भगवान के प्रति समर्पित होना एक उच्चतम स्थिति है, भागवत में जिसके उदाहरण जड़भरत हैं। उनकी स्थिति उच्चतम थी। समर्पण के लिए वीतराग होना आवश्यक है। एक वीतराग व्यक्ति ही भगवान के प्रति समर्पित हो सकता है। वीतरागता ही वैराग्य है। भगवान श्रीकृष्ण हमें 'स्थितप्रज्ञ मुनि' होने का आदेश देते हैं जिसके लिए भगवान को समर्पित तो होना ही पड़ता है। भगवान कहते हैं --
"दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते॥२:५६॥"
अर्थात् - दुख में जिसका मन उद्विग्न नहीं होता, सुख में जिसकी स्पृहा निवृत्त हो गयी है, जिसके मन से राग, भय और क्रोध नष्ट हो गये हैं, वह मुनि स्थितप्रज्ञ कहलाता है॥
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भाष्यकार भगवान आचार्य शंकर के अनुसार -- "आध्यात्मिक आदि तीनों प्रकार के दुःखों के प्राप्त होने से जिसका मन उद्विग्न नहीं होता, अर्थात् क्षुभित नहीं होता उसे "अनुद्विग्नमना" कहते हैं। सुखों की प्राप्ति में जिसकी स्पृहा व तृष्णा नष्ट हो गयी है, अर्थात् ईंधन डालने से जैसे अग्नि बढ़ती है वैसे ही सुख के साथ साथ जिसकी लालसा नहीं बढ़ती, वह "विगतस्पृह" कहलाता है। जिसके आसक्ति, भय और क्रोध नष्ट हो गये हैं, वह "वीतराग भय क्रोध" कहलाता है। ऐसे गुणों से युक्त जब कोई हो जाता है, तब वह स्थितधी यानी स्थितप्रज्ञ और मुनि यानी संन्यासी कहलाता है।"
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यह "स्थितप्रज्ञता" ही वास्तविक "स्वतन्त्रता" है। भगवान श्रीकृष्ण ने राग-द्वेष से मुक्ति और वीतराग होने का मार्ग भी बता दिया है, जो निम्न श्लोकों के स्वाध्याय से पूरी तरह समझ में आ सकता है (हालाँकि ये दूसरे संदर्भ में हैं)--
"यदक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये॥८:११॥"
"सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च।
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्॥८:१२॥"
"ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्॥८:१३॥"
"अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः॥८:१४॥"
"मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम्।
नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः॥८:१५॥"
अर्थात् -- वेद के जानने वाले विद्वान जिसे अक्षर कहते हैं; रागरहित यत्नशील पुरुष जिसमें प्रवेश करते हैं; जिसकी इच्छा से (साधक गण) ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं - उस पद (लक्ष्य) को मैं तुम्हें संक्षेप में कहूँगा॥
सब (इन्द्रियों के) द्वारों को संयमित कर मन को हृदय में स्थिर करके और प्राण को मस्तक में स्थापित करके योगधारणा में स्थित हुआ॥
जो पुरुष ॐ इस एक अक्षर ब्रह्म का उच्चारण करता हुआ और मेरा स्मरण करता हुआ शरीर का त्याग करता है, वह परम गति को प्राप्त होता है॥
हे पृथानन्दन ! अनन्यचित्तवाला जो मनुष्य मेरा नित्य-निरन्तर स्मरण करता है, उस नित्ययुक्त योगी के लिये मैं सुलभ हूँ अर्थात् उसको सुलभता से प्राप्त हो जाता हूँ॥
परम सिद्धि को प्राप्त हुये महात्माजन मुझे प्राप्त कर अनित्य दुःख के आलयरूप (गृहरूप) पुनर्जन्म को नहीं प्राप्त होते हैं॥
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परमात्मा को कर्ता बनाकर हम सब कार्य करें। कर्तव्य निभाते हुए भी अकर्ता बने रहें। सारे कार्य और उनके फल परमात्मा को समर्पित कर दें। किसी भी तरह की अपेक्षा व कामना न हो। किसी के प्रति भी राग और द्वेष न हो। हम बुराई का प्रतिकार करें, युद्धभूमि में शत्रु का भी संहार करें, लेकिन ह्रदय में घृणा और क्रोध बिलकुल भी न हो।
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राग और द्वेष ये दो ही पुनर्जन्म यानि इस संसार में बारम्बार आने के मुख्य कारण हैं। जिनसे भी हम राग या द्वेष रखते हैं, अगले जन्म में उन्हीं के परिवार में जन्म होता है। जिस भी परिस्थिति और वातावरण से हमें राग या द्वेष है, वही वातावरण और परिस्थिति हमें दुबारा मिलती है। राग और द्वेष ही लोभ और अहंकार को जन्म देते हैं। मनुष्य का लोभ और अहंकार ही मनुष्य के सारे पापों का मूल, सब बुराइयों की जड़ और सब प्रकार की हिंसा का एकमात्र कारण है। मनुष्य के लोभ और अहंकार का जन्म भी राग और द्वेष से ही होता है, जिसके कारण हम भगवान को समर्पित नहीं हो पाते। भगवान को समर्पित होना -- मनुष्यत्व की वह परम अवस्था है जहाँ पर हम परम-तत्व से साक्षात्कार करने लगते हैं। समर्पित व्यक्ति के लिए स्वर्ण व धूलि एक समान होते हैं, वह कुछ पकड़ता भी नहीं है और कुछ छोड़ता भी नहीं है। यह चैतन्य की एक बहुत ऊँची अवस्था है।
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भागवत में गोकर्ण अपने पिता को उपदेश देते हैं कि -- हे पिताजी! यह शरीर हड्डी, मांस और रुधिर का पिण्ड है; इसे आप ‘मैं’ मानना छोड़ दें और स्त्री-पुत्रादि को ‘अपना’ कभी न मानें। इस संसार को रात-दिन क्षणभंगुर देखें, इसकी किसी भी वस्तु को स्थायी समझकर उसमें राग न करें। बस, एकमात्र वैराग्य रस के रसिक होकर भगवान् की भक्ति में लगे रहें।
भगवद्भजन ही सबसे बड़ा धर्म है, निरन्तर उसी का आश्रय लिये रहें। अन्य सब प्रकार के लौकिक धर्मों से मुख मोड़ लें। सदा साधुजनों की सेवा करें। भोगों की लालसा को पास न फटकने दें तथा जल्दी-से-जल्दी दूसरों के गुण-दोषों का विचार करना छोड़कर एकमात्र भगवत्सेवा और भगवान् की कथाओं के रस का ही पान करें।
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जितना मैं अपनी अल्प और सीमित बुद्धि से लिख सकता हूँ, वह यहाँ लिख दिया है। भगवान की विशेष परम कृपा से ही यह विषय समझ में आ सकता है। इस लेख में कोई कमी रह गयी है तो वह मेरी अज्ञानता के कारण है। भगवान की परम कृपा से हमें भगवान को समर्पित महापुरुषों का सत्संग प्राप्त होता है। उनके निरंतर सत्संग से हम स्वयं भी समर्पित हो सकते हैं।
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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय॥ श्रीरामचन्द्रचरणौ शरणं प्रपद्ये॥ श्रीमते रामचंद्राय नमः॥
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
६ अक्तूबर २०२३
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(पुनश्च) कुछ दिन पूर्व मेरा सत्संग अनंतश्रीविभूषित परिव्राजकाचार्य परमहंस श्रीमद् दंडी स्वामी जोगेन्द्राश्रम से हुआ था। उन्होंने एक आदेश दिया था कि मैं एक लेख "समर्पण" पर लिखूँ। उनके आदेश की पूर्ति में ही अपनी सीमित और अल्प बुद्धि से यह लेख लिखा है।