Thursday 24 January 2019

अनन्य भक्ति .....

अनन्य भक्ति .....
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भगवान् श्रीकृष्ण उस साधन मार्ग को बताते हैं जिसके द्वारा उस परम पुरुष को प्राप्त किया जा सकता है| वह साधन मार्ग है ..... "अनन्य भक्ति"| अनन्य का अर्थ है कि कोई अन्य नहीं है| भक्ति का अर्थ है "परम प्रेम"|
"पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया| यस्यान्तःस्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम्||८:२२||
शरीर रूपी पुर में शयन करने से या सर्वत्र परिपूर्ण होने से परमात्मा का नाम पुरुष है| वह निरतिशय (अद्वितीय) परमपुरुष जिससे परे अन्य कुछ भी नहीं है, जिसके अन्तर्गत समस्त भूत स्थित हैं, और जिस से यह सारा संसार आकाश से घट आदिकी भाँति व्याप्त है, ऐसा परमात्मा अनन्य आत्मविषयक ज्ञानरूप भक्ति से प्राप्त होने योग्य है|
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"अनन्यया भक्त्या लभ्यः" ..... वह परम पूर्ण पुरुष अनन्य भक्ति से मिलता है| वह अन्य नहीं है .... ऐसा आत्मविषयक प्रेम अनन्य भक्ति है| इसे ज्ञानलक्षणा भक्ति भी कहा गया है| यह निश्चय कि .... "मैं परमात्मा से अन्य नहीं हूँ" .... यह अनन्य प्रेम है, जिस से परमात्मा मिलता है| "उस परम पुरुष से मैं अलग नहीं हूँ" .... इस प्रकार से अपने से एक जान कर जो प्रेम किया जाता है वही अनन्य प्रेम है|
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यह सृष्टि परमात्मा के ही प्रकाश और अन्धकार से बनी है| हमारा कार्य परमात्मा के प्रकाश में वृद्धि करना है| उसके अन्धकार में वृद्धि करेंगे तो दंडस्वरूप अज्ञान और दुःख की प्राप्ति होगी ही| भगवान बड़े छलिया हैं| लीला रूपी इस सृष्टि की रचना कर वे स्वयं को ही छल रहे हैं| इसी में उनका आनंद है, और उनके आनंद में ही हमारा आनंद है| अतः यहाँ सिर्फ आत्मज्ञान रूपी प्रकाश की ही वृद्धि करो, आवरण और विक्षेप रूपी अन्धकार की नहीं|
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हमारे पास भगवान को देने के लिए कुछ भी नहीं है, सब कुछ तो उन्हीं का है, अतः हम अपने आप को, अपने सम्पूर्ण अस्तित्व को बापस उन्हें ही समर्पित कर रहे हैं| हमारा सम्पूर्ण अस्तित्व उन्हीं का है| हम यह शरीर नहीं हैं|
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हम और हमारे प्रभु एक हैं| यह सारी सृष्टि और उस से भी परे की सम्पूर्ण अनंतता, अस्तित्व और सर्वव्यापकता हम हैं| हम ही प्राण और ऊर्जा के रूप में सभी देहों में हैं| हम ही उनका परम प्रेम और अनंतता हैं| हमारा कोई पृथक अस्तित्व नहीं है|
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हम स्वयं को ही पूर्ण रूप से परमात्मा को समर्पित कर दें, यह सब से बड़ा यज्ञ है| सदा उनका प्रेमपूर्वक स्मरण और ध्यान रहे| जो भी समय इस जीवन में बचा है उस का सदुपयोग हमें भगवान की भक्ति में करना चाहिए|
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मुमुक्षुओं को गीता के साथ साथ उपनिषदों का भी स्वाध्याय करना चाहिए| कृष्ण यजुर्वेद शाखा के कठोपनिषद का स्वाध्याय साधना मार्ग में बहुत सहायक है| साधना की सारी विधियाँ कृष्ण यजुर्वेद शाखा के श्वेताश्वतरोपनिषद में दी हुई हैं, जिन्हें किन्हीं ब्रह्मनिष्ठ श्रौत्रीय आचार्य के मार्गदर्शन में ही सीखनी चाहिएँ| शुक्ल यजुर्वेद का बृहदारण्यक उपनिषद ज्ञान का महासागर है| इन उपनिषदों को समझने के लिए एक पूरा जीवन भी बहुत कम है| अतः जो भी समय इस जीवन में बचा है उस का सदुपयोग भगवान की अनन्य भक्ति में ही करना चाहिए, ऐसी मेरी सोच है| यह हमारे गुरु महाराज का भी आदेश और उपदेश है|
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ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२४ जनवरी २०१९

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