Friday, 29 April 2022

भगवान श्रीकृष्ण का ध्यान ---

 भगवान श्रीकृष्ण का ध्यान ---

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प्रातः उठते ही अपने पूरे शरीर को एक बार तनाव में लाएँ, और शिथिल करें। लघुशंकादि से निवृत होकर एक कंबल पर पूर्व दिशा की ओर मुंह कर के बैठ जाएँ। कमर सीधी रहे (अन्यथा कोई लाभ नहीं होगा), ठुड्डी --भूमि के समानांतर, और दृष्टिपथ -- भ्रूमध्य को भेदता हुआ अनंत में स्थिर रहे। जीभ को ऊपर उठाकर पीछे की ओर मोड़ कर रखने का अभ्यास करें। तीन-चार बार प्राणायाम करें। पूरी सांस नासिका से बाहर निकाल दें, और जितनी देर तक बाह्य-कुंभक में रह सकते हैं, रहें।
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भ्रूमध्य में भगवान श्रीकृष्ण का दर्शन करें और भाव करें कि आपके माध्यम से आपको निमित्त बनाकर वे ही सांसें ले रहे हैं। उनका विस्तार सारे ब्रह्मांड में है। सारी सृष्टि श्रीकृष्ण में है, और श्रीकृष्ण सारी सृष्टि में हैं। वे ब्रह्मांड के कण-कण में हैं, और सारा ब्रह्मांड उन में है। जब वे सांस ले रहे हैं तो "सोsssss" और सांस छोड़ रहे हैं तब "हंssssss" की ध्वनि गूंज रही है, जिसे सुनते रहें। बीच बीच में आंख खोलकर अपने शरीर को भी देख लें और यह भाव करें कि "मैं यह शरीर नहीं हूँ, यहाँ तो सिर्फ भगवान श्रीकृष्ण हैं"। वे सब में हैं, और सब कुछ उन में है। उनके सिवाय "अन्य" कोई है ही नहीं, "मैं" भी नहीं, सिर्फ वे ही हैं।
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इसे "अजपा-जप" (हंसः योग) (हंसवती ऋक) कहते हैं। इसका अभ्यास करते करते कालांतर में एकांत की पृष्ठभूमि में अनाहत नाद (प्रणव, ओंकार) सुनाई देने लगेगा जिसकी महिमा सारे उपनिषदों और गीता में है। जब अनाहत नाद सुनाई देने लगे तब उसे भी सुनते रहें, और ओंकार का मानसिक जप करते रहें।
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पूरे दिन भगवान श्रीकृष्ण की चेतना में रहें। आपकी आँखों से वे ही देख रहे हैं, आपके पैरों से वे ही चल रहे हैं, आपके हाथों से वे ही सारा कार्य कर रहे हैं, वे स्वयं को आपके माध्यम से व्यक्त कर रहे हैं। आप भगवान श्रीकृष्ण के पूरे उपकरण बनें।
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जब विस्तार की अनुभूति होने लगेगी तब उस विस्तार में स्थित होकर अनंत का ध्यान कीजिये और भगवान श्रीकृष्ण की अनंतता में रहें। आप पायेंगे कि यह "घटाकाश" ही नहीं, "दहराकाश", और "महाकाश" भी आप स्वयं हैं।
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कभी कभी आप स्वयं को इस शरीर से बाहर भी पायेंगे, तब भयभीत न हों। यह एक सामान्य सी प्रक्रिया है। उस अनंताकाश से परे एक आलोकमय जगत है, जो क्षीरसागर है। पंचकोणीय नक्षत्र के रूप में पंचमुखी महादेव वहीं बिराजते हैं। वहीं भगवान नारायण बिराजते हैं।
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उसी के आलोक के बारे में श्रुति भगवती कहती है ---
"न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः। तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति॥"
(मुंडकोपनिषद मंत्र ११), (कठोपनिषद् मंत्र १५)
गीता में भगवान श्रीकृष्ण उसी के बारे में कहते हैं ---
"न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः। यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम।।१५:६॥"
"यतन्तो योगिनश्चैनं पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम्। यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतसः॥१५:११॥"
"यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम्। यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम्।।१५:१२॥"
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आप सब को मैं साष्टांग दंडवत् प्रणाम करता हूँ। आपके बहाने मुझे भी भगवान की गहरी याद आ ही गई। आप का उपकार मानता हूँ। ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
३० अप्रेल २०२१
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पुनश्च: ----
(१) अजपा जप को ही वेदों में हंसवती ऋक कहा गया है। शैलेंद्रनारायण घोषाल की लिखी पुस्तक "तपोभूमि नर्मदा" के पाँचवें खंड में इसका बहुत विस्तार से वर्णन है। उसमे वेदों और उपनिषदों के सारे संदर्भ दिये हैं।
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(२) प्रख्यात वैदिक विद्वान माननीय श्री Arun Kumar Upaadhyay जी ने कृपा कर के इस लेख पर अपनी टिप्पणी की है ---
Arun Kumar Upadhyay
मेरा अनुभव सीमित है। हंसवती ऋक् के कुछ उदाहरण नीचे दे रहा हूं-
हंस रूपी सुपर्ण से विश्व का वयन या निर्माण-हंसः सुपर्णाः शकुनाः वयांसि (अथर्व, ११/२/२४, १२/१/५१)
वीभत्सूनां सयुजं हंसं आहुरपां दिव्यानां सख्ये चरन्तम्।
अनुष्टुभमनु चचूर्यमाणं इन्द्रं निचिक्युः कवयो मनीषा॥ (ऋक् १०/१२४/९)
हृदयेऽष्टदले हंसात्मानं ध्यायेत्। अग्निषोमौ पक्षौ, ॐकारः शिरो विन्दुस्तु नेत्रं मुखो रुद्रो रुद्राणि चरणौ बाहूकालश्चाग्निश्च ... एषोऽसौ परमहंसो भानुकोटिप्रतीकाशः। (हंसोपनिषद्)
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(३) वृंदावन के महात्मा राधा शरण दास जी ने इस लेख पर अपनी टिप्पणी की है ---
राधा शरण दास
इस अभ्यास को यदि ठीक प्रकार से किया जाता रहे तो परिणाम यह होगा कि ’मैं’ से निवृत्ति हो जायेगी। न अपनी कोई ईच्छा होगी, न कोई स्वार्थ, न कोई आसक्ति, न कोई शत्रु और न ही कोई भय, आशंका, संदेह।
जय जय श्री राधे !

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