स्वभाविक आनंद होना चाहिए| वे ही हमारी साँसे व हृदय की हर एक धड़कन हैं| उनकी चेतना में हम जहाँ भी होंगे, वहाँ एक दिव्यता और आनंद का प्रकाश फैल जाएगा|
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भगवान कहीं दूर नहीं, निरंतर हमारे कूटस्थ में हैं| अपनी साँसों से हमारे मेरुदंडस्थ सप्तचक्रों की बांसुरी में सप्तसुरों की तान बजा रहें हैं| हमारे भीतर वे ही साँस ले रहे हैं| उनकी साँस से ही हमारी साँस चल रही है| उनके सप्त स्वरों से मिल कर प्रणव ध्वनि यानि अनाहत नाद, ध्यान में हमें निरतर सुनाई दे रही है| ज्योतिर्मय ब्रह्म के रूप में वे ही हमारी दृष्टी में निरतर बने हुए हैं| उनका जन्म हमारे चित्त में निरंतर हो रहा है| उनकी चेतना से हमारा चित्त आनंदमय है|
हे प्रभु, यह मैं नहीं, तुम ही हो, और जो तुम हो, वह ही मैं हूँ|
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ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२८ अगस्त २०२०

Wednesday, 25 August 2021

भगवान की भक्ति कैसे करते हैं? क्या भक्ति भी कोई करने की चीज है? ---

 

भगवान की भक्ति कैसे करते हैं? क्या भक्ति भी कोई करने की चीज है? ---
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जहाँ तक मेरी समझ है, भक्ति कोई करने की चीज नहीं है। यह अपने प्रेम की ही एक गहनतम स्वभाविक अनुभूति और आंतरिक अभिव्यक्ति है। ध्यान-साधना में हम इस प्रेम को अनुभूत करते हुए उसका विस्तार सम्पूर्ण समष्टि में करते हैं। सर्वप्रथम हमें अपने प्रेम की अनुभूति होती है जिसमें हमें आनंद मिलता है। वह आनंद परमात्मा ही है। फिर प्राण और आकाश तत्वों की अनुभूतियाँ -- साधना में प्रगति के लक्षण हैं। ये भी परमात्मा के ही रूप हैं। प्राण-तत्व के हम साक्षी बनते हैं। यह प्राण-तत्व -- परमात्मा का मातृ-रूप है, जिसे हम पराशक्ति कहते हैं। आकाश-तत्व -- शिव है, जिस में हम स्वयं को विस्तृत और स्थिर करते हैं। उस से भी परे जो है, वह परमशिव है, जिसमें समर्पण कर उस से एकाकार होना ही हमारी साधना का परम लक्ष्य है।
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साकार और निराकार -- इन शब्दों से भ्रमित न हों, साकार और निराकार -- दोनों ही परमात्मा के रूप हैं। भगवान साकार भी हैं, और निराकार भी। वास्तव में निराकार तो कुछ भी नहीं है। सब कुछ साकार है। एक अत्यंत गोपनीय रहस्य की बात बता रहा हूँ। चाहे मैं कितनी भी बड़ी-बड़ी बातें करूँ, लेकिन मुझे प्रेम, आनंद और उनसे भी परे की परम अनुभूतियाँ -- भगवान श्रीकृष्ण के साकार रूप से ही मिलती हैं। मुझे निमित्त-मात्र, एक दृष्टा या साक्षी बनाकर सारी साधना वे स्वयं ही करते हैं। त्रिभंग-मुद्रा या पद्मासन में वे कूटस्थ-चैतन्य में सदा समक्ष रहते हैं। वे स्वयं ही स्वयं को देखते रहते हैं, कर्ता और भोक्ता वे ही हैं। वे ही प्राण हैं, वे ही आकाश (चिदाकाश, दहराकाश, महाकाश, पराकाश) हैं, वे ही अग्नि हैं, वे ही परम-पुरुष वासुदेव हैं, वे ही विष्णु हैं, वे ही परमशिव हैं, और वे ही आनन्द व सर्वस्व हैं।
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भगवान श्रीकृष्ण परम तत्व हैं। उनकी प्रशंसा या महिमा का बखान करने की मुझमें कोई योग्यता नहीं है। मेरी योग्यता वे ही हैं। इससे अधिक कुछ कहने की मुझमें सामर्थ्य नहीं है। आचार्य मधुसुदन सरस्वती ने उनकी स्तुति इन शब्दों में की है --
"वंशीविभूषितकरान्नवनीरदाभात् | पीताम्बरादरुणबिम्बफलाधरोष्ठात् ||
पूर्णेन्दुसुन्दरमुखादरविन्दनेत्रात् | कृष्णात्परं किमपि तत्त्वमहं न जाने ||"
अर्थात् - जिनके करकमल वंशी से विभूषित हैं, जिनकी नवीन मेघ की सी आभा है, जिनके पीत वस्त्र हैं, अरुण बिम्बफल के समान अधरोष्ठ हैं, पूर्ण चन्द्र के सदृश्य सुन्दर मुख और कमल के से नयन हैं, ऐसे भगवान श्रीकृष्ण को छोड़कर अन्य किसी भी तत्व को मैं नहीं जानता॥
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वे हमारे हृदय में, हमारी चेतना में निरंतर रहें। ॐ तत्सत्॥ ॐ ॐ ॐ॥
कृपा शंकर
२५ अगस्त २०२१

बिना अन्न-जल सेवन किए पिछले ३५-४० वर्षों से जीवित साध्वी से भेंट ...

 

बिना अन्न-जल सेवन किए पिछले ३५-४० वर्षों से जीवित साध्वी से भेंट ...
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आज साध्वी रामबन्नासा जी से भेंट हुई जो पिछले ३५-४० वर्षों से बिना कुछ खाये-पीये सक्रिय रूप से स्वस्थ हैं| उनके शरीर को पोषण प्रकृति से प्रत्यक्ष मिल जाता है| उनका आहार सिर्फ वायु है| उनकी देह को अन्न-जल की आवश्यकता नहीं है| वर्षों पहिले दो बार उनसे मिलने उनके गाँव 'छावछरी' (जिला झुंझुनूं, राजस्थान) गया था| पर दोनों बार वे समाधि में थीं, अतः मिलना नहीं हो सका| फिर कभी मिलने की इच्छा ही नहीं हुई| आज मध्याह्न में एक मित्र मुझे उनसे मिलाने अपनी कार में ले गए| वे हमारे नगर में ही पधारी हुई थीं| एक मिनट के औपचारिक परिचय में ही उनकी आध्यात्मिक स्थिति को समझने में देर नहीं लगी| मुझे कोई बात तो करनी नहीं थी, सिर्फ दर्शन ही करने थे, अतः किसी भी तरह की कोई बात नहीं की| उनके दर्शन से ही संतुष्टि मिल गई| मैं उनके साथ एक घंटे तक था| यह मेरा सौभाग्य था कि आज एक तपस्वी साध्वी के दर्शन हुए|
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वर्षों पहिले बीकानेर में भी एक अन्य साध्वी के दर्शन हुए थे जो लगभग ४० वर्षों से बिना अन्न-जल सेवन किए जीवित थी| उनकी देह को भी अन्न-जल की आवश्यकता नहीं पड़ती थी| उन्हें सारी आवश्यक ऊर्जा प्रत्यक्ष प्रकृति से ही मिल जाती थी| वे किसी दूसरे जिले से थीं और रिश्तेदारी में बीकानेर आई हुई थीं|
सभी संत-महात्माओं को नमन !! ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२५ अगस्त २०२०

सारे प्रश्न, अशांत सीमित मन की उपज हैं ---

 

सारे प्रश्न, अशांत सीमित मन की उपज हैं| शांत और विस्तृत मन में कोई प्रश्न उत्पन्न नहीं होता| सारी जिज्ञासाएँ स्वतः ही शांत हो जाती हैं| कई बार ऐसे कई संतों से मेरी भेंट हुई है जिनसे मिलने मात्र से मन इतना शांत हो जाता था कि सारे प्रश्न ही तिरोहित हो जाते थे| उनके समक्ष कोई प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता था|
वर्षों पहिले की बात है, जिज्ञासु वृत्ति उन दिनों उत्पन्न हुई ही थी, एक सिद्ध संत के बारे में पता चला जो मौन ही रहते थे, बात बहुत कम करते थे| मुझे उनसे बहुत कुछ पूछना था, अतः उनसे मिलने चला गया| आश्चर्य ! उनके पास बैठते ही मैं स्वयं को भी भूल गया| दिन छिपने पर उन्होने ही मुझे वहाँ से चले जाने को कहा| उन के पास से जाते ही मन फिर अशान्त हो गया और सारे प्रश्न याद आ गए| दूसरे दिन मैंने पंद्रह-बीस प्रश्न एक कागज पर लिखे और पक्का निश्चय कर के गया कि ये प्रश्न तो पूछने ही हैं| पर दूसरे दिन भी मेरा वही हाल हो गया, वह प्रश्नों वाला कागज हाथ में ही रह गया| तीसरे दिन फिर गया तो उन्होने चुपके से कह दिया कि सारे प्रश्न अशांत मन की उपज हैं। मन को शांत करोगे तो उत्तर अपने आप मिल जाएगा| फिर कभी उन से मिलना नहीं हुआ|
उन्हीं दिनों एक ऐसे महात्मा से भी मिलना हुआ कि बिना पूछे ही उन्होने एक ऐसी बात कही जी से सारे प्रश्नों के उत्तर एक साथ मिल गए|
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अब तक के मेरे अनुभवों का सार यही है कि हमारी सारी समस्याओं का समाधान, सारी जिज्ञासाओं व प्रश्नों के उत्तर, हमारा सुख, शांति, सुरक्षा और आनंद परमात्मा में ही है| जीवन का एक मात्र लक्ष्य परमात्मा को उपलब्ध होना है| ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२५ अगस्त २०२०

Monday, 23 August 2021

भारत की राजनीति सत्य-सनातन-धर्म हो, व गो-ब्राह्मण-प्रतिपालक सत्यधर्मनिष्ठ क्षत्रिय शासकों का नवोन्मेष हो ---

 

"भारत की राजनीति सत्य-सनातन-धर्म हो, व गो-ब्राह्मण-प्रतिपालक सत्यधर्मनिष्ठ क्षत्रिय शासकों का नवोन्मेष हो।" ---
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हमारा यह शिव-संकल्प निश्चित रूप से फलीभूत होगा, क्योंकि गीता में भगवान का वचन है, जो कभी मिथ्या नहीं हो सकता --
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदाऽऽत्मानं सृजाम्यहम्॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे॥
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भगवान की स्तुति --
"नमो ब्रह्मण्य देवाय गो ब्राह्मण हिताय च, जगद्धिताय कृष्णाय गोविन्दाय नमो नमः॥"
"कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने, प्रणत क्लेशनाशाय गोविंदाय नमो नम:॥"
"मूकं करोति वाचालं पंगुं लंघयते गिरिम्, यत्कृपा तमहं वन्दे परमानन्दमाधवम्॥"
"वसुदेवसुतं देवं कंसचाणूरमर्दनम्, देवकीपरमानन्दं कृष्णं वंदे जगद्गुरुम्॥"
"वंशी विभूषित करा नवनीर दाभात् , पीताम्बरा दरुण बिंब फला धरोष्ठात्।
पूर्णेन्दु सुन्दर मुखादर बिंदु नेत्रात् , कृष्णात परम किमपि तत्व अहं न जानि॥"
"कस्तुरी तिलकम् ललाटपटले, वक्षस्थले कौस्तुभम् ,
नासाग्रे वरमौक्तिकम् करतले, वेणु करे कंकणम्।
सर्वांगे हरिचन्दनम् सुललितम्, कंठे च मुक्तावलि,
गोपस्त्री परिवेश्तिथो विजयते, गोपाल चूड़ामणी॥"
"ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ||"
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
२२ अगस्त २०२१

जिसमें जैसे गुण होंगे, उसकी वैसी ही गति होगी ---

 

जिसमें जैसे गुण होंगे, उसकी वैसी ही गति होगी। हमारे सारे बंधनों का और मोक्ष का कारण हमारा अहंकार ही है। अहंकार भी दो तरह का होता है। एक अहंकार तो स्वयं को यह शरीर मानता है, वहीं दूसरा अहंकार स्वयं को यह शरीर न मानकर सम्पूर्ण सृष्टि में व उस से भी परे सर्वव्यापी अनंत ब्रह्मरूप मानता है। पहले वाला अहंकार बंधनों का कारण है, और दूसरा वाला मुक्ति का।
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प्राचीन भारत में लोग संतान उत्पन्न करने के लिए बड़ी सावधानी बरतते थे। दो तरह की संताने होती हैं -- कामज और धर्मज। काम वासना के वशीभूत होकर उत्पन्न की गई संतान कामज होती है, और धर्म की दृष्टि से उत्पन्न संतति धर्मज कहलाती हैं। आज के समय उत्पन्न अधिकांश संतति कामज हैं, धर्मज नहीं। प्राचीन काल में प्रधानतः धर्मज संतति होती थी, इसलिये संतति के मन में प्रश्न होते थे कि -- "मैं कौन हूँ?", "मेरा क्या कर्तव्य है?", "मुझे क्या करना चाहिये?" आदि। आज कामज संतति द्वारा प्रश्न किया जाता है कि क्या करने से उन्हें भोग-विलास की प्राप्ति होगी। संतानोत्पत्ति के समय माता-पिता में यदि सतोगुण है तो सतोगुणी संतान होगी, रजोगुण है तो रजोगुणी, और तमोगुण है तो तमोगुणी संतान होगी।
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जिस समय पुरुष का शुक्राणु और स्त्री का अंडाणु मिलते हैं, उस समय सूक्ष्म जगत में एक विस्फोट होता है, और जैसे उनके भाव होते हैं, वैसी ही जीवात्मा आकर गर्भस्थ हो जाती है। संभोग के समय जिनमें कुटिलता होती है, उनकी सन्तानें कुटिल यानि Crook/Cunning होती हैं। जिनमें जैसी भावना होती है वैसी ही सन्तानें उनके यहाँ उत्पन्न होती हैं। आजकल कोई नहीं चाहता कि उनकी सन्तानें सतोगुणी हों, सब को कमाऊ संतान ही चाहिए।
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जिनमें कुटिलता नहीं है, वे सतोगुणी ही ब्रह्मज्ञान के अधिकारी होते हैं। अन्यथा उन्हें और अनेक जन्म लेने होंगे। ब्रह्मविद्या के लिए रुचि होगी तभी प्रवृति होगी। हमारे मन में अनेक तरह के भाव होते हैं, इसलिए अखंड परमात्मा खंडित रूप में अनुभूत होते हैं। शरणागत होकर समर्पित होने पर, करुणावश भगवान हमें अखंड भाव का बोध कराते हैं। वैराग्य होने से ही परमात्मा की प्राप्ति होती है। जो साधन-साध्य है, वह साध्य भी साधन के अभाव में लुप्त हो जाएगा। विषयों के प्रति वैराग्य हुये बिना आत्मज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती। राग से बन्धन है, और वैराग्य से निवृत्ति है। जिनके अंदर विवेक जागृत होता है, वे जीवन के आरंभिक काल में ही विरक्त हो जाते हैं।
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हम स्वयं मुक्त होंगे तभी दूसरों को मुक्ति दिला सकते हैं। कोई हमारे से पृथक नहीं है, मिथ्या परोपकार का भाव भी एक बंधन है। इसलिए अनन्य भाव से भक्ति करनी चाहिए। जैसे हम स्वयं होंगे, वैसी ही हमारे चारों ओर की सृष्टि होगी।
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ये भाव मुझ में व्यक्त हुए, इसके लिए लिए मैं परमात्मा को नमन करता हूँ।
ॐ तत्सत् !
२३ अगस्त २०२१

चौक च्यानणी भादूड़ो, दे दे माई लाडूड़ो ---


गणेशचतुर्थी पर मैं एक बहुत पुराना बच्चों द्वारा गाये जाने वाला एक राजस्थानी गीत प्रस्तुत करना चाहता था जिसे ५०-६० वर्षों पूर्व गणेशचतुर्थी पर बच्चे लोग गाया करते थे, और किसी भी सहपाठी या परिचित के घर लड्डू खाने चले जाते थे| जिस के भी घर जाते वह बच्चों को लड्डू, गुड़-धाणी तो बड़े प्रेम से खिलाता ही, साथ में कुछ पैसे भी देता| मुझे वह गीत ठीक से याद नहीं आ रहा था और नेट पर भी कहीं मिल नहीं रहा था| आज एक मित्र ने भेजा है, जिसे प्रस्तुत कर रहा हूँ ...
"चौक च्यानणी भादूड़ो,
दे दे माई लाडूड़ो |
आधौ लाडू भावै कौनी,
सा'पतौ पाँती आवै कौनी ||
सुण सुण ऐ गीगा की माँ,
थारौ गीगौ पढ़बा जाय |
पढ़बा की पढ़ाई दै,
छोराँ नै मिठाई दै ||
आळो ढूंढ दिवाळो ढूंढ,
बड़ी बहु की पैई ढूंढ |
ढूंढ ढूंढा कर बारै आ,
जोशी जी कै तिलक लगा ||
लाडूड़ा में पान सुपारी,
जोशी जी रै हुई दिवाळी |
जौशण जी ने तिलिया दै,
छोराँ नै गुड़-धाणी दै |
ऊपर ठंडो पाणी दै ||
एक विद्या खोटी,
दूजी पकड़ी . चोटी |
चोटी बोलै धम धम,
विद्या आवै झम झम ||"
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२३ अगस्त २०२०

Sunday, 22 August 2021

परमात्मा को हम अकिंचन दे ही क्या सकते हैं? ---

 

परमात्मा को हम अकिंचन दे ही क्या सकते हैं? ---
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हम परमात्मा में बापस अपने "स्वयं" का समर्पण ही कर सकते हैं, अन्य कुछ हमारे पास है ही नहीं। अपना सम्पूर्ण अस्तित्व बापस उन्हीं को लौटा दें, जिन की हम रचना हैं। सब कुछ तो उन्हीं का है। यह देह रूपी वाहन तो परमात्मा ने हमें इस लोकयात्रा के लिए दिया है, जिस पर आत्म-तत्व के रूप में वे स्वयं बिराजमान हैं। वे ही इस देहरूपी विमान के चालक हैं, यह विमान भी वे स्वयं ही हैं। हम यह देह नहीं, परमात्मा की परमप्रेममय अनंतता हैं।
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वे परमात्मा ही इस देह में साँस ले रहे हैं। इस देह के साथ साथ सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड यानि सम्पूर्ण सृष्टि भी साँस ले रही है। इस श्वास-प्रश्वास रूपी यज्ञ में हर श्वास के साथ-साथ हम अपने अहंकार रूपी शाकल्य की आहुति श्रुवा बन कर दे दें। "यह आहुति ही है जो हम परमात्मा को दे सकते हैं, अन्य कुछ भी नहीं"| गीता में भगवान कहते हैं --
"ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना॥४:२४॥"
अर्थात् .... अर्पण (अर्पण करने का साधन श्रुवा) ब्रह्म है, और हवि (शाकल्य अथवा हवन करने योग्य द्रव्य) भी ब्रह्म है, ब्रह्मरूप अग्नि में ब्रह्मरूप कर्ता के द्वारा जो हवन किया गया है वह भी ब्रह्म ही है। इस प्रकार ब्रह्मरूप कर्म में समाधिस्थ पुरुष का गन्तव्य भी ब्रह्म ही है॥
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परमात्मा द्वारा दी हुई अपनी इस अति सीमित व अति अल्प बुद्धि और क्षमता द्वारा इस से अधिक और कुछ भी लिखा नहीं जा सकता; हालाँकि लिखने वाले वे स्वयं हैं। परमात्मा का आश्वासन है कि जिनमें भी उनके प्रति परमप्रेम और उन्हें पाने की अभीप्सा होगी, उन्हें वे निश्चित रूप से प्राप्त होंगे। उन्हें मार्गदर्शन भी मिलेगा। हम अपनी साधना में परमात्मा को सर्वत्र देखें, और सब में परमात्मा को देखें। गीता में भगवान कहते हैं --
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति"॥६:३०॥
अर्थात् - जो पुरुष मुझे सर्वत्र देखता है, और सबको मुझमें देखता है, उसके लिए मैं नष्ट नहीं होता (अर्थात् उसके लिए मैं दूर नहीं होता), और वह मुझसे वियुक्त नहीं होता॥
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सब में हृदयस्थ परमात्मा को सप्रेम नमन !! हम सब परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ साकार अभिव्यक्तियाँ हैं। ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२२ अगस्त २०२१

Saturday, 21 August 2021

ॐ नमस्ते गणपतये | त्वमेव प्रत्यक्षं तत्वमसि | त्वं प्रत्यक्षं ब्रह्मासि ---

 

ॐ नमस्ते गणपतये | त्वमेव प्रत्यक्षं तत्वमसि | त्वं प्रत्यक्षं ब्रह्मासि ...
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आज भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी के दिन, पंच-प्राण (प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान) रूपी गणों के, ओंकार रूप (ॐ) में अधिपति, भगवान श्रीगणेश को रिद्धि-सिद्धि सहित नमन!! सभी श्रद्धालुओं को भी नमन!! भगवान श्रीगणेश, ओंकार रूप में हमारे चैतन्य में नित्य विराजमान रहें| आप चिन्मय, आनंदमय, सच्चिदानंद, प्रत्यक्ष ब्रह्म हो| ॐ ॐ ॐ !!
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भारत की संस्कृति में गणेश-चतुर्थी का अत्यधिक महत्व है| भारत में अंग्रेजी शिक्षा प्रचलित होने से पूर्व बालक/बालिकाओं की शिक्षा का आरंभ गणेश-चतुर्थी के दिन से ही होता था| मुझे भी अतीत की कुछ स्मृतियाँ हैं| गणेश चतुर्थी के दिन हमें धुले हुए साफ़ वस्त्र पहिना कर पाठशाला भेजा जाता था| गले में दो डंके भी लटका कर ले जाते थे| विद्यालयों में लड्डू बाँटे जाते थे| अब वो अतीत की स्मृतियाँ हैं| आधुनिक अंग्रेजी अध्यापकों व विद्यार्थियों को गणेश चतुर्थी का कोई ज्ञान नहीं है|
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भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में सम्पूर्ण भारत में गणेश चतुर्थी के पर्व ने बड़ा महत्वपूर्ण योगदान दिया है| एक समय था जब अंग्रेजों ने पूरे भारत में धारा-१४४ लागू कर रखी थी| पाँच से अधिक व्यक्ति एक स्थान पर एकत्र नहीं हो सकते थे| अंग्रेज पुलिस गश्त लगाती रहती और जहाँ कहीं भी पाँच से अधिक व्यक्ति एक साथ एकत्र दिखाई देते उन पर बिना चेतावनी के लाठी-चार्ज कर देती| पूरा भारत आतंकित था| ऐसे समय में पं. बाल गंगाधर तिलक ने महाराष्ट्र में गणपति-उत्सव का आरंभ किया| सिर्फ धार्मिक आयोजनों के लिए ही एकत्र होने की छूट थी| गणपति पूजा के नाम पर लोग एकत्र होते और धार्मिकता के साथ-साथ उनमें राष्ट्रवादी विचार भी भर दिये जाते| तत्पश्चात महाराष्ट्र के साथ-साथ पूरे भारत में गणपति उत्सव का चलन हो गया|
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गणपति अथर्वशीर्ष :---
ॐ नमस्ते गणपतये ॥ त्वमेव प्रत्यक्षं तत्वमसि ॥ त्वमेव केवलं कर्तासि ॥ त्वमेव केवलं धर्तासि ॥ त्वमेव केवलं हर्तासि ॥ त्वमेव सर्वं खल्विदं ब्रह्मासि ॥ त्वं साक्षादात्मासि नित्यम् ॥१॥
ऋतम् वच्मि ॥ सत्यं वच्मि ॥ २॥
अव त्वं माम्‌ ॥ अव वक्तारम् ॥ अव श्रोतारम् ॥ अव दातारम् ॥ अव धातारम् ॥ अवानूचानमव शिष्यम् ॥ अव पश्चात्तात्‌ ॥ अव पुरस्तात् ॥ अवोत्तरात्तात् ॥ अव दक्षिणात्तात् ॥ अव चोर्ध्वात्तात् ॥ अवाधरात्तात् ॥ सर्वतो मां पाहि पाहि समन्तात् ॥३॥
त्वं वाङ्मयस्त्वं चिन्मयः ॥ त्वमानंदमयस्त्वं ब्रह्ममयः ॥ त्वं सच्चिदानंदाद्वितीयोऽसि। त्वं प्रत्यक्षं ब्रह्मासि। त्वं ज्ञानमयो विज्ञानमयोऽसि ॥४॥
सर्वं जगदिदं त्वत्तो जायते ॥ सर्वं जगदिदं त्वत्तस्तिष्ठति ॥ सर्वं जगदिदं त्वयि लयमेष्यति ॥ सर्वं जगदिदं त्वयि प्रत्येति ॥
त्वं भूमिरापोऽनलोऽनिलो नभः ॥ त्वं चत्वारि वाक्पदानि ॥५॥
त्वं गुणत्रयातीतः। त्वं अवस्थात्रयातीतः। त्वं देहत्रयातीतः। त्वं कालत्रयातीतः। त्वं मूलाधारस्थितोऽसि नित्यम् ॥ त्वं शक्तित्रयात्मकः। त्वां योगिनो ध्यायन्ति नित्यम् ॥ त्वं ब्रहमा त्वं विष्णुस्त्वं रुद्रस्त्वं इन्द्रस्त्वं अग्निस्त्वं वायुस्त्वं सूर्यस्त्वं‌ चंद्रमास्त्वं ब्रह्मभूर्भुवः स्वरोम् ॥६॥
गणादिन् पूर्वमुच्चार्य वर्णादिस्तदनन्तरम्। अनुस्वारः परतरः। अर्धेन्दुलसितम्। तारेण ऋद्धम्। एतत्तव मनुस्वरूपम्। गकारः पूर्वरूपम्। अकारो मध्यमरूपम्। अनुस्वारश्चान्त्यरूपम्। बिन्दुरुत्तररूपम्। नादः संधानम् ॥ संहिता सन्धिः। सैषा गणेशविद्या। गणक ऋषिः। निचृद्‌गायत्रीछंदः गणपतिर्देवता। ॐ गं गणपतये नमः ॥७॥
एकदन्ताय विद्महे वक्रतुंडाय धीमहि। तन्नो दन्ती प्रचोदयात् ॥ ८ ॥
एकदन्तं चतुर्हस्तम् पाशमं कुशधारिणम् ॥ रदं च वरदं हस्तैर्बिभ्राणं मूषकध्वजम्। रक्तम् लम्बोदरं शूर्पकर्णकं रक्तवाससम् ॥
रक्तगन्धानुलिप्तांगं रक्तपुष्पैः सुपूजितम्। भक्तानुकम्पिनं देवं जगत्कारणमच्युतम्। आविर्भूतं च सृष्ट्यादौ प्रकृतेः पुरुषात्परम् ॥ एवं ध्यायति यो नित्यं स योगी योगिनां वरः ॥९॥
नमो व्रातपतये नमो गणपतये नमः प्रमथपतये नमस्तेऽस्तु लम्बोदरायैकदन्ताय विघ्ननाशिने शिवसुताय वरदमूर्तये नमः ॥ १० ॥
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॥ फलश्रुति ॥ (सिर्फ हिंदी अनुवाद) :----
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इस अथर्वशीर्ष का जो पाठ करता है, वह ब्रह्मीभूत होता है, वह किसी प्रकार के विघ्नों से बाधित नहीं होता, वह सर्वतोभावेन सुखी होता है, वह पंच महापापों से मुक्त हो जाता है। सायंकाल इसका अध्ययन करनेवाला दिन में किये हुए पापों का नाश करता है, प्रातःकाल पाठ करनेवाला रात्रि में किये हुए पापों का नाश करता है। सायं और प्रातःकाल पाठ करने वाला निष्पाप हो जाता है। (सदा) सर्वत्र पाठ करनेवाले सभी विघ्नों से मुक्त हो जाता है एवं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष- इन चारों पुरुषार्थों को प्राप्त करता है। यह अथर्वशीर्ष इसको नहीं देना चाहिये, जो शिष्य न हो। जो मोहवश अशिष्य को उपदेश देगा, वह महापापी होगा। इसकी १००० आवृत्ति करने से उपासक जो कामना करेगा, इसके द्वारा उसे सिद्ध कर लेगा। ॥ ११॥
जो इस मन्त्र के द्वारा श्रीगणपति का अभिषेक करता है, वह वाग्मी हो जाता है। जो चतुर्थी तिथि में उपवास कर जप करता है, वह विद्यावान् हो जाता है। यह अथर्वण-वाक्य है। जो ब्रह्मादि आवरण को जानता है, वह कभी भयभीत नहीं होता। ॥ १२॥
जो दुर्वांकुरों द्वारा यजन करता है, वह कुबेर के समान हो जाता है। जो लाजा के द्वारा यजन करता है, वह यशस्वी होता है, वह मेधावान होता है। जो सहस्त्र मोदकों के द्वारा यजन करता है, वह मनोवांछित फल प्राप्त करता है। जो घृताक्त समिधा के द्वारा हवन करता है, वह सब कुछ प्राप्त करता है, वह सब कुछ प्राप्त करता है। ॥ १३॥
जो आठ ब्राह्मणों को इस उपनिषद् का सम्यक ग्रहण करा देता है, वह सूर्य के समान तेज-सम्पन्न होता है। सूर्यग्रहण के समय महानदी में अथवा प्रतिमा के निकट इस उपनिषद् का जप करके साधक सिद्धमन्त्र हो जाता है। सम्पूर्ण महाविघ्नों से मुक्त हो जाता है। महापापों से मुक्त हो जाता है। महादोषों से मुक्त हो जाता है। वह सर्वविद् हो जाता है। जो इस प्रकार जानता है-वह सर्वविद् हो जाता है। ॥ १४॥
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(आज गुरु-प्रदत्त विधि से यथासंभव अधिक से अधिक उपासना करें)
कृपा शंकर
२२ अगस्त २०२०
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पुनश्च: --- राजस्थान में बच्चों का एक गीत होता था ... "चथुड़ा चौथ भादुड़ों, कर दे माई लाडुड़ो" (पूरा गीत अब याद नहीं है), जिसे गाते-गाते सब बच्चे मिलकर किसी भी संबंधी या परिचित के घर चले जाते| जिस के भी घर जाते, वह बहुत प्रसन्न होता, और सब बच्चों को बड़े प्रेम से लड्डू खिलाकर और दक्षिणा देकर ही भेजता|

आसुरी जगत का प्रभाव हम पर कैसे होता है? ---

 

आसुरी जगत का प्रभाव हम पर कैसे होता है? ---
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सूक्ष्म जगत की आसुरी और पैशाचिक शक्तियाँ निरंतर अपने शिकार ढूँढ़ती रहती हैं। जिसके भी चित्त में वासनाएँ होती हैं, उस व्यक्ति पर अपना अधिकार करके वे उसे अपना उपकरण बना लेती हैं, और उस से सारे गलत काम करवाती हैं। जितना हमारा गलत और वासनात्मक चिंतन होता है, उतना ही हम उन आसुरी शक्तियों को स्वयं पर अधिकार करने के लिए निमंत्रित करते हैं। भौतिक जगत पूर्ण रूप से सूक्ष्म जगत के अंतर्गत है। सूक्ष्म जगत की अच्छी या बुरी शक्तियाँ ही यहाँ अपना कार्य कर रही हैं। कई बार मनुष्य कोई जघन्य अपराध जैसे ह्त्या, बलात्कार या अन्य कोई दुष्कर्म कर बैठता है; फिर सोचता है कि उसके होते हुए भी यह सब कैसे हुआ, मैं तो ऐसा कर ही नहीं सकता था। पर उसे यह नहीं पता होता कि वह किन्हीं आसुरी शक्तियों का शिकार हो गया था जिन्होंने उस पर अधिकार कर के यह दुष्कर्म करवाया।
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ईश्वर के मार्ग में ही नहीं, अन्य सभी क्षेत्रों में भी हमारी सभी बुराइयों की जड़ हमारे स्वयं का लोभ और अहंकार हैं। लोभ और अहंकार के कारण ही - काम, क्रोध, राग-द्वेष, प्रमाद, व दीर्घसूत्रता आदि जन्म लेते हैं। हमारा लोभ और अहंकार ही सूक्ष्म जगत की आसुरी शक्तियों को अपनी ओर आकर्षित करता है। प्रेतबाधा एक वास्तविकता है। जिनका मन कमजोर होता है, उन्हें यह प्रेतबाधा अधिक होती है, लेकिन वास्तविक कारण अवचेतन मन में छिपा लोभ और अहंकार ही है।
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अगर हम संसार में कोई अच्छा कार्य करना चाहते हैं तो उसका एक ही उपाय है कि परमात्मा को निरंतर स्वयं के भीतर प्रवाहित होने दें, उसके उपकरण बन जाएँ। परमात्मा का साथ ही शाश्वत है, अन्य सब नश्वर हैं। परमात्मा को निरंतर अपने चित्त में, अपने अस्तित्व में प्रवाहित होने दें, सब बातों का सार यही है। ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२१ अगस्त २०२१
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पुनश्च :--
लोभ और अहंकार ही सबसे बड़ी हिंसा हैं। इनसे मुक्ति ही अहिंसा है, जो हमारा परमधर्म है।
पैशाचिक जगत भी हम पर हावी है। प्राणियों को तड़पा-तड़पा कर मारने से पिशाचों को तृप्ति मिलती है। ये पिशाच ही इतना खून-खराबा और हिंसा करवाते हैं। ये अपार यौन सुख व धन का लोभ देकर अपने शिकारों को अपने वश में रखते हैं। मनुष्य इन का सामना नहीं कर सकता। इनसे मुक्त होने के लिए उसे दैवीय सहायता लेनी ही पड़ती है।
पिशाचों के शिकार हुये मनुष्य नर-पिशाच बन जाते हैं, इसका एक उदाहरण - तालिबानी हिंसा है। इससे अधिक नहीं लिखना चाहता, क्योंकि मेरी बात कोई सुनेगा भी नहीं, पसंद भी नहीं करेगा, और मेरे अनेक शत्रु हो जाएँगे। इतना ही बहुत है। धन्यवाद॥

उन के प्रेम में एक बार मग्न होकर तो देखो, जीवन में आनंद ही आनंद होगा ---

 

सारी शाश्वत जिज्ञासाओं का समाधान, सभी प्रश्नों के उत्तर, पूर्ण संतुष्टि, पूर्ण आनंद और सभी समस्याओं का निवारण - सिर्फ और सिर्फ परमात्मा में है। अपनी चेतना को सदा भ्रूमध्य में रखो, और निरंतर परमात्मा का स्मरण करो। अपने हृदय का सम्पूर्ण प्रेम उन्हें दीजिये। पूरा मार्गदर्शन स्वयं परमात्मा करेंगे। हमारी एकमात्र समस्या ईश्वर की प्राप्ति है, अन्य कोई समस्या नहीं है। गीता में भगवान कहते हैं --
"अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥९:२२॥"
अर्थात् - अनन्य भाव से मेरा चिन्तन करते हुए जो भक्तजन मेरी ही उपासना करते हैं, उन नित्ययुक्त पुरुषों का योगक्षेम मैं वहन करता हूँ॥
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बहुत अधिक लोगों की भीड़ से अधिक अच्छा तो दो-तीन लोगों का साथ है जो परमात्मा की चेतना में सदा रहते हों। दो लाख लोगों की भीड़ में बड़ी कठिनता से कोई एक व्यक्ति होता है जिसका साध्य परमात्मा हो। अधिकांश लोगों के लिए परमात्मा एक साधन मात्र है, साध्य तो संसार है। कोई अच्छा साथ न मिले तो परमात्मा के साथ अकेले रहना ही अधिक अच्छा है। जहाँ कोई अन्य नहीं है, वही तो "अनन्य योग" है। हमारी भक्ति कहीं व्यभिचारणी न हो।
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महाभारत के अनुशासन पर्व में भगवान श्रीकृष्ण, महाराज युधिष्ठिर को तंडि ऋषि कृत "शिवसहस्त्रनाम" का उपदेश देते हैं, जो भगवान श्रीकृष्ण को उपमन्यु ऋषि से प्राप्त हुआ था। उसका १६६वां श्लोक है --
"एतद् देवेषु दुष्प्रापं मनुष्येषु न लभ्यते। निर्विघ्ना निश्चला रुद्रे भक्तिर्व्यभिचारिणी॥"
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महाभारत के भीष्म पर्व में कुरुक्षेत्र की रण-भूमि में भगवान श्रीकृष्ण, अपने प्रिय शिष्य अर्जुन को जो भगवद्गीता का उपदेश देते हैं, उसके १३वें अध्याय का ११वां श्लोक है --
"मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी। विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि॥"
इसे भगवान ने अनन्ययोग कहा है, जिसके लिए अव्यभिचारिणी भक्ति, एकान्तवास के स्वभाव, और (असंस्कृत) जनों के समुदाय में अरुचि का होना बताया है।
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नदी का विलय जब महासागर में हो जाता है, तब नदी का कोई नाम-रूप नहीं रहता, सिर्फ महासागर ही महासागर रहता है। हमारी आयु अनंत है। हम यह देह नहीं, एक शाश्वत आत्मा, और परमात्मा का अंश हैं। यह सृष्टि परमात्मा की अभिव्यक्ति और उनकी लीला है। परमात्मा से परमप्रेम हो जाने पर वे स्वयं ही हमारा ध्यान करते हैं, और अपना बोध कराते हैं। उन के प्रेम में एक बार मग्न होकर तो देखो। जीवन में आनंद ही आनंद होगा
ॐ तत्सत् !!
२१ अगस्त २०२०