चित्त की वृत्तियों का निरोध एक साधन मात्र है, साध्य नहीं| साध्य तो परमात्मा है .....
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"योगः चित्तवृत्तिनिरोधः"| शेषावतार भगवान पातंजलि के अनुसार चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है| चित्त की वृत्तियों को समझना एक बड़ा कठिन विषय है| हो सकता है इसका दस लाखवाँ भाग ही मैं समझ पाया हूँ| अतः इसे परमात्मा पर छोड़ रहा हूँ| जब उनकी इच्छा होगी तब वे स्वयं ही मुझे समझा देंगे| यदि वे अनावश्यक समझें तो नहीं समझाएँ, इस से कोई फर्क नहीं पड़ता|
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योग तो एक साधन मात्र है, साध्य नहीं| साध्य तो परमात्मा हैं जो सदा साक्षात स्वयं मेरे समक्ष हैं| जब वे स्वयं मेरे हृदय में प्रत्यक्ष रूप से बिराजमान हैं और उन्होंने मुझे अपने हृदय में स्थान दे ही दिया है तो मुझे और कुछ भी नहीं चाहिए| अंतःकरण के मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार का भी हरण उन्होंने कर लिया है| अब न तो कोई चित्त है और न ही उसकी कोई वृत्तियाँ हैं| सब कुछ तो परमात्मा स्वयं ही हैं| सारी साधनाओं के कर्ता भी वे ही हैं, मैं नहीं| मेरी पृथकता का बोध मिथ्या है| एक वे ही हैं, अन्य कोई दूसरा नहीं है| आत्मा नित्य मुक्त है| जैसे पुत्र पिता के बिना नहीं रह सकता, वैसे ही पिता भी पुत्र के बिना नहीं रह सकते| वे स्वयं को अपने मायावी आवरण में कितना भी छिपा लें पर अंततः करूणावश स्वयं को अनावृत कर ही देते हैं|
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अच्छा है भगवान ने मुझे बुद्धि नहीं दी| बुद्धि नहीं दी तो कुबुद्धि भी नहीं दी| अज्ञान-ज्ञान, मूर्खता-चतुरता, अविद्या-विद्या, बुराई-अच्छाई आदि जो कुछ भी उन्होंने दिया वह उनका प्रसाद है जो मुझे स्वीकार है| मैं प्रसन्न हूँ क्योंकि मुझे उन्होंने अपना प्रेम दिया है| और कुछ भी नहीं चाहिए| उनके प्रेम के अतिरिक्त मुझे अन्य कुछ चाहिए भी नहीं था|
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जब इस विषय पर चर्चा छिड़ ही गयी है तो उसका समापन भी करना ही पड़ेगा| थोड़ा बहुत जो मैं समझ पाया हूँ, उसके अनुसार चित्त स्वयं को श्वास-प्रश्वास और वासनाओं के रूप में प्रकट करता है| वासनाएँ तो अति सूक्ष्म हैं जिन्हें हम पकड़ नहीं सकते अतः श्वास-प्रश्वास के माध्यम से उन के निरोध का प्रयास करते हैं| कुछ योगी चंचल प्राण को स्थिर कर के मन को शांत करने का उपदेश देते हैं, पर प्राण तत्व को समझना इस समय तो मेरी क्षमता से परे है| अतः यह विषय यहीं छोड़ रहा हूँ|
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आध्यात्मिक साधनाओं के सारे उपदेश कृष्ण यजुर्वेद के श्वेताश्वतरोपनिषद में हैं| सारी साधनाओं का मूल श्रुतियों से है पर श्रुतियों को तो श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ आचार्य के चरणों में बैठकर ही सीखा जा सकता है| ऐसे में वे समझ में नहीं आने वाली| अतः उनकी चर्चा यहाँ निरर्थक है| उनकी चर्चा श्रीगुरुचरणों में बैठकर ही करनी चाहिए|
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गीता तो पूरा ही योग का ग्रन्थ है| भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं ......
योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय |
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ||१२:४८||
भाष्यकार भगवान आचार्य शंकर ने इसकी व्याख्या यूँ की है ....
"योगस्थः सन् कुरु कर्माणि केवलमीश्वरार्थम् तत्रापि ईश्वरो मे तुष्यतु इति सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय | फलतृष्णाशून्येन क्रियमाणे कर्मणि सत्त्वशुद्धिजा ज्ञानप्राप्तिलक्षणा सिद्धिः तद्विपर्ययजा असिद्धिः तयोः सिद्ध्यसिद्ध्योः अपि समः तुल्यः भूत्वा कुरु कर्माणि | कोऽसौ योगः यत्रस्थः कुरु इति उक्तम् इदमेव तत् सिद्ध्यसिद्ध्योः समत्वं योगः उच्यते ||"
अर्थात् ..... "हे धनंजय योगमें स्थित होकर केवल ईश्वरके लिय कर्म कर | उनमें भी ईश्वर मुझपर प्रसन्न हों, इस आशारूप आसक्तिको भी छोड़कर कर | फलतृष्णारहित पुरुषद्वारा कर्म किये जानेपर अन्तःकरणकी शुद्धिसे उत्पन्न होनेवाली ज्ञानप्राप्ति तो सिद्धि है और उससे विपरीत (ज्ञानप्राप्तिका न होना) असिद्धि है ऐसी सिद्धि और असिद्धिमें भी सम होकर अर्थात् दोनोंको तुल्य समझकर कर्म कर | वह कौनसा योग है जिसमें स्थित होकर कर्म करनेके लिये कहा है यही जो सिद्धि और असिद्धिमें समत्व है इसीको योग कहते हैं |"
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भगवान श्रीकृष्ण ने योग के बारे में यह भी कहा है .....
"बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते |
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् "||२:५०||
इस पर भगवान आचार्य शंकर की व्याख्या है :---
"बुद्धियुक्तः कर्मसमत्वविषयया बुद्ध्या युक्तः बुद्धियुक्तः सः जहाति परित्यजति इह अस्मिन् लोके उभे सुकृतदुष्कृते पुण्यपापे सत्त्वशुद्धिज्ञानप्राप्तिद्वारेण यतः तस्मात् समत्वबुद्धि योगाय युज्यस्व घटस्व | योगो हि कर्मसु कौशलम् स्वधर्माख्येषु कर्मसु वर्तमानस्य या सिद्ध्यसिद्ध्योः समत्वबुद्धिः ईश्वरार्पितचेतस्तया तत् कौशलं कुशलभावः | तद्धि कौशलं यत् बन्धनस्वभावान्यपि कर्माणि समत्वबुद्ध्या स्वभावात् निवर्तन्ते | तस्मात्समत्वबुद्धियुक्तो भव त्वम्" ||
अर्थात् ..... "समत्वबुद्धिसे युक्त होकर स्वधर्माचरण करनेवाला पुरुष जिस फलको पाता है वह सुन | समत्वयोगविषयक बुद्धिसे युक्त हुआ पुरुष अन्तःकरणकी शुद्धिके और ज्ञानप्राप्तिके द्वारा सुकृतदुष्कृतको पुण्यपाप दोनोंको यहीं त्याग देता है इसी लोकमें कर्मबन्धनसे मुक्त हो जाता है | इसलिये तू समत्वबुद्धिरूप योगकी प्राप्तिके लिये यत्न कर चेष्टा कर | क्योंकि योग ही तो कर्मोंमें कुशलता है अर्थात् स्वधर्मरूप कर्ममें लगे हुए पुरुषका जो ईश्वरसमर्पित बुद्धिसे उत्पन्न हुआ सिद्धिअसिद्धिविषयक समत्वभाव है वही कुशलता है | यही इसमें कौशल है कि स्वभावसे ही बन्धन करनेवाले जो कर्म हैं वे भी समत्व बुद्धिके प्रभावसे अपने स्वभावको छोड़ देते हैं अतः तू समत्वबुद्धिसे युक्त हो |"
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इससे अधिक कुछ कहना मेरे लिए कृतघ्नता होगा| हे मेरे मन, अब तुम परमशिव का निरंतर ध्यान करो| उसी में तुम्हारा कल्याण है| वे ही ज्ञान के स्त्रोत हैं| अब इस विषय पर और चर्चा नहीं करूंगा|
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आप सब निजात्मगण में भगवान नारायण को नमन ! ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२६ फरवरी २०१८
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"योगः चित्तवृत्तिनिरोधः"| शेषावतार भगवान पातंजलि के अनुसार चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है| चित्त की वृत्तियों को समझना एक बड़ा कठिन विषय है| हो सकता है इसका दस लाखवाँ भाग ही मैं समझ पाया हूँ| अतः इसे परमात्मा पर छोड़ रहा हूँ| जब उनकी इच्छा होगी तब वे स्वयं ही मुझे समझा देंगे| यदि वे अनावश्यक समझें तो नहीं समझाएँ, इस से कोई फर्क नहीं पड़ता|
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योग तो एक साधन मात्र है, साध्य नहीं| साध्य तो परमात्मा हैं जो सदा साक्षात स्वयं मेरे समक्ष हैं| जब वे स्वयं मेरे हृदय में प्रत्यक्ष रूप से बिराजमान हैं और उन्होंने मुझे अपने हृदय में स्थान दे ही दिया है तो मुझे और कुछ भी नहीं चाहिए| अंतःकरण के मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार का भी हरण उन्होंने कर लिया है| अब न तो कोई चित्त है और न ही उसकी कोई वृत्तियाँ हैं| सब कुछ तो परमात्मा स्वयं ही हैं| सारी साधनाओं के कर्ता भी वे ही हैं, मैं नहीं| मेरी पृथकता का बोध मिथ्या है| एक वे ही हैं, अन्य कोई दूसरा नहीं है| आत्मा नित्य मुक्त है| जैसे पुत्र पिता के बिना नहीं रह सकता, वैसे ही पिता भी पुत्र के बिना नहीं रह सकते| वे स्वयं को अपने मायावी आवरण में कितना भी छिपा लें पर अंततः करूणावश स्वयं को अनावृत कर ही देते हैं|
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अच्छा है भगवान ने मुझे बुद्धि नहीं दी| बुद्धि नहीं दी तो कुबुद्धि भी नहीं दी| अज्ञान-ज्ञान, मूर्खता-चतुरता, अविद्या-विद्या, बुराई-अच्छाई आदि जो कुछ भी उन्होंने दिया वह उनका प्रसाद है जो मुझे स्वीकार है| मैं प्रसन्न हूँ क्योंकि मुझे उन्होंने अपना प्रेम दिया है| और कुछ भी नहीं चाहिए| उनके प्रेम के अतिरिक्त मुझे अन्य कुछ चाहिए भी नहीं था|
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जब इस विषय पर चर्चा छिड़ ही गयी है तो उसका समापन भी करना ही पड़ेगा| थोड़ा बहुत जो मैं समझ पाया हूँ, उसके अनुसार चित्त स्वयं को श्वास-प्रश्वास और वासनाओं के रूप में प्रकट करता है| वासनाएँ तो अति सूक्ष्म हैं जिन्हें हम पकड़ नहीं सकते अतः श्वास-प्रश्वास के माध्यम से उन के निरोध का प्रयास करते हैं| कुछ योगी चंचल प्राण को स्थिर कर के मन को शांत करने का उपदेश देते हैं, पर प्राण तत्व को समझना इस समय तो मेरी क्षमता से परे है| अतः यह विषय यहीं छोड़ रहा हूँ|
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आध्यात्मिक साधनाओं के सारे उपदेश कृष्ण यजुर्वेद के श्वेताश्वतरोपनिषद में हैं| सारी साधनाओं का मूल श्रुतियों से है पर श्रुतियों को तो श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ आचार्य के चरणों में बैठकर ही सीखा जा सकता है| ऐसे में वे समझ में नहीं आने वाली| अतः उनकी चर्चा यहाँ निरर्थक है| उनकी चर्चा श्रीगुरुचरणों में बैठकर ही करनी चाहिए|
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गीता तो पूरा ही योग का ग्रन्थ है| भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं ......
योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय |
सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ||१२:४८||
भाष्यकार भगवान आचार्य शंकर ने इसकी व्याख्या यूँ की है ....
"योगस्थः सन् कुरु कर्माणि केवलमीश्वरार्थम् तत्रापि ईश्वरो मे तुष्यतु इति सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय | फलतृष्णाशून्येन क्रियमाणे कर्मणि सत्त्वशुद्धिजा ज्ञानप्राप्तिलक्षणा सिद्धिः तद्विपर्ययजा असिद्धिः तयोः सिद्ध्यसिद्ध्योः अपि समः तुल्यः भूत्वा कुरु कर्माणि | कोऽसौ योगः यत्रस्थः कुरु इति उक्तम् इदमेव तत् सिद्ध्यसिद्ध्योः समत्वं योगः उच्यते ||"
अर्थात् ..... "हे धनंजय योगमें स्थित होकर केवल ईश्वरके लिय कर्म कर | उनमें भी ईश्वर मुझपर प्रसन्न हों, इस आशारूप आसक्तिको भी छोड़कर कर | फलतृष्णारहित पुरुषद्वारा कर्म किये जानेपर अन्तःकरणकी शुद्धिसे उत्पन्न होनेवाली ज्ञानप्राप्ति तो सिद्धि है और उससे विपरीत (ज्ञानप्राप्तिका न होना) असिद्धि है ऐसी सिद्धि और असिद्धिमें भी सम होकर अर्थात् दोनोंको तुल्य समझकर कर्म कर | वह कौनसा योग है जिसमें स्थित होकर कर्म करनेके लिये कहा है यही जो सिद्धि और असिद्धिमें समत्व है इसीको योग कहते हैं |"
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भगवान श्रीकृष्ण ने योग के बारे में यह भी कहा है .....
"बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते |
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् "||२:५०||
इस पर भगवान आचार्य शंकर की व्याख्या है :---
"बुद्धियुक्तः कर्मसमत्वविषयया बुद्ध्या युक्तः बुद्धियुक्तः सः जहाति परित्यजति इह अस्मिन् लोके उभे सुकृतदुष्कृते पुण्यपापे सत्त्वशुद्धिज्ञानप्राप्तिद्वारेण यतः तस्मात् समत्वबुद्धि योगाय युज्यस्व घटस्व | योगो हि कर्मसु कौशलम् स्वधर्माख्येषु कर्मसु वर्तमानस्य या सिद्ध्यसिद्ध्योः समत्वबुद्धिः ईश्वरार्पितचेतस्तया तत् कौशलं कुशलभावः | तद्धि कौशलं यत् बन्धनस्वभावान्यपि कर्माणि समत्वबुद्ध्या स्वभावात् निवर्तन्ते | तस्मात्समत्वबुद्धियुक्तो भव त्वम्" ||
अर्थात् ..... "समत्वबुद्धिसे युक्त होकर स्वधर्माचरण करनेवाला पुरुष जिस फलको पाता है वह सुन | समत्वयोगविषयक बुद्धिसे युक्त हुआ पुरुष अन्तःकरणकी शुद्धिके और ज्ञानप्राप्तिके द्वारा सुकृतदुष्कृतको पुण्यपाप दोनोंको यहीं त्याग देता है इसी लोकमें कर्मबन्धनसे मुक्त हो जाता है | इसलिये तू समत्वबुद्धिरूप योगकी प्राप्तिके लिये यत्न कर चेष्टा कर | क्योंकि योग ही तो कर्मोंमें कुशलता है अर्थात् स्वधर्मरूप कर्ममें लगे हुए पुरुषका जो ईश्वरसमर्पित बुद्धिसे उत्पन्न हुआ सिद्धिअसिद्धिविषयक समत्वभाव है वही कुशलता है | यही इसमें कौशल है कि स्वभावसे ही बन्धन करनेवाले जो कर्म हैं वे भी समत्व बुद्धिके प्रभावसे अपने स्वभावको छोड़ देते हैं अतः तू समत्वबुद्धिसे युक्त हो |"
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इससे अधिक कुछ कहना मेरे लिए कृतघ्नता होगा| हे मेरे मन, अब तुम परमशिव का निरंतर ध्यान करो| उसी में तुम्हारा कल्याण है| वे ही ज्ञान के स्त्रोत हैं| अब इस विषय पर और चर्चा नहीं करूंगा|
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आप सब निजात्मगण में भगवान नारायण को नमन ! ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२६ फरवरी २०१८
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