Wednesday, 20 November 2024

स्वयं को विकारों से कैसे दूर रखें ?

 स्वयं को विकारों से कैसे दूर रखें ?

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"हारिये न हिम्मत, बिसारिये न हरिः नाम॥" लगे रहो, लगे रहो, लगे रहो, अपने प्रयासों में लगे रहो। कर्मों की डोर एक दिन अवश्य कटेगी। पतंग उड़ती है, उड़ती है, और यही सोचती है कि मैं लगातार उड़ती ही रहूँ। लेकिन कर्मों की डोर उसे खींच कर बापस ले आती है। वैसे ही हम सदा प्रयास तो यही करते हैं कि विषय-वासनाएँ, भय, लोभ, क्रोध, अहंकार व सब तरह की कमियाँ दूर हों, और वैराग्य जागृत हो। लेकिन सारे विकार पता नहीं कहाँ से फिर बार बार घूम फिर कर बापस लौट आते हैं? सिद्धान्त रूप से तो हम कहते हैं कि परमात्मा ही सर्वस्व हैं, और हम उनके साथ अपरिछिन्न रूप से एक हैं। परमात्मा में दृढ़ आस्था भी है, और श्रद्धा-विश्वास भी है। सब कुछ होने पर भी कभी कभी हम पाते हैं कि सारा गुड़ गोबर हो गया।
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इसका कारण है हमारे पूर्व जन्मों में अर्जित कर्मफलों की डोर। और कुछ भी या अन्य कोई भी कारण नहीं है। सारे कर्म और उनके फल कटेंगे, कटेंगे, अवश्य कटेंगे, और अवश्य कटेंगे।
"करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान।
रसरी आवत-जात से सिल पर पड़त निशान॥"
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पहले हम कुएँ से पानी भरते थे, वहाँ पत्थर की शिलाओं पर रस्सी के आने-जाने से निशान पड़ जाते थे। आजकल की पीढ़ी को यह नहीं पता। पुराने जमाने के मंदिरों में दर्शनार्थियों के आने-जाने से ही पत्थरों की शिलाएँ घिस जाती थीं। यह सब तो मैंने अपनी आँखों से देखा है। भक्ति और साधना से सारे कर्म कट जाएँगे।
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एक बात बार बार कहता हूँ कि अपने घर में या कहीं भी जहाँ आप रहते हैं, एक छोटा सा स्थान आरक्षित कर लें स्वयं के लिए। और वहीं बैठ कर अपनी भजन-बंदगी करें। वह स्थान जागृत हो जाएग, और जब भी वहाँ बैठोगे, मन अपने आप ही भक्ति से भर जायेगा।
ॐ तत्सत् !! ॐ तत्सत् !! ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२० नवंबर २०२४

'अपवर्ग' शब्द का क्या अर्थ होता है?

 'अपवर्ग' शब्द का क्या अर्थ होता है?

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प, फ, ब, भ, म, --- को पवर्ग कहते हैं। रामचरितमानस के सुंदर कांड में लिखा है --
"तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग।
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग॥"
इसका भावार्थ है कि हे तात! स्वर्ग और अपवर्ग के सब सुखों को तराजू के एक पलड़े में रखा जाए, तो भी वे सब मिलकर (दूसरे पलड़े पर रखे हुए) उस सुख के बराबर नहीं हो सकते, जो लव (क्षण) मात्र के सत्संग से होता है।
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पवर्ग होते हैं -- प, फ, ब, भ, म. जिनका अर्थ होता है :--
प - पतन, फ- फल आशा, ब- बंधन, भ - भय, म - मृत्यु.
जहाँ पतन, फल आशा, बंधन, भय, मृत्यु नहीं है, वही अपवर्ग सुख है, जो शिवकृपा का फल है। 'अपवर्ग' का शाब्दिक अर्थ है ..... मोक्ष या मुक्ति।
कांची कामकोटि पीठ के दंडी स्वामी मृगेंद्र सरस्वती के अनुसार निवृत्ति ही अपवर्ग है, यानि दुःख की उत्पत्ति के कारण का अभाव ही आत्यंतिक दु:खनिवृत्ति है।
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
२० नवम्बर २०१९

Tuesday, 19 November 2024

हमारी दृष्टि हर समय अपने लक्ष्य की ओर रहे। इधर-उधर कहीं भी दृष्टि न पड़े। हमारा लक्ष्य है परमात्मा ---

हमारी दृष्टि हर समय अपने लक्ष्य की ओर रहे। इधर-उधर कहीं भी दृष्टि न पड़े। हमारा लक्ष्य है परमात्मा। उनके जितना हमारा हितैषी अन्य कोई भी नहीं है।
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मेरे में लाखों कमियाँ हैं, लेकिन भगवान ने उनकी ओर कभी ध्यान भी नहीं दिया है। मेरा अनुभव तो यह है कि भगवान हमारे में सिर्फ हमारी अभीप्सा को ही देखते हैं, अन्य बातों की ओर नहीं। वे अपनी महान आत्माओं से हमारा सत्संग भी कभी कभी करवा ही देते हैं।मेरे ही प्रिय निजात्मगण, कूटस्थ में मैं आपसे और अधिक समीप ही नहीं, आपके साथ एक हूँ। आप में और मुझ में कोई अंतर नहीं है। मैं आपके निकटतम से भी अधिक निकट, और प्रियतम से भी अधिक प्रिय हूँ। आप भी मेरे साथ एक हैं। मेरे हृदय का पूर्ण प्रेम आपको समर्पित है।

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मेरुदंड में प्राण-तत्व के रूप में प्रवाहित हो रही कुंडलिनी महाशक्ति कभी भगवती महाकाली, और कभी भगवती श्रीविद्या के रूप में व्यक्त होती हैं। भगवती महाकाली भगवान श्रीकृष्ण की, और भगवती श्रीविद्या भगवान परमशिव की उपासना करवाती हैं। भगवान की उच्चतम अभिव्यक्ति कूटस्थ में है। कूटस्थ ही परमशिव हैं, और वे ही पुरुषोत्तम हैं। दोनों ही ज्योतिर्मय ब्रह्म के रूप में व्यक्त हो रहे हैं। गीता के पुरुषोत्तम योग में भगवान स्वयं कहते हैं ---
"ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्॥१५:१॥"
"अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः।
अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके॥१५:२॥"
"न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च संप्रतिष्ठा।
अश्वत्थमेनं सुविरूढमूल सङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा॥१५:३॥"
"ततः पदं तत्परिमार्गितव्य यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी॥१५:४॥"
"निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः।
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञैर्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्॥१५:५॥"
"न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम॥१५:६॥"
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गीता में बताई हुई ब्राह्मी स्थिति यानि कूटस्थ चैतन्य में हम निरंतर रहें ---
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बिना किसी तनाव के, शिवनेत्र होकर यानि दोनों आँखों की पुतलियों को भ्रूमध्य के समीप लाकर, भ्रूमध्य में प्रणव यानि ॐकार से लिपटी हुई दिव्य ज्योतिर्मय सर्वव्यापी आत्मा का चिंतन करते-करते, एक दिन ध्यान में विद्युत् आभा सदृश्य देदीप्यमान ब्रह्मज्योति प्रकट होती है। यह ब्रहमज्योति -- इस सृष्टि का बीज, और परमात्मा का द्वार है। इसे 'कूटस्थ' कहते हैं। इस अविनाशी ब्रह्मज्योति और उसके साथ सुनाई देने वाले प्रणवनाद में लय रहना 'कूटस्थ चैतन्य' है। यह सर्वव्यापी, निरंतर गतिशील, ज्योति और नाद - 'कूटस्थ ब्रह्म' हैं। इस कूटस्थ चैतन्य में निरंतर सदा प्रयासपूर्वक बने रहें, हमारा यह मनुष्य जीवन धन्य हो जाएगा।
गीता में भगवान कहते हैं --
"ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते।
सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम्॥१२:३॥"
"संनियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः।
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः॥१२:४॥"
अर्थात् - परन्तु जो भक्त अक्षर ,अनिर्देश्य, अव्यक्त, सर्वगत, अचिन्त्य, कूटस्थ, अचल और ध्रुव की उपासना करते हैं॥ इन्द्रिय समुदाय को सम्यक् प्रकार से नियमित करके, सर्वत्र समभाव वाले, भूतमात्र के हित में रत वे भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं॥
"द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते॥१५:१६॥"
अर्थात् - इस लोक में क्षर (नश्वर) और अक्षर (अनश्वर) ये दो पुरुष हैं, समस्त भूत क्षर हैं और 'कूटस्थ' अक्षर कहलाता है॥
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भगवान की महिमा अपार है। अनंत जन्मों तक उनकी महिमा निरंतर लिखता रहूँ तो भी उनकी महिमा समाप्त नहीं होने वाली। इसलिए यहाँ स्वयं को विराम दे रहा हूँ। मुझे स्वयं को भी नहीं पता कि मैंने क्या लिखा है। लेकिन जो भी लिखा है वह सही ही है, क्योंकि इसके पीछे उनकी ही प्रेरणा है।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१९ नवंबर २०२३

इस संसार में सबसे अधिक कठिन कार्य है पुरुष होना ---

 इस संसार में सबसे अधिक कठिन कार्य है पुरुष होना ---

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महिला दिवस पर सैंकड़ों लेख लिखे जाते हैं, लेकिन पुरुष दिवस पर आज एक भी लेख नहीं देखा। संसार में जीवित रहने के लिए महिला और पुरुष दोनों का ही योगदान होता है। पुरुषों की भलाई, स्वास्थ्य, मानसिक विकास, और उनके सकारात्मक गुणों का भी बहुत अधिक महत्व है। पुरुष ही राष्ट्र, समाज और मातृशक्ति की रक्षा कर सकते हैं। पुरुषों को भी मधुमेह, हृदय रोग, प्रोस्टेट ग्रंथि के विकार, और अनेक तरह के तनाव आदि हो सकते हैं। उन्हें भी अच्छा व्यवहार, प्रेम और सद्भावना चाहिए; सिर्फ दोषारोपण ही नहीं। अति अति विपरीत परिस्थितियों में अपने परिवार और समाज की रक्षा व उत्थान के लिए एक पुरुष ही पता नहीं कितने कष्ट उठाता है, और अपनी भौतिक दरिद्रता और गरीबी से मुक्ति पाता है।
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आध्यात्मिक दृष्टि से एक ही पुरुष हैं, और वे हैं भगवान विष्णु। अन्य सब प्रकृति हैं। पुरुष का अर्थ है पुरी में शयन करने वाला। हमारी इस देह रूपी पूरी में वे ही शयन कर रहे हैं। गीता में भगवान कहते हैं --
"अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम्।
अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर॥८:४॥"
अर्थात् - हे देहधारियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन ! क्षरभाव अर्थात् नाशवान् पदार्थ को अधिभूत कहते हैं, पुरुष अर्थात् हिरण्यगर्भ ब्रह्माजी अधिदैव हैं और इस देह में अन्तर्यामी रूप से मैं ही अधियज्ञ हूँ।
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"अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः॥८:५॥"
अर्थात् - जो मनुष्य अन्तकालमें भी मेरा स्मरण करते हुए शरीर छोड़कर जाता है, वह मेरे स्वरुप को ही प्राप्त होता है, इसमें सन्देह नहीं है।
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"अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना।
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्॥८:८॥"
अर्थात् - हे पार्थ ! अभ्यासयोग से युक्त अन्यत्र न जाने वाले चित्त से निरन्तर चिन्तन करता हुआ (साधक) परम दिव्य पुरुष को प्राप्त होता है।
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"प्रयाणकाले मनसाऽचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव।
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्॥८:१०॥"
अर्थात् - वह भक्तियुक्त मनुष्य अन्तसमय में अचल मन से और योगबल के द्वारा भृकुटी के मध्य में प्राणों को अच्छी तरहसे प्रविष्ट करके (शरीर छोड़नेपर) उस परम दिव्य पुरुषको ही प्राप्त होता है।
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"त्वमादिदेवः पुरुषः पुराण स्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्।
वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्वमनन्तरूप॥११:३८॥"
अर्थात् - आप ही आदिदेव और पुराणपुरुष हैं तथा आप ही इस संसार के परम आश्रय हैं। आप ही सब को जानने वाले, जानने योग्य और परमधाम हैं। हे अनन्तरूप ! आपसे ही सम्पूर्ण संसार व्याप्त है।
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वेदों में १८ श्लोकों का पुरुष सूक्त है। हम उन्हीं परम पुरुष को प्राप्त हों। वे ही एकमात्र पुरुष हैं --
सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात्। स भूमिं विश्वतोवृत्वात्यतिष्ठद्दशांगुलम्॥
पुरुष एवेदम् सर्वं यद्भूतम् यच्च भव्यम्। उतामृतत्वस्येशानो यदह्नेनाऽतिरोहति॥
एतावानस्य महिमातो ज्यायांश्च पुरुषः। पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि॥
त्रिपादूर्ध्वं उदैत् पुरुषः पादोस्येहा पुनः। ततो विश्वं व्यक्रामच्छाशनान शने अभि॥
तस्माद्विराडजायत विराजो अधिपुरुषः। सहातो अत्यरिच्यत पश्चात् भूमिमतो पुरः॥
यत्पुरुषेन हविषा देवा यज्ञमतन्वत। वसन्तो अस्यासीद्दाज्यम् ग्रीष्म इद्ध्म शरद्धविः॥
सप्तास्यासन्परिधयस्त्रि सप्त समिधः कृताः। देवा यद्यज्ञं तन्वानाः अबध्नन्पुरुषं पशुं॥
तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन्पुरुषं जातमग्रतः। तेन देवा अयजन्त साध्या ऋषयश्च ये॥
तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतः संभृतं पृषदाज्यं। पशून्तांश्चक्रे वायव्यानारण्यान्ग्राम्याश्च ये॥
तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतः ऋचः सामानि जज्ञिरे। छंदांसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत॥
तस्मादश्वा अजायन्त ये के चोभयादतः। गावो ह जज्ञिरे तस्मात्तस्माज्जाता अजावयः॥
यत्पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन्। मुखं किमस्य कौ बाहू का उरू पादा उच्येते॥
ब्राह्मणोऽस्य मुखामासीद्बाहू राजन्य: कृत:। ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रोऽजायत॥
चंद्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत। मुखादिंद्रश्चाग्निश्च प्राणाद्वायुरजायत॥
नाभ्या आसीदंतरिक्षं शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत। पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा लोकाँ अकल्पयन्॥
वेदाहमेतम् पुरुषम् महान्तम् आदित्यवर्णम् तमसस्तु पारे। सर्वाणि रूपाणि विचित्य धीरो नामानि कृत्वा भिवदन्यदास्ते॥
धाता पुरस्ताद्यमुदाजहार शक्रफ्प्रविद्वान् प्रतिशश्चतस्र। तमेव विद्वान् अमृत इह भवति नान्यत्पन्था अयनाय विद्यते॥
यज्ञेन यज्ञमयजंत देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्। ते ह नाकं महिमानः सचंत यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवा:॥
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हे परम पुराणपुरुष, इस जीवन को स्वीकार करो। और मेरे पास कुछ भी नहीं है। जो कुछ भी है वह आपको समर्पित है। ॐ शांति शांति शांति ॥ ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१९ नवंबर २०२४

Monday, 18 November 2024

पश्चिमी (ईसाई) देशों के पहिनावे में महिलाओं को कम से कम वस्त्र क्यों पहिनाये जाते हैं, और पुरुषों को खूब अधिक?

पश्चिमी (ईसाई) देशों के पहिनावे में महिलाओं को कम से कम वस्त्र क्यों पहिनाये जाते हैं, और पुरुषों को खूब अधिक? .

मैंने कई पश्चिमी (ईसाई) देशों में खूब भ्रमण किया है, अतः उन की मानसिकता को खूब अच्छी तरह से समझता हूँ। कई पादरियों से और प्रोटेस्टेंट सिस्टरों से मेरी मित्रता भी थी, और उनसे खूब संवाद भी हुआ है।
पश्चिमी देशों की संस्कृति में महिलाओं का कभी भी सम्मान नहीं था, उन्हें सिर्फ उपभोग की वस्तु समझा जाता रहा है। अब भी महिलाओं का विशेष सम्मान नहीं है।
वहाँ की संस्कृति में महिलाओं को कम से कम और खूब उत्तेजक व आकर्षक कपड़े इसलिए पहिनाए जाते हैं ताकि पुरुषों को वे आकर्षक लगें, और पुरुषों की उत्तेजना बनी रहे।
कम से कम शब्दों में लिखे गई इतनी सी बात ही बहुत है। अधिक और लिखने की आवश्यकता नहीं है। १८ नवंबर २०२२

ठेके से सारे अंतिम संस्कार -- .

 ठेके से सारे अंतिम संस्कार --

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आजकल परिवार के सदस्यों में मनमुटाव, संबंधियों व मित्रों की कमी, बच्चों के विदेशों या दिसावरों में जाकर बसने, एकाँकी जीवन, आदि के समय में यदि कोई मर जाये तो अंतिम संस्कार करने के लिए आदमी नहीं मिलते। पहले पड़ोसी व गाँव के लोग आ जाते थे। आजकल कोई नहीं आना चाहता। ऐसे समय में अंतिम संस्कार ठेके पर करने के व्यवसाय आरंभ हो रहे हैं। कोई मर जाये तो उस ठेके वाली कंपनी की फीस जमा करा दो, कंपनी के आदमी आकर अंतिम संस्कार कर देंगे। पिंडदान और श्राद्ध भी On line आरंभ हो जाएँगे। मरने से पहले Advance booking भी कर सकेंगे अपने अंतिम संस्कार की ताकि स्वयं के मृत देह की दुर्गति न हो। अधिक समय नहीं लगेगा। अगले आठ-दस वर्षों में यह सामान्य बात हो जाएगी। आजकल लाश को कंधा देने वाले भी नहीं मिलते। उसके लिए तो शव वाहिनियों का प्रचलन लगभग सभी नगरों में हो चुका है।
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अपने जीवित रहते रहते ही अपना स्वयं का पिंडदान और श्राद्ध कर जाओ। आजकल की नई पीढ़ी से यह आशा मत रखो कि वे आपका पिंडदान या श्राद्ध करेंगे। १८ नवंबर २०२२

🌹🌹🌹🌹🌹 महादेव महादेव महादेव 🌹🌹🌹🌹🌹 ---

 

🌹🌹🌹🌹🌹 महादेव महादेव महादेव 🌹🌹🌹🌹🌹 ---
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🌹 हमारा ब्रह्मांड पाँच तत्वों से बना है -- जल, पृथ्वी, अग्नि, वायु और आकाश। सर्वव्यापी भगवान शिव को पंचानन अर्थात पाँच मुख वाले कहा जाता है। ये पांचों तत्व उनके मुख हैं। ऊर्ध्वमुख आकाश तत्व है। पूर्वमुख वायु तत्व है। दक्षिणी मुख अग्नितत्व है। उत्तरी मुख जल तत्व है। पश्चिमी मुख पृथ्वी तत्व है।
.🌹 शिव का अर्थ है -- कल्याणकारी। विराट अनंतता और विस्तार की अनुभूति - 'शिव' की अनुभूति है।
🌹 परमशिव का अर्थ है -- परम कल्याणकारी। अनंत विस्तार की विराटता से भी परे ध्यान में श्वेत ज्योति और नक्षत्र के दर्शन परमशिव की अनुभूति है।
🌹 शिव को शंकर भी कहते हैं जिसका अर्थ है -- शमनकारी और आनंददायक।
🌹 शंभु का अर्थ है -- मंगलदायक।
🌹 सदाशिव का अर्थ है -- जो सदा कल्याण करते हैं।
🌹 भूतनाथ का अर्थ है -- पंचभूतों (पंचतत्वों) के अधिपति।
🌹 महाकाल का अर्थ है -- काल (समय) के प्रवर्तक और नियंत्रक।
🌹 शिव-परिवार में पांच सदस्य है -- शिव, पार्वती, गणेश, कार्तिकेय और नंदीश्वर। नन्दीश्वर साक्षात धर्म हैं।
🌹 शिव जी का जप सामान्यतः पंचमुखी रुद्राक्ष की माला से ही करते हैं।
🌹 शिवजी की उपासना पंचाक्षरी मंत्र -- ॐ 'नम: शिवाय' द्वारा की जाती है।
🌹 ब्रहृमा-विष्णु-महेश तात्विक दृष्टि से एक ही हैं। इनमें कोई भेद नहीं है।
🌹 पंचमुखी महादेव -- योगियों को कूटस्थ में एक स्वर्णिम आभा के मध्य एक नीला प्रकाश दिखाई देता है जिसके मध्य में एक श्वेत ज्योति और श्वेत पंचकोणीय नक्षत्र दिखाई देता है। उसे योगी 'पंचमुखी महादेव' कहते हैं। उन्नत योगी उसी का ध्यान करते हैं।
🌹 शिव-तत्व को जीवन में उतार लेना ही शिवत्व को प्राप्त करना है और यही शिव होना है। यही हमारा लक्ष्य है।
🌹 जो लगातार तीन बार महादेव का नाम ले लेता है, उसका वहीं उसी समय कल्याण हो जाता है। महादेव महादेव महादेव !!
🌹 आत्मलिंग का अर्थ -- मेरे लिए परमशिव ही आत्मलिंग हैं, जिनकी उपासना मेरे माध्यम से होती है। वे ही मेरी आत्मा हैं। वे ही हैं जो यह मैं बन गये हैं।
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🌹 ॐ नमः शंभवाय च मयोभवाय च नमः शंकराय च मयस्कराय च नमः शिवाय च शिवतराय च॥ 🌹 ॐ तत्सत् !! ॐ नमःशिवाय !! महादेव महादेव महादेव !!
कृपा शंकर १८ नवंबर २०२२