Monday, 13 January 2025

हम सब को मकर संक्रान्ति, लोहिड़ी और पोंगल की शुभ कामनाएँ| आज सूर्य उत्तरायण हो रहे हैं| बहुत ही श्रेष्ठ दिन है| हम सब इस दिन का सदुपयोग करें|

 शिवसंकल्पमस्तु -------

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हम सब को मकर संक्रान्ति, लोहिड़ी और पोंगल की शुभ कामनाएँ|
आज सूर्य उत्तरायण हो रहे हैं| बहुत ही श्रेष्ठ दिन है| हम सब इस दिन का सदुपयोग करें|
हम अपने विचारों के विचारक स्वयं हैं और इस तरह जीवन की हर परिस्थिति और स्वयं के निर्माता भी स्वयं ही हैं| हमारा चाहा-अनचाहा, जाना-अनजाना हर विचार क्रियारूप और सृष्टिकर्ता है जो हमारे जीवन और चरित्र में परिलक्षित होता है| जीवन में कोई भी संयोग या होनी-अनहोनी नहीं होती| ये सब हमारे ही कभी ना कभी, कहीं ना कहीं किये हुए विचारों की ही प्रतिध्वनी या प्रतिबिंब हैं| हमारे विचार और संकल्प ही हमारी सृष्टि हैं|
आज के दिन प्रभु से प्रार्थना है कि हमारा हर संकल्प शिव-संकल्प हो, और हर विचार सर्वश्रेष्ठ हो|
हे प्रभु, हे जगदीश, मैं निराश्रय हूँ, मेरी रक्षा करो|
हे मुरारी, हे गोविन्द, हे गोपाल, हे पापतापहारी, हे मुकुंद, हे माधव, हे नारायण, हे कृष्ण, हे विष्णु, हे शिव, हे राम, मैं आपकी शरणागत हूँ| आप ही मेरे परम आश्रय हैं| मेरा और कोई नहीं है| मेरी सदा निरंतर रक्षा करो| आपकी जय हो|
१४ जनवरी २०१४

आत्महत्याओं को रोका जा सकता है, अवसादग्रस्त व्यक्ति को मनोवैज्ञानिक सहारे की आवश्यकता है ---

 आत्महत्याओं को रोका जा सकता है, अवसादग्रस्त व्यक्ति को मनोवैज्ञानिक सहारे की आवश्यकता है ---

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अवसादग्रस्तता (Mental Depression) से आत्महत्या की प्रवृत्ति बहुत अधिक चिंता की बात है| ऐसा लगता है कि आजकल बहुत लोग आत्महत्या कर रहे हैं| महामारी से मरे हुये लोगों के समाचार तो मिल जाते हैं, पर लगभग उतने ही लोग अवसादग्रस्त होकर आत्महत्या कर लेते हैं, उनका कोई समाचार नहीं आता| यह एक बहुत ही खतरनाक स्थिति है| आत्महत्या का प्रयास करने के मुख्य कारण हैं -- (१) पति-पत्नी के मध्य में मनमुटाव, (२) सास-बहू के मध्य का मनमुटाव, और (३) आर्थिक तंगी |
आर्थिक तंगी और सूदखोरों से परेशान होकर भी बहुत लोग परिवार सहित आत्महत्या कर लेते हैं| आत्महत्या से पहिले व्यक्ति अवसादग्रस्त होता है| उस समय उसे बड़े मनोवैज्ञानिक सहारे की आवश्यकता होती है| यदि उसकी बात को बड़े ध्यान से सुना जाये और थोड़ी सहानुभूति दिखाई जाये तो वह अवसाद से बाहर आ सकता है|
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आजकल विवाह की संस्था विफल होती जा रही है| समाज भी बच्चों में कोई अच्छे संस्कार नहीं देता| सिर्फ अधिक से अधिक रूपये कमाने की ही सीख दी जाती है| पति को कमाने वाली पत्नी चाहिए, और पत्नि को कमाने वाला पति| जहाँ वे एक-दूसरे की अपेक्षाओं को पूरा नहीं करते, वहीं कलह शुरू हो जाती है| हरेक जिले के पारिवारिक न्यायालयों में देख लीजिए, मुकदमों की भीड़ लगी हुई है| पति-पत्नि के पारिवारिक झगड़ों में लाभ सिर्फ उनके वकीलों को ही होता है, और किसी को नहीं| समाज में महिलाओं को अच्छे संस्कार दिये बिना महिला-सशक्तिकरण के नाम पर बहुत अधिक अधिकार दे दिये गए हैं| जरा-जरा सी बात पर वे अपने पतियों व ससुराल वालों का जीवन नर्क बना देती हैं| इसलिए परिवार टूट रहे हैं, और विवाह की संस्था विफल हो रही है|
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अवसादग्रस्त व्यक्ति की हम क्या सहायता कर सकते हैं ---
शांत रहें, उसकी बात सुनें, और उसकी भावनाओं को समझें| उसे कोई उसकी बात सुनने वाला चाहिए, जिस पर वह विश्वास कर सके, और जो उसका ध्यान रख सके| कभी उसको अकेले में मत रहने दें, उस पर कोई भाषणबाजी न करें और ऐसे प्रश्न न पूछें जो उसको अप्रिय लगते हों| उसे किसी बहुत अच्छे मनोवैज्ञानिक और मनोचिकित्सक के पास ले जाकर उसका उपचार करवाएँ| उसमें किसी भी तरह की हीन-भावना न आने दें|
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कृपा शंकर
१४ जनवरी २०२१

हम स्वतन्त्र कैसे हों ?

हम स्वतन्त्र कैसे हों ?
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इस प्रश्न पर विचार करने से पूर्व यह जानना आवश्यक है कि परतंत्रता क्या है। हम दुःख-सुख, सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास, अज्ञान, भय, कामनाओं, वासनाओं और अन्य अनेक तरह की सीमितताओं से बंधे हैं। ये सारी सीमितताएँ परतंत्रताएँ ही हैं। वास्तविक स्वतन्त्रता -- आत्म-साक्षात्कार यानि भगवत्-प्राप्ति, यानि परमात्मा के साथ एक होने में है। यही हमारे जीवन का वास्तविक उद्देश्य है।
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अपनी चेतना में हम ईश्वर के साथ एक हों। ईश्वर के जो गुण -- जैसे सर्वव्यापकता, सर्वज्ञता, सर्वशक्तिमता आदि हैं, वे हमारे भी गुण हों। इस के लिए भक्ति सहित निरंतर ब्रह्म-चिंतन करें। इस भौतिक शरीर की चेतना सबसे बड़ा बंधन है। हमारे में इतनी शक्ति हो कि हम अपनी इच्छा से इस भौतिक देह के अणुओं को भी ऊर्जा में परिवर्तित कर सकें। जब मनुष्य का शरीर छूटता है तब जिनके साथ हम जुड़े हुए हैं, उन घर-परिवार के लोगों को हमारे कारण बहुत अधिक कष्ट उठाना पड़ता है। उन को भी उस कष्ट से मुक्ति मिले। कम से कम हम इतना तो कर ही सकते हैं कि जीवित रहते हुये ही अपना पिंडदान और श्राद्ध स्वयं कर दें। हमारे कारण किसी को किसी भी प्रकार का कष्ट न हो।
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अपनी चेतना में नित्य मुक्त होने का अभ्यास करते रहें। हम नित्य मुक्त हैं। इन सारे बंधनों में हम अपनी स्वतंत्र इच्छा से ही बंधे, और अपनी स्वतंत्र इच्छा से ही मुक्त होंगे। मुझे तो आप सब में परमात्मा का ही आभास होता है, इसीलिए सबसे संपर्क रखता हूँ। मेरे लिए एकमात्र महत्व परमात्मा का है। अन्य सब महत्वहीन है। सभी को मंगलमय शुभ कामनाएं।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१४ जनवरी २०२४
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इस प्रश्न पर विचार करने से पूर्व यह जानना आवश्यक है कि परतंत्रता क्या है। हम दुःख-सुख, सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास, अज्ञान, भय, कामनाओं, वासनाओं और अन्य अनेक तरह की सीमितताओं से बंधे हैं। ये सारी सीमितताएँ परतंत्रताएँ ही हैं। वास्तविक स्वतन्त्रता -- आत्म-साक्षात्कार यानि भगवत्-प्राप्ति, यानि परमात्मा के साथ एक होने में है। यही हमारे जीवन का वास्तविक उद्देश्य है।
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अपनी चेतना में हम ईश्वर के साथ एक हों। ईश्वर के जो गुण -- जैसे सर्वव्यापकता, सर्वज्ञता, सर्वशक्तिमता आदि हैं, वे हमारे भी गुण हों। इस के लिए भक्ति सहित निरंतर ब्रह्म-चिंतन करें। इस भौतिक शरीर की चेतना सबसे बड़ा बंधन है। हमारे में इतनी शक्ति हो कि हम अपनी इच्छा से इस भौतिक देह के अणुओं को भी ऊर्जा में परिवर्तित कर सकें। जब मनुष्य का शरीर छूटता है तब जिनके साथ हम जुड़े हुए हैं, उन घर-परिवार के लोगों को हमारे कारण बहुत अधिक कष्ट उठाना पड़ता है। उन को भी उस कष्ट से मुक्ति मिले। कम से कम हम इतना तो कर ही सकते हैं कि जीवित रहते हुये ही अपना पिंडदान और श्राद्ध स्वयं कर दें। हमारे कारण किसी को किसी भी प्रकार का कष्ट न हो।
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अपनी चेतना में नित्य मुक्त होने का अभ्यास करते रहें। हम नित्य मुक्त हैं। इन सारे बंधनों में हम अपनी स्वतंत्र इच्छा से ही बंधे, और अपनी स्वतंत्र इच्छा से ही मुक्त होंगे। मुझे तो आप सब में परमात्मा का ही आभास होता है, इसीलिए सबसे संपर्क रखता हूँ। मेरे लिए एकमात्र महत्व परमात्मा का है। अन्य सब महत्वहीन है। सभी को मंगलमय शुभ कामनाएं।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१४ जनवरी २०२४

वे मरे नहीं, वे अमर हुए। वे हारे नहीं, वे वीरगति को प्राप्त हुए ---

 वे मरे नहीं, वे अमर हुए। वे हारे नहीं, वे वीरगति को प्राप्त हुए। उन्होंने भारत की अस्मिता (सनातन धर्म और संस्कृति) की रक्षा के लिए युद्ध किया था। भारत की भूमि पर महाभारत के पश्चात लड़ा गया यह सबसे बड़ा धर्मयुद्ध था। उनके साथ विश्वासघात हुआ। जिनके प्राणों की उन्होंने रक्षा कर शरण दी, उन्हीं कृतघ्नों ने विश्वासघात किया।

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२६३ वर्ष पूर्व १४ जनवरी १७६१ को हुए पानीपत के तीसरे युद्ध में हुतात्मा एक लाख तीस हजार से भी अधिक अमर हिन्दू मराठा योद्धाओं को श्रद्धांजलि और नमन ---
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सदाशिव राव भाऊ एक महान वीर हिन्दू योद्धा था, जिसके नेतृत्व में यह युद्ध लड़ा गया था। उसकी सेना धर्मरक्षा हेतु, दुर्दांत लुटेरे अहमदशाह अब्दाली से लड़ने के लिए हजारों मील दूर महाराष्ट्र से पैदल चल कर आई थी, जिसके साथ में भारी तोपखाना भी था। उस के सैनिकों ने उस दिन भूखे, प्यासे, सर्दी में ठिठुरते हुए युद्ध किया था, क्योंकि उन्हें पर्याप्त समय ही नहीं मिला था। फिर भी वे वीरता से लड़े और अमर हुए। महाराष्ट्र का शायद ही कोई ऐसा घर होगा जिसका कोई न कोई सदस्य वीरगति को प्राप्त नहीं हुआ था।
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भारत के शत्रु वामपंथी इतिहासकारों ने भारत का गलत इतिहास लिखा है। इस युद्ध के बाद अहमदशाह अब्दाली भाग गया था और उसका फिर कभी साहस ही नहीं हुआ, भारत की ओर आँख उठाकर देखने का। अहमदशाह अब्दाली ने पंजाब में भयंकर नर-संहार और विनाश किया, फिर मथुरा के और आसपास के सारे हिन्दू मंदिर तोड़कर ध्वस्त कर दिये थे। उसने चालीस हज़ार से अधिक तीर्थयात्रियों व धर्मनिष्ठ नागरिकों का सामूहिक नरसंहार कर उनके नरमुंडों से मथुरा के पास एक मीनार खड़ी कर दी थी। उसी की सजा उसे देने के लिए सदाशिवराव भाऊ महाराष्ट्र से आया था। उस युद्ध के पश्चात पश्चिम में खैबर घाटी से होकर फिर किसी आक्रमणकारी का भारत में आने का साहस नहीं हुआ।
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इस तरह के और भी अनेक युद्ध लड़े गए, जिन्हें छिपाया गया है। वीर-प्रसूता भारत माता की जय। इस लेख को लिखने का उद्देश्य --- किसी पूर्वजन्म की स्मृति को व्यक्त करना है। कई बार वह पूरा युद्ध मुझे याद आ जाता है, जैसे वह मेरे आँखों के सामने ही लड़ा गया था।
कृपा शंकर
१४ जनवरी २०२४

Sunday, 12 January 2025

अंतिम बात :---

आध्यात्म और प्रभु-प्रेम पर लिखते लिखते अनेक वर्ष हो गए हैं, अब अंतिम बात कहना चाहता हूँ। इसके बाद जो भी लिखूंगा वह पुरानी बातों की पुनरावृति ही होगी,उसमें कोई नयापन नहीं होगा।

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अंतिम बात यह है कि जब तक पूर्ण सत्यनिष्ठा से हमारा समर्पण पूर्ण नहीं होता, तब तक हमें भगवत्-प्राप्ति किसी भी परिस्थिति में नहीं हो सकती। हमें तब तक न तो किसी का आशीर्वाद, न किसी की मेहरवानी, न कोई पूजा-पाठ या जप-तप -- भगवान की प्राप्ति करा सकता है, जब तक पूर्ण सत्य-निष्ठा से हम पूरी तरह से भगवान के प्रति समर्पित नहीं होते।
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श्रीमद्भगवद्गीता के चरम श्लोक में भगवान कहते हैं --
"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥१८:६६॥"
अर्थात् -- सब धर्मों का परित्याग करके तुम एक मेरी ही शरण में आओ, मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो॥
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अभिप्राय यह है कि एक परमात्मा के अतिरिक्त कुछ अन्य है ही नहीं। हमें अपनी पृथकता के बोध को भूलकर केवल परमात्मा में समर्पित होना पड़ेगा, तभी हम समस्त धर्माधर्मबन्धनरूप कर्मफलों से मुक्त हो सकते हैं।
इस भाव की प्राप्ति और कर्ताभाव से मुक्ति हमें केवल संकल्प और इच्छामात्र से नहीं हो सकती, इसके लिए भी तप और साधना करनी पड़ेगी। एक बार समर्पण का भाव आ जाये तो भगवान स्वयं हमारा मार्गदर्शन करते हैं। फिर कर्ता भी वे ही बन जाते हैं।
हमें भगवान की प्राप्ति इसलिए नहीं होती क्योंकि हमारे में सत्यनिष्ठा का अभाव है, अन्य कोई कारण नहीं है। सत्यनिष्ठा होगी तभी भक्ति यानि परमप्रेम जागृत होगा। भगवान सत्यनारायण हैं। आपने मेरी बात को बहुत ध्यान से पढ़ा है इसके लिए मैं आपका आभारी हूँ। हमें सब तरह की कामनाओं से मुक्त होकर भगवान में स्थित होना होगा।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१३ जनवरी २०२४

Saturday, 11 January 2025

भगवान श्रीकृष्ण ने हमारे ऊपर बहुत बड़ा उपकार किया है

 जहां तक मैं समझता हूँ -- विशुद्ध वेदान्त दर्शन केवल मुमुक्षु साधु-संतों व विरक्तों के लिये ही है; शासक-वर्ग, क्षत्रियों, व अन्यों के लिए तो कदापि नहीं। सतयुग में राजा जनक इसके अपवाद थे।

भगवान श्रीकृष्ण ने हमारे ऊपर बहुत बड़ा उपकार किया है वेदान्त (ज्ञानयोग) के साथ साथ कर्मयोग व भक्तियोग को जोड़ कर। इसी से भारत की रक्षा हुई है। गीता का ज्ञानयोग ही वेदान्त है, लेकिन ज्ञानयोग का उपदेश देने से पहिले भगवान श्रीकृष्ण ने कर्मयोग व भक्तियोग की शिक्षा दी है। कर्म, भक्ति और ज्ञान -- इन तीनों के समन्वय से ही जीवन में पूर्ण विकास होता है।
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भगवान श्रीकृष्ण ने सिखाया कि युद्ध भूमि में शत्रु का संहार करो, लेकिन निःस्पृह निष्काम व निमित्त मात्र होकर बिना किसी घृणा, भय व क्रोध से, कर्तव्य मानकर। वे तो यहाँ तक कहते हैं कि ईश्वर की चेतना में यदि हम सम्पूर्ण सृष्टि का भी विनाश कर देते हैं, तो कोई पाप नहीं लगता।
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केवल बातों से कोई लाभ नहीं है। यह ऊँचे से ऊँचा ब्रह्मज्ञान और ब्रह्मविद्या है। इसकी चर्चा से कोई लाभ नहीं है। इसका अभ्यास करो। पूरा जीवन इसके प्रति समर्पित कर दो। भगवान कहते हैं --
"यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः।
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते॥६:२२॥"
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥६:३०॥"
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ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
८ जनवरी २०२५

परमात्मा के ध्यान में मैं उनकी सारी सृष्टि के साथ एक हूँ ---

 फेसबुक व व्हाट्सएप्प पर तो मेरी पहुँच बहुत कम लोगों तक है। लेकिन परमात्मा के ध्यान में मैं उनकी सारी सृष्टि के साथ एक हूँ। मेरी कोई स्वतंत्र इच्छा नहीं है। मैं आप सब से पृथक नहीं, निरंतर आप सब के साथ एक हूँ। हम सब का जीवन राममय हो।

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यह पृथ्वी हमें पाकर सनाथ है। जहाँ भी हम हैं, वहीं भगवान हैं। देवता हमें देखकर तृप्त व आनंदित होते हैं। हम भगवान के साथ एक हैं। जहाँ देखो वहीं हमारे ठाकुर जी बिराजमान हैं। कोई अन्य है ही नहीं, मैं भी नहीं। जय हो!
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आध्यात्मिक रूप से यह सृष्टि प्रकाश और अन्धकार का खेल है, वैसे ही जैसे सिनेमा के पर्दे पर जो दृश्य दिखाई देते हैं वे प्रकाश और अन्धकार के खेल हैं। अपना सर्वश्रेष्ठ योगदान हम उस प्रकाश में वृद्धि द्वारा ही कर सकते हैं। भगवान के प्रकाश में वृद्धि अपनी आध्यात्मिक उपासना और समर्पण द्वारा करें।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
९ जनवरी २०२५