परमात्मा को हम अकिंचन दे ही क्या सकते हैं? ---
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हम परमात्मा में बापस अपने "स्वयं" का समर्पण ही कर सकते हैं, अन्य कुछ हमारे पास है ही नहीं। अपना सम्पूर्ण अस्तित्व बापस उन्हीं को लौटा दें, जिन की हम रचना हैं। सब कुछ तो उन्हीं का है। यह देह रूपी वाहन तो परमात्मा ने हमें इस लोकयात्रा के लिए दिया है, जिस पर आत्म-तत्व के रूप में वे स्वयं बिराजमान हैं। वे ही इस देहरूपी विमान के चालक हैं, यह विमान भी वे स्वयं ही हैं। हम यह देह नहीं, परमात्मा की परमप्रेममय अनंतता हैं।
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वे परमात्मा ही इस देह में साँस ले रहे हैं। इस देह के साथ साथ सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड यानि सम्पूर्ण सृष्टि भी साँस ले रही है। इस श्वास-प्रश्वास रूपी यज्ञ में हर श्वास के साथ-साथ हम अपने अहंकार रूपी शाकल्य की आहुति श्रुवा बन कर दे दें। "यह आहुति ही है जो हम परमात्मा को दे सकते हैं, अन्य कुछ भी नहीं"| गीता में भगवान कहते हैं --
"ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना॥४:२४॥"
अर्थात् .... अर्पण (अर्पण करने का साधन श्रुवा) ब्रह्म है, और हवि (शाकल्य अथवा हवन करने योग्य द्रव्य) भी ब्रह्म है, ब्रह्मरूप अग्नि में ब्रह्मरूप कर्ता के द्वारा जो हवन किया गया है वह भी ब्रह्म ही है। इस प्रकार ब्रह्मरूप कर्म में समाधिस्थ पुरुष का गन्तव्य भी ब्रह्म ही है॥
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परमात्मा द्वारा दी हुई अपनी इस अति सीमित व अति अल्प बुद्धि और क्षमता द्वारा इस से अधिक और कुछ भी लिखा नहीं जा सकता; हालाँकि लिखने वाले वे स्वयं हैं। परमात्मा का आश्वासन है कि जिनमें भी उनके प्रति परमप्रेम और उन्हें पाने की अभीप्सा होगी, उन्हें वे निश्चित रूप से प्राप्त होंगे। उन्हें मार्गदर्शन भी मिलेगा। हम अपनी साधना में परमात्मा को सर्वत्र देखें, और सब में परमात्मा को देखें। गीता में भगवान कहते हैं --
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति"॥६:३०॥
अर्थात् - जो पुरुष मुझे सर्वत्र देखता है, और सबको मुझमें देखता है, उसके लिए मैं नष्ट नहीं होता (अर्थात् उसके लिए मैं दूर नहीं होता), और वह मुझसे वियुक्त नहीं होता॥
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सब में हृदयस्थ परमात्मा को सप्रेम नमन !! हम सब परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ साकार अभिव्यक्तियाँ हैं। ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२२ अगस्त २०२१
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