जहां तक मैं समझता हूँ -- विशुद्ध वेदान्त दर्शन केवल मुमुक्षु साधु-संतों व विरक्तों के लिये ही है; शासक-वर्ग, क्षत्रियों, व अन्यों के लिए तो कदापि नहीं। सतयुग में राजा जनक इसके अपवाद थे।
भगवान श्रीकृष्ण ने हमारे ऊपर बहुत बड़ा उपकार किया है वेदान्त (ज्ञानयोग) के साथ साथ कर्मयोग व भक्तियोग को जोड़ कर। इसी से भारत की रक्षा हुई है। गीता का ज्ञानयोग ही वेदान्त है, लेकिन ज्ञानयोग का उपदेश देने से पहिले भगवान श्रीकृष्ण ने कर्मयोग व भक्तियोग की शिक्षा दी है। कर्म, भक्ति और ज्ञान -- इन तीनों के समन्वय से ही जीवन में पूर्ण विकास होता है।
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भगवान श्रीकृष्ण ने सिखाया कि युद्ध भूमि में शत्रु का संहार करो, लेकिन निःस्पृह निष्काम व निमित्त मात्र होकर बिना किसी घृणा, भय व क्रोध से, कर्तव्य मानकर। वे तो यहाँ तक कहते हैं कि ईश्वर की चेतना में यदि हम सम्पूर्ण सृष्टि का भी विनाश कर देते हैं, तो कोई पाप नहीं लगता।
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केवल बातों से कोई लाभ नहीं है। यह ऊँचे से ऊँचा ब्रह्मज्ञान और ब्रह्मविद्या है। इसकी चर्चा से कोई लाभ नहीं है। इसका अभ्यास करो। पूरा जीवन इसके प्रति समर्पित कर दो। भगवान कहते हैं --
"यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः।
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते॥६:२२॥"
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥६:३०॥"
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ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
८ जनवरी २०२५
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