Wednesday 4 January 2017

श्री श्री परमहंस योगानंद के जन्मोत्सव पर उनके सभी अनुयायियों व शिष्यों को मेरा अभिनन्दन ....

January 5, 2013 
श्री श्री परमहंस योगानंद के जन्मोत्सव ५ जनवरी पर उनके सभी अनुयायियों व शिष्यों को मेरा अभिनन्दन|
यहाँ मैं अपने कुछेक अनुभव बांटना चाहता हूँ जिनके कारण मैं योगनान्दजी से जुड़ा हुआ हूँ| मैंने कभी उनको देखा नहीं| १९४८ में मेरे जन्म के चार वर्ष बाद ही १९५२ में उन्होंने देहत्याग कर दिया था| फरवरी १९७९ तक मैंने उनका नाम तक नहीं सुना था|

(१) फरवरी १९७९ की बात है| मैं एक जलयान जो सागर में वैज्ञानिक अनुसन्धान करता था, पर नियुक्त था| उस जलयान पर अरब सागर में कुछ वैज्ञानिक अनुसंधान कर रहे थे| मेरे पास योगानन्द जी की लिखी आत्मकथा थी जो कई महीनों से मेरे पास बिना पढ़े पड़ी थी| पुस्तक को एक दिन सायंकाल पढ़ना आरम्भ किया तो वह इतनी अच्छी लगी कि पूरी रात सोया नहीं और पढता ही रहा| दुसरे दिन प्रातःकाल जब पुस्तक समाप्त हुई तब एक बड़ी दिव्य शक्तिपात की अनुभूति हुई जैसे मेरे ऊपर कोई बिजली गिरी हो और करोड़ों वोल्ट की विद्दयुत ऊपर से नीचे तक प्रवाहित हो गई हो| पर इस अनुभव से कोई पीड़ा नहीं हुई अपितु आनंद की परम अनुभूति हुई| सात-आठ दिनों तक मैं उस अवर्णनीय आनंद में रहा| इसका रहस्य मैं समझने और किसी को बताने में भी असमर्थ था|
 

(२) फिर १९८१ के उत्तरार्ध की बात है| ध्यान का अभ्यास कर रहा था कि अचानक गहरे ध्यान में चला गया जिसमें मैं न तो जागृत था और न सुप्त| बंद आँखों के सामने गहन अंधकार से एक ज्योति का आभास हुआ और उस प्रकाश पुंज से एक मानवी आकृति उभरी और आशीर्वाद देकर चली गई| कुछ भी समझने में मैं असमर्थ था| बहुत बाद में ये बोध हुआ कि वह आकृति और किसी की नहीं, योगानंद जी की ही थी| यह अनुभव भी आनंददायक था और इससे बहुत लाभ हुआ| ह्रदय मे एक गहन जिज्ञासा का जन्म हुआ और साधना के क्षेत्र के कई रहस्य अनावृत हुए|
 

(३) बहुत से नए देशों में जाने का अवसर मिला| उससे पहिले भी विदेशों में खूब जाने और रहने का काम पड़ा था| बहुत समुद्री यात्राएं कीं| अपनी यात्राओं में प्रकृति के सौम्यतम और विकरालतम रूपों के भी अनेक बार दर्शन किये| हर स्थान पर और हर संकट के समय पाया कि एक अदृश्य शक्ति निरंतर रक्षा कर रही थी|
अपनी कमियों का भी बोध हुआ| उस अदृश्य शक्ति ने ये भी बोध कराया कि अपने कर्मफलों से मुक्ति के लिये मुझे क्या करना है| फिर ये बोध भी हुआ कि किसी पूर्वजन्म में मैं उनका शिष्य था और इस जन्म में भी वे मेरा मार्गदर्शन कर रहे हैं| उनकी देह को इस जन्म में कभी देखा नहीं पर सारा मार्गदर्शन उन्हीं से किसी न किसी माध्यम से मिल रहा है| अतः वे ही मेरे सद्गुरु हैं| गुरू-शिष्य का सम्बन्ध शाश्वत है जो जन्म-जन्मान्तरों तक चलता है|
 

"ब्रह्मानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिम्
द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्वमस्यादिलक्ष्यम् |
एकम् नित्यं विमलमचलम् सर्वधीसाक्षिभूतं
भावातीतं त्रिगुणरहितं सद्गुरुं तम् नमामि ||"
धन्य है भारत भूमि और धन्य है सनातन हिंदू धर्म जिसने ऐसे सद्गुरुओं को जन्म दिया| ओम् परात्पर परमेष्ठी गुरवे नमः| ओम् गुरू| जय गुरू| ओम् तत् सत्|


Jan 05, 2013

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