Thursday, 21 May 2020

हमें परमात्मा की प्राप्ति कब होगी?

हमें परमात्मा की प्राप्ति कब होगी?

यह एक शाश्वत प्रश्न है जिसका उत्तर बड़े स्पष्ट शब्दों में परमात्मा ने स्वयं दिया है| शांत, मौन और एकांत में उन के प्रति अपने परमप्रेम को पूर्ण सत्यनिष्ठा, श्रद्धा और विश्वास से स्वयं में व्यक्त करो| जब अन्तःकरण शांत होगा तब उन की उपस्थिति का आभास निश्चित रूप से होता है| वे नित्य निरंतर हमारे कूटस्थ में बिराजमान हैं| अपनी सभी दुर्बलताओं से ऊपर उठ कर कूटस्थ में उन का ध्यान करो| उनके प्रति अभीप्सा व प्रेम में कोई कमी नहीं होनी चाहिए|
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अब शिकायत करने को कुछ बचा भी नहीं है| सारी दुर्बलताओं/कमजोरियों का आभास भी उन्होने करा दिया है और उन से ऊपर उठने के उपाय भी बता दिये हैं| हमारी भक्ति व साधना हमारे और परमात्मा के मध्य का व्यक्तिगत मामला है, इसमें किसी भी तरह का दिखावा नहीं होना चाहिए| इस में किसी अन्य का कोई काम नहीं है| किसी अन्य पर चाहे वह कोई भी क्यों न हो, किसी भी तरह की निर्भरता नहीं होनी चाहिए| सत्यनिष्ठा हो तो वे स्वयं हमारे हर प्रश्न का उत्तर देते हैं|
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ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२२ मई २०२०

वीतरागता :---

वीतरागता :---

राग और द्वेष ये दो ही पुनर्जन्म यानि इस संसार में बारम्बार आने के मुख्य कारण हैं| जिनसे भी हम राग या द्वेष रखते हैं, अगले जन्म में उन्हीं के परिवार में जन्म होता है| जिस भी परिस्थिति और वातावरण से हमें राग या द्वेष है, वही वातावरण और परिस्थिति हमें दुबारा मिलती है| राग और द्वेष ही लोभ और अहंकार को जन्म देते हैं| मैं तो अपने जीवन में इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि मनुष्य का लोभ और अहंकार ही मनुष्य के सारे पापों का मूल, सब बुराइयों की जड़ और सब प्रकार की हिंसा का एकमात्र कारण है| मनुष्य के लोभ और अहंकार का जन्म भी राग और द्वेष से ही होता है|
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राग और द्वेष से मुक्त होने को 'वीतरागता' कहते हैं| यह मुक्ति का मार्ग है| जैन मत का तो उद्देश्य ही वीतरागता को प्राप्त होना है| यह भगवान महावीर के उपदेशों का सार है| वीतरागता मनुष्यत्व की वह परम अवस्था है जहाँ पर हम राग व विराग के भाव से मुक्त होकर परम-तत्व से साक्षात्कार करने लगते हैं| वीतरागी के लिए स्वर्ण व धूलि एक समान होते हैं, वह कुछ पकड़ता भी नहीं है और कुछ छोड़ता भी नहीं है| यह चैतन्य की एक बहुत ऊँची अवस्था है|
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गुरुगीता का ८९ वां श्लोक कहता है .....
"न तत्सुखं सुरेन्द्रस्य न सुखं चक्रवर्तिनाम्| यत्सुखं वीतरागस्य मुनेरेकान्तवासिनः ||"
अर्थात् एकान्तवासी वीतराग मुनि को जो सुख मिलता है वह सुख न इन्द्र को और न चक्रवर्ती राजाओं को मिलता है|
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वीतराग पुरुषों का चिंतन कर, उन्हें चित्त में धारण कर, उनके निरंतर सत्संग से हम स्वयं भी वीतराग हो जाते हैं| योगसूत्रों में एक सूत्र है ...."वीतराग विषयं वा चित्तम्'||
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वीतरागता ही वैराग्य है| भगवान श्रीकृष्ण हमें 'स्थितप्रज्ञ मुनि' होने का आदेश देते हैं जिसके लिए वीतराग तो होना ही पड़ता है .....
"दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः| वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते||२:५६||"
दुःख तीन प्रकार के होते हैं .... "आध्यात्मिक", "आधिभौतिक" और "आधिदैविक"| इन दुःखों से जिनका मन उद्विग्न यानि क्षुभित नहीं होता उसे "अनुद्विग्नमना" कहते हैं|
सुखों की प्राप्ति में जिसकी स्पृहा यानि तृष्णा नष्ट हो गयी है (ईंधन डालने से जैसे अग्नि बढ़ती है वैसे ही सुख के साथ साथ जिसकी लालसा नहीं बढ़ती) वह "विगतस्पृह" कहलाता है|
राग, द्वेष और अहंकार से मुक्ति वीतरागता है| जो वीतराग है और जिसके भय और क्रोध नष्ट हो गये हैं, वह "वीतरागभयक्रोध" कहलाता है|
ऐसे गुणोंसे युक्त जब कोई हो जाता है तब वह "स्थितधी" यानी "स्थितप्रज्ञ" और मुनि या संन्यासी कहलाता है| यह स्थितप्रज्ञता" ही वास्तविक "स्वतन्त्रता" है|
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भगवान श्रीकृष्ण ने राग-द्वेष से मुक्ति और वीतराग होने का मार्ग भी बता दिया है .....
"यदक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः| यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये||८:११||"
"सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च| मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्||८:१२||"
"ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्| यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्||८:१३||"
"अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः| तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः||८:१४||"
"मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम्| नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः||८:१५||'
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यह लेख बहुत अधिक लंबा हो गया है अतः इसका समापन यहीं करता हूँ| परमात्मा को कर्ता बनाकर सब कार्य करो| कर्तव्य निभाते हुए भी अकर्ता बने रहो| सारे कार्य परमात्मा को समर्पित कर दो, फल की अपेक्षा या कामना मत करो| किसी को किसी के प्रति भी राग और द्वेष मत रखो| बुराई का प्रतिकार करो, युद्धभूमि में शत्रु का भी संहार करो पर ह्रदय में घृणा बिलकुल भी ना हो| ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१७ मई २०२०
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पुनश्च: :---
परमात्मा में गहराई से स्थित होने पर ही मनुष्य का आचरण सही हो सकता है, अन्यथा नहीं| मुझे हर्ष तो तब होता है जब मैं पतित से पतित व्यक्ति का भी उत्थान होते हुए देखता हूँ| बड़े बड़े संतों का भी लोकेषणा व विषयेषणा के कारण पतन होते हुए देखा है| मेरे स्वयं के अनुभव भी हैं और पूर्वजन्म की कुछ स्पष्ट स्मृतियाँ भी हैं जिन्हें मैं किसी के साथ कभी साझा नहीं करता| एक बार एक पहुंचे हुए वयोवृद्ध विदेशी संत ने जो मुझे पिछले जन्म से जानते थे पहिचान भी लिया और बताया भी| पर मैंने तुरंत विषय बदल दिया, और आगे इस विषय पर बात नहीं होने दी|
मैं स्वयं के भी उत्थान, पतन और पुनश्च उत्थान व पतन का साक्षी हूँ| इस जन्म में अब और पतन न हो, मेरे आचरण, व्यवहार और विचारों में शुचिता बनी रहे, यही भगवान से प्रार्थना है|

भ्रूमध्य में ध्यान की महिमा .....

भ्रूमध्य में ध्यान की महिमा

भ्रूमध्य अवधान का भूखा है| कामनाओं से मुक्ति पाने के लिए हमें अपनी चेतना को सदा "भ्रूमध्य" में रखने और परमात्मा के ध्यान का नित्य नियमित अभ्यास करना होगा| यहाँ ध्यान से मेरा तात्पर्य है .... अजपा-जप (हंसयोग, शिवयोग), नादानुसंधान व क्रियायोग| खोपड़ी के पीछे का भाग मेरुशीर्ष (Medulla Oblongata) हमारी देह का सर्वाधिक संवेदनशील स्थान है जहाँ मेरुदंड की सभी नाड़ियाँ मष्तिष्क से मिलती हैं| इस भाग की कोई शल्यक्रिया नहीं हो सकती| हमारी सूक्ष्म देह में आज्ञाचक्र यहीं पर स्थित है| यह स्थान भ्रूमध्य के एकदम विपरीत दिशा में है| योगियों के लिए यह उनका आध्यात्मिक हृदय है| यहीं पर जीवात्मा का निवास है| इसके थोड़ा सा ऊपर ही शिखा बिंदु है जहाँ शिखा रखते हैं| उस से ऊपर सहस्त्रार और ब्रह्मरंध्र है|
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गुरु की आज्ञा से शिवनेत्र होकर यानि बिना किसी तनाव के दोनों नेत्रों के गोलकों को नासिकामूल के समीपतम लाकर, भ्रूमध्य में दृष्टी स्थिर कर, खेचरी मुद्रा में या जीभ को बिना किसी तनाव के ऊपर पीछे की ओर मोड़कर तालू से सटाकर रखते हुए, प्रणव यानि ओंकार की ध्वनि को अपने अंतर में सुनते हुए उसी में लिपटी हुई सर्वव्यापी ज्योतिर्मय अंतर्रात्मा का ध्यान-चिंतन नित्य नियमित करें| गुरु की कृपा से कुछ महिनों या वर्षों की साधना के पश्चात् विद्युत् की चमक के समान देदीप्यमान ब्रह्मज्योति ध्यान में प्रकट होती है| यह ब्रह्मज्योति और प्रणव की ध्वनि दोनों ही आज्ञाचक्र में प्रकट होती हैं, पर इस ज्योति के दर्शन भ्रूमध्य में प्रतिबिंबित होते हैं, इसलिए गुरु महाराज सदा भ्रूमध्य में ध्यान करने की आज्ञा देते हैं| ब्रह्मज्योति का प्रत्यक्ष साक्षात्कार करने के पश्चात् उसी की चेतना में सदा रहें| यह ब्रह्मज्योति अविनाशी है, इसका कभी नाश नहीं होता| लघुत्तम जीव से लेकर ब्रह्मा तक का नाश हो सकता है पर इस ज्योतिर्मय ब्रह्म का कभी नाश नहीं होता| यही कूटस्थ है, और इसकी चेतना ही कूटस्थ चैतन्य है| यह योगमार्ग की उच्चतम साधनाओं/उपलब्धियों में से एक है|
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कूटस्थ में परमात्मा सदा हमारे साथ हैं| हम सदा कूटस्थ चैतन्य में रहें| कूटस्थ में समर्पित होने पर ब्राह्मी स्थिति प्राप्त होती है जिसमें हमारी चेतना परम प्रेममय हो समष्टि के साथ एकाकार हो जाती है| हम फिर परमात्मा के साथ एक हो जाते हैं| भगवान कहते हैं ....
"एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति| स्थित्वाऽस्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति||२:७२||"
अर्थात् हे पार्थ यह ब्राह्मी स्थिति है| इसे प्राप्त कर पुरुष मोहित नहीं होता| अन्तकाल में भी इस निष्ठा में स्थित होकर ब्रह्मनिर्वाण (ब्रह्म के साथ एकत्व) को प्राप्त होता है||
यह अवस्था ब्राह्मी यानी ब्रह्म में होनेवाली स्थिति है, अर्थात् सर्व कर्मों का संन्यास कर के केवल ब्रह्मरूप से स्थित हो जाना है|
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परमात्मा सब गुरुओं के गुरु हैं| उनसे प्रेम करो, सारे रहस्य अनावृत हो जाएँगे| हम भिक्षुक नहीं हैं, परमात्मा के अमृत पुत्र हैं| एक भिखारी को भिखारी का ही भाग मिलता है, पुत्र को पुत्र का| पुत्र के सब दोषों को पिता क्षमा तो कर ही देते हैं, साथ साथ अच्छे गुण कैसे आएँ इसकी व्यवस्था भी कर ही देते हैं| भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं ....
"प्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव |
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैतिदिव्यं" ||८:१०||
अर्थात भक्तियुक्त पुरुष अंतकाल में योगबल से भृकुटी के मध्य में प्राण को अच्छी प्रकार स्थापित कर के, फिर निश्छल मन से स्मरण करता हुआ उस दिव्य रूप परम पुरुष को ही प्राप्त होता है|
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आगे भगवान कहते हैं .....
सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च | मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम् ||८:१२||
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन् | यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम् ||८:१३||
अर्थात सब इन्द्रियों के द्वारों को रोककर तथा मन को हृदय में स्थिर कर के फिर उस जीते हुए मन के द्वारा प्राण को मस्तक में स्थापित कर के, योग धारणा में स्थित होकर जो पुरुष 'ॐ' एक अक्षर रूप ब्रह्म को उच्चारण करता हुआ और उसके अर्थस्वरूप मुझ ब्रह्म का चिंतन करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता है, वह पुरुष परम गति को प्राप्त होता है|
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निश्छल मन से स्मरण करते हुए भृकुटी के मध्य में प्राण को स्थापित करना और ॐकार का निरंतर जाप करना ..... यह एक दिन का काम नहीं है| इसके लिए हमें आज से इसी समय से अभ्यास करना होगा| उपरोक्त तथ्य के समर्थन में किसी अन्य प्रमाण की आवश्यकता नहीं है, भगवान का वचन तो है ही, और सारे उपनिषद्, शैवागम और तंत्रागम इसी के समर्थन में भरे पड़े हैं|
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ध्यान का अभ्यास करते करते चेतना सहस्त्रार पर चली जाए तो चिंता न करें| सहस्त्रार तो गुरु महाराज के चरण कमल हैं| कूटस्थ केंद्र भी वहीं चला जाता है| वहाँ स्थिति मिल गयी तो गुरु चरणों में आश्रय मिल गाया| चेतना ब्रह्मरंध्र से परे अनंत में भी रहने लगे तब तो और भी प्रसन्नता की बात है| वह विराटता ही तो विराट पुरुष है| वहाँ दिखाई देने वाली ज्योति भी अवर्णनीय और दिव्यतम है| परमात्मा के प्रेम में मग्न रहें| वहाँ तो परमात्मा ही परमात्मा होंगे, न कि हम|
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय | ॐ नमः शिवाय | ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
२० मई २०२०

"नाम और रूप" में कौन बड़ा है, और कौन छोटा? .....

"नाम और रूप" में कौन बड़ा है, और कौन छोटा? यह कहना अपराध है| नाम के बिना रूप का ज्ञान नहीं हो सकता| भेद दृष्टि अपराध है| जो भेद दृष्टि रखते हैं, उनके घर में आसुरी संतान जन्म लेती है| जो भेद दृष्टि नहीं रखते उनके घर में देवशक्ति से सम्पन्न संतान हैती हैं| जैसे दिति - अदिति| दिति अर्थात भेद, अदिति अर्थात अभेद| भेद से हिरण्याक्ष, हिरण्यकश्यपु| अभेद से बटुक वावन| दृष्टि बदली कि सृष्टि बदली| पूर्वजन्म में हमने मुक्ति का मार्ग नहीं अपनाया , मुक्ति हुई नहीं इसलिए तो भौतिक शरीर में जन्म लिया| अच्छाई को न ग्रहण करना भी महापाप है|
......(एक संत का प्रसाद)
समुझत सरिस नाम अरु नामी। प्रीति परसपर प्रभु अनुगामी।।
नाम रूप दुइ ईस उपाधी। अकथ अनादि सुसामुझि साधी।।
को बड़ छोट कहत अपराधू। सुनि गुन भेद समुझिहहिं साधू।।
देखिअहिं रूप नाम आधीना। रूप ग्यान नहिं नाम बिहीना।।
रूप बिसेष नाम बिनु जानें। करतल गत न परहिं पहिचानें।।
सुमिरिअ नाम रूप बिनु देखें। आवत हृदयँ सनेह बिसेषें।।
नाम रूप गति अकथ कहानी। समुझत सुखद न परति बखानी।।
अगुन सगुन बिच नाम सुसाखी। उभय प्रबोधक चतुर दुभाषी।।

Monday, 18 May 2020

परमात्मा से प्रेम और उन का ध्यान भी एक नशा है ....

परमात्मा से प्रेम और उन का ध्यान भी एक नशा है| जिस को भी इस नशे से प्रेम हो जाता है और इस की आदत पड़ जाती है वह इसके बिना नहीं रह सकता, चाहे प्राण ही चले जाएँ| उसे बाकी की सब चीजें फालतू लगती हैं| हिमालय की दुर्गम कन्दराओं में, भयावह वनों के एकांत, बीहड़ और निर्जन स्थानों पर रहने वाले संत-महात्मा अपने प्राणों की बाजी लगाकर परमात्मा के नशे में ही जीवित रहते हैं| वास्तव में उनका स्वयं का तो कोई अस्तित्व ही नहीं रहता, परमात्मा स्वयं ही उनके माध्यम से जीते हैं| अन्यथा जहाँ हिंसक प्राणियों, तस्कर-लुटेरों, अधर्मी/विधर्मियों, नास्तिकों, और बीमारी व भूख-प्यास से प्राण जाने की हर पल आशंका रहती है, ऐसे असुरक्षित स्थानों, परिस्थितियों व वातावरण में कौन रहना चाहेगा? घर-गृहस्थी व समाज में भी ऐसे लोग तिरस्कृत व उपेक्षित होकर ही रहते हैं| समाज में भी लोग उनके बारे में यही सोचते हैं कि यह कमाता-खाता क्यों नहीं है, क्या इसे अन्य कोई काम-धंधा नहीं है? जो ऐसे लोगों के पास जाते हैं वे भी यही सोच कर जाते हैं कि पता नहीं इस से हमें क्या कुछ मिल जाएगा|
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जिन्हें भगवान से सच्चा प्रेम होता है वे ही सबसे पहिले समाज में ठगों से ठगे जाते हैं| आजकल समाज में ठग लोग दूसरों का धन ठगने के लिए भी भक्ति की बड़ी बड़ी बातें करते हैं| ऐसे लोग समाज पर कलंक हैं जो भक्ति का दिखावा कर के दूसरों को ठगते हैं|
"कबीरा आप ठगाइये, और न ठगिये कोई| आप ठगे सुख उपजे, और ठगे दुःख होई||"
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यह भी एक नशा है जो मुझे ये सब लिखने को बाध्य कर देता है| यदि किसी को मेरे इस नशे की आदत से कोई तकलीफ है तो मैं उनसे क्षमा चाहता हूँ| वे मुझे माफ करें| तमाशबीनों के फालतू प्रश्नों का कोई उत्तर मेरे पास नहीं है|
ॐ तत्सत् !!
१५ मई २०२०
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पुनश्च :--- एक बार एक बीहड़ स्थान पर जहाँ जाने में भी डर लगता है, मेरे एक मित्र मुझे एक महात्मा से मिलाने ले गए| पास में ही गंगा जी बहती थीं| भूमि को खोद कर एक गुफा सी उन्होने बना रखी थी जिस में वे रहते थे| उन महात्मा जी के सिर के बाल बहुत घने और कम से कम भी छह-सात फीट लंबे थे| अपने बालों के आसन पर ही बैठ कर वे भगवान के ध्यान में मस्त रहते थे| मैंने उनसे पूछा कि इस चोर-डाकुओं के इलाक़े में वे हिंसक प्राणियों के मध्य अकेले कैसे रह लेते हैं और क्या खाते हैं? उन्होने बताया कि पहिले तो वे मुट्ठी भर भूने हुए चने खाकर ही कई महीनों तक जीवित रहे| फिर एक डिब्बे में रखे हुए कुछ गेहूँ व दालें मिली जुली दिखाईं और कहा कि यह अगले छह माह का राशन है| एक मुट्ठी भर अनाज भिगो देते हैं और उसके अंकुरित होने पर खा लेते हैं| चोर-डाकू और हिंसक प्राणी परेशान नहीं करते क्योंकि मैं उनकी किसी परेशानी का कारण नहीं हूँ| रुपए-पैसों को तो वे छूते भी नहीं थे|
मुझे ऐसे भी कई महात्मा मिले हैं जो जीवित रहने के लिए झरनों का पानी पी लेते और जंगल में कोई फल खाकर या घास चबा कर ही जीवित रह लेते थे|
वास्तव में भगवान ही उनके योग-क्षेम को देखते हैं|

हंसवती ऋक, नादानुसंधान, व सूक्ष्म प्राणायाम द्वारा चेतना का ऊर्ध्वगमन -----

हंसवती ऋक, नादानुसंधान, व सूक्ष्म प्राणायाम द्वारा चेतना का ऊर्ध्वगमन -----
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परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति, हमारे माध्यम से हर क्षण कैसे हो? यही हमारी एकमात्र समस्या है| हम भूतकाल में क्या थे और भविष्य में क्या होंगे? यह सृष्टिकर्ता परमात्मा की समस्या है, हमारी नहीं|
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किस विधि से हमारा वर्तमान सर्वश्रेष्ठ हो, हर क्षण हम परमात्मा की चेतना में कैसे रहें? परमात्मा हमारे जीवन में कैसे व्यक्त हो? यही हमारी मूल समस्या है| ऐसे विषयों पर भारत में खूब विचार हुए हैं| वेदों में इनकी साधना विधियाँ भी सूत्र रूपों में दी हुई हैं| आजकल इनका खूब प्रचार हुआ है और लाखों साधक तैयार हुए हैं जो यथासंभव अपनी पूर्ण निष्ठा और निःस्वार्थ भाव से साधना कर रहे हैं| इन साधकों की संख्या धीरे-धीरे निरंतर बढ़ रही है| इन साधना पद्धतियों का कहीं कहीं मूल नाम बदल गया है पर उनका मूलरूप यथावत है| इन लाखों साधकों की साधना जब फलीभूत होगी तब एक ब्रह्मशक्ति का प्राकट्य भारतवर्ष में होगा, और भारतवर्ष अपने द्विगुणित परम वैभव को प्राप्त कर एक अखंड आध्यात्मिक हिन्दू राष्ट्र होगा जहाँ की राजनीति ही सनातन धर्म होगी| तब असत्य और अंधकार की शक्तियों का प्रभाव अत्यल्प हो जाएगा|
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निज चेतना पर पड़ा हुआ एक अज्ञान का आवरण धीरे-धीरे गुरुकृपा से दूर हो रहा है और समझ भी बढ़ रही है| जब मुझ जैसे अकिंचन अपात्र पर भगवान कृपा कर के अपने अनेक रहस्यों को अनावृत कर सकते हैं, तो आप तो बहुत अधिक प्रबुद्ध, ज्ञानी, और सज्जन हैं| आप में तो बहुत अधिक पात्रता है| थोड़ी रुचि लें और भगवान को अपना प्रेम दें तो निश्चित रूप से उनकी महती कृपा आप पर अवश्य होगी|
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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ नमः शिवाय !! ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१५ मई २०२०

हम अपना सर्वश्रेष्ठ करें .....

अपने अनुभव और विवेक से राष्ट्र की समस्याओं को हम बहुत अच्छी तरह से समझ सकते हैं| उनका समाधान क्या है यह भी समझ में आ सकता है| जोश में भरकर बड़ी बड़ी बातों से कोई लाभ नहीं है| कुछ भी करने से पहिले हमें यह आंकलन करना होगा कि हमारी स्वयं की क्षमता व योग्यता क्या है, और हमारे पास क्या क्या उपलब्ध साधन हैं? यह भी समझना होगा कि अपनी क्षमता, योग्यता और उपलब्ध साधनों की सीमा में रहते हुए वर्तमान परिस्थिति में अपना सर्वश्रेष्ठ हम क्या कर सकते हैं? जब यह समझ में आ जाये तो शांति से अपने पूरे पुरुषार्थ से अपना कार्य आरंभ कर दो| सफलता मिलना या न मिलना ईश्वर पर निर्भर है| भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने पूरा मार्गदर्शन दिया है| उन्हें अपने जीवन का केंद्रबिन्दु बना कर सब कुछ समर्पित कर दो| नित्य गीता का स्वाध्याय व भगवान वासुदेव का ध्यान करना चाहिए| तब भटकने की संभावना नहीं रहेगी और मार्गदर्शन और शक्ति भी मिलेगी| ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
१६ मई २०२०

ध्यान साधना :----

ध्यान साधना :----

कोई भी ध्यान साधना तभी करें जब परमात्मा से परमप्रेम हो, और उन्हें पाने की एक अति गहन अभीप्सा हो| ध्यान साधना में यम-नियमों का पालन करना पड़ता है जो सभी के लिए संभव नहीं है| आचार-विचार में अशुद्धि से लाभ के स्थान पर हानि ही होती है| अतः यदि आचरण में और विचारों में पवित्रता संभव नहीं है तो किसी भी तरह की ध्यान साधना नहीं करें|
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ध्यान साधना में मेरूदण्ड सदा उन्नत रहे और दृष्टिपथ भ्रूमध्य की ओर रहे, पर प्रयासपूर्वक निज चेतना सदा आज्ञाचक्र पर या उस से ऊपर ही रखें| आज्ञाचक्र ही हमारा आध्यात्मिक हृदय है| प्रभु के चरण कमल सहस्त्रार हैं| सहस्त्रार में स्थिति गुरु चरणों में आश्रय है| ऊनी आसन पर पूर्व या उत्तर की ओर मुंह कर के पद्मासन/सिद्धासन/वज्रासन या सुखासन में बैठें| भूमि पर नहीं बैठ सकते तो एक ऊनी कंबल बिछा कर उस पर बिना हत्थे की कुर्सी पर बैठें, पर कमर सदा सीधी रहे|
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कौन सी धारणा व किस का ध्यान करें? :---
ब्रह्मरंध्र से ऊपर ब्रह्मांड की अनंतता हमारा वास्तविक अस्तित्व है, यह देह भी उसी का एक भाग है| हम यह देह नहीं हैं, यह देह हमारे अस्तित्व का एक छोटा सा भाग, और हमारी उस अनंत विराटता को पाने का एक साधन मात्र है| अपने पूर्ण प्रेम से परमात्मा की उस परम ज्योतिर्मय विराट अनंतता पर ध्यान करें| यही पूर्णता है, यही परमशिव है, यही परमब्रह्म है| अपने हृदय का सम्पूर्ण प्रेम उन्हें समर्पित कर दें, कुछ भी बचा कर न रखें| अपना सम्पूर्ण अस्त्तित्व, अपना सब कुछ उन्हें समर्पित कर दें|
इस से पूर्व कुछ देर तक हठयोग के प्राणायाम कर के बाह्यांतर कुंभक करें और सांस जब लेनी पड़े तब अजपा-जप (हंसयोग), नादानुसंधान, शक्ति-संचलन, मंत्र-जप आदि अपनी अपनी गुरु-परंपरानुसार करें|
गुरु परंपरा का आचार्य वही हो सकता है जो श्रौत्रीय (जिसे श्रुतियों यानि वेदों का ज्ञान हो) व ब्रहमनिष्ठ हो|
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(सार्वजनिक मंचों पर इससे अधिक नहीं लिखा जा सकता क्योंकि आगे की सारी विधियाँ आचार्य गुरु के द्वारा ही बताई जा सकती हैं और साधना भी आचार्य गुरु के मार्ग-दर्शन में ही होती है) ॐ तत्सत्! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१६ मई २०२०

मंगोलिया महान योद्धाओं का देश था या दुर्दांत लुटेरों का ?.....

आजकल भारत के प्रधान मंत्री मंगोलिया की यात्रा पर हैं, इसलिए उपरोक्त प्रश्न का उठना स्वाभाविक है| मंगोलिया का इतिहास योरोपियन लोगों द्वारा लिखा गया है| योरोपियन लोगों ने अपने से अतिरिक्त अन्य सब की अत्यधिक कपोल कल्पित बुराइयाँ ही की हैं| योरोपियन लोग इतिहास के सबसे बड़े लुटेरे थे अतः उन्होंने अपने से अलावा सबको लुटेरा ही बताया है| भारत में आया पहला योरोपीय व्यक्ति वास्को-डी-गामा था जो एक नर पिशाच समुद्री डाकू था| भारत में जो अँग्रेज़ सबसे पहिले आये वे सब लुटेरे समुद्री डाकू थे| भारत पर जिन अंग्रेजों ने अधिकार किया वे सारे अंग्रेज़ .... चोर, लुटेरे डाकू, धूर्त, और बदमाश किस्म के सजा पाए हुए लोग थे जिन्हें सजा के तौर पर यहाँ भेजा गया था|
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योरोपियन इतिहासकारों ने सिकंदर को महान योद्धा और चंगेज़ खान को लुटेरा सिद्ध किया है| निष्पक्ष दृष्टी से देखने पर मुझे चंगेज़ खान की उपलब्धियाँ सिकंदर से बहुत अधिक लगती हैं|
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मंगोलिया कभी विभिन्न घूमंतू जातियों द्वारा शासित था| चंगेज़ खान ने मंगोलियाई साम्राज्य की स्थापना की थी| वह किसी कबीलाई धर्म को मानता था| पश्चिमी एशिया में इस्लाम के अनुयायियों का मंगोलों ने बहुत बड़ा नरसंहार किया था| बग़दाद का खलीफा जो इस्लामी जगत का मुखिया था, एक नौका में बैठकर टाइग्रस नदी में भाग गया था जिसे चंगेज़ खान की मंगोल सेना नदी के मध्य से पकड लाई और एक गलीचे में लपेट कर लाठियों से पीट पीट कर मार डाला| कालांतर में पश्चिमी एशिया में बचे खुचे मंगोलों ने इस्लाम अपना लिया| पर इस्लाम मंगोलिया तक कभी नहीं पहुँच पाया|
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चंगेज़ खान के भय से ही आतंकित होकर मध्य एशिया के कुछ मुसलमान कश्मीर में शरणार्थी होकर आये और आगे जाकर छल-कपट से कश्मीर के शासक बन गए और हिन्दुओं पर बहुत अधिक अत्याचार किये| इसका वर्णन "राजतरंगिनी" में दिया है|
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"खान" शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के "कान्ह" शब्द से हुई है जो भगवान श्रीकृष्ण का ही एक नाम था| भगवान श्रीकृष्ण के देवलोक गमन के बाद भी सैंकड़ों वर्षों तक पूरे विश्व में उनकी उपासना की जाती थी| प्राचीन संस्कृत साहित्य में जिस शिव भक्त "किरात" जाति का उल्लेख है, वह "मंगोल" जाति ही है| उन में "कान्ह" शब्द बहुत सामान्य था जो अपभ्रंस होकर "हान" हो गया| चीन के बड़े बड़े सामंत स्वयं के नाम के साथ "हान" की उपाधी लगाते थे| यही "हान" शब्द और भी अपभ्रंस होकर "खान" हो गया| प्रसिद्ध इतिहासकार श्री पुरुषोत्तम नागेश ओक का यही मत था|
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चंगेज़ खान का राज्य इतने विशाल क्षेत्र पर था कि आज के समय उसकी कल्पना करना भी असम्भव है| मंगोलिया के इस महा नायक चंगेज़ खान का वास्तविक नाम मंगोल भाषा में "गंगेश हान" था| गंगेश शब्द संस्कृत भाषा का है| वह किसी देवी का उपासक था| बाद में उसके पोते कुबलई खान ने बौद्ध मत स्वीकार किया और बौद्ध मत का प्रचार किया| वहाँ के प्राचीन साहित्य में मंगोलों के लिए किरात शब्द का प्रयोग हुआ है|
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चंगेज़ खान को सूक्ष्म जगत की किसी आसुरी शक्ति का संरक्षण प्राप्त था जो उसे यह आभास करा देती थी कि कहाँ कहाँ पर और किस किस प्रकार से आक्रमण करना है| वह कभी कोई युद्ध नहीं हारा| उसका अधिकाँश समय घोड़े की पीठ पर ही व्यतीत होता था| घोड़े की पीठ पर चलते चलते ही वह सो भी लेता था| चंगेज खान के समय ही घोड़े पर बैठने की आधुनिक काठी व काठी के नीचे पैर रखने के लोहे के मजबूत पायदान का आविष्कार हुआ था| बहुत तेजी से भागते हुए घोड़े की पीठ पर से तीर चलाकर अचूक निशाना लगाने का उसे पक्का अभ्यास था जो प्रायः उसके सभी अश्वारोहियों को भी था| जो उसके सामने समर्पण कर देता था उसे तो वह छोड़ देता था बाकि सब का वह बड़ी निर्दयता से वध करा देता था|
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एक और प्रश्न उठता है यदि चंगेज़ खान मात्र लुटेरा था तो उसका पोता कुबलई ख़ान (मंगोल भाषा में Хубилай хаан; चीनी में 忽必烈; २३ सितम्बर १२१५ – १८ फ़रवरी १२९४) चीन का सबसे महान शासक कैसे हुआ?
कुबलई खान मंगोल साम्राज्य का का सबसे महान शासक था| वह बौद्ध धर्म का अनुयायी था| उसका राज्य उत्तर में साइबेरिया के इर्कुत्स्क स्थित बाइकाल झील (विश्व में मीठे पानी की सबसे गहरी झील) से दक्षिण में विएतनाम तक, और पूर्व में कोरिया से पश्चिम में कश्यप सागर तक था, जो विश्व का 20% भाग है| उसके समय में पूरे मंगोलिया ने बौद्ध धर्म को अपना लिया था| चीनी लिपि का आविष्कार भी उसी के समय हुआ और मार्को पोलो भी उसी के समय ही चीन गया था| तिब्बत के प्रथम दलाई लामा की नियुक्ति भी उसी ने की थी| उसने १२६० से १२९४ तक शासन किया| कुबलई ख़ान चंगेज़ ख़ान के सबसे छोटे बेटे तोलुइ ख़ान का बेटा था|
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उसकी इच्छा जापान को जीतने की थी| उसने दो बहुत बड़े बड़े बेड़े बनवाए जिनमे हजारों नौकाएँ थीं| जापान पर आक्रमण करने के लिए उसका एक बेड़ा कोरिया से और एक बेड़ा चीन की मुख्य भूमि से जापान की ओर चला| इन बेड़ों में उसके लगभग चार लाख सैनिक और हजारों घोड़े थे| वह जापान पहुंचता इससे पहिले ही जापान सागर में एक भयानक तूफ़ान आया और उसकी सारी फौज डूब कर मर गयी| यहीं से मंगोल साम्राज्य का पतन आरम्भ हुआ| तभी से किसी को शाप देने के लिए हिंदी में यह कहावत शुरू हुई -- "तेरा बेड़ा गर्क हो"|
("कुबलई" शब्द संस्कृत के "कैवल्य" शब्द का अपभ्रंस हैै). रूसी भाषा में चीन को "किताई" कहते हैं, और वहाँ के प्राचीन साहित्य में मंगोलों के लिए किरात शब्द का प्रयोग हुआ है|
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मंगोलों से एक समय पूरा योरोप और एशिया काँपती थी| पर वे उस समय के दुर्दांत लुटेरे थे या योद्धा? यह इतिहास को दुबारा निर्णय देना होगा|
कृपाशंकर
१७ मई २०१५
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पुनश्चः : प्राचीन संस्कृत साहित्य में जिस किरात जाति का उल्लेख है, वह किरात जाति मंगोल जाति ही है| इस पृथ्वी पर पिछले एक-डेढ़ हजार वर्षों में कुबलई खान से अधिक शक्तिशाली सम्राट कोई दूसरा नहीं हुआ|

Tuesday, 12 May 2020

अब मन भर गया है, कुछ भी लिखने की इच्छा नहीं है ....

अथ वायुः अमृतम् अनिलम् | इदम् शरीरं भस्मान्तं भूयात् | ॐ कृतो स्मर, कृतं स्मर, कृतो स्मर, कृतं स्मर || ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ||
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प्रिय निजात्मगण, सप्रेम अभिवादन ! मुझे आप सब से बहुत अधिक प्रेम, सम्मान, स्नेह और आशीर्वाद मिला है जिसके लिए मैं आप सब का बहुत अधिक आभारी हूँ| मेरा स्वास्थ्य अब ठीक नहीं रहता है इसलिए मैं फेसबुक आदि सभी सोशियल मीडिया पर सभी तरह का लेखन कार्य स्थायी रूप से बंद कर रहा हूँ| अन्य कोई कारण नहीं है| इस लेखन के पीछे ईश्वर की प्रेरणा ही थी| पिछले कई वर्षों में बहुत अधिक लेख मेरे माध्यम से लिखे गए हैं जिन का श्रेय मैं नहीं लेता क्योंकि सारी शक्ति और प्रेरणा ईश्वर की ही थी, अतः सारा श्रेय ईश्वर को ही है, मुझे नहीं| ज्ञान का एकमात्र स्त्रोत भी ईश्वर ही है, पुस्तकें नहीं| पुस्तकें तो मात्र प्रेरणा और सूचना ही देती हैं, कोई ज्ञान नहीं|
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मुझे किसी भी तरह का कोई यश, कीर्ति और सम्मान नहीं चाहिए| मैं नहीं चाहता कि कोई मुझे याद भी करे| याद ही करना है तो शाश्वत परमात्मा को करें, इन नश्वर शरीर महाराज को नहीं, जिन की आयु ७२ वर्ष से अधिक की हो चुकी है| अब अवशिष्ट सारा जीवन परमात्मा की ध्यान साधना में ही बिताने की प्रेरणा मिल रही है| जब यह शरीर छोड़ने का समय आयेगा तब तक भगवान का ध्यान करते करते सचेतन रूप से देह-त्याग करने की क्षमता भी गुरुकृपा से प्राप्त हो ही जाएगी| पूर्व जन्मों के गुरु ही इस जन्म में भी मेरे गुरु हैं जो सूक्ष्म जगत से अपनी कृपा-वृष्टि करते रहते हैं| पूर्व-जन्म की स्मृतियाँ कभी-कभी सामने आ जाती हैं| इस जन्म में अपने गुरुओं को कभी अपनी भौतिक आँखों से देखा नहीं पर चैतन्य में उनकी उपस्थिती सदा रहती है|
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कुछ समय पहिले एक मोबाइल स्मार्ट मोबाइल फोन खरीदा था, उसका उपयोग बंद कर एक बेसिक मोबाइल फोन ही रखूँगा जिसका भी कम से कम और अति आवश्यक प्रयोग ही करूंगा| एक लेपटॉप है जिसका प्रयोग भी व्यक्तिगत मेल आदि के लिए ही करूंगा| मोबाइल फोन पर लिखना इस आयु में संभव नहीं है|

मेरी राजनीतिक विचारधारा : ---

सत्य सनातन धर्म ही भारत की राजनीति हो| भारत माँ अपने द्विगुणित परम वैभव के साथ अखंडता के सिंहासन पर बिराजमान हों| भारत में असत्य और अंधकार की शक्तियों का पराभव हो, भारत के भीतर और बाहर के शत्रुओं का नाश हो| सत्य सनातन धर्म की पुनर्प्रतिष्ठा और वैश्वीकरण हो| इस से पृथक मेरी कोई राजनीतिक विचारधारा नहीं है|

मेरी आध्यात्मिक विचारधारा :---

जो श्रीमद्भगवद्गीता में वासुदेव भगवान श्रीकृष्ण की और श्रुति भगवती की विचारधारा है, वही मेरी भी आध्यात्मिक विचारधारा है, उस से एक माइक्रोमीटर भी इधर उधर नहीं| इसमें कोई संदेह नहीं है|
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आप सब परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्तियाँ और मेरे प्राण है| आप सब को सविनय सादर नमस्कार करता हूँ| आप सब का आशीर्वाद सदा बना रहे|
"वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च|
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते||
नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व|
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः||"
ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
१२ मई २०२०

भगवान निरंतर हमारे साथ हैं .....

यह भाव हर समय बना रहे कि भगवान निरंतर हमारे साथ हैं| वे एक पल के लिए भी हमारे से दूर नहीं हो सकते| यह अपने आप में ही एक बहुत बड़ी साधना है|
भगवान हैं, यहीं पर है, सर्वत्र हैं, इसी समय हैं, सर्वदा हैं, वे ही सब कुछ हैं, और सब कुछ वे ही हैं| वे ही हमारे हृदय में धडक रहे हैं, वे ही इन नासिकाओं से सांसें ले रहे हैं, इन पैरों से वे ही चल रहे हैं, इन हाथों से वे ही हर कार्य कर रहे हैं, इन आँखों से वे ही देख रहे हैं, इस मन और बुद्धि से वे ही सोच रहे हैं, हमारा सम्पूर्ण अस्तित्व वे ही हैं| सारा ब्रह्मांड, सारी सृष्टि वे ही हैं| वे परम विराट और अनंत हैं| हम तो निमित्त मात्र, उन के एक उपकरण मात्र हैं| भगवान स्वयं ही हमें माध्यम बना कर सारा कार्य कर रहे हैं| कर्ता हम नहीं, स्वयं भगवान हैं|
सारी महिमा भगवान की है| भगवान ने जहाँ भी रखा है और जो भी दायित्व दिया है उसे हम नहीं, स्वयं भगवान ही कर रहे हैं| वे ही जगन्माता हैं, वे ही परमपुरुष हैं| हम उन के साथ एक हैं| कहीं कोई भेद नहीं है| ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
११ मई २०२०

एक दिव्य अनुभूति .....

एक दिव्य अनुभूति .....

मनुष्य में जैसी बुद्धि होती है वह वैसे ही कर्म करता है| मुझ अकिंचन में भी कोई करामात नहीं है, सामान्य से भी कम ही बुद्धि है और अनेक कमियाँ हैं| मेरी पीड़ा यह है कि अब मेरी ऊर्जा हर ओर से तीब्र गति से क्षीण होती जा रही है| यह शरीर महाराज भी वृद्ध और बेकार हो गया है| इसके हृदय में छिपा अंधकार, और अवचेतन मन में भरा तमोगुण, अपना प्रभाव उग्र रूप से दिखाने लगा है| किसी के भी उपदेश अब अच्छे नहीं लगते| कोई मुझे उपदेश देता है तो ऐसे लगता है जैसे कोई भैंस के आगे बीन बजा रहा है| हृदय बहुत व्याकुल और आर-पार की लड़ाई लड़ना चाहता था|
अब और क्या करता? विवश होकर अपने इष्टदेव और गुरु महाराज का ध्यान किया और पूर्ण हृदय से प्रार्थना की| ध्यान करते करते चेतना एक भाव-समाधि में चली गई| धीरे-धीरे भावजगत में ऐसा लगा कि बालरूप में स्वयं भगवान मेरे समक्ष खड़े-खड़े मुस्करा रहे हैं| पता नहीं क्यों मुझे बहुत बुरा लगा और उन्हें डांट कर भगा दिया| कई ऐसे शब्द भी बोल दिये जो नहीं बोलने चाहियें थे| भगवान ने कोई बुरा नहीं माना और मुस्कराते हुए चले गए| पर घोर आश्चर्य! वे कहीं गए नहीं, देखा, सामने ही एक ऊंचे आसन पर उसी बालरूप में पद्मासन लगाए ध्यानस्थ हैं| उनका अप्रतिम सौंदर्य इतना मनमोहक और आकर्षक कि कोई सुध-बुध नहीं रही| कोई शिकायत या असंतोष अब नहीं रहा| हृदय के सारे भाव शांत होकर लुप्त हो गए| मन इतना शांत हो गया कि शब्द-रचना ही असंभव हो गई| अंत में एक ही बात इस अति-अति अल्प और अति सीमित बुद्धि से समझ में आई जब उनकी एक अंतिम मुस्कान के साथ वह दृश्य विसर्जित हो गया| उनकी मुस्कान का अर्थ था कि तुम्हें अब और कुछ भी नहीं करना है, जो करना है वह मैं ही करूंगा, तुम सिर्फ मेरी ओर सदा निहारते रहो, मेरी छवि सदा अपने समक्ष रखो, अन्य कुछ भी नहीं| वह भाव-समाधि भी समाप्त हो गई और आँखों में प्रेमाश्रुओं के अतिरिक्त सब कुछ सामान्य हो गया जैसे कुछ हुआ ही नहीं था| पर उनका स्पष्ट संदेश मिल गया .....
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति| तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति||६:३०||"
अर्थात् जो पुरुष मुझे सर्वत्र देखता है और सबको मुझमें देखता है, उसके लिए मैं दूर नहीं होता और वह मुझसे वियुक्त नहीं होता||
भगवान वासुदेव (जो सर्वत्र सम भाव से व्याप्त हैं) सब की आत्मा हैं, जो उन्हें सर्वत्र देखता है उसके लिए वे कभी अदृश्य नहीं होते|
ये पंक्तियाँ भी उन्हीं की प्रेरणा से लिखी जा रही हैं| मेरी कोई कामना नहीं है|
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१० मई २०२०

हमें अपने कर्तव्य-कर्म तो नित्य करने ही पड़ेंगे ....

हमें अपने कर्तव्य-कर्म तो नित्य करने ही पड़ेंगे| यज्ञ, दान और तप हमारे नित्यकर्म हैं जिनके न करने पर उनका परिणाम भी भुगतना ही पड़ता है| अपने कर्तव्यों की उपेक्षा करने पर कोई क्षमा नहीं है| भगवान श्रीकृष्ण स्वयं कहते हैं .....
"उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्| सङ्करस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः||३:२४||"
अर्थात् यदि मैं कर्म न करूँ, तो ये समस्त लोक नष्ट हो जायेंगे; और मैं वर्णसंकर का कर्ता तथा इस प्रजा का हनन करने वाला होऊँगा||
भगवान कहते हैं .....
"यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत्| यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम्||१८:५||"
अर्थात् यज्ञ, दान और तपरूप कर्म त्याज्य नहीं है, किन्तु वह नि:सन्देह कर्तव्य है; यज्ञ, दान और तप ये मनीषियों (साधकों) को पवित्र करने वाले हैं|
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भगवान एक अति गोपनीय सूक्ष्म यज्ञ के बारे में बताते हैं .....
"अपाने जुह्वति प्राण प्राणेऽपानं तथाऽपरे| प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः||४:२९||"
अर्थात् अन्य (योगीजन) अपानवायु में प्राणवायु को हवन करते हैं, तथा प्राण में अपान की आहुति देते हैं, प्राण और अपान की गति को रोककर, वे प्राणायाम के ही समलक्ष्य समझने वाले होते हैं||
उपरोक्त एक गोपनीय विद्या है जो भगवान की विशेष कृपा से ही समझ में आती है| इसे कोई सिद्ध गुरु ही समझा सकता है| एक बार यह समझ में आ जाये तो यह भी नित्य कर्म हो जाती है|
इनके अतिरिक्त हंसयोग (अजपा-जप) यानि शिवयोग व नादानुसंधान आदि भी बहुत अधिक प्रभावशाली सहायक साधनायें हैं, जिनका नित्य अभ्यास करना चाहिए| ये भी हमारे नित्य कर्मों में हो|
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अपनी शंकाओं के निवारण हेतु संतों से मार्गदर्शन अवश्य प्राप्त करें| संत सदा जन-कल्याण की ही सोचते हैं, वे कभी गलत बात नहीं बताएँगे|
१० मई २०२०

आज़ाद हिन्द फौज के सैनिकों को उन का सम्मान मिले ....

द्वितीय विश्व युद्ध के समय के, आजाद हिन्द फौज के सैनिकों सहित, जो भी पूर्व सैनिक जीवित हैं (अब उनकी आयु कम से कम ९० वर्ष से अधिक की ही होगी), उनका आधिकारिक रूप से पूरा सम्मान होना चाहिए| द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति का 'विजय दिवस', रूस को छोड़कर अन्य देश ८ मई को मनाते हैं, पर रूस ९ मई को मनाता है| द्वितीय विश्वयुद्ध में सबसे अधिक मरने वाले सैनिक भारत के थे क्योंकि अंग्रेजों ने भारतीय सैनिकों का उपयोग युद्ध में चारे की तरह किया था| जहाँ भी मृत्यु निश्चित होती वहाँ भारतीय सैनिकों को मरने के लिए युद्ध में झौंक दिया जाता था| बर्मा के मोर्चे पर तो लाखों भारतीय सिपाहियों को भूखा मरने के लिए छोड़ दिया गया था| उनका राशन यूरोप में भेज दिया गया|
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युद्ध के बाद जीवित बचे भारतीय सैनिकों ने अंग्रेज अधिकारियों के आदेश मानना और उन्हे सलाम करना बंद कर दिया था| मुंबई में नौसैनिकों ने अंग्रेजों के विरूद्ध विद्रोह कर दिया| अंग्रेज सरकार ने पाया कि यदि अभी ससम्मान भारत नहीं छोड़ा तो भारत के लोग उन्हें मार कर भारत में ही गाड़ देंगे| विश्वयुद्ध में मार खाकर बुरी तरह थकी हुई हुई उनकी सेना में वह सामर्थ्य नहीं था कि अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह पर उतारू भारतीय सैनिकों पर नियंत्रण कर सके| अतः एकमात्र इसी कारण से अंग्रेजों ने भारत छोड़ने का निर्णय लिया| गांधीजी का योगदान इस में शून्य था| जाते-जाते अंग्रेजों ने भारत को जितना लूट सकते थे उतना लूटा, जितनी हानि पहुँचा सकते थे उतनी हानि पहुंचाई, भारत का विभाजन किया, और अपने मानस पुत्रों को भारत की सत्ता हस्तांतरित कर चले गए|
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सत्ता हस्तांतरण के बाद सत्ता में आए भारतीय शासकों ने आजाद हिन्द फौज के सैनिकों को वह सम्मान नहीं दिया जिसके वे अधिकारी थे| न तो उन्हें बापस सेना में लिया गया, न उन का बकाया वेतन दिया गया और न उन्हें कोई पेंशन दी गई| अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध में २६ हजार से अधिक आजाद हिन्द फौज के सिपाही मारे गए थे जिन्हें वीरोचित सम्मान मिलना चाहिए था जो उन्हें नहीं दिया गया| नेताजी सुभाष चंद्र बोस को भारत से भागने के लिए विवश किया गया| उनका क्या हुआ यह भी पता नहीं चलने दिया गया| कहा गया कि उनकी मृत्यु एक वायुयान दुर्घटना में हुई थी, पर मुखर्जी आयोग को ताईवान सरकार ने लिखित में दिया था कि उस दिन कोई वायुयान दुर्घटना ही नहीं हुई थी| वे भाग कर मंचूरिया चले गए थे जो उस समय रूस के अधिकार में था| फिर क्या हुआ किसी नहीं पता| यह तो रूसी सरकार ही बता सकती है जो कभी नहीं बताएगी क्योंकि इस से संबंध खराब हो सकते हैं|
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इस लेख के लिखने का उद्देश्य यही है कि आज जो हम सिर ऊँचा कर के बैठे हैं, इस का श्रेय द्वितीय विश्व युद्ध के जीवित या मृत भारतीय सैनिकों को हैं, उनमें आज़ाद हिन्द फौज के सैनिक भी हैं| उन्हें उन का गौरव लौटाया जाये, उनकी वीरता को मान्यता दी जाये और जो जीवित बचे हैं उनको उनका पूरा सम्मान दिया जाये| वंदे मातरम् !! भारत माता की जय !!
९ मई २०२०

मन कई बार अशांत क्यों हो जाता है? ....

"निर्मल मन जन सो मोहि पावा। मोहि कपट छल छिद्र न भावा||"
कई बार मन इतना अधिक शांत हो आता है कि किसी भी तरह की शब्द-रचना संभव नहीं होती| यह स्थिति बड़ी आदर्श और शान्तिदायक होती है क्योंकि तब हम परमात्मा के समीप होते हैं| यही स्थिति सदा बनी रहे तो आदर्श है| इस स्थिति में इस भौतिक देह का बोध अति अति अल्प होकर नगण्य हो जाता है, और परमात्मा की सर्वव्यापकता के साथ चेतना जुड़ जाती है| यह शरीर ही नहीं, इसके साथ-साथ हमारे मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार भी परमात्मा को पाने के साधन ही हैं| इन का सदुपयोग होना चाहिए, अन्यथा ये हमें नर्क-कुंड की अग्नि में गिरा देते हैं|
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प्राण-तत्व जितना चंचल होता है, मन उतना ही अशांत होता है| प्राण-तत्व की चंचलता जितनी कम होती जाती है हम परमात्मा के उतना ही समीप होते हैं| ईश्वर की परम कृपा से ही प्राण तत्व, आकाश तत्व, और बीज मंत्र चैतन्य होकर हमें अनुभूत होते हैं| ईश्वर की कृपा भी तभी होती है जब हमारे में 'निष्कपटता', 'अकुटिलता', 'निष्ठा', 'परमप्रेम' और "अभीप्सा" होती है| अन्यथा हम परमात्मा के मार्ग के पात्र नहीं हैं| जिनके हृदय में परमात्मा के प्रति कूट कूट कर प्रेम भरा पड़ा है, मैं उनके साथ एक हूँ| अन्य सभी को पूर्ण हृदय से दूर से ही नमस्कार!
"बंदउँ संत असज्जन चरना| दुःखप्रद उभय बीच कछु बरना||
बिछुरत एक प्रान हरि लेहीं| मिलत एक दुख दारुन देहीं||
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ॐ तत्सत् ॐ ॐ ॐ !!
९ मई २०२०

धर्मरक्षा के अतिरिक्त अभी अन्य सब विषय गौण हैं .....

धर्मरक्षा के अतिरिक्त अभी अन्य सब विषय गौण हैं| धर्म की रक्षा उसके पालन से ही होगी| तभी भगवान हमारी रक्षा करेंगे| हमारी आध्यात्मिक साधना धर्मरक्षा हेतु ही हो| अपने स्वधर्म पर हम अडिग रहें|
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं ....
"श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्| स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः||३:३५||"
"नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते| स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्||२:४०||"
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हमारे आदर्श कौन हो सकते हैं?
इस का कोई भी उत्तर सभी के लिए एक नहीं हो सकता| सभी की सोच अलग-अलग होती है| जहां तक मेरी सोच है, मेरे आदर्श तो वे ही हो सकते हैं जो मेरे साथ एक हैं| वे निरंतर मेरी चेतना में रहते हैं, उनसे पृथकता की मैं कभी कल्पना भी नहीं कर सकता|
यह एक परम गोपनीय रहस्य ही रहे तो ठीक है| अपना रहस्य किसी को बताना भी नहीं चाहिए|
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हारिये ना हिम्मत, बिसारिये न हरिः नाम| जब भी समय मिले तब कूटस्थ सूर्यमण्डल में पुरुषोत्तम का ध्यान करें| गीता में जिस ब्राह्मी स्थिति की बात कही गई है, निश्चय पूर्वक प्रयास करते हुए आध्यात्म की उस परावस्था में रहें| सारा जगत ही ब्रह्ममय है| किसी भी परिस्थिति में परमात्मा के अपने इष्ट स्वरूप की उपासना न छोड़ें| पता नहीं कितने जन्मों में किए हुए पुण्य कर्मों के फलस्वरूप हमें भक्ति का यह अवसर मिला है| कहीं ऐसा न हो कि हमारी ही उपेक्षा से परमात्मा को पाने की हमारी अभीप्सा ही समाप्त हो जाए|
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"वेदान्त के ब्रह्म ही साकार रूप में प्रत्यक्ष भगवान श्रीकृष्ण स्वयं हैं, वे ही योगियों के परमशिव और पुरुषोत्तम हैं, और वे ही परमेष्ठि परात्पर सद्गुरु हैं| तत्व रूप से कोई भेद नहीं है|"
"आदि अंत कोउ जासु न पावा| मति अनुमानि निगम अस गावा||
बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना| कर बिनु करम करइ बिधि नाना||
आनन रहित सकल रस भोगी| बिनु बानी बकता बड़ जोगी||
तनु बिनु परस नयन बिनु देखा| ग्रहइ घ्रान बिनु बास असेषा||
असि सब भाँति अलौकिक करनी| महिमा जासु जाइ नहिं बरनी||"


७ मई २०२० 

अहंकार और लोभ ही हमारे पतन के कारण हैं .....

हमारे ही नहीं, बड़े से बड़े संत-महात्मा और राजा-महाराजा के भी पतन के दो ही कारण होते हैं ...
(१) अहंकार (२) लोभ || कोई तीसरा कारण नहीं है|
महाभारत में लोभ और अहंकार को ही हिंसा का कारण बताया गया है| लोभ और अहंकार से मुक्ति ही अहिंसा है, जो परम धर्म है|
हम स्वयं को यह शरीर मानते हैं, यह सब से बड़ा अहंकार है| अपने स्वयं के कोई बड़ा आदमी होने, गुणवान व साधन-सम्पन्न होने, बहुत बड़ा साधक या महात्मा होने का भाव भी अहंकार है जो पतन का कारण होता है| महाभारत में इसे बहुत अच्छी तरह से समझाया गया है| यश, प्रसिद्धि व प्रभावशाली होने की चाह भी लोभ है, जो हमसे गलत कार्य करवाता है| पराये धन, पराये स्त्री/पुरुष, व असीमित भौतिक सुख-सुविधाओं की चाह भी हमारा पतनगामी लोभ है| हमारे शास्त्रों में इसके उदाहरण भरे पड़े हैं|

जो अहंकार और लोभ से मुक्त है वही वास्तविक चरित्रवान है| देश की सबसे बड़ी समस्या राष्ट्रीय चरित्र निर्माण की है| चरित्रवान, कार्यकुशल व राष्ट्रभक्त नागरिक ही देश की वास्तविक शक्ति हैं| अङ्ग्रेज़ी राज से मुक्ति के बाद से ही देश के उच्च पदस्थ लोगों में भ्रष्टाचार था जो समय के साथ बढ़ता गया| देश में हजारों करोड़ रुपयों के अनेक घोटाले हुए हैं जिनमें देश के शीर्षस्थ लोग सम्मिलित थे| आश्चर्य है कि सभी घोटालेबाज बच गये और घोटाले का पैसा वसूल नहीं हुआ| ये घोटाले अशिक्षित व अज्ञानी लोगों ने नहीं वरन, बल्कि समाज के सम्मानित व प्रतिष्ठित लोगों ने किये| सत्ता के शीर्ष में बैठे हुए लोगों का चरित्र आदर्श हो| नेताजी सुभाष चन्द्र बोस, लाल बहादुर शास्त्री, गुलजारीलाल नन्दा, अटलबिहारी बाजपेयी के बाद अब देश में श्री नरेन्द्र मोदी जी ही हैं जिन्हें हम चरित्रवान कह सकते हैं| वर्तमान शिक्षा व्यवस्था देश को चरित्रवान युवा नहीं दे सकती| देश में बड़े-बड़े विचारक हैं जिन्हें इस समस्या पर विचार करना चाहिए|
६ मई २०२०

Thursday, 7 May 2020

सारी आध्यात्मिक साधनायें वैदिक हैं ....

सारी आध्यात्मिक साधनायें वैदिक हैं| कुछ साधनाओं को मैं शैव व शाक्त तंत्रागमों से ली गई मानता था, पर पिछले कुछ दिनों में गुरुकृपा से कुछ प्रामाणिक ग्रन्थों के स्वाध्याय का अवसर मिला जिनसे मेरी अनेक धारणाएँ परिवर्तित हो गईं और एक नई ऊर्जा का संचार हुआ|
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हमारे व्यक्तित्व में अनेक दोष हैं, हमारे अवचेतन मन में बहुत अधिक तमोगुण भरा हुआ है, प्रारब्ध कर्म तो हमें दुःखी कर ही रहे हैं, संचित कर्म भी पता नहीं कब फल देने लगें| समय बहुत कम है, जीवन बहुत छोटा है, ऐसे में मुक्ति की तो कल्पना ही असंभव है| पर गीता में भगवान श्रीकृष्ण किसी भी परिस्थिति में निराश नहीं होने को कहते हैं| श्रुति भगवती भी आश्वासन देती है कि जीव और ईश्वर में जो भेद है वह यथार्थ नहीं, माया द्वारा कल्पित है| पूर्व जन्मों के गुरु भी मार्गदर्शन, सहायता और रक्षा कर रहे हैं| उनकी कृपा से कोई संदेह नहीं रहा है| फिर भी अनेक व्यक्तित्व दोष हैं जिनका निराकरण हरिःकृपा से हमें करना ही होगा|
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नित्य नियमित रूप से जब भी समय मिले, खाली पेट, पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुंह कर के किसी एकांत स्थान में ऊनी आसन पर बैठें| कमर को हमेशा सीधी रखें| दृष्टिपथ भ्रूमध्य की ओर रहे| कुछ देर हठयोग के प्राणायाम कर के शरीर को तनावरहित ढीला छोड़ दें| हर आती-जाती साँस के प्रति सजग रहें| पूर्ण श्रद्धा-विश्वास और निष्ठा से भगवान श्रीकृष्ण से मार्गदर्शन के लिए प्रार्थना और ध्यान करें|
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मैं अपनी पूरी निष्ठा और विश्वास से कहता हूँ कि उनकी कृपा निश्चित रूप से होगी और धीरे-धीरे आपके समक्ष अनेक गूढ़ रहस्य अनावृत होंगे| यह सब आपके प्रयासों पर कम, और उन की कृपा पर अधिक निर्भर है| अपना पूर्ण प्रेम उन्हें देंगे तो वे भी निश्चित रूप से कृपा करेंगे| यहाँ मैं और भी अनेक बातें लिखना चाहता था पर उनका आदेश बस इतने के लिए ही है|
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आप सब परमात्मा की श्रेष्ठतम अभिव्यक्तियाँ हैं| आप सब को नमन|
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय| ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
५ मई २०२०

एक पीड़ा .....

अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह लगता है ये सब प्राचीन भारत की बातें हैं| आजकल तो जो दिखाई दे रहा है वह इनसे विपरीत ही है| सत्य तो नारायण (सत्यनारायण) यानि सिर्फ परमात्मा है| उसका यह संसार तो झूठ-कपट से चल रहा है| जो जितनी बड़ी सत्य की बात करता है, पाते हैं कि वह उतना ही बड़ा झूठा है| आजकल कोई भी मंत्र व साधना सिद्ध नहीं होती क्योंकि असत्य-वादन से हमारी वाणी दग्ध हो जाती है, और दग्ध-वाणी से जपा गया कोई भी मंत्र कभी फलीभूत नहीं होता| आजकल राजनीति में, न्यायालयों में, सरकारी कार्यालयों में, हर स्थानों पर असत्य ही असत्य का बोलबाला है|
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यह संसार नष्ट होकर नए सिरे से दुबारा बसे, तब हो सकता है कि सत्य की प्रतिष्ठा हो, इस समय तो यह असंभव ही लगता है| मनुष्य सिर्फ अपनी मृत्यु से डरता है, अन्य किसी से नहीं| सामने जब मृत्यु को देखता है तभी सत्य उसके मुंह से निकलता है| वर्षों पहिले एक पुस्तक पढ़ी थी जिसमें एक अंग्रेज सैनिक अधिकारी जो मध्य-भारत में एक न्यायाधीश भी रह चुका था, के बारे में लिखा एक लेख था| उस अंग्रेज न्यायाधीश ने लिखा था कि उसके न्यायाधीश रहते हुए समय भारत में उसके सामने ऐसे अनगिनत मुक़दमें आए जिनमें अभियुक्त झूठ बोलकर छूट सकता था पर अभियुक्तों ने दंड यानि सजा पाना स्वीकार किया पर झूठ नहीं बोला|
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सत्य और असत्य को हमारे शास्त्रों में बहुत अच्छी तरह समझाया गया है| जिन्हें जीवन में परमात्मा चाहिए, सत्य उन्हीं के लिए है| वर्तमान व्यवस्था तो असत्य पर ही आधारित है| अतः यह दुनियाँ अगर मिट भी जाए तो क्या है! पुराने जमाने में भारत में जितने भी विदेशी यात्री आए, प्रायः सभी ने लिखा था कि भारत ही एकमात्र ऐसा देश है जहाँ कोई असत्य नहीं बोलता| स्वामी विवेकानंद की 'राजयोग' नामक पुस्तक में लिखा है कि कोई अगर चौदह वर्ष तक सत्य ही बोले तो उसकी वाणी में वह शक्ति आ जाती है कि उसकी कही हुई हर बात सत्य हो जाती है| हमारी कोई बात सत्य नहीं होती क्योंकि हमारी वाणी झूठ बोलने से दग्ध हो चुकी है| जिन्हें जीवन में परमात्मा चाहिए वे हिमालय में जाकर तपस्या करे, इस संसार में वे अनुपयुक्त यानि misfit हैं|
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मैंने जो लिखा है वह मेरी अनुभवजन्य पीड़ा है, कोई कुछ भी कहे, मुझे कितना भी बुरा बताए, मैं अपनी बात पर कायम हूँ| आप सब में परमात्मा को नमन !!
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पुनश्च :--- कहते हैं कि ब्रह्मा जी ने ब्रह्मज्ञान सर्वप्रथम अपने ज्येष्ठ पुत्र अथर्व को दिया था| थर्व का अर्थ होता है कुटिलता| जिनके जीवन में कोई कुटिलता नहीं थी वे ब्रह्माजी के ज्येष्ठ पुत्र अथर्व होते थे| अथर्व ने ब्रह्मज्ञान सत्यवाह को दिया| सत्यवाह वे थे जो सत्यनिष्ठ होते थे| फिर आगे यह परंपरा चलती रही| अब सत्यवाह और अथर्व नहीं रहे हैं, अतः ब्रह्मज्ञान का कोई अधिकारी भी नहीं रहा है|
पुनश्च :--- मेरे एक सेवानिवृत प्रशासनिक सेवा के पूर्व अधिकारी मित्र ने मुझे अपनी आँखों देखी पूर्वोत्तर भारत की एक घटना बताई थी| एक दूर दराज के वनवासी क्षेत्र में जहाँ खूब पहाड़ और जंगल थे, जहाँ कभी कोई पुलिस भी नहीं जाती थी, वहाँ एक आदमी ने किसी की हत्या कर दी| हत्या करने के बाद वह आदमी दो दिन पैदल चलकर निकटतम पुलिस स्टेशन आया और खुद के विरुद्ध रिपोर्ट लिखवाई| एक बार तो पुलिस वालों ने उसे धमकाकर भगाने की कौशिस की पर वह अपनी गिरफ़्तारी और सजा की माँग पर अडिग रहा| उससे पूछा गया कि कोई गवाह है? उसका उत्तर था कि सिर्फ परमात्मा ही गवाह है, उसके अलावा किसी भी और ने उसे हत्या करते नहीं देखा| वह अपनी बात पर अडिग रहा और खुद को कुछ न कुछ सजा दिलवा कर ही माना|
कृपा शंकर
३ मई २०२०

आभूषण परिवर्तित होते रहते हैं, पर स्वर्ण यथावत् रहता है ....

आभूषण परिवर्तित होते रहते हैं, पर स्वर्ण यथावत् रहता है ....
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हम शरीर के विभिन्न अंगों पर विभिन्न प्रकार के स्वर्णाभूषण पहिनते हैं, जिनके विभिन्न नाम हैं| उन सब का भार और मूल्य भी पृथक-पृथक होता है| जब वे पुराने हो जाते हैं तब सोने को पिंघला कर सुनार नये आभूषण बना देता है| आभूषणों में परिवर्तन होता रहता है, पर सोने में नहीं| वैसे ही सारी सृष्टि निरंतर परिवर्तनशील है, पर सृष्टिकर्ता परमात्मा नहीं| गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं .....
"समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम्| विनश्यत्स्वविनश्यन्तं यः पश्यति स पश्यति||१३:२८||"
अर्थात् जो पुरुष समस्त नश्वर भूतों में अनश्वर परमेश्वर को समभाव से स्थित देखता है, वही (वास्तव में) देखता है||
कथन का सार यह है कि हमारी चेतना निरंतर परमात्म तत्व में स्थिर रहे, न कि उनकी परिवर्तनशील सृष्टि में| यह सृष्टि एक दिन टूट कर बिखर जाएगी पर अपरिवर्तनशील परमात्मा यथावत् बने रहेंगे|
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सब रूपों में परमात्मा ही हमारे समक्ष आते हैं ..... भूख लगती है तो अन्न रूप में, प्यास लगती है तो जल रूप में, रोगी होते हैं तो औषधि रूप में, गर्मी में छाया रूप में, सर्दी में वस्त्र रूप में वे ही आते हैं| स्वर्ग और नर्क रूप में भी वे ही आते हैं| इस जन्म से पूर्व भी वे ही हमारे संग थे, और मृत्यु के उपरांत भी वे ही हमारे संग रहेंगे| उन्हीं का प्रेम हमें माता-पिता, भाई-बहिन, सगे-संबंधी, व शत्रु-मित्रों से मिला|
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हम स्वयं को यह नश्वर देह मान कर नश्वर वस्तुओं की कामना कराते हैं अतएव वे परमात्मा भी नश्वर रूप धर कर हमारे समक्ष स्वयं को व्यक्त करते हैं| भगवान कहते हैं ....
"ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्| मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः||४:११||"
अर्थात् जो मुझे जैसे भजते हैं, मैं उन पर वैसे ही अनुग्रह करता हूँ; हे पार्थ सभी मनुष्य सब प्रकार से, मेरे ही मार्ग का अनुवर्तन करते हैं||
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हम निरंतर उनका अनुस्मरण करेंगे तो वे भी अंत समय में हमारा अनुस्मरण करेंगे| हम नहीं भी कर पाएंगे तो भी अंत समय में वे ही हमें स्मरण कर लेंगे|
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२ मई २०२०

हमारे जीवन में कोई न कोई कमी है ....

हमारे जीवन में असंतोष, पीड़ा और दुःख है, इसका स्पष्ट अर्थ है कि हमारे जीवन में किसी न किसी तरह की कोई कमी है| पहले तो यह ज्ञात होना चाहिए कि वह कमी क्या है, तभी तो उसे दूर किया जा सकता है| कमी का ज्ञान होगा तभी तो वह दूर होगी| हमारी एकमात्र कमी यह है कि हमें अपनी कमी का ज्ञान नहीं है| जहाँ तक मैं समझता हूँ, हमारी एकमात्र कमी हमारी "अपूर्णता" और "अज्ञान" है| अन्य कोई कमी नहीं है| अब प्रश्न यह है कि उस "अपूर्णता" और "अज्ञान" को दूर कैसे करें? यही हमारी सबसे बड़ी समस्या है| यह अपूर्णता और अज्ञान ही हमारे जीवन में छाए हुए असत्य और अंधकार का कारण है, जिस से सभी दुःख, असंतोष और पीड़ा उत्पन्न हो रही हैं|
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किसी भी प्रश्न का एक ही उत्तर सभी के लिए नहीं हो सकता| यह हर व्यक्ति की समझ, योग्यता और क्षमता पर निर्भर है कि उसके लिए क्या सही उत्तर है| हमे अपनी कमी का पता भी स्वयं को ही करना होगा, और उसे दूर कैसे किया जाये, इसका पता भी स्वयं को ही करना होगा| भगवान हमारे साथ हैं, वे निश्चित रूप से हमारी सहायता करेंगे|
सभी को शुभ कामनाएँ और नमन !!
कृपा शंकर
२ मई २०२०
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पुनश्च :--- यह हमारा सौभाग्य है कि हमने इस धरा पर मानव योनि में जन्म लिया, क्योकि इसी संसार मे हमें मोक्ष मिल सकता है और मोक्ष के साधन भी| इसी धरा पर हम सेवा कर सकते हैं| यदि ईश्वर ने हमे यहां भेजा है तो अवश्य ही कुछ कारण होगा|

जगत मजूरी देत है, क्यों राखें भगवान ----

जगत मजूरी देत है, क्यों राखें भगवान ----
साधू, सावधान !! संभल जा, अन्यथा सामने नर्ककुंड की अग्नि है !
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१ मई १८८६ को अमेरिका के लाखों मजदूरों ने काम का समय ८ घंटे से अधिक न रखे जाने की मांग की और हड़ताल पर चले गए| वहाँ की पुलिस ने मज़दूरों पर गोली चलाई और ७ मजदूर मर गए| तब से पूरी दुनियाँ में काम की अवधि ८ घंटे हो गई और इस दिन को अंतर्राष्ट्रीय श्रम-दिवस के रूप में मनाया जाने लगा| १ मई १९२३ को मद्रास (अब चेन्नई) में "भारती मज़दूर किसान पार्टी" के नेता कॉमरेड सिंगरावेलू चेट्यार ने मद्रास हाईकोर्ट के सामने एक बड़ा प्रदर्शन किया| तब से भारत में भी मजदूरों की माँगें मान ली गईं और इस दिवस को मान्यता मिल गई|
१ मई १९६० को बॉम्बे राज्य को तोड़ कर मराठी भाषी व गुजराती भाषी क्षेत्रों को अलग-अलग कर महाराष्ट्र व गुजरात नाम के दो राज्य बनाए गए थे| आज "महाराष्ट्र दिवस" और "गुजरात दिवस" भी है|
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हम दिन में ८ घंटे श्रम करते हैं तब जाकर महिने के अंत में मजदूरी मिलती है जिस से हमारा गुजारा होता है| भगवान ने हमें हर क्षण यह जीवन और सब कुछ दिया है| हम उनके लिए भी पूरा श्रम करें तो वे स्वयं को ही हमें दे देते हैं| जितना श्रम करेंगे उतनी ही मजदूरी मिलेगी| लानत है हमारे ऊपर की हम २४ घंटों में से उन्हें ढाई घंटे भी नहीं दे पाते|
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"तुलसी विलंब न कीजिये, भजिये नाम सुजान| जगत मजूरी देत है, क्यों राखें भगवान||"
"तुलसी माया नाथ की, घट घट आन पड़ी| किस किस को समझाइये, कुएँ भांग पड़ी||"
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मुझे स्वयं पर तरस आता है| जब नौकरी करता था तब नित्य कम से कम आठ-दस घंटों तक काम करना पड़ता था तब जाकर वेतन मिलता था| फिर भी नित्य दो-तीन घंटे भगवान के लिए निकाल ही लिया करता था| पर अब सेवा-निवृति के पश्चात प्रमाद और दीर्घसूत्रता जैसे विकार उत्पन्न हो रहे हैं, जिनसे विक्षेप हो रहा है|
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अतः साधू, सावधान ! संभल जा, अन्यथा सामने नर्ककुंड की अग्नि है| ॐ तत्सत् ||
कृपा शंकर
१ मई २०२०

योग क्या है?

कुंडलिनी शक्ति का जागृत होकर सुषुम्ना मार्ग के सात चक्रों व तीन ग्रंथियों का भेदन कर परमशिव से मिलन "योग" है। यह एक अनुभूति है जिसका वर्णन अनेक सिद्धों ने अनेक प्रकार से किया है।
सुषुम्ना के चक्रों के बीज मन्त्रों का सृष्टि क्रम इस प्रकार है ... "हय वरट् लण्।"
"ह" विशुद्धि, "य" अनाहत, "व" स्वाधिष्ठान, "र" मणिपूर, "ल" मूलाधार। मानसिक रूप से इनका जप हं, यं, रं, वं, लं होता है|
ब्रह्म ग्रंथि का स्थान मूलाधार, विष्णु ग्रंथि का अनाहत और रुद्र ग्रंथि का आज्ञा चक्र है। इनके भेदन के लिए मंत्र जप और सूक्ष्म प्राणायाम विधि एक गोपनीय विद्या है जो गुरु मुख से ही बताई जा सकती है|
ग्रन्थियों के भेदन में सहायक तीन बंध हैं.... मूल बन्ध (मूलाधार), उड्डीयान बन्ध (मणिपूर) और जालन्धर बन्ध (विशुद्धि)।
दुर्गासप्तशती के तीन चरित्र, मुण्डकोपनिषद् के तीन मुण्डक भी तीन ग्रन्थिभेद हैं जो भगवती की कृपा से ज्ञात होते हैं। द्वादशाक्षरी भागवत मंत्र के पीछे भी बहुत बड़ा एक रहस्य है जो हरिःकृपा से ही समझ में आता है| इस मंत्र की क्षमता बहुत अधिक है।
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अब अनेक नए नए रहस्य सामने आ रहे हैं, जिन का ज्ञान किसी पूर्व जन्म में था, अब वे स्मृति में आ रहे हैं। पूर्व जन्मों में कई सुप्त सांसारिक कामनाएँ थीं जिनके कारण यह जन्म लेना पड़ा जिस में भटकाव ही भटकाव रहा। यह जीवन तो व्यर्थ ही बीत गया, कुछ भी नहीं मिला। पूर्णता के लिए कम से कम एक जन्म तो और लेना पड़ेगा।
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ॐ श्रीपरमात्माने नमः !! ॐ तत्सत् !!

१ मई २०२० 

हिन्दू कौन है? हिन्दूराष्ट्र क्या है? ....

(१) हिन्दू कौन है?:---- जिस भी व्यक्ति के अन्तःकरण में परमात्मा के प्रति प्रेम और श्रद्धा-विश्वास है, जो आत्मा की शाश्वतता, पुनर्जन्म, कर्मफलों के सिद्धान्त, व ईश्वर के अवतारों में आस्था रखता है, वह हिन्दू है, चाहे वह विश्व के किसी भी भाग में रहता है, या उसकी राष्ट्रीयता कुछ भी है| हिन्दू माँ-बाप के घर जन्म लेने से ही कोई हिन्दू नहीं होता| हिन्दू होने के लिए किसी दीक्षा की आवश्यकता नहीं है| स्वयं के विचार ही हमें हिन्दू बनाते हैं| आध्यात्मिक रूप से हिन्दू वह है जो हिंसा से दूर है| मनुष्य का लोभ और अहंकार ही हिंसा के जनक हैं| लोभ, और अहंकार से मुक्ति ही परमधर्म "अहिंसा" है| जो इस हिंसा से दूर है वह हिन्दू है|
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(२) हिन्दू राष्ट्र क्या है :---- हिन्दू राष्ट्र एक विचारपूर्वक किया हुआ संकल्प और निजी मान्यता है| हिन्दू राष्ट्र ऐसे व्यक्तियों का एक समूह है जो स्वयं को हिन्दू मानते हैं, जिन की चेतना ऊर्ध्वमुखी है, जो निज जीवन में परमात्मा को व्यक्त करना चाहते हैं, चाहे वे विश्व में कहीं भी रहते हों|
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(३) भारत एक हिन्दू राष्ट्र है क्योंकि यहाँ की संस्कृति हिन्दू है| संस्कृति वह होती है जिसका जन्म संस्कारों से होता है| भारत एक सांस्कृतिक इकाई है| "देश" और "राष्ट्र"..... इन दोनों में बहुत अधिक अन्तर है| "देश" एक भौगोलिक इकाई है, और "राष्ट्र" एक सांस्कृतिक इकाई| भारतीय संस्कृति कोई नाचने-गाने वालों की संस्कृति नहीं है, यह हर दृष्टि से महान आचरण व विचारों वाले व्यक्तियों की संस्कृति है|
ॐ श्री परमात्मने नमः || ॐ तत्सत् ||
३० अप्रेल २०२० 

एक अंधा दूसरे अंधे को मार्ग नहीं दिखा सकता .....

एक अंधा दूसरे अंधे को मार्ग नहीं दिखा सकता .....
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"ब्रह्मानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिं द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्त्वमस्यादिलक्ष्यम्|
एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षिभूतं| भावातीतं त्रिगुणरहितं सद्गुरुं तं नमामि||"
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"ॐ अखण्ड मंडलाकारं व्याप्तं येन चराचरं| तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरुवे नम:||"
जो परम-तत्व सारी सृष्टि में व्याप्त है और सारी सृष्टि जिन से व्याप्त है, उन अखंड अनंत मंडलाकार सर्वव्यापी का बोध जिन्होने करवा दिया है, उन सद्गुरु महाराज को मैं प्रणाम करता हूँ|
बलिहारी है उन गुरु महाराज की जिन्होंने परमपुरुष का बोध निज चैतन्य में करवा दिया है|
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प्राचीन भारत में बड़े-बड़े तपस्वियों ने अनेक प्रकार के साधन किये, स्वर्ग के सुखों को देखा और पाया कि वहाँ भी काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, व ईर्ष्या-द्वेष आदि सब तरह की बुराइयाँ हैं| वहाँ भी तभी तक रहने को मिलता है जब तक पुण्यों की कमाई है, बाद में फिर मृत्युलोक में आना पड़ता है| तब उन्हें वैराग्य हो गया| तभी जन्म-मरण के अंतहीन चक्र से मुक्ति, मोक्ष और परमात्मा की प्राप्ति आदि पर विचार आरंभ हुये|
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फिर इस निष्कर्ष पर पहुंचा गया कि "तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत्
समित्पाणि: श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम् ||" ( मुण्डकोपनिषद् १-२-१२ ). अर्थात किन्हीं श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ महापुरुष गुरु की शरण में जाना होगा जो मुक्ति का मार्ग दिखा सके| श्रोत्रिय का अर्थ है जिन्हें शास्त्र और वेदों का इतना ज्ञान हो कि हमको समझा सकें| जिन्हें सिर्फ स्वयं के लिए ही ज्ञान हो वैसे गुरु कोई काम नहीं आएंगे, अतः वे ब्रह्मनिष्ठ भी हों, यानि जिन्होने निज जीवन में परमात्मा का साक्षात्कार भी किया हो| "गु" यानि अंधकार(अज्ञान) और "रु" यानि दूर करना| जो अज्ञान रूपी अंधकार को दूर कर परमात्मा का बोध कराता है वही गुरु है|
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गुरु और अध्यापक में बहुत अंतर है| अध्यापक वह है जो कुछ शुल्क लेकर सांसारिक विषयों को पढ़ाता है जिनसे विद्यार्थी को कोई आजीविका का साधन प्राप्त हो जाये और संसार में उस का निर्वाह हो सके| गुरु वह है जो अंतर के अंधकार को दूर कर परमात्मा का बोध कराता है| स्वामी रामसुखदास जी ने अपने एक प्रवचन में कहा है कि गुरु कभी शिष्य नहीं बनाते| उनके भीतर यह भाव कभी नहीं रहता कि कोई हमारा शिष्य बने| वे तो गुरुओं का ही निर्माण करते हैं| लौकिक अर्थ में माता-पिता भी 'गुरु' शब्द के अंतर्गत ही आाते हैं|
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"उपाध्याय" का अर्थ है वह अध्यापक जो वेदांग (शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छंद तथा ज्योतिष) की शिक्षा विद्यार्थी को अपनी आजीविका के लिए कुछ दक्षिणा लेकर पढ़ाता है|
"आचार्य" उसे कहते हैं जो विद्यार्थी से आचारशास्त्रों के अर्थ तथा बुद्धि का आचयन (ग्रहण) कराता है| वह विद्यार्थी से धर्म का आचयन कराता है| शास्त्रों में आचार्य का अर्थ बड़े विस्तार से बताया हुआ है| आचार्य का स्थान बहुत ऊँचा है|
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पात्रता होने पर ही सदगुरु मिलते हैं| अन्यथा .....
"सद्गुरु तो मिलते नहीं, मिलते गुरु-घंटाल| पाठ पढ़ायें त्याग का, स्वयं उड़ायें माल||"
जहाँ किसी भी तरह का थोड़ा सा भी लालच होता है, वहाँ ....
"गुरू लोभी चेला लालची, दोनों खेले दाँव| दोनों डूबे बावरे, चढ़ि पत्थर की नाव||"
एक अंधा दूसरे अंधे को मार्ग नहीं दिखा सकता|
आजकल के तथाकथित गुरुओं द्वारा बड़े बड़े उपदेश तो निःस्पृहता के दिये जाते हैं पर उनकी दृष्टि धनाढ्य/मालदार आसामियों की खोज में ही रहती है| पैसा झटकने में वे बिलकुल भी देर नहीं लगाते| उनके द्वारा कहा तो यह जाता है कि किसी साधु का वातानुकूलित भवनों से क्या काम, पर ऐसा कहने वाले स्वयं बिना वातानुकूलित भवनों के रह ही नहीं सकते|
जहाँ झूठ-कपट हो, व कथनी-करनी में अंतर हो, उस स्थान और उस वातावरण का विष की तरह तुरंत त्याग कर देना चाहिए|
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अब उपरोक्त विषय पर और विचार नहीं करेंगे| जो भी समय मिलेगा उस में भगवान का ही ध्यान करेंगे| ध्यान में उपासक, गुरु और उपास्य में कोई भेद नहीं रहता| सभी एक हो जाते हैं|
ॐ श्री परमात्मने नमः || ॐ तत्सत् || ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
२९ अप्रेल २०२०

आने वाला समय अच्छा नहीं है .....

आने वाला समय अच्छा नहीं है .....
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समय बहुत कम है| आने वाला समय अच्छा नहीं है| दुर्दांत आतंकियों को भारत में निरंतर प्रवेश कराकर पाकिस्तान ने भारत पर एक अघोषित युद्ध छेड़ रखा है जो कभी भी अति भयानक और विध्वंशक रूप ले सकता है| पाकिस्तान एक विफल देश है जिसका कभी भी अपनी स्वयं की विफलताओं से विखंडन व पतन हो सकता है| पाकिस्तान ने एक नीति बना रखी है कि खत्म होने से पहले वह भारत को भी खत्म कर देगा| अपने आणविक अस्त्रों के प्रहार से उसमें इतनी क्षमता तो है कि वह भारत की आधी जनसंख्या को नष्ट कर सकता है चाहे वह खुद ही राख के ढेर में बदल जाए| उस का भरोसा नहीं कर सकते, वह कभी भी भारत पर आक्रमण कर सकता है|
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अमेरिका का चीन के साथ युद्ध कभी भी हो सकता है| चीन की महत्वाकांक्षा पूरे विश्व पर राज्य करने की है| चीन ने कोरोना वायरस फैलाकर सभी देशों की अर्थव्यवस्थाओं की हानि की है| प्रशांत महासागर के चीन सागर में युद्ध हुआ तो उसमें जापान, ताईवान, फिलिपाइन्स और वियतनाम भी चीन के विरुद्ध खड़े होंगे|
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रूस भी अमेरिका से सोवियत संघ के विघटन और अफगानिस्तान में हुई अपनी शर्मनाक पराजय का बदला अवश्य लेगा| रूस ने ऐसे अस्त्र विकसित कर लिए हैं जिन की कोई तोड़ अमेरिका के पास भी नहीं है|
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पूरा पश्चिमी जगत, पाकिस्तान और चीन, .... भारत की अस्मिता के शत्रु हैं| ये भारत के हितैषी नहीं हैं| अमेरिका व ब्रिटेन के सारे समाचारपत्र भारत के विरुद्ध विष-वमन करते हैं|
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हम भीतर और बाहर चारों ओर से घिर चुके हैं| हमारी रक्षा हमारा धर्म ही करेगा, यदि हम उसका पालन करेंगे तो| इस विभीषिका से वे ही बचेंगे जिन पर भगवान की कृपा होगी| अतः भगवान की कृपा के लिए उपासना करें| अपने चारों ओर एक रक्षा-कवच का निर्माण करें|
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अगला विश्वयुद्ध कुछ दिनों का ही होगा| कब हो जाये, यह कोई नहीं कह सकता| आरंभ होने से कुछ दिनों के भीतर-भीतर ही सब कुछ नष्ट हो जाएगा| इसे कोई टाल नहीं सकता|
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सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः| सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग्भवेत्||
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः|| ॐ तत्सत् ||
कृपा शंकर
२८ अप्रेल २०२०

हम आध्यात्मिक भुखमरी के शिकार न हों:---

हम आध्यात्मिक भुखमरी के शिकार न हों:---
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बड़ा उच्च कोटि का व अति गहन अध्ययन/स्वाध्याय, शास्त्रों का पुस्तकीय ज्ञान, बड़ी ऊँची-ऊँची कल्पनायें, दूसरों को प्रभावित करने के लिए बहुत आकर्षक/प्रभावशाली लिखने व बोलने की कला, ...... पर व्यवहार में कोई भक्ति, साधना/उपासना नहीं, तो उसका सारा शास्त्रीय ज्ञान बेकार है| जैसे भोजन के बारे में सुन-सुनकर कोई अपना पेट नहीं भर सकता, उसे अपनी जठराग्नि को तृप्त करने के लिए कुछ आहार लेना ही पड़ेगा| वैसे ही जो व्यक्ति साधना नहीं करता, वह आध्यात्मिक भुखमरी में ही रहता है| ऐसा व्यक्ति दुनिया को मूर्ख बना सकता है पर भगवान को नहीं| वह अपने अहंकार को ही तृप्त कर रहा है, अपनी आत्मा को नहीं| आत्मा की अभीप्सा परमात्मा के प्रत्यक्ष अनुभव से ही तृप्त होती है, जिस के लिए उपासना/साधना करनी पड़ती है|
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ऐसा गुरु भी किसी काम का नहीं है जो चेले से उपासना नहीं करा सकता, जो चेले को परमात्मा की अनुभूति नहीं करा सकता| गुरु तो ऐसा हो जो चेले को नर्ककुंड से निकाल कर अमृतकुंड में फेंक दे, चाहे बलप्रयोग ही करना पड़े| अच्छे गुरु का चेला कभी आध्यात्मिक भुखमरी का शिकार नहीं होता|
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गुरू लोभी चेला लालची, दोनों खेले दाँव|
दोनों डूबे बावरे, चढ़ि पत्थर की नाव||
बँधे को बँधा मिले, छूटे कौन उपाय|
सेवा कर निर्बन्ध की, जो पल में दे छुड़ाय||
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ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२८ अप्रेल २०२०

भगवान "हैं", यहीं "हैं", इसी समय "हैं", सर्वत्र "हैं", और सर्वदा "हैं"....

भगवान "हैं", यहीं "हैं", इसी समय "हैं", सर्वत्र "हैं", और सर्वदा "हैं"| ॐ ॐ ॐ !!
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सोहमस्मि इति बृत्ति अखंडा। दीप सिखा सोइ परम प्रचंडा॥
आत्म अनुभव सुख सुप्रकासा। तब भव मूल भेद भ्रम नासा॥
सच्चिदानंद कूटस्थ परमब्रह्म ही मेरा स्वरूप हैं| तेलधारा की तरह अविछिन्न भाव से चैतन्य में निरंतर प्रणव ध्वनि के रूप में उन्हीं का नाद गूँज रहा है| हर सांस के साथ "हं" "सः" मंत्र का मानसिक अजपा-जप चल रहा है| कहीं कोई भेद नहीं है| ॐ ॐ ॐ !!
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ॐ क्लीं !! हे भगवती महाकाली मेरे परम शत्रु इस तमोगुण रूपी महिषासुर का वध करो| यह हर कदम पर मुझे आहत कर रहा है| यह मेरी सर्वोपरि बाधा है| अंततः सभी गुणों से मुक्त कर मुझे वसुदेव (सर्वत्र समभाव में विद्यमान) में आत्मस्थ करो| मैं परमशिव की पूर्णता और उन के साथ एक हूँ| ॐ ॐ ॐ !!
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जो गोविंद को नमस्कार करते हैं, वे शंकर को ही नमस्कार करते हैं| जो हरिः की अर्चना करते हैं, वे वृषध्वज रुद्र की ही अर्चना करते हैं| जो विरूपाक्ष शिव के प्रति विद्वेष पोषण करते हैं, वे जनार्दन से ही विद्वेष करते हैं| जो रुद्र को नहीं जानते वे केशव को भी नहीं जानते हैं|
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ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२६ अप्रेल २०२०

मैमूना बेगम की दास्तान .....

मैमूना बेगम की दास्तान .....
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"जबानों पर दिलों की बात जब ला ही नहीं सकते,
जफा को फिर वफा की दास्ताँ कहनी ही पड़ती है।
न पूछो क्या गुजरती है दिले-खुद्दार पर अक्सर,
किसी बेमेहर को जब मेहरबाँ कहना ही पड़ता है।। "
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भूतपूर्व वज़ीर-ए-आजम जवाहर लाल नेहरू के ज़माने में इलाहाबाद में एक बहुत मशहूर व्यापारी हुआ करते थे .... ज़नाब नवाब अली ख़ान साहब| वे इलाहाबाद और प्रतापगढ़ जिलों के शराब के सबसे बड़े ठेकेदार भी थे| नेहरू जी घर में शराब की बड़ी-बड़ी पार्टियां हुआ करती थीं, जिनमें शराब की सप्लाई का काम वे ही करते थे|
उनकी बेगम साहिबा अपने निक़ाह से पहिले एक पारसी परिवार की बेटी थीं जिनका पारिवारिक उपनाम गंधी (Gandhi) था| शादी के समय इस्लाम कबूल कर के वे मुसलमान हो गई थीं|
वहाँ के कब्रिस्तान में उन दोनों की कब्रें भी हैं, पता नहीं वहाँ अक़ीदत के फूल चढ़ाने भी कोई जाता है या नहीं? उनके खानदान में बड़े बड़े मशहूर लोग हुए हैं, जिन्हें सारी दुनिया जानती है|
उन ज़नाब नवाब अली खान साहब के साहबज़ादे का नाम फिरोज़ ख़ान था, जिन से मेमूना बेगम का निकाह हुआ| बाद में दोनों की बनी नहीं, और मेमूना बेगम ने धक्के मारकर उनको घर से बाहर कर दिया और युनूस खान नाम के एक दूसरे शख़्स से निक़ाह कर लिया|
अब तो यह बात बहुत पुरानी हो गई है जिसे भूल जाना चाहिए| पर भूल कर भी भूल नहीं पा रहे हैं|
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"जिसे रौनक़ तेरे क़दमों ने देकर छीन ली रौनक़।
वो लाख आबाद हों, उस घर की वीरानी नहीं जाती॥"
"अरबाबे-सितम की खिदमत में इतनी ही गुजारिश है मेरी।
दुनिया से कयामत दूर सही दुनिया की कयामत दूर नहीं॥"
(अरबाबे-सितम = सितम (जुल्म) ढाने वाला)
२५ अप्रेल २०२०

नक्सलवाद तो कभी का पूरी तरह समाप्त हो चुका है .....

वर्तमान भारत में नक्सलवाद तो कभी का पूरी तरह समाप्त हो चुका है, जिनको अब हम नक्सलवादी कहते हैं वे और उनके समर्थक सिर्फ "ठग" "बौद्धिक आतंकवादी", "डाकू" और "तस्कर" हैं, इस के अलावा वे कुछ भी अन्य नहीं हैं| उनका एक ही इलाज है, और वह है ...... "बन्दूक की गोली"| इसी की भाषा को वे समझते हैं| वे कोई भटके हुए नौजवान नहीं है, वे कुटिल राष्ट्रद्रोही तस्कर हैं, जिनको बिकी हुई प्रेस, वामपंथियों और राष्ट्र्विरोधियों का समर्थन प्राप्त है| जिस समय नक्सलबाड़ी में चारू मजूमदार और कानू सान्याल ने नक्सलवादी आन्दोलन का आरम्भ किया था, उस समय चाहे मैं किशोरावस्था में ही था, पर तब से अब तक का सारा घटनाक्रम मुझे याद है|
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नक्सलवादी आन्दोलन का विचार कानू सान्याल के दिमाग की उपज थी| यह एक रहस्य है कि कानू सान्याल इतना खुराफाती कैसे हुआ| वह एक साधू आदमी था जिसका जीवन बड़ा सात्विक था| उसका जन्म एक सात्विक ब्राह्मण परिवार में हुआ था| उसकी दिनचर्या बड़ी सुव्यवस्थित थी और भगवान ने उसे बहुत अच्छा स्वास्थ्य दिया था| कहते हैं कि उसकी निजी संपत्ति में खाना पकाने के कुछ बर्तन, कुछ पुस्तकों का पोटली में बंधा हुआ एक ढेर, एक चटाई और एक कुर्सी थी| और कुछ भी उसके पास नहीं था| वह एक झोंपड़ी में रहता था| सन १९६२ में वह बंगाल के तत्कालीन मुख्य मंत्री श्री वी.सी.रॉय को काला झंडा दिखा रहा था कि पुलिस ने उसे गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया जहाँ उसकी भेट चारु मजुमदार से हुई|
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चारु मजूमदार एक कायस्थ परिवार से था और हृदय रोगी था, जो तेलंगाना के किसान आन्दोलन से जुड़ा हुआ था और जेल में बंदी था| दोनों की भेंट सन १९६२ में जेल में हुई और दोनों मित्र बन गए|
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सन १९६७ में दोनों ने बंगाल के नक्सलबाड़ी नामक गाँव से तत्कालीन व्यवस्था के विरुद्ध एक घोर मार्क्सवादी हिंसक आन्दोलन आरम्भ किया जो नक्सलवाद कहलाया| इस आन्दोलन में छोटे-मोटे तो अनेक नेता थे पर इनको दो और प्रभावशाली कर्मठ नेता मिल गए ........ एक तो था नागभूषण पटनायक, और दूसरा था टी.रणदिवे| इन्होनें आँध्रप्रदेश के श्रीकाकुलम के जंगलों से इस आन्दोलन का विस्तार किया|
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कालांतर में यह आन्दोलन पथभ्रष्ट हो गया जिससे कानु सान्याल और चारु मजूमदार में मतभेद हो गए और दोनों अलग अलग हो गए| चारु मजुमदार की मृत्यु सन १९७२ में हृदय रोग से हो गयी, और कानु सान्याल को इस आन्दोलन का सूत्रपात करने की इतनी अधिक मानसिक ग्लानि और पश्चाताप हुआ कि २३ मार्च २०१० को उसने आत्महत्या कर ली|
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जो मूल नक्सलवादी थे उनकी तीन गतियाँ हुईं .......
उनमें से आधे तो पुलिस की गोली का शिकार हो गए| वे अस्तित्वहीन ही हो गए| जो जीवित बचे थे उन में से आधों ने तत्कालीन सरकार से समझौता कर लिया और नक्सलवादी विचारधारा छोड़कर राष्ट्र की मुख्य धारा में बापस आ कर सरकारी नौकरियाँ ग्रहण कर लीं| बाकी बचे हुओं ने इस विचारधारा से तौबा कर ली और इस विचारधारा के घोर विरोधी हो गए| उनमें से कई तो साधु बन गए| अब कोई असली नक्सलवादी नहीं है| जिनको हम नक्सलवादी बताते हैं वे चोर बदमाश हैं जिन्हें उचित दंड मिलना चाहिए|
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वन्दे मातरं | भारत माता की जय ||
२५ अप्रेल २०२०

सिर्फ मेरे लिए उपदेश सार .....

उपदेश सार >>>>>
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ॐ ब्रह्मानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिं, द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्त्वमस्यादिलक्ष्यम् |
एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षिभूतं | भावातीतं त्रिगुणरहितं सद्गुरुं तं नमामि ||"
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अब और कहने को कुछ भी नहीं बचा है| अब तक के सारे जन्म-जन्मांतरों से अर्जित इस हृदय का सारा भाव इस वेदमन्त्र में आ गया है .....
"हिरण्यगर्भ: समवर्तताग्रे भूतस्य जात: पतिरेक आसीत्।
स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम॥"
इस से परे अभी इस समय तो कुछ भी अन्य नहीं है| इस जन्म में भगवान ने इतनी बौद्धिक क्षमता नहीं दी है कि श्रुति भगवती को समझ सकूँ| पर गुरु महाराज ने करुणा कर के एक दूसरा मार्ग दिखा दिया है और मेरा लौकिक नाम भी वैसा ही रख दिया है .... "कृपा", जिसका अर्थ है ... करो और पाओ|
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बिना करे तो कुछ मिलेगा नहीं| ऐसा क्या करें जिस से इस जीवात्मा का कल्याण हो और यह परमशिव को उपलब्ध हो| गुरु महाराज ने मार्ग तो दिखा दिया, सारे संदेह दूर कर दिये, और परमशिव की अनुभूति भी करा दी| पर अब आगे का मार्ग तो स्वयं को ही पूरा करना है|
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कोई संदेह नहीं है| साकार रूप में भगवान वासुदेव मेरे चैतन्य में हैं, सामने ज्योतिर्मय रूप में भगवान परमशिव और गुरु महाराज स्वयं बिराजमान हैं| वे ही इसे पूरा भी कर देंगे| देने के लिए मेरे पास प्रेम के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है| सब कुछ तो उन्हीं का है| इस प्रेम पर भी उन्हीं का अधिकार है|
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उपदेश सार >>>>>
गुरु महाराज ने बताया है कि क्रियायोग का मार्ग ही मेरा मार्ग है| क्रिया ही वेद है, और उसका अभ्यास ही वेदपाठ है| क्रिया की परावस्था ही वेदान्त है|
गुरु महाराज ने बहुत कठोरता से आदेश दिया है .... परमप्रेममय होकर क्रिया और उस की परावस्था ..... इसके अतिरिक्त अन्य कुछ भी इधर-उधर नहीं देखना है| लक्ष्य सदा सामने रहे| लक्ष्य है .... 'परमशिव'| इस जन्म में ही सब कुछ उपलब्ध करना है|
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गुरु आज्ञा का पालन करेंगे| सब कुछ तो उन्होने स्पष्ट कर दिया, कोई भी संशय नहीं छोड़ा है|
"वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च |
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते ||
नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व |
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः ||"
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कृपा शंकर
२४अप्रेल २०२०

वर्तमान उत्तरी कोरिया और वहाँ का तानाशाह .....

वर्तमान उत्तरी कोरिया और वहाँ का तानाशाह किम जोंग उन .....
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ऐसे समाचार मिल रहे हैं कि उत्तरी कोरिया का तानाशाह किम जोंग उन गंभीर रूप से बीमार है और उसके जीने की आशा भी कम है| मेरी कोई सहानुभूति किम जोंग उन के साथ नहीं है, पर यदि कोरिया का इतिहास निष्पक्ष दृष्टि से पढ़ें तो किसी की भी सहानुभूति एक बार तो उत्तरी कोरिया के साथ ही होगी| अब तो कोरिया की समस्या का एकमात्र समाधान यही है कि पुरानी बातों को भूलकर सम्मानजनक रूप से दोनों देश आपस में मिल कर एक हो जाएँ, वैसे ही जैसे पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी हुए थे| साम्यवाद (मार्क्सवाद) अब एक विफल व्यवस्था हो गई है जिसे सभी कम्युनिष्ट देशों ने त्याग दिया है| साम्यवाद के नाम पर किम परिवार का मुखिया ही आतंक द्वारा उत्तरी कोरिया पर अपना राज्य कायम किए हुए है| पर इसका भी अंत वैसे ही हो सकता है जैसे रोमानिया के कम्युनिष्ट तानाशाह चाउसेस्को का हुआ था| इस समय उत्तरी कोरिया का बहुत बुरा हाल है| क्यूबा में कम्युनिष्ट तानाशाह फिडेल कास्त्रो के मरते ही वहाँ मार्क्सवाद समाप्त हो गया था, हो सकता है किम जोंग उन के मरते ही वैसा ही उत्तरी कोरिया में हो जाये|
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चीन के मंचू सम्राटों ने १७ वीं शताब्दी में कोरिया पर अधिकार कर लिया था, तभी से कोरिया चीन के अधीन एक प्रदेश माना जाता था| रूस ने भी मंचू शासकों से मंचूरिया छीन कर उसे रूस का एक भाग बना लिया| रूस ने कोरिया पर भी अपना अधिकार करना चाहा तो जापान से यह सहन नहीं हुआ और उसने १९०५ में रूस के विरुद्ध युद्ध आरंभ कर रूस को पराजित कर मंचूरिया छीन लिया और २२ अगस्त १९१० को कोरिया पर भी अधिकार कर लिया|
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कोरिया के युद्ध और उसकी भूमिका पर मैंने दो-तीन वर्ष पूर्व एक लेख बड़े विस्तार से लिखा था| अब और नहीं लिखूंगा| कोरिया की त्रासदी के लिए वहाँ पर अगस्त १९१० से द्वीतिय विश्वयुद्ध की समाप्ति तक जापान द्वारा किए गये अवर्णनीय अत्याचार, फिर कोरियाई युद्ध में अमेरिकी जनरल डगलस मेकार्थर द्वारा उत्तरी कोरिया पर की गई भयंकर बमबारी जिस में वहाँ की बीस प्रतिशत निरपराध जनता मारी गई थी, जिम्मेदार है| अमेरिका ने वहाँ की सभी स्कूलों, अस्पतालों और अधिकांश भवनों को अपनी बमबारी से नष्ट कर दिया था| उस समय अमेरिका का राष्ट्रपति Harry Truman था| उसके बाद Dwight D. Eisenhower आया|
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अब तो उस बात को वर्षों बीत चुके हैं| वर्तमान पीढ़ी को तो उन बातों का पता ही नहीं है| मैं तो यही चाहता हूँ कि कोरिया प्रायदीप एक हो और मार्क्सवाद का यह अंतिम गढ़ ध्वस्त हो| मार्क्सवाद सिर्फ भारत के केरल और बंगाल प्रान्तों में ही बचेगा| भगवान करे भारत से भी मार्क्सवाद पूरी तरह समाप्त हो जाये| ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२१ अप्रेल २०२०

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ऐसे समाचार मिल रहे हैं कि उत्तरी कोरिया का तानाशाह किम जोंग उन गंभीर रूप से बीमार है और उसके जीने की आशा भी कम है| मेरी कोई सहानुभूति किम जोंग उन के साथ नहीं है, पर यदि कोरिया का इतिहास निष्पक्ष दृष्टि से पढ़ें तो किसी की भी सहानुभूति एक बार तो उत्तरी कोरिया के साथ ही होगी| अब तो कोरिया की समस्या का एकमात्र समाधान यही है कि पुरानी बातों को भूलकर सम्मानजनक रूप से दोनों देश आपस में मिल कर एक हो जाएँ, वैसे ही जैसे पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी हुए थे| साम्यवाद (मार्क्सवाद) अब एक विफल व्यवस्था हो गई है जिसे सभी कम्युनिष्ट देशों ने त्याग दिया है| साम्यवाद के नाम पर किम परिवार का मुखिया ही आतंक द्वारा उत्तरी कोरिया पर अपना राज्य कायम किए हुए है| पर इसका भी अंत वैसे ही हो सकता है जैसे रोमानिया के कम्युनिष्ट तानाशाह चाउसेस्को का हुआ था| इस समय उत्तरी कोरिया का बहुत बुरा हाल है| क्यूबा में कम्युनिष्ट तानाशाह फिडेल कास्त्रो के मरते ही वहाँ मार्क्सवाद समाप्त हो गया था, हो सकता है किम जोंग उन के मरते ही वैसा ही उत्तरी कोरिया में हो जाये|
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चीन के मंचू सम्राटों ने १७ वीं शताब्दी में कोरिया पर अधिकार कर लिया था, तभी से कोरिया चीन के अधीन एक प्रदेश माना जाता था| रूस ने भी मंचू शासकों से मंचूरिया छीन कर उसे रूस का एक भाग बना लिया| रूस ने कोरिया पर भी अपना अधिकार करना चाहा तो जापान से यह सहन नहीं हुआ और उसने १९०५ में रूस के विरुद्ध युद्ध आरंभ कर रूस को पराजित कर मंचूरिया छीन लिया और २२ अगस्त १९१० को कोरिया पर भी अधिकार कर लिया|
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कोरिया के युद्ध और उसकी भूमिका पर मैंने दो-तीन वर्ष पूर्व एक लेख बड़े विस्तार से लिखा था| अब और नहीं लिखूंगा| कोरिया की त्रासदी के लिए वहाँ पर अगस्त १९१० से द्वीतिय विश्वयुद्ध की समाप्ति तक जापान द्वारा किए गये अवर्णनीय अत्याचार, फिर कोरियाई युद्ध में अमेरिकी जनरल डगलस मेकार्थर द्वारा उत्तरी कोरिया पर की गई भयंकर बमबारी जिस में वहाँ की बीस प्रतिशत निरपराध जनता मारी गई थी, जिम्मेदार है| अमेरिका ने वहाँ की सभी स्कूलों, अस्पतालों और अधिकांश भवनों को अपनी बमबारी से नष्ट कर दिया था| उस समय अमेरिका का राष्ट्रपति Harry Truman था| उसके बाद Dwight D. Eisenhower आया|
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अब तो उस बात को वर्षों बीत चुके हैं| वर्तमान पीढ़ी को तो उन बातों का पता ही नहीं है| मैं तो यही चाहता हूँ कि कोरिया प्रायदीप एक हो और मार्क्सवाद का यह अंतिम गढ़ ध्वस्त हो| मार्क्सवाद सिर्फ भारत के केरल और बंगाल प्रान्तों में ही बचेगा| भगवान करे भारत से भी मार्क्सवाद पूरी तरह समाप्त हो जाये| ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२१ अप्रेल २०२०