Friday, 29 April 2022

भगवान श्रीकृष्ण का ध्यान ---

 भगवान श्रीकृष्ण का ध्यान ---

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प्रातः उठते ही अपने पूरे शरीर को एक बार तनाव में लाएँ, और शिथिल करें। लघुशंकादि से निवृत होकर एक कंबल पर पूर्व दिशा की ओर मुंह कर के बैठ जाएँ। कमर सीधी रहे (अन्यथा कोई लाभ नहीं होगा), ठुड्डी --भूमि के समानांतर, और दृष्टिपथ -- भ्रूमध्य को भेदता हुआ अनंत में स्थिर रहे। जीभ को ऊपर उठाकर पीछे की ओर मोड़ कर रखने का अभ्यास करें। तीन-चार बार प्राणायाम करें। पूरी सांस नासिका से बाहर निकाल दें, और जितनी देर तक बाह्य-कुंभक में रह सकते हैं, रहें।
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भ्रूमध्य में भगवान श्रीकृष्ण का दर्शन करें और भाव करें कि आपके माध्यम से आपको निमित्त बनाकर वे ही सांसें ले रहे हैं। उनका विस्तार सारे ब्रह्मांड में है। सारी सृष्टि श्रीकृष्ण में है, और श्रीकृष्ण सारी सृष्टि में हैं। वे ब्रह्मांड के कण-कण में हैं, और सारा ब्रह्मांड उन में है। जब वे सांस ले रहे हैं तो "सोsssss" और सांस छोड़ रहे हैं तब "हंssssss" की ध्वनि गूंज रही है, जिसे सुनते रहें। बीच बीच में आंख खोलकर अपने शरीर को भी देख लें और यह भाव करें कि "मैं यह शरीर नहीं हूँ, यहाँ तो सिर्फ भगवान श्रीकृष्ण हैं"। वे सब में हैं, और सब कुछ उन में है। उनके सिवाय "अन्य" कोई है ही नहीं, "मैं" भी नहीं, सिर्फ वे ही हैं।
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इसे "अजपा-जप" (हंसः योग) (हंसवती ऋक) कहते हैं। इसका अभ्यास करते करते कालांतर में एकांत की पृष्ठभूमि में अनाहत नाद (प्रणव, ओंकार) सुनाई देने लगेगा जिसकी महिमा सारे उपनिषदों और गीता में है। जब अनाहत नाद सुनाई देने लगे तब उसे भी सुनते रहें, और ओंकार का मानसिक जप करते रहें।
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पूरे दिन भगवान श्रीकृष्ण की चेतना में रहें। आपकी आँखों से वे ही देख रहे हैं, आपके पैरों से वे ही चल रहे हैं, आपके हाथों से वे ही सारा कार्य कर रहे हैं, वे स्वयं को आपके माध्यम से व्यक्त कर रहे हैं। आप भगवान श्रीकृष्ण के पूरे उपकरण बनें।
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जब विस्तार की अनुभूति होने लगेगी तब उस विस्तार में स्थित होकर अनंत का ध्यान कीजिये और भगवान श्रीकृष्ण की अनंतता में रहें। आप पायेंगे कि यह "घटाकाश" ही नहीं, "दहराकाश", और "महाकाश" भी आप स्वयं हैं।
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कभी कभी आप स्वयं को इस शरीर से बाहर भी पायेंगे, तब भयभीत न हों। यह एक सामान्य सी प्रक्रिया है। उस अनंताकाश से परे एक आलोकमय जगत है, जो क्षीरसागर है। पंचकोणीय नक्षत्र के रूप में पंचमुखी महादेव वहीं बिराजते हैं। वहीं भगवान नारायण बिराजते हैं।
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उसी के आलोक के बारे में श्रुति भगवती कहती है ---
"न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः। तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति॥"
(मुंडकोपनिषद मंत्र ११), (कठोपनिषद् मंत्र १५)
गीता में भगवान श्रीकृष्ण उसी के बारे में कहते हैं ---
"न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः। यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम।।१५:६॥"
"यतन्तो योगिनश्चैनं पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम्। यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतसः॥१५:११॥"
"यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम्। यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम्।।१५:१२॥"
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आप सब को मैं साष्टांग दंडवत् प्रणाम करता हूँ। आपके बहाने मुझे भी भगवान की गहरी याद आ ही गई। आप का उपकार मानता हूँ। ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
३० अप्रेल २०२१
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पुनश्च: ----
(१) अजपा जप को ही वेदों में हंसवती ऋक कहा गया है। शैलेंद्रनारायण घोषाल की लिखी पुस्तक "तपोभूमि नर्मदा" के पाँचवें खंड में इसका बहुत विस्तार से वर्णन है। उसमे वेदों और उपनिषदों के सारे संदर्भ दिये हैं।
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(२) प्रख्यात वैदिक विद्वान माननीय श्री Arun Kumar Upaadhyay जी ने कृपा कर के इस लेख पर अपनी टिप्पणी की है ---
Arun Kumar Upadhyay
मेरा अनुभव सीमित है। हंसवती ऋक् के कुछ उदाहरण नीचे दे रहा हूं-
हंस रूपी सुपर्ण से विश्व का वयन या निर्माण-हंसः सुपर्णाः शकुनाः वयांसि (अथर्व, ११/२/२४, १२/१/५१)
वीभत्सूनां सयुजं हंसं आहुरपां दिव्यानां सख्ये चरन्तम्।
अनुष्टुभमनु चचूर्यमाणं इन्द्रं निचिक्युः कवयो मनीषा॥ (ऋक् १०/१२४/९)
हृदयेऽष्टदले हंसात्मानं ध्यायेत्। अग्निषोमौ पक्षौ, ॐकारः शिरो विन्दुस्तु नेत्रं मुखो रुद्रो रुद्राणि चरणौ बाहूकालश्चाग्निश्च ... एषोऽसौ परमहंसो भानुकोटिप्रतीकाशः। (हंसोपनिषद्)
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(३) वृंदावन के महात्मा राधा शरण दास जी ने इस लेख पर अपनी टिप्पणी की है ---
राधा शरण दास
इस अभ्यास को यदि ठीक प्रकार से किया जाता रहे तो परिणाम यह होगा कि ’मैं’ से निवृत्ति हो जायेगी। न अपनी कोई ईच्छा होगी, न कोई स्वार्थ, न कोई आसक्ति, न कोई शत्रु और न ही कोई भय, आशंका, संदेह।
जय जय श्री राधे !

Thursday, 28 April 2022

प्रमाद और दीर्घसूत्रता -- साक्षात् मृत्यु हैं ---

 प्रमाद और दीर्घसूत्रता -- साक्षात् मृत्यु हैं। जब तक भगवान की प्रत्यक्ष अनुभूति नहीं होती, तब तक चैन से मत बैठो। हमारी आध्यात्मिक साधना ही हमारा कर्मयोग है।

“राम काज कीन्हे बिनु मोहि कहाँ बिश्राम” --- रामकाज है -- परमात्मा का साक्षात्कार। नकारात्मक और हतोत्साहित करने वाले लोगों को विष की तरह जीवन से बाहर निकाल फेंको, चाहे वे कितने ही प्रिय हों। कुसंग सर्वदा दुःखदायी होता है।
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अपने इष्टदेव से एकाकार होकर उन का ध्यान करना चाहिये। कूटस्थ सूर्य-मण्डल में जिन परम-पुरुष का ध्यान हम करते हैं, वे परम-पुरुष --हम स्वयं हैं। गहन ध्यान में जिन परमशिव की अनुभूति होती है, वे परमशिव हम स्वयं हैं। स्वयं से पृथक कुछ भी अन्य नहीं है। यही अनन्य-भक्ति और अनन्य-योग है। हम यह देह नहीं, स्वयं परमशिव हैं।
शिवोहम् शिवोहम् अहम् ब्रह्मास्मि !!
कृपा शंकर
२८ अप्रेल २०२१

Wednesday, 27 April 2022

क्या हम हनुमान जी की भक्ति के पात्र है? ---

 क्या हम हनुमान जी की भक्ति के पात्र है?

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उपरोक्त प्रश्न मैंने स्वयं से अनेक बार पूछा है। मुझे स्वयं की पात्रता पर संदेह होता है, क्योंकि उत्तर नकारात्मक आता है। पर एक अज्ञात शक्ति कहती है कि पात्रता आते-आते अपने आप आ ही जाएगी, बस लगे रहो। बनते बनते पात्र भी बन जाओगे। हम कोई मँगते-भिखारी तो हैं नहीं जो उनसे कुछ माँग रहे हैं। हम तो स्वयं का समर्पण कर रहे हैं।
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कुछ विचारणीय बिन्दु हैं --
(१) "जय हनुमान ज्ञान-गुण सागर" --
हनुमान हनु+मान) का अर्थ होता है -- जिसने अपने मान यानि अहंकार को मार दिया है। जब हम अपने अहंकार पर विजय पायेंगे, तभी ज्ञान और गुणों के सागर होंगे। लेकिन हमारा अहंकार बड़ा प्रबल है। जब तक अहंकार और लोभ से हम ग्रस्त हैं, तब तक हनुमान जी की कृपा हमारे ऊपर नहीं होती।
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(२) "साधु-संत के तुम रखवारे" --
हमारे विचार साधु के, और स्वभाव संतों का होगा, तभी तो वे हमारी रक्षा करेंगे। क्या हमारे विचार और स्वभाव साधु-संतों के है?
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(३) "जो सुमिरे हनुमत बलबीरा" --
उनका निरंतर स्मरण करेंगे तभी तो बलशाली और वीर होंगे। हम उनका स्मरण चिंतन नहीं करते इसीलिए बलशाली और वीर नहीं है। जो उनका निरंतर स्मरण करते हैं, वे बलशाली और वीर होते हैं। हनुमान जी ही एकमात्र ऐसे देवता हैं जो सदा सफल रहे हैं, उन्होने कभी विफलता नहीं देखी। वे सेवा और भक्ति के परम आदर्श हैं। जितनी सेवा और भक्ति उनके माध्यम से व्यक्त हुई है, उतनी अन्यत्र कहीं भी नहीं हुई है, यद्यपि वे ज्ञानियों में अग्रगण्य हैं।
"अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम्।
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि॥"
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(४) हनुमान जी ही घनीभूत प्राण हैं --
मेरे निम्न कथन पर कुछ विवाद हो सकता है, लेकिन मैं बड़ी दृढ़ता से अपने अनुभूतिजन्य विचार प्रस्तुत कर रहा हूँ। मुझे घनीभूत-प्राण यानि कुंडलिनी महाशक्ति में भी हनुमान जी की अनुभूति होती है। वे जगन्माता के स्वरूप भी हैं। इस विषय पर मैं और चर्चा नहीं करना चाहूँगा। जो निष्ठावान योग साधक है, वे इसे जानते हैं। भगवान पिता भी है, और माता भी, मेरे लिए उनमें कोई भेद नहीं है। सूक्ष्म देह में मूलाधारचक्र से सहस्त्रारचक्र, और ब्रह्मरंध्र से परमात्मा की अनंतता से भी परे परमशिव तक की यात्रा, वे ही सम्पन्न करवाते हैं। उनका निवास परमात्मा की अनंतता में है, और उनकी उपस्थिती बड़े प्रेम और आनंद को प्रदान करती है। वे सब बाधाओं का निवारण भी करते हैं। मैं उनके समक्ष नतमस्तक हूँ।
"मनोजवं मारुततुल्यवेगम जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठं।
वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्रीरामदूतं शरणम् प्रपद्ये॥"
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ये मेरे मन के भाव या श्रद्धा-सुमन थे, जो मैंने व्यक्त कर दिये। कृपया अन्यथा न लें। आप सब के हृदयों में मैं हनुमान जी को प्रणाम करता हूँ। ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२७ अप्रेल २०२२

गत वर्ष (२०२१) के इन्हीं दिनों की एक स्मृति ---

 गत वर्ष (२०२१) के इन्हीं दिनों की एक स्मृति ---

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मैं सोच रहा था कि अब आध्यात्म के अतिरिक्त अन्य किसी भी विषय पर नहीं लिखूँगा, लेकिन पिछले दो-तीन दिनों में एक ऐसी महत्वपूर्ण घटना घटी है कि उसे लिखे बिना नहीं रह सकता। वह घटना है भारत की सफल विदेश नीति की जिसने अपनी कूटनीति द्वारा अमेरिका को झुका दिया है। इसके लिए तीन व्यक्ति धन्यवाद के पात्र हैं -- भारत के विदेशमंत्री, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार, और प्रधानमंत्री। सं १९४७ ई.के बाद से पहली बार भारत इस समय जितना सशक्त है, उतना पहले कभी भी नहीं था। यह भारत की कूटनीतिक विजय है।
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सैनिक दृष्टि से भी भारत अब जितना सशक्त है, जितना दृढ़ मनोबल और आत्म-विश्वास भारत में है, उतना पहले कभी भी नहीं था। उदाहरण है, लद्दाख में चीन को बिना युद्ध किए पीछे लौटने को बाध्य करना। धारा ३७० और ३५ए की समाप्ति, भारत के दृढ़ मनोबल को दिखाती है। सन २०१४ तक भारत, चीन से डरता था। अब स्थिति पलट गई है, अब चीन भारत से डरता है। अब चीन और पाकिस्तान ने अपना पूरा ज़ोर लगा रखा है कि कैसे भी भारत के वर्तमान राजनीतिक नेतृत्व को बदला जाये ताकि वे ही पुराने कमीशनखोर और डकैत लोग सत्ता में आ जाएँ। भारत में पहले कभी उल्लेखनीय प्रगति नहीं हुई क्योंकि भारत का अधिकांश धन तो चोरी और डकैती द्वारा विदेशी बैंकों में चला जाता था जिस से दूसरे देशों की प्रगति होती थी, भारत की नहीं। अब भारत का पैसा बाहर जाना बंद हुआ है तब से भारत की प्रगति शुरू हुई है।
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पिछले दिनों अमेरिका का वाइडेन प्रशासन अपने पुराने भारत विरोध पर खुल कर उतर आया था, प्रत्युत्तर में भारत ने अपना बहुमुखी कूटनीतिक प्रहार किया|
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(१) सबसे पहले हमारे विदेश मंत्री ने बयान दिया कि भारत अपनी रणनीति को बदल सकता है। हो सकता है चीन के विरुद्ध युद्ध में भारत, अमेरिका का साथ न दे। यह सबसे बड़ा कूटनीतिक प्रहार था, जिस से अमेरिका तिलमिला गया।
(२) फिर भारत ने कह दिया कि भारत अपनी स्वदेशी कोवैक्सिन ही बनायेगा जिसका सारा कच्चा माल भारत में पर्याप्त है। इसकी कीमत भी बढ़ा दी, जो एक कूटनीति थी। इसका पूरी दुनिया में मनोवैज्ञानिक असर पड़ा। जो अप्रत्याशित घटनाक्रम हुआ, उस से यूरोपीय संघ एकदम से भारत के पक्ष में आ गया। दुनिया के गरीब देशों को भी भारत से ही आशा थी उनकी आवश्यकताओं को भारत का दवा उद्योग ही पूरा कर सकता है।
(३) चीन ने भी भारत को धमकियाँ देना शुरू कर दिया कि भारत, अमेरिका के पक्ष में न जाये, क्योंकि अमेरिका ने सदा भारत को धोखा दिया है। भारत का जनमानस भी अमेरिका विरोधी होने लगा। भारत के सुरक्षा सलाहकार ने अपने समकक्ष अमेरिकी अधिकारियों के कान भरने आरंभ कर दिये कि भारत का जनमानस अब अमेरिका के विरोध में जा रहा है अतः भारत से सहयोग की अपेक्षा न रखें।
(४) भारत ने अमेरिका को दी जाने वाली फार्मास्युटिकल सप्लाई को बंद करने की धमकी दे दी, जिस से अमेरिका के फार्मास्यूटिकल उद्योग पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता, और वहाँ बनने वाली फाइजर वेक्सीन का उत्पादन रुक जाता।
(५) अमेरिका में भारतीय लॉबी खुल कर वाइडेन प्रशासन के विरोध में उतर आई। परिणाम आप सब के सामने है। वाइडेन प्रशासन को भारत के पक्ष में झुकना ही पड़ा।
यह भारत के प्रधानमंत्री की कूटनीतिक विजय और शक्ति है।
२७ अप्रेल २०२१

प्राणायाम की दो प्राचीन विधियाँ ---

 प्राणायाम की दो प्राचीन विधियाँ ---

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प्राणायाम एक आध्यात्मिक साधना है जो हमारी चेतना को परमात्मा से जोड़ता है। यह कोई श्वास-प्रश्वास का व्यायाम नहीं है, यह योग-साधना का भाग है जो हमारी प्राण चेतना को जागृत कर उसे नीचे के चक्रों से ऊपर उठाता है। मैं यहाँ प्राणायाम की दो अति प्राचीन और विशेष विधियों का उल्लेख कर रहा हूँ। ये निरापद हैं। ध्यान साधना से पूर्व खाली पेट इन्हें करना चाहिए। इनसे ध्यान में गहराई आयेगी।
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(१) (a) खुली हवा में पवित्र वातावरण में पद्मासन, सिद्धासन या सुखासन में पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुँह कर के कम्बल पर बैठ जाइए। यदि भूमि पर नहीं बैठ सकते तो भूमि पर कम्बल बिछाकर, उस पर बिना हत्थे की कुर्सी पर कमर सीधी कर के बैठ जाइए। कमर सीधी रहनी चाहिए अन्यथा कोई लाभ नहीं होगा। कमर सीधी रखने में कठिनाई हो तो नितंबों के नीचे पतली गद्दी रख लीजिये। दृष्टी भ्रूमध्य को निरंतर भेदती रहे, और ठुड्डी भूमि के समानांतर रहे।
(b) अब तीनों बंध (मूलबंध, उड्डियानबंध और जलंधरबंध) लगायें; जिनकी विधि इस प्रकार है -- बिना किसी तनाब के फेफड़ों की पूरी वायू नाक द्वारा बाहर निकाल दीजिये, गुदा का संकुचन कीजिये, पेट को अन्दर की ओर खींचिए और ठुड्डी को नीचे की ओर कंठमूल तक झुका लीजिये। दृष्टी भ्रूमध्य में ही रहे।
(c) मेरु दंड में नाभी के पीछे के भाग मणिपुर चक्र पर मानसिक रूप से ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ का जितनी देर तक बिना तनाव के जप कर सकें कीजिये। इस जप के समय हम मणिपुर चक्र पर प्रहार कर रहे हैं।
(d) आवश्यक होते ही सांस लीजिये। सांस लेते समय शरीर को तनावमुक्त कर a वाली स्थिति में आइये और कुछ देर अन्दर सांस रोक कर नाभि पर ओंकार का जप करें। जप के समय हम नाभि पर ओंकार से प्रहार कर रहे हैं।
(e) उपरोक्त क्रिया को दस बारह बार दिन में दो समय कीजिये| इस के बाद ध्यान कीजिये।
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(2)
एक दूसरी विधि है :------ उपरोक्त प्रक्रिया में a और b के बाद धीरे धीरे नाक से सांस लेते हुए निम्न मन्त्रों को सभी चक्रों पर क्रमश: मानसिक रूप से एक एक बार जपते हुए ऊपर जाएँ|
मूलाधारचक्र ........ ॐ भू:,
स्वाधिष्ठानचक्र ..... ॐ भुव:,
मणिपुरचक्र ......... ॐ स्व:,
अनाहतचक्र ........ ॐ मह:,
विशुद्धिचक्र ......... ॐ जन:,
आज्ञाचक्र ............. ॐ तप:,
सहस्त्रार................ ॐ सत्यम् |
(इसके पश्चात जिन का उपनयन संस्कार हो चुका है, वे गायत्री मंत्र का जप भी कर सकते हैं। उनके लिए तीन मंत्र और भी हैं).
इसके बाद सांस स्वाभाविक रूप से चलने दें लेते हुए अपनी चेतना को सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में विस्तृत कर दीजिये| ईश्वर की सर्वव्यापकता आप स्वयं हैं| आप यह देह नहीं हैं| जैसे ईश्वर सर्वव्यापक है वैसे ही आप भी सर्वव्यापक हैं| पूरे समय तनावमुक्त रहिये| कई अनुष्ठानों में प्राणायाम करना पड़ता है वहां यह प्राणायाम कीजिये| संध्या और ध्यान से पूर्व भी यह प्राणायाम कर सकते हैं| धन्यवाद|
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
२७ अप्रेल २०२१

Tuesday, 26 April 2022

सिद्ध-ब्रह्मनिष्ठ-श्रौत्रीय सद्गुरु से उपदेश और आदेश लेकर ही आध्यात्मिक साधना करें ---

 सिद्ध-ब्रह्मनिष्ठ-श्रौत्रीय सद्गुरु से उपदेश और आदेश लेकर ही आध्यात्मिक साधना करें

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किसी भी साधना में सफलता के लिए हमें इन सब का होना परम आवश्यक है --
(१) भक्ति, (२) अभीप्सा, (३) दुष्वृत्तियों का त्याग (४) शरणागति व समर्पण (५) आसन, मुद्रा और यौगिक क्रियाओं का ज्ञान, (६) दृढ़ मनोबल और स्वस्थ शरीर।
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हमारी वर्तमान स्थिति को देखकर ही कोई सद्गुरु हमें बता सकता है कि कौन सी साधना हमारे लिए सर्वोपयुक्त है। हर कदम पर अनेक बार हमें मार्गदर्शन की आवश्यकता पड़ती है। मन्त्र-साधना में तो मार्गदर्शक सद्गुरु का होना पूर्णतः अनिवार्य है, अन्यथा लाभ के स्थान पर हानि भी हो सकती है। मन्त्रयोग संहिता में आठ प्रमुख बीज मन्त्रों का उल्लेख है जो शब्दब्रह्म ओंकार की ही अभिव्यक्तियाँ हैं। मन्त्र में पूर्णता "ह्रस्व", "दीर्घ" और "प्लुत" स्वरों के ज्ञान से आती है, जिसके साथ पूरक मन्त्र की सहायता से विभिन्न सुप्त शक्तियों का जागरण होता है।
वर्णात्मक और ध्वन्यात्मक नाद, बिंदु, बीजमंत्र, अजपा-जप, षटचक्र साधना, योनी-मुद्रा में ज्योति दर्शन, खेचरी मुद्रा, महा-मुद्रा, नाद व ज्योति-तन्मयता, और साधन-क्रम आदि का ज्ञान गुरु की कृपा से ही हो सकता है।
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साधना में सफलता भी गुरु कृपा से ही होती है और ईश्वर लाभ भी गुरु कृपा से होता है। किसी भी साधना का लाभ उसका अभ्यास करने से है, उसके बारे में जानने मात्र से या उसकी विवेचना करने से कोई लाभ नहीं है। हमारे सामने मिठाई पडी है, उसका आनंद उस को चखने और खाने में है, न कि उसकी विवेचना से। भगवान का लाभ उनकी भक्ति यानि उनसे प्रेम करने से है न कि उनके बारे में की गयी बौद्धिक चर्चा से। प्रभु के प्रति प्रेम हो, समर्पण का भाव हो, और हमारे भावों में शुद्धता हो तो कोई हानि होने कि सम्भावना नहीं है। जब पात्रता हो जाती है तब गुरु का पदार्पण भी जीवन में हो जाता है|
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व्यक्तिगत रूप से आपका मेरे से मतभेद हो सकता है, क्योंकि मेरी मान्यता है कि -- कुंडलिनी महाशक्ति का परमशिव से मिलन ही योग है। गुरुकृपा से इस विषय का पर्याप्त अनुभव है। क्रियायोग का अभ्यास वेद-पाठ है, और क्रिया की परावस्था ही कूटस्थ-चैतन्य और ब्राह्मी-स्थिति है। प्रणव-नाद से बड़ा कोई मन्त्र नहीं है, और आत्मानुसंधान से बड़ा कोई तंत्र नहीं है। अनंताकाश से भी परे के सूर्यमंडल में व्याप्त निज आत्मा से बड़ा कोई देव नहीं है, स्थिर तन्मयता से नादानुसंधान, अजपा-जप, और ध्यान से प्राप्त होने वाली तृप्ति और आनंद ही परम सुख है।
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मतभेद होना स्वभाविक है, लेकिन हमारा लक्ष्य परमात्मा को उपलब्ध होना ही है। परमात्मा में हम सब एक हैं। परमात्मा ही हमारे अस्तित्व हैं।
ॐ तत्सत् ! ॐ स्वस्ति !
कृपा शंकर
२५ अप्रेल २०२२

मेरी निजी आस्था ---.

 मेरी निजी आस्था ---.

सब से बड़ी विपत्ति, दुर्भाग्य और पराजय तब है, जब भगवान का स्मरण नहीं होता। अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) का निरंतर भगवान में लगना ही मेरी प्रकृति और स्वभाव है। मैं मेरे परमात्मा के साथ एक हूँ। चाहे सारा ब्रह्मांड टूट कर बिखर जाये, भगवान का विस्मरण कभी नहीं होगा। मेरे सारे पाप-पुण्य, अवगुण-गुण और पूरा अस्तित्व उन्हें समर्पित है। जब समय आयेगा तब यह शरीर नष्ट हो जाएगा, और तुरंत दूसरा मिल जाएगा; लेकिन मैं अजर, अमर, शाश्वत आत्मा हूँ, जो अपने पारब्रह्म परमात्मा परमशिव के साथ एक है। उनके प्रेम पर मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है।
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अपनी आस्थों के साथ मैं कोई समझौता नहीं करता। कोई अन्य नहीं है, एकमात्र अस्तित्व केवल और केवल भगवान का है। जल की एक बूँद, महासागर को जान नहीं सकती, लेकिन समर्पित होकर महासागर के साथ एक तो हो ही सकती है। तब वह बूँद, बूँद नहीं रहती, स्वयं महासागर हो जाती है। सम्पूर्ण सृष्टि भगवान में है, और भगवान सम्पूर्ण सृष्टि में हैं। उनके सिवाय अन्य कोई नहीं है।
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हर साँस के साथ हम उन्हीं का स्मरण करें। उन्हीं के अनंत नाद व ज्योति में स्वयं का लय कर दें। कहीं कोई पृथकता नहीं रहे। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२६ अप्रेल २०२२

कैवल्यावस्था ---

 कैवल्यावस्था ---

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ज्ञान प्राप्ति की इच्छा हम सब में जन्मजात और स्वाभाविक है। हम परमात्मा को भी जानना चाहते हैं, लेकिन यह हमारी बौद्धिक क्षमता से परे है, क्योंकि बुद्धि हमारी अपरा-प्रकृति का भाग है। भगवान श्रीकृष्ण हमें अपरा और परा -- दोनों प्रकृतियों के बारे में गीता के 'ज्ञान-विज्ञान योग' नामक सातवें अध्याय के आरंभ में ही बताते हैं। भगवान हमें अपरा-प्रकृति से ऊपर उठकर परा-प्रकृति में स्थित होने को कहते हैं। इन दोनों प्रकृतियों से भी परे की एक परावस्था है, जिसमें हम ज्ञान का भी अतिक्रमण कर, ज्ञानातीत हो जाते हैं। वहाँ हम भी नहीं होते, केवल आत्मरूप परमात्मा ही होते हैं। वह अवस्था कैवल्य अवस्था है।
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अपरा व परा प्रकृतियों को हम भगवान की कृपा से ही समझ सकते हैं। भगवान कहते हैं --
"भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च।
अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा॥७:४॥"
"अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम्।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्।।७:५॥"
"एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय।
अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा॥७:६॥"
"मयाऽध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम्।
हेतुनाऽनेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते॥९:१०॥"
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अपरा प्रकृति में आठ तत्व हैं -- पंच महाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, और आकाश) तथा मन, बुद्धि और अहंकार। परा प्रकृति -- हमारा जीव रूप है।
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भगवान की अनन्य-भक्ति और अपने आत्म-स्वरूप के निरंतर ध्यान से कैवल्य-अवस्था की प्राप्ति होती है। कैवल्य अवस्था -- में कोई अन्य नहीं, आत्म-रूप में केवल परमात्मा होते हैं। यह अवस्था शुद्ध बोधस्वरुप है, जहाँ केवल स्वयं है, स्वयं के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं है -- एकोहम् द्वितीयो नास्ति। जीवात्मा का शुद्ध निज स्वरूप में स्थित हो जाना कैवल्य है।
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"एको देवः सर्वभूतेषु गूढः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा।
कर्माध्यक्षः सर्वभूताधिवासः साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च॥"
(श्वेताश्वतरोपनिषद्षष्ठोऽध्यायः मंत्र ११)
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हम परमात्मा को जान नहीं सकते, लेकिन समर्पित होकर परमात्मा के साथ एक हो सकते हैं; वैसे ही जैसे जल की एक बूँद, महासागर को जान नहीं सकती, लेकिन समर्पित होकर महासागर के साथ एक हो जाती है। तब वह बूँद, बूँद नहीं रहती, स्वयं महासागर हो जाती है। सम्पूर्ण सृष्टि मुझ में है, और मैं सम्पूर्ण सृष्टि में हूँ। मेरे सिवाय अन्य कोई नहीं है। शिवोहम् शिवोहम् अहम् ब्रह्मास्मि !! यही कैवल्यावस्था है।
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आप सब को सप्रेम सादर नमन !! ॐ तत्सत् !! 🙏🕉🙏
कृपा शंकर
२६ अप्रेल २०२१

Monday, 25 April 2022

खेचरी मुद्रा ----

खेचरी मुद्रा ----

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ओ३म नमः शिवाय विष्णुरूपाय शिवरूपाय विष्णवे| शिवस्य हृदयं विष्णु: विष्णोश्च हृदयं शिव:||
ओ३म मुनीन्द्रगुह्यं परिपूर्णकामं कलानिधिं कल्मषनाश हेतुं |
परात्परं यत्परं पवित्रं नमामि शिवम् महतो महान्तम्||
नमामि शिवं महतो महान्तं| नमामि रामं महतो महान्तम्||
मैं पूर्व में अनेक आध्यात्मिक चर्चाएँ कर चुका हूँ| गुरु तत्व पर चर्चा के पश्चात अन्य किसी भी आध्यात्मिक विषय पर और चर्चा नहीं करूंगा| मेरे लिए उससे बड़ा कोई अन्य विषय नहीं है|
अब बापस साधनों की ओर लौटता हूँ|
हमारे महान पूर्वज भौतिक सूर्य की नहीं बल्कि स्थूल सूर्य की ओट में जो सूक्ष्म भर्गज्योति: है उसकी उपासना करते थे| उसी ज्योति के दर्शन ध्यान में कूटस्थ (आज्ञाचक्र और सहस्रार) में भी सर्वदा होते हैं|
इस लिए भी ध्यान साधना की जाती है|
ध्यान में सफलता के लिए हमें इन का होना आवश्यक है:-----
(1) भक्ति यानि परम प्रेम|
(2) परमात्मा को उपलब्ध होने की अभीप्सा|
(3) दुष्वृत्तियों का त्याग|
(4) शरणागति और समर्पण|
(5) आसन, मुद्रा और यौगिक क्रियाओं का ज्ञान|
(6) दृढ़ मनोबल और बलशाली स्वस्थ शरीर रुपी साधन|
खेचरी मुद्रा बहुत महत्वपूर्ण है जिसकी चर्चा हम क्रमशः करेंगे|
वेदों में 'खेचरी शब्द का कहीं उल्लेख नहीं है|
वेदिक ऋषियों ने इस प्रक्रिया का नाम दिया -- 'विश्वमित्'|
'खेचरी' का अर्थ है --- ख = आकाश, चर = विचरण| अर्थात आकाश यानि प्रकाशवान या ज्योतिर्मय ब्रह्म तत्व में विचरण| जो बह्म तत्व में विचरण करता है वही साधक खेचरी सिद्ध है| परमात्मा के प्रति परम प्रेम और शरणागति हो तो साधक परमात्मा को स्वतः उपलब्ध हो जाता है पर प्रगाढ़ ध्यानावस्था में देखा गया है की साधक की जीभ स्वतः उलट जाती है और खेचरी व शाम्भवी मुद्रा अनायास ही लग जाती है| ध्यान साधना में तीब्र प्रगति के लिए खेचरी मुद्रा का ज्ञान अति आवश्यक है|
दत्तात्रेय संहिता और शिव संहिता में खेचरी मुद्रा का विस्तृत वर्णन मिलता है|
तीन-चार दिनों में हम नित्य इसकी चर्चा और पूरी सरल विधि और महिमा का वर्णन करेंगे|
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शिव संहिता में खेचरी की महिमा इस प्रकार है :-----
करोति रसनां योगी प्रविष्टाम् विपरीतगाम्|
लम्बिकोरर्ध्वेषु गर्तेषु धृत्वा ध्यानं भयापहम्||
एक योगी अपनी जिव्हा को विपरीतागामी करता है, अर्थात जीभ की तालुका में जीभ को बिठाकर ध्यान करने बैठता है, उसके हर प्रकार के कर्म बंधनों का भय दूर हो जाता है|
योगिराज श्यामाचरण लाहिड़ी महाशय खेचरी मुद्रा के लिए कुछ योगियों के सम्प्रदायों में प्रचलित छेदन, दोहन आदि पद्धतियों के सम्पूर्ण विरुद्ध थे| वे एक दूसरी ही पद्धति पर जोर देते थे जिसे 'तालब्य क्रिया' कहते हैं| इसमें मुंह बंद कर जीभ को ऊपर के दांतों व तालू से सटाते हुए जितना पीछे ले जा सकते हैं उतना पीछे ले जाते हैं| फिर मुंह खोलकर झटके के साथ जीभ को जितना बाहर फेंक सकते हैं उतना फेंक कर बाहर ही उसको जितना लंबा कर सकते हैं उतना करते हैं|
इस क्रिया को नियमित रूप से दिन में कई बार करने से कुछ महीनों पश्चात जिव्हा स्वतः लम्बी होने लगती है और गुरु कृपा से खेचरी मुद्रा स्वतः सिद्ध हो जाती है| योगिराज श्यामाचरण लाहिड़ी जी मजाक में इसे ठोकर क्रिया भी कहते थे|
लाहिड़ी महाशय ध्यान करते समय खेचरी मुद्रा पर बल देते थे| जो इसे नहीं कर सकते थे उन्हें भी वे ध्यान करते समय जीभ को ऊपर की ओर मोड़कर तालू से सटा कर बिना तनाव के जितना पीछे ले जा सकते हैं उतना पीछे ले जा कर रखने पर बल देते थे|
तालब्य क्रिया एक साधना है और खेचरी सिद्ध होना गुरु का प्रसाद है|
जब योगी को खेचरी मुद्रा सिद्ध हो जाती है तब उसकी गहन ध्यानावस्था में सहस्त्रार से एक रस का क्षरण होने लगता है| सहस्त्रार से टपकते उस रस को जिव्हा के अग्र भाग से पान करने से योगी दीर्घ काल तक समाधी में रह सकता है, उस काल में उसे किसी आहार की आवश्यकता नहीं पड़ती, स्वास्थ्य अच्छा रहता है और अतीन्द्रीय ज्ञान प्राप्त होने लगता है|
खेचरी मुद्रा की साधना की एक और वैदिक विधि है| पद्मासन में बैठकर जीभ को ऊपर की ओर मोड़कर ऋग्वेद के एक विशिष्ट मन्त्र का उच्चारण सटीक छंद के अनुसार करना पड़ता है| उस मन्त्र में वर्ण-विन्यास कुछ ऐसा होता है कि उसके सही उच्चारण से जो कम्पन होता है उस उच्चारण और कम्पन के नियमित अभ्यास से खेचरी मुद्रा स्वतः सिद्ध हो जाती है|
मुझे उस मन्त्र का ज्ञान नहीं है अतः उस पर चर्चा नहीं करूंगा|
भगवान् दत्तात्रेय के अनुसार----
अन्तःकपालविवरे जिव्हां व्यावृत्तः बंधयेत्|
भ्रूमध्ये दृष्टिरपोषा मुद्राभवति खेचरी||
अर्थात जिव्हा को पलटकर मस्तक-छिद्र के अभ्यंतर में पहुंचाकर भ्रूमध्य में दृष्टी को स्थापित करना खेचरी मुद्रा है|
यह तो भौतिक स्तर पर की जाने वाली साधना है जो ध्यान योग में तीब्र प्रगति के लिए आवश्यक है| पर आध्यात्मिक रूप से खेचरी सिद्ध वही है जो आकाश अर्थात ज्योतिर्मय ब्रह्म में विचरण करता है| साधना की आरंभिक अवस्था में साधक प्रणव ध्वनी का श्रवण और ब्रह्मज्योति का आभास तो पा लेता है पर वह अस्थायी होता है| उसमें स्थिति के लिए दीर्घ अभ्यास, भक्ति और समर्पण की आवश्यकता होती है|
भगवान दत्तात्रेय के अनुसार साधक यदि शिवनेत्र होकर यानि दोनों आँखों की पुतलियों को नासिका मूल (भ्रूमध्य के नीचे) के समीप लाकर, भ्रूमध्य में प्रणव यानि ॐ से लिपटी दिव्य ज्योतिर्मय सर्वव्यापी आत्मा का चिंतन करता है, उसके ध्यान में विद्युत् की आभा के समान देदीप्यमान ब्रह्मज्योति प्रकट होती है| अगर ब्रह्मज्योति को ही प्रत्यक्ष कर लिया तो फिर साधना के लिए और क्या बाकी बचा रह जाता है|
कल से चल रही खेचरी मुद्रा पर चर्चा का आज समापन करता हूँ| योग साधक तो इसे सीखते ही हैं| जो साधक नहीं हैं उनकी भी रूचि जागृत हो इसके लिये यह चर्चा है|
कल कुछ सीमित मंचों पर महामुद्रा और योनिमुद्रा पर प्रस्तुति दूंगा| ॐ शिव|
२४ अप्रेल २०१३

Saturday, 23 April 2022

मेरे लिए 'कृपा' शब्द का अर्थ है -- कुछ करो और पाओ ---

 मेरे लिए 'कृपा' शब्द का अर्थ है -- कुछ करो और पाओ। बिना करे तो कुछ मिलेगा नहीं। ऐसा क्या करें जिस से इस जीवात्मा का कल्याण हो, और यह परमशिव को उपलब्ध हो?

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गुरु महाराज ने मार्ग दिखा दिया, सारे संदेह दूर कर दिये, परमशिव की अनुभूति भी करा दी, लेकिन बापस वहीं लाकर छोड़ दिया जहाँ से यात्रा आरंभ की थी। अब यह सारी यात्रा स्वयं को ही करनी होगी। भगवान ने कृपा कर के इस अकिंचन को एक निमित्त मात्र बना दिया है और कर्ता वे स्वयं बन गए हैं। यह भी गुरुकृपा से ही संभव हुआ है। देने के लिए मेरे पास प्रेम के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है। सब कुछ तो उन्हीं का है। इस प्रेम पर भी उन्हीं का अधिकार है।
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सारे उपदेश, सारे सिद्धान्त और सारे नियम भूल चुका हूँ। मुझ अकिंचन को कुछ भी आता-जाता नहीं है। सामने कूटस्थ सूर्य मण्डल में साक्षात भगवान बैठे हुये हैं। पूर्ण एकाग्रता के साथ दृष्टि उन्हीं पर टिकी है। उन्हीं को देख रहा हूँ और उन्हीं को सुन रहा हूँ। यही मेरा कर्मयोग है, यही मेरा भक्तियोग है, यही मेरा ज्ञानयोग है, यही मेरा वेदपाठ है, और यही मेरा वेदान्त है। उन्हीं को देखते देखते और सुनते इस शरीर की आयु बीत जाए, और कुछ भी नहीं चाहिए।
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आगे से और कुछ लिखने की भी इच्छा अब नहीं रही है। जो लिखा गया सो लिखा गया। बस यही पर्याप्त है। हे गुरु महाराज, आपको नमन करता हूँ --
"वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च |
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते ||
नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व |
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः ||"
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ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
२४ अप्रेल २०२२

अज़ान का उद्देश्य और अर्थ ---

यह मान्यता है कि सत्य को जानने, और अपनी सही जानकारी के लिए प्रत्येक हिन्दू को, अर्थ सहित अच्छी तरह समझ कर, जीवन में कम से कम एक बार, बाइबिल के old व सारे new Testaments, और कुरानशरीफ व अन्य सभी महत्वपूर्ण मज़हबों/पंथों के ग्रंथ अवश्य पढ़ने चाहियें। पढ़ कर उनकी तुलनात्मक विवेचना भी करनी चाहिए। तभी तो पता चलेगा कि इन में क्या लिखा है। कोई भी जानकारी प्रामाणिक होनी चाहिए, सुनी-सुनाई बातों से काम नहीं चलेगा। मैंने सभी का तुलनात्मक अध्ययन किया है।
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आज मैं मस्जिदों से दी जाने वाली अज़ान का उद्देश्य और अर्थ बता रहा हूँ| इस पर कोई भी प्रतिक्रिया अपने मन में ही रखें। मेरे फेसबुक पेज पर कोई नकारात्मक टिप्पणी न करें।
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रामदान (रमज़ान) का मुक़द्दस महीना चल रहा है (मंगलवार १३ अप्रेल २०२१ से बुधवार १२ मई २०२१)। मस्जिदों से अज़ान की बाँग दिन में पाँच बार ध्वनि-विस्तारक यंत्रों के माध्यम से बड़े जोर से दी जाती है। इस का अर्थ और उद्देश्य सभी को पता होना चाहिए। अज़ान इस तरह दी जाती है ---
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(१) अल्लाहु अकबर (चार बार)।
“अल्लाहु अकबर” का अर्थ होता है -- “अल्लाह महान है।"
(२) अशहदु अन ला इलाहा इल्लल्लाह (दो बार)।
“अशहदु अन ला इलाहा इल्लल्लाह” का अर्थ होता है “मैं गवाही देता हूँ; कोई उपास्य नहीं सिवाय अल्लाह के।”
(३) अशहदु अन्ना मुहमदन रसूल्लुल्लाह (दो बार)।
“अशहदु अन्ना मुहमदन रसूल्लुल्लाह” का अर्थ होता है “मैं गवाही देता हूँ; मुहम्मद साहब ही अल्लाह के रसूल (दूत) हैं।“
(४) हैया ‘अल-सलाह (दो बार)।
“हैया ‘अल-सलाह” का अर्थ होता है “आओ नमाज़ की तरफ़।“
(५) हैया ‘अलल फ़लाह (दो बार)।
“हैया ‘अलल फ़लाह” का अर्थ होता है “आओ सफ़लता की ओर।“
(६) अल्लाहु अकबर (दो बार)।
“अल्लाहु अकबर” का अर्थ होता है -- “अल्लाह महान है।"
(७) ला इलाहा इल्लल्लाह (एक बार)
“ला इलाहा इल्लल्लाह” का अर्थ होता है “कोई उपास्य नहीं सिवाय अल्लाह के।“
पुनश्च: --- सुबह की पहली नमाज़ में एक पंक्ति अधिक जोडते हैं शायद -- "अस्सलातु खैरूम मिनन्नउम्" अर्थात् - "सोने से अच्छा प्रार्थना करना है।" इसका मुझे ठीक से पता नहीं है।
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मेरा एकमात्र उद्देश्य किसी भी तथ्य को यथावत् बताना है, किसी की भी प्रशंसा या निंदा करना नहीं। धन्यवाद !! मेरे लिखने मे कोई भूल हुई है तो मनीषी लोग मुझे क्षमा करें।
२४ अप्रैल २०२१

शिव ही विष्णु हैं, और विष्णु ही शिव हैं ---

 "ॐ नमः शिवाय विष्णुरूपाय शिवरूपाय विष्णवे। शिवस्य हृदयं विष्णु: विष्णोश्च हृदयं शिव:॥"

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मनुष्य की बुद्धि जो ईश्वर की ऊंची से ऊंची परिकल्पना कर सकती है, वह शिव और विष्णु की है। तत्व रूप में दोनों एक हैं। शिव ही विष्णु हैं, और विष्णु ही शिव हैं। अतः हमें ध्यान शिव या विष्णु के विराट रूप का ही करना चाहिए। ध्यान में सफलता के लिए हमारे में इन बातों का होना आवश्यक है:---
(1) भक्ति यानि परम प्रेम।
(2) परमात्मा को उपलब्ध होने की अभीप्सा।
(3) दुष्वृत्तियों का त्याग।
(4) शरणागति और समर्पण।
(5) आसन, मुद्रा और यौगिक क्रियाओं का ज्ञान।
(6) दृढ़ मनोबल और बलशाली स्वस्थ शरीर रुपी साधन।
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ध्यान हमेशा परमात्मा के अनंत ज्योतिर्मय ब्रह्मरूप और नाद का होता है। हम बह्म-तत्व में विचरण और स्वयं का समर्पण करें, -- यही आध्यात्मिक साधना है। परमात्मा के प्रति परम प्रेम और शरणागति हो तो साधक परमात्मा को स्वतः ही उपलब्ध हो जाता है।
ॐ स्वस्ति !! ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२४ अप्रेल २०२१