Thursday 8 December 2016

(1) इस संसार में जीवन के प्रति हमारा क्या दृष्टिकोण हो ? ..... (2) क्या यह संसार मिथ्या है ? ......

(1) इस संसार में जीवन के प्रति हमारा क्या दृष्टिकोण हो ? .....
(2) क्या यह संसार मिथ्या है ? ......
आज उपरोक्त दो विषयों पर पूरे ह्रदय से पूरी ईमानदारी के साथ अपने विचार और भावनाओं को संक्षेप में व्यक्त कर रहा हूँ|
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(1) इस संसार में जीवन के प्रति हमारा क्या दृष्टीकोण हो ? ....
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उपरोक्त प्रश्न का उत्तर हमारी मानसिक और आध्यात्मिक परिपक्वता पर निर्भर है|
किशोरावस्था में मैं सोचता था की इस संसार में गलत स्थान पर आ गए है| यहाँ जन्म नहीं होता तो अच्छा होता|
फिर युवावस्था में यह सोच बनी कि यहाँ अपने कर्मों का फल भोगने के लिए आये हैं| यह संसार कर्मभूमि भी है और भोगभूमि भी| यह सोच अभी तक थी|
अब सोच दूसरी है, और वह यह है कि जैसी भी परमात्मा की इच्छा हो वैसे ही ठीक है, मेरी कोई अलग इच्छा नहीं होनी चाहिए|
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वैसे जीवन जीने के तीन ही दृष्टिकोण हो सकते हैं ... एक तो है सेवक का दृष्टिकोण, ... दूसरा है अतिथि का दृष्टिकोण, ... और तीसरा है आसुरी दृष्टिकोण|
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सेवक का दृष्टिकोण .......... यह है कि इस संसार में मैं परमात्मा का मात्र एक सेवक हूँ| उनका दास ही नहीं दासानुदास हूँ| यहाँ मेरे द्वारा वह कार्य ही होगा जिससे मेरे स्वामी यानि परमात्मा प्रसन्न हों| ऐसी सोच वाला व्यक्ति भगवान का परम भक्त होता है|
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अतिथि का दृष्टिकोण ........ यह है कि इस संसार में मेरा कुछ भी नहीं है, सब कुछ परमात्मा का है, मैं यहाँ मात्र एक अतिथि पर्यटक हूँ, जो कुछ भी है वह सब परमात्मा का है और स्वयं परमात्मा ही सब कुछ है| मेरा कार्य सिर्फ परमात्मा की इच्छानुसार चलना है और स्वयं को परमात्मा के प्रति समर्पित करना है| ऐसे लोग ज्ञानी होते हैं|
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आसुरी दृष्टिकोण ...... यह है कि इस संसार में जो कुछ भी है वह मेरे भोग के लिए है, मैं अधिक से अधिक उपार्जन करूँ और अधिक से अधिक अधिकार प्राप्त करूँ| ऐसा व्यक्ति सोचता है कि भगवान ने सब कुछ जो भी बनाया है वह उसके भोगने के लिए है और वह स्वयं को ही अपने अधिकार में आई हर वस्तु का स्वामी मानता है| ऐसे लोग असुर होते हैं|
इससे भी नीचे के कुछ राक्षसी और पैशाचिक दृष्टिकोण होते हैं जिन की मैं चर्चा भी नहीं करना चाहता| ये भी आसुरी श्रेणी में ही आते हैं|
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अब निर्णय हमारा है कि हम क्या बनें| जैसी हमारी सोच होगी वैसे ही हम बन जायेंगे|
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(2) क्या यह संसार मिथ्या है ? ......
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जी, नहीं, बिलकुल नहीं | यह संसार ईश्वर की बहुत सुन्दर रचना है जिसे हमें और भी अधिक सुन्दर बनाना है| यह ईश्वर रचित संसार मिथ्या कैसे हो सकता है ?
कई लोग कहते हैं कि संसार वन्ध्यापुत्र के समान है, मिथ्या है, भ्रम है आदि आदि | वे कहते हैं कि इस संसार को त्याग दो| पर इस संसार को आज तक न तो कोई त्याग सका है और न कोई त्याग सकेगा| कुछ लोग घर छोडकर आश्रमों में, निर्जन वनों में, पर्वतों में और शमसानों में रहते हैं| मैं उनके विचारों और भावनाओं का पूर्ण सम्मान करता हूँ पर हैं तो वे संसार के भीतर ही| उनको भी भूख-प्यास सर्दी-गर्मी लगती है| उन्हें भी किसी का साथ चाहिए, चाहे वह परमात्मा का ही क्यों न हो| अतः संसार मिथ्या कैसे हो सकता है ? जिसे लोग त्याग रहे हैं वह क्या एक सच्चाई नहीं है?
हाँ यह सच्चाई है कि हरेक व्यक्ति अपने ही विचारों के लोगों के साथ रहना चाहता है| जब समाज में अपने विचारानुकूल लोग नहीं मिलते तो वह एकांत में रहने लगता है| ईश्वर ने बहुत सुन्दर संसार बनाया है जिसके लिए हम उसके आभारी हैं|
हाँ, जो सिद्ध पुरुष तुरीयातीत अवस्था में हैं, वे ही संसार को मिथ्या कह सकते हैं, अन्य कोई नहीं|
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हमें स्वार्थी भी होना चाहिए, पर स्वार्थ के साथ साथ परमार्थ भी हो|
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आप सब के हृदयों में स्थित भगवान वासुदेव को प्रणाम ! सभी को शुभ कामनाएँ और नमन|
ॐ नमः शिवाय | ॐ शिव | ॐ ॐ ॐ ||

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