Monday, 29 December 2025

इस जन्म में मैं स्वाभिमान और गर्व सहित सनातनी हिन्दू हूँ ---

 इस जन्म में मैं स्वाभिमान और गर्व सहित सनातनी हिन्दू हूँ। हिन्दू का अर्थ है जो हिंसा से दूर है। मनुष्य में हिंसा का जन्म लोभ व अहंकार से होता है। लोभ व अहंकार ही राग-द्वेष है। राग-द्वेष से मुक्ति ही वीतरागता है। वीतराग व्यक्ति ही महत् तत्व से जुड़कर महात्मा बनता है। वीतराग व्यक्ति ही स्थितप्रज्ञता को प्राप्त होता है जो ईश्वर प्राप्ति की अवस्था है। स्थितप्रज्ञता ही कैवल्य/ब्राह्मी-स्थिति/कूटस्थ-चैतन्य आदि है। हम शाश्वत आत्मा हैं, इसलिए हमारा स्वधर्म परमात्मा से परमप्रेम और समर्पण है। इस पृथ्वी पर वह हर व्यक्ति हिन्दू है जिसे परमात्मा से प्रेम है, व जो परमात्मा को उपलब्ध होना चाहता है। हिन्दुत्व ही हमें आत्मा की शाश्वतता, पुनर्जन्म और कर्मफलों की शिक्षा देता है। घृणा व क्रोध से मुक्त होकर, ईश्वर की चेतना में रहते हुए हम अपने शत्रुओं का संहार करें। हमारे मन में शत्रुभाव का अभाव तो सदा रहे, लेकिन शत्रुबोध सदा बना रहे।

ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२३ दिसंबर २०२५

कांग्रेस के नेताओं को अपनी हार के लिए अपने अलावा सब जिम्मेदार लगते हैं ---

 कांग्रेस के नेताओं को अपनी हार के लिए अपने अलावा सब जिम्मेदार लगते हैं

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अंग्रेज भारत से इसलिए गये थे कि द्वितीय विश्वयुद्ध में उनकी कमर टूट गयी थी, और भारतीय सैनिकों ने उनके आदेश मानने बंद कर दिये थे। लेकिन अंग्रेजों को भगाने का झूठा श्रेय लेने वाली कांग्रेस मानती है कि उसने देश को आज़ाद करवाया है, इसलिए सिर्फ उसे ही इस देश पर शासन करने का अधिकार है। इसी झूठ को फैलाकर कांग्रेस ने देश पर शासन किया है।
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कांग्रेस के नेताओं को अपनी हार के लिए अपने अलावा सब जिम्मेदार लगते हैं। वे सोचते हैं कि उनके जैसे योग्य और समझदार नेताओं के होते हुए जनता किसी दूसरे को कैसे चुन सकती है? यही कारण है कि वे कभी तो चुनाव आयोग को, कभी ईवीएम को और कभी मतदाता सूची को दोष देते हैं। कांग्रेस और उसके नेता स्वयं को देश का मालिक समझते हैं। वे यह स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं कि देश की जनता उन्हें ठुकरा चुकी है। उन्हें अब पूरी व्यवस्था ही खराब नजर आने लगी है। अब वे भारतीय सेना का जिस तरह से अपमान कर रहे हैं, वह अस्वीकार्य है। एक तरह से कांग्रेस देश के विरुद्ध पाकिस्तानी झूठ ही फैला रही है। देश को अब कांग्रेस की आवश्यकता नहीं है।
कृपा शंकर
२० दिसम्बर २०२५

"राम" नाम पर सबका जन्मसिद्ध अधिकार है ---

"राम" नाम पर सबका जन्मसिद्ध अधिकार है। इसने पता नहीं अब तक कितने असंख्य लोगों को तारा है और कितनों को तारेगा। यह हमें परमात्मा का सबसे बड़ा उपहार है। ध्यानमुद्रा शांभवी में तो इसका विधिवत जप करें ही, लेकिन चलते-फिरते, उठते-बैठते, शौच-अशौच और देश-काल आदि के सब बंधनों से स्वयं को मुक्त कर इसका हर समय मानसिक जप कर सकते हैं।

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मंदिरों के बाहर द्वार पर एक घंटा लटका रहता है, जिसके अंदर लटकते हुए लौहदंड से जब इस पर प्रहार किया जाता है तब एक ध्वनि गूँजती है। वह ध्वनि हमारे सूक्ष्मदेह में मेरुदण्ड के अनाहतचक्र पर प्रहार करती है जिससे भक्तिभाव जागृत होता है। वैसे ही कल्पना कीजिये कि अन्तरिक्ष में एक घंटा लटका हुआ जिसमें से एक ध्वनि निकल रही है। उस ध्वनि को सुनते रहिए और "रां" बीज का मानसिक जप करते रहिये। आपके जीवन में एक चमत्कार घटित हो जायेगा।
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इसकी महिमा इतनी अधिक महान है कि शब्दों में व्यक्त नहीं की जा सकती।
"राम नाम मणि दीप धरु, जीह देहरी द्वार।
तुलसी भीतर बाहिरौ, जो चाहसी उजियार॥"
इसमें रूपक अलंकार और भक्ति रस है। यहाँ 'राम नाम' को 'मणि-दीप' (रत्न-दीपक) के समान बताया गया है, जो उपमेय और उपमान का भेद मिटाकर एक रूप कर देता है, जिससे भीतर और बाहर ज्ञान और पवित्रता फैल सके।
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२० दिसंबर २०२५

रहस्यों का रहस्य ---

रहस्यों का रहस्य --- यह एक अनमोल बात है -- रात्री के सन्नाटे में जब घर के सब लोग सोये हुए हों तब चुपचाप शांति से भगवान का ध्यान/जप आदि करें। न तो किसी को बताएँ और न किसी से इस बारे में कोई चर्चा करें। निश्चित रूप से आपको परमात्मा की अनुभूति होगी। किसी भी तरह के वाद-विवाद आदि में न पड़ें। हमारा लक्ष्य वाद-विवाद नहीं है, हमारा लक्ष्य परमात्मा की प्राप्ति है। परमात्मा को समर्पण हमें चिन्ता मुक्त कर देता है। तत्पश्चात हम केवल एक निमित्त मात्र बन जाते हैं। हमारे माध्यम से भगवान ही सारे कार्य करते हैं।
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हे प्रभु इतनी तो कृपा करो। स्वयं को मुझमें पूर्णतः व्यक्त करो। मुझे अपने साथ एक करो। हे प्रभु, राष्ट्र की अस्मिता -- धर्म की रक्षा करो। हमारे में ज्ञान, भक्ति, वैराग्य और आप स्वयं की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति हो॥ हमें भगवान नहीं मिलते, इसका एकमात्र कारण है --"सत्यनिष्ठा का अभाव"। हमारे पतन का एकमात्र कारण है हमारा --"लोभ और अहंकार"। हम स्वयं पानी पीयेंगे तभी हमारी प्यास बुझेगी, स्वयं भोजन करेंगे तभी हमें तृप्ति होगी, और स्वयं साधना करेंगे तभी हमें भगवत्-प्राप्ति होगी। दूसरों के पीछे पीछे भागने से कुछ नहीं मिलेगा। हम जहां हैं, वहीं परमात्मा हैं।
हरिः ॐ तत्सत् !! कृपा शंकर
२४ दिसंबर २०२५

हमारा कार्य केवल परमात्मा के प्रकाश का विस्तार करना है ---

 हमारा कार्य केवल परमात्मा के प्रकाश का विस्तार करना है, अन्य सब उनकी यानि परमात्मा की समस्या है।

मेरे चारों ओर अनेक प्रकार की शक्तियाँ कार्य कर रही हैं, कुछ सकारात्मक हैं जो मुझे परमात्मा के मार्ग पर धकेल रही हैं। कुछ नकारात्मक शक्तियाँ हैं जिनका वश चले तो वे मुझे अभी इसी समय जलाकर भस्म कर दें। वे नकारात्मक शक्तियाँ मेरा कुछ भी नहीं बिगाड़ पा रही हैं। मैं निरपेक्ष भाव में हूँ। यह सृष्टि परमात्मा की है, मेरी नहीं। उनकी इच्छा कि वे स्वयं को कैसे व्यक्त करें। सकारात्मक हो या नकारात्मक सब में परमात्मा हैं। मुझे एक महापुरुष के वचन याद हैं। उन्होने कहा था कि हमारा कार्य केवल परमात्मा के प्रकाश का विस्तार करना है, अन्य सब उनकी यानि परमात्मा की समस्या है। मेरा भी आदर्श यही है। मेरे साथ क्या होता है, उसका महत्व नहीं है। उस अनुभव से मैं क्या बनता हूँ, महत्व सिर्फ इसी बात का है। जीवन का हर अनुभव कुछ नया सीखने का अवसर है। क्रियायोग व कूटस्थ में ज्योतिर्मय ब्रह्म का अनन्य भाव से ध्यान -- ईश्वरीय प्रेरणा से यही मेरी आध्यात्मिक साधना है।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२५ दिसंबर २०२५

यह वृद्धावस्था बड़ी खराब चीज है --

 यह वृद्धावस्था बड़ी खराब चीज है -- (भगवान के भजन करने के इस मौसम में यह शरीर महाराज पूरा सहयोग नहीं करता। बड़ा धोखेबाज़ मित्र है)

"दुनिया भी अजब सराय फानी देखी, हर चीज यहां की आनी जानी देखी।
जो आके ना जाये वो बुढ़ापा देखा, जो जा के ना आये वो जवानी देखी॥"
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दिन-रात भगवान का चिंतन, मनन, निदिध्यासन और ध्यान करने का मौसम आ गया है। ध्यान हमें ज्योतिर्मय ब्रह्म का करना चाहिये। जो ब्रह्म शब्द का अर्थ नहीं समझते उन्हें किसी ब्रहमनिष्ठ श्रौत्रीय महात्मा से मार्गदर्शन लेना होगा। "ब्रह्म" शब्द में सब समाहित हो जाते हैं। वे ही पुरुषोत्तम, वे ही परमशिव, और वे ही परमात्मा हैं। यह निरंतर हो रहा अनंत विस्तार, प्राण, ऊर्जा, और सम्पूर्ण अस्तित्व वे ही हैं। ऊर्जा के खंड व कण, उनकी गति, प्रवाह और विभिन्न आवृतियों पर उनके स्पंदनों से ही इस भौतिक सृष्टि का निर्माण हुआ है। प्राण तत्व से ही समस्त चैतन्य है। इन सब के पीछे जो अनंत सत्य और ज्ञान है, वह ब्रह्म है।
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नदियों का प्रवाह महासागर की ओर होता है। लेकिन एक बार महासागर में समर्पित होने के पश्चात नदियों का स्वतंत्र अस्तित्व समाप्त हो जाता है। फिर महासागर का ही अवशेष रहता है। जो जलराशि महासागर में समर्पित हो गयी है, वह बापस नदियों में नहीं जाना चाहती। ऐसे ही हम स्वयं का समर्पण ब्रह्म में करें। इसकी विधि किसी सद्गुरु आचार्य से सीखनी होगी।
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आध्यात्मिक साधना में महत्व "परमात्मा की प्रत्यक्ष अनुभूतियों" का है जो प्रेम और आनंद के रूप में अनुभूत और व्यक्त हो रही हैं। जिस साधना से परमात्मा की अनुभूति होती है, और हम परमात्मा को उपलब्ध होते हैं, केवल वही सार्थक है। परमात्मा को सदा अपने समक्ष रखो और उनमें स्वयं का विलय कर दो।
हमारे जीवन का प्रथम, अंतिम और एकमात्र लक्ष्य/उद्देश्य -- "ईश्वर की प्राप्ति" है। इसके लिए कोई से भी साधन हों -- भक्ति, योग, तंत्र आदि सब स्वीकार्य हैं। भगवान हैं, इसी समय है, यही पर हैं, हर समय और सर्वत्र हैं। वे हैं, बस यही महत्वपूर्ण है। भगवान की आनंद रूपी जलराशि में हम तैर रहे हैं, उनकी जलराशि बन कर उनके महासागर में विलीन हो गये हैं। यही भाव सदा बना रहे।
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ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२६ दिसंबर २०२५

आजकल मुझे निमित्त बनाकर भगवान श्रीकृष्ण अपनी साधना स्वयं कर रहे हैं ---

आजकल मुझे निमित्त बनाकर भगवान श्रीकृष्ण अपनी साधना स्वयं कर रहे हैं। मैं जहां भी हूँ, आप सब के हृदय में हूँ। आप सबसे मिले प्रेम के कारण मैं अभिभूत हूँ। आप सब कृतकृत्य हों, और आपका जीवन कृतार्थ हो।

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जब भी समय मिले अपनी साँसों पर ध्यान दें और अजपाजप करें। इसे हंसयोग और हंसवतीऋक भी कहते हैं। इसका वर्णन कृष्णयजुर्वेद का श्वेताश्वरोपनिषद करता है। प्रणव का मूर्धा में मानसिक जप भी कीजिये। सारे उपनिषद इसकी महिमा करते हैं। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने भी इसे बहुत अच्छी तरह समझाया है। इसे खेचरी या अर्धखेचरी मुद्रा में करेंगे तो लाभ बहुत अधिक होगा।
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यह हमारा भ्रम है कि हम सांसें ले रहे हैं। हमारे माध्यम से भगवान स्वयं साँस ले रहे हैं। वे ही हमारे हृदय में धडक रहे हैं, वे ही इन आँखों से देख रहे हैं, इन पैरों से वे ही चल रहे हैं, और इस मष्तिष्क से वे ही सोच रहे हैं। इन कानों से मंत्र-श्रवण भी वे ही कर रहे हैं, और जप भी वे ही कर रहे हैं। हम अपना मन उनमें लगा देंगे तो हमारा काम बड़ा आसान हो जाएगा। मन को भगवान में लगाना -- इस सृष्टि में सबसे अधिक कठिन काम है। मन -- भगवान में लग गया तो मान लीजिये कि आधे से अधिक युद्ध हम जीत चुके हैं।
शुभाशीर्वाद !! ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२६ दिसंबर २०२५