Wednesday 18 September 2024

भगवान के प्रति हम कैसे समर्पित हों? ---

 भगवान के प्रति समर्पित होना एक उच्चतम स्थिति है, भागवत में जिसके उदाहरण जड़भरत हैं। उनकी स्थिति उच्चतम थी। समर्पण के लिए वीतराग होना आवश्यक है। एक वीतराग व्यक्ति ही भगवान के प्रति समर्पित हो सकता है। वीतरागता ही वैराग्य है। भगवान श्रीकृष्ण हमें 'स्थितप्रज्ञ मुनि' होने का आदेश देते हैं जिसके लिए भगवान को समर्पित तो होना ही पड़ता है। भगवान कहते हैं --

"दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते॥२:५६॥"
अर्थात् - दुख में जिसका मन उद्विग्न नहीं होता, सुख में जिसकी स्पृहा निवृत्त हो गयी है, जिसके मन से राग, भय और क्रोध नष्ट हो गये हैं, वह मुनि स्थितप्रज्ञ कहलाता है॥
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भाष्यकार भगवान आचार्य शंकर के अनुसार -- "आध्यात्मिक आदि तीनों प्रकार के दुःखों के प्राप्त होने से जिसका मन उद्विग्न नहीं होता, अर्थात् क्षुभित नहीं होता उसे "अनुद्विग्नमना" कहते हैं। सुखों की प्राप्ति में जिसकी स्पृहा व तृष्णा नष्ट हो गयी है, अर्थात् ईंधन डालने से जैसे अग्नि बढ़ती है वैसे ही सुख के साथ साथ जिसकी लालसा नहीं बढ़ती, वह "विगतस्पृह" कहलाता है। जिसके आसक्ति, भय और क्रोध नष्ट हो गये हैं, वह "वीतराग भय क्रोध" कहलाता है। ऐसे गुणों से युक्त जब कोई हो जाता है, तब वह स्थितधी यानी स्थितप्रज्ञ और मुनि यानी संन्यासी कहलाता है।"
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यह "स्थितप्रज्ञता" ही वास्तविक "स्वतन्त्रता" है। भगवान श्रीकृष्ण ने राग-द्वेष से मुक्ति और वीतराग होने का मार्ग भी बता दिया है, जो निम्न श्लोकों के स्वाध्याय से पूरी तरह समझ में आ सकता है (हालाँकि ये दूसरे संदर्भ में हैं)--
"यदक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये॥८:११॥"
"सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च।
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्॥८:१२॥"
"ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्॥८:१३॥"
"अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः॥८:१४॥"
"मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम्।
नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः॥८:१५॥"
अर्थात् -- वेद के जानने वाले विद्वान जिसे अक्षर कहते हैं; रागरहित यत्नशील पुरुष जिसमें प्रवेश करते हैं; जिसकी इच्छा से (साधक गण) ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं - उस पद (लक्ष्य) को मैं तुम्हें संक्षेप में कहूँगा॥
सब (इन्द्रियों के) द्वारों को संयमित कर मन को हृदय में स्थिर करके और प्राण को मस्तक में स्थापित करके योगधारणा में स्थित हुआ॥
जो पुरुष ॐ इस एक अक्षर ब्रह्म का उच्चारण करता हुआ और मेरा स्मरण करता हुआ शरीर का त्याग करता है, वह परम गति को प्राप्त होता है॥
हे पृथानन्दन ! अनन्यचित्तवाला जो मनुष्य मेरा नित्य-निरन्तर स्मरण करता है, उस नित्ययुक्त योगी के लिये मैं सुलभ हूँ अर्थात् उसको सुलभता से प्राप्त हो जाता हूँ॥
परम सिद्धि को प्राप्त हुये महात्माजन मुझे प्राप्त कर अनित्य दुःख के आलयरूप (गृहरूप) पुनर्जन्म को नहीं प्राप्त होते हैं॥
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परमात्मा को कर्ता बनाकर हम सब कार्य करें। कर्तव्य निभाते हुए भी अकर्ता बने रहें। सारे कार्य और उनके फल परमात्मा को समर्पित कर दें। किसी भी तरह की अपेक्षा व कामना न हो। किसी के प्रति भी राग और द्वेष न हो। हम बुराई का प्रतिकार करें, युद्धभूमि में शत्रु का भी संहार करें, लेकिन ह्रदय में घृणा और क्रोध बिलकुल भी न हो।
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राग और द्वेष ये दो ही पुनर्जन्म यानि इस संसार में बारम्बार आने के मुख्य कारण हैं। जिनसे भी हम राग या द्वेष रखते हैं, अगले जन्म में उन्हीं के परिवार में जन्म होता है। जिस भी परिस्थिति और वातावरण से हमें राग या द्वेष है, वही वातावरण और परिस्थिति हमें दुबारा मिलती है। राग और द्वेष ही लोभ और अहंकार को जन्म देते हैं। मनुष्य का लोभ और अहंकार ही मनुष्य के सारे पापों का मूल, सब बुराइयों की जड़ और सब प्रकार की हिंसा का एकमात्र कारण है। मनुष्य के लोभ और अहंकार का जन्म भी राग और द्वेष से ही होता है, जिसके कारण हम भगवान को समर्पित नहीं हो पाते। भगवान को समर्पित होना -- मनुष्यत्व की वह परम अवस्था है जहाँ पर हम परम-तत्व से साक्षात्कार करने लगते हैं। समर्पित व्यक्ति के लिए स्वर्ण व धूलि एक समान होते हैं, वह कुछ पकड़ता भी नहीं है और कुछ छोड़ता भी नहीं है। यह चैतन्य की एक बहुत ऊँची अवस्था है।
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भागवत में गोकर्ण अपने पिता को उपदेश देते हैं कि -- हे पिताजी! यह शरीर हड्डी, मांस और रुधिर का पिण्ड है; इसे आप ‘मैं’ मानना छोड़ दें और स्त्री-पुत्रादि को ‘अपना’ कभी न मानें। इस संसार को रात-दिन क्षणभंगुर देखें, इसकी किसी भी वस्तु को स्थायी समझकर उसमें राग न करें। बस, एकमात्र वैराग्य रस के रसिक होकर भगवान् की भक्ति में लगे रहें।
भगवद्भजन ही सबसे बड़ा धर्म है, निरन्तर उसी का आश्रय लिये रहें। अन्य सब प्रकार के लौकिक धर्मों से मुख मोड़ लें। सदा साधुजनों की सेवा करें। भोगों की लालसा को पास न फटकने दें तथा जल्दी-से-जल्दी दूसरों के गुण-दोषों का विचार करना छोड़कर एकमात्र भगवत्सेवा और भगवान् की कथाओं के रस का ही पान करें।
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जितना मैं अपनी अल्प और सीमित बुद्धि से लिख सकता हूँ, वह यहाँ लिख दिया है। भगवान की विशेष परम कृपा से ही यह विषय समझ में आ सकता है। इस लेख में कोई कमी रह गयी है तो वह मेरी अज्ञानता के कारण है। भगवान की परम कृपा से हमें भगवान को समर्पित महापुरुषों का सत्संग प्राप्त होता है। उनके निरंतर सत्संग से हम स्वयं भी समर्पित हो सकते हैं।
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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय॥ श्रीरामचन्द्रचरणौ शरणं प्रपद्ये॥ श्रीमते रामचंद्राय नमः॥
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
६ अक्तूबर २०२३
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(पुनश्च) कुछ दिन पूर्व मेरा सत्संग अनंतश्रीविभूषित परिव्राजकाचार्य परमहंस श्रीमद् दंडी स्वामी जोगेन्द्राश्रम से हुआ था। उन्होंने एक आदेश दिया था कि मैं एक लेख "समर्पण" पर लिखूँ। उनके आदेश की पूर्ति में ही अपनी सीमित और अल्प बुद्धि से यह लेख लिखा है।

नर्क, स्वर्ग, सदगति, दुर्गति, मुक्ति, मोक्ष और पुनर्जन्म ---

 नर्क, स्वर्ग, सदगति, दुर्गति, मुक्ति, मोक्ष और पुनर्जन्म --- ये सब हमारे अपने स्वयं के कर्मों पर निर्भर हैं| वास्तव में इन का कोई महत्व भी नहीं है| जीवन में एकमात्र महत्व --परमात्मा का है, जिन्हें हम अपना सर्वस्व अर्पित कर दें| परमात्मा से प्रेम और समर्पण से ही सदगति हो सकती है, न कि किसी कर्मकांड से| अपना स्वयं का किया हुआ सत्कर्म ही काम आता है| हमारा अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) ही पिंड है, जिसे परमात्मा को अर्पण कर देना ही पिंडदान और सच्चा श्राद्ध है| अपना अन्तःकरण पूर्ण रूप से परमात्मा को सौंप दें| इस के लिए हमें सत्यनिष्ठा से परमात्मा की उपासना करनी पड़ेगी|

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भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं ---
"उद्धरेदात्मनाऽत्मानं नात्मानमवसादयेत्‌| आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः||६:५||"
अर्थात् मनुष्य को चाहिये कि वह अपने मन के द्वारा अपना जन्म-मृत्यु रूपी बन्धन से उद्धार करने का प्रयत्न करे, और अपने को निम्न-योनि में न गिरने दे, क्योंकि यह मन ही जीवात्मा का मित्र है, और यही जीवात्मा का शत्रु भी है||
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श्रुति भगवती भी कहती है ---
"एको हंसः भुवनस्यास्य मध्ये स एवाग्निः सलिले संनिविष्टः |
तमेव विदित्वा अतिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय || श्वेताश्वतरोपनिषद:६:१५||"
अर्थात् इस सम्पूर्ण विश्व के अन्तर में 'एक' 'हंसस्वरूपी आत्मसत्ता' है एवं 'वह' अग्निस्वरूप' है जो जल की अतल गहराई में स्थित है| 'उसका' ज्ञान प्राप्त करके व्यक्ति मृत्यु की पकड़ से परे चला जाता है तथा इस महद्-गति के लिए दूसरा कोई मार्ग नहीं है|
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परमात्मा को जानकर ही हम मृत्यु का उल्लंघन कर सकते हैं| परमात्मा को हमें स्वयं ही प्राप्त करना होगा| यह उनकी कृपा और अनुग्रह के द्वारा ही संभव है जो करुणावश वे स्वयं ही कर सकते हैं| श्रुति भगवती ने यहीं यह भी कहा है ---
"न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः|
तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति|| श्वेताश्वतरोपनिषद:६:१४||"
अर्थात् वहाँ न सूर्य प्रकाशित होता है न चन्द्र ही भासमान् है; तारे वहीं अन्धवत् हो जाते हैं; वहीं यह विद्युत् की चमक भी 'उसे' उद्भासित नहीं करती, किसी पार्थिव अग्नि का तो प्रश्न ही नहीं है; जो कुछ भी भास्वर है वह 'उसकी' ज्योति की ही प्रतिच्छाया है तथा 'उसी' की दीप्ति से यह सम्पूर्ण जगत् देदीप्यमान् हो रहा है|
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अपना अंतःकरण भगवान को सौंप दें, यही हमारा सबसे बड़ा कर्तव्य है| यही हमारा सच्चा पिंडदान और श्राद्ध व मुक्ति है|
ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२३ दिसंबर २०२०

गणेश जी ओंकार रूप हैं ---

 यह बात मैंने आज तक बहुत अधिक गोपनीय रखी थी और आज तक किसी को भी नहीं बतायी थी। भगवान गणेश जी की प्रेरणा से ही आज इसे लिख रहा हूँ। नित्य अपनी व्यक्तिगत साधना से पूर्व, मैं गणेश जी का साकार रूप में मूलाधारचक्र में जप और ध्यान करता हूँ। इससे मुझे एक अवर्णनीय अति दिव्य अनुभूति होती है, जिसे व्यक्त करने में मैं असमर्थ हूँ।

गणेश जी का वह विग्रह एक अति तीब्र प्रकाश और प्रणव अक्षर के रूप में परिवर्तित होकर सुषुम्ना की ब्रह्म उपनाड़ी में स्थित सभी सूक्ष्म चक्रों को भेदते हुए सहस्त्रारचक्र में भगवान विष्णु के चरण कमलों का स्पर्श कर, सारे ब्रह्मांड में ज्योतिर्मय ब्रह्म के रूप में व्याप्त हो जाता है। उस ज्योतिर्मय ब्रह्म का ही मैं अजपा-जप द्वारा ध्यान करता हूँ, और उसमें से निःसृत हो रहे प्रणव मंत्र का तेलधारा की तरह श्रवण करता हूँ। "मैं" का कोई अस्तित्व नहीं रहता, भगवान अपनी साधना स्वयं करते हैं। ब्रह्मांड में व्याप्त प्रणव का श्रवण मुख्य रूप से आनंददायक है।
पहले मुझे कई बार हनुमान जी की साकार रूप में अनुभूतियाँ होती थीं, जो आजकल तो बिल्कुल भी नहीं हो रही हैं। मैं कुछ भी अपने ऊपर नहीं थोपता। जो हो रहा है वह हो रहा है, मैं तो एक साक्षीमात्र हूँ। एकमात्र कर्ता भगवान स्वयं हैं।
भगवान की प्रेरणा से ही ये शब्द लिखे गए हैं, मेरा इसमें कोई श्रेय नहीं है। यही मेरी साधना है। आप सभी का जीवन भगवान को समर्पित होकर कृतार्थ हो, और आप कृतकृत्य हों।
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"ॐ कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने,
प्रणतः क्लेशनाशाय गोविंदाय नमो नमः॥"
श्रीरामचन्द्रचरणोशरणम् प्रपद्ये !! श्रीमते रामचंद्राय नमः !!
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ नमः शिवाय !!
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
​कृपा शंकर
१७ सितंबर २०२४

पितर, पितृलोक व अर्यमा ---

 सूक्ष्म देह जब स्थूल देह को त्याग कर चली जाती है, तब वह अपना एक पृथक अस्तित्व बनाये रखती है, जिसे "पितर" कहते हैं। वास्तव में यह प्रेतात्मा ही होती हैं। ये प्रेतात्माएँ एक साथ जिस लोक विशेष में रहती हैं, उसे "पितृलोक" कहा जाता है।

बारह आदित्यों में से एक "अर्यमा" नाम के आदित्य इस "पितृलोक" के देवता होते हैं, जिनका शासन वहाँ चलता है।
गीता के दसवें अध्याय के उनत्तीसवें श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं को "पितृ़णामर्यमा चास्मि" अर्थात् स्वयं को पित्तरों में अर्यमा बताया है।
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श्राद्ध पक्ष में अपने यहाँ के स्थानीय कर्मकांडी पंडितों से ही सारी जानकारी प्राप्त करें, और उसके अनुसार ही जो करना चाहिए वह करें। गीताप्रेस गोरखपुर की भी एक पुस्तिका इस विषय पर उन की सभी दुकानों पर उपलब्ध है, जिसमें सारी जानकारी दी हुई है।
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आप सब से मेरी एक व्यक्तिगत प्रार्थना है कि १८ सितंबर २०२४ से आरंभ होकर २ अक्टूबर २०२४ तक के पितृ पक्ष में अपने पित्तरों का विधि-विधान से श्राद्ध-कर्म तो करें ही, साथ साथ उनकी सदगति व मुक्ति के लिए कुछ पुण्य कर्म भी करें।
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जिस दिन आपके पित्तरों का श्राद्ध हो, उस दिन श्राद्ध-कर्म के अलावा स्वयं संकल्प लेकर पित्तरों की मुक्ति और सदगति के लिए --- सुंदर कांड, हनुमान चालीसा, या श्रीमद्भगवद्गीता का पाठ घर पर स्वयं ही करें। उनके निमित्त कुछ भजन-कीर्तन भी स्वयं कर सकते हैं। पितृलोक के देवता भगवान अर्यमा बहुत अधिक दयालु हैं। उनकी कृपा निश्चित रूप से होगी, और वे आपके पित्तरों का कल्याण करेंगे।
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इस पितृपक्ष में मैं कुछ भी नहीं लिखूँगा। मेरी शुभ कामना है कि आप की सात पीढ़ियों का उद्धार हो, और देश को बुरी आत्माओं से मुक्ति मिले।
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१७ सितंबर २०२४

नासे रोग हरे सब पीरा, जपत निरंतर हनुमत वीरा ---

 जिस चेतना में आज ब्रह्ममुहूर्त में उपरोक्त शब्द ध्यान में आये, उस चेतना में किसी भी तरह के विचारों को व्यक्त करने हेतु शब्द रचना संभव ही नहीं है। फिर भी एक विशेष प्रयोजन हेतु भगवान के अनुग्रह से उपरोक्त पंक्ति ध्यान में आयी। यह भगवान का अनुग्रह ही था क्योंकि -- "दुर्गम काज जगत के जेते, सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते॥"

इतना पढ़ा-लिखा तो मैं नहीं हूँ कि अति प्रभावशाली भाषा में शब्द-रचना कर सकूँ। लेकिन मेरे जैसा एक अनपढ़ व्यक्ति जो लिख सकता है, वही लिख रहा हूँ।
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"हनुमान" और "हनुमत" शब्द को समझने के लिए सब तरह के "मान" यानि अहंभाव से मुक्त होना पड़ेगा। अहंभाव से मुक्त हुये बिना न तो उनको समझ सकते है, और न ही उनके बीजमंत्र "हं" को। अहंभाव से युक्त रहते हुए -- तत्व की बात समझ में नहीं आयेगी। यह साधना का विषय है जो उनकी कृपा से ही हो सकती है।
इसे समझना भी बहुत आवश्यक है क्योंकि हमें निज जीवन में राम जी को प्राप्त करना है। इसके लिए एक उच्चतर से भी अधिक उच्चतर चेतना में स्थित होना होगा जो उनके अनुग्रह के बिना संभव नहीं है -- "राम दुआरे तुम रखवारे, होत न आज्ञा बिनु पैसारे"। यहाँ पैसारे का अर्थ प्रवेश है, न कि रुपया पैसा। यह कोई सरकारी कार्यालय नहीं है, जहाँ घूस में पैसा खिलाये बिना कोई आज्ञा नहीं होती। यहाँ किसी का रुपया-पैसा नहीं, पूर्ण प्रेम और समर्पण ही चलता है।
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अब रही बात "जपत निरंतर" की। गीता मे भगवान ने स्वयं को "यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि" कहा है। पूरा श्लोक इस प्रकार है --
"महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम्।
यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः॥१०:२५॥"
अर्थात् -- "मैं महर्षियों में भृगु और वाणी (शब्दों) में एकाक्षर ओंकार हूँ। मैं यज्ञों में जपयज्ञ और स्थावरों (अचलों) में हिमालय हूँ॥"
"Of the great seers I am Bhrigu, of words I am Om, of offerings I am the silent prayer, among things immovable I am the Himalayas."
आचार्य शंकर ने अपने भाष्य में उपरोक्त श्लोक का अर्थ किया है -- "महर्षीणां भृगुः अहम्। गिरां वाचां पदलक्षणानाम् एकम् अक्षरम् ओंकारः अस्मि। यज्ञानां जपयज्ञः अस्मि। स्थावराणां स्थितिमतां हिमालयः॥"
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अभी जप यज्ञ कैसे करें? इसे समझाना मेरी अति सीमित और अति अल्प क्षमता से परे है। इसके लिए किसी ब्रह्मज्ञ आचार्य से मार्गदर्शन प्राप्त करें।
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ॐ परब्रह्मपरमात्मने नमः॥ श्रीरामचन्द्रचरणौ शरणं प्रपद्ये॥ श्रीमते रामचंद्राय नमः॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय॥
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
१८ सितंबर २०२३

Monday 16 September 2024

इस सृष्टि में सबसे अधिक दुर्लभ क्या है? ---

 सर्वप्रथम हम अपने निज जीवन में भगवान को प्राप्त करें, फिर उस चेतना में स्थित होकर संसार के अन्य कार्य करें। भूतकाल की विस्मृति हो। कूटस्थ सूर्यमंडल में पुरुषोत्तम का ध्यान निरंतर होता रहे।

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(प्रश्न):--- इस सृष्टि में सबसे अधिक दुर्लभ क्या है?
(उत्तर):- यह मैं अब तक के अपने निज अनुभव से लिख रहा हूँ कि इस सृष्टि में सबसे अधिक दुर्लभ तो भगवान के प्रति परमप्रेम यानि अनन्य अव्यभिचारिणी भक्ति है। गीता में इसी के बारे में भगवान कहते हैं --
"मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि॥१३:११॥"
अर्थात् -- अनन्ययोग के द्वारा मुझमें अव्यभिचारिणी भक्ति; एकान्त स्थान में रहने का स्वभाव और (असंस्कृत) जनों के समुदाय में अरुचि॥
(Unswerving devotion to Me, by concentration on Me and Me alone, a love for solitude, indifference to social life.)
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आचार्य शंकर ने अपने गीता भाष्य में इस श्लोक पर जो लिखा है, उसका अनुवाद इस प्रकार है --
"ईश्वर में अनन्ययोग से, यानि एकत्वरूप समाधियोग से अव्यभिचारिणी भक्ति। भगवान वासुदेव से परे अन्य कोई भी नहीं है, अतः वे ही हमारी परमगति हैं। इस प्रकार की जो निश्चित अविचल बुद्धि है, वही अनन्य योग है।
उससे युक्त होकर भजन करना ही कभी विचलित न होनेवाली अव्यभिचारिणी भक्ति है। वह भी ज्ञान है।
विविक्तदेशसेवित्व -- एकान्त पवित्र देश सेवन का स्वभाव। जो देश स्वभाव से पवित्र हो या झाड़ने-बुहारने आदि संस्कारों से शुद्ध किया गया हो, तथा सर्प व्याघ्र आदि जन्तुओं से रहित हो; ऐसे वन, नदी तीर या देवालय आदि विविक्त (एकान्त पवित्र) देश को सेवन करनेका जिसका स्वभाव है, वह विविक्तदेशसेवी कहलाता है। उसका भाव विविक्तदेशसेवित्व है, क्योंकि निर्जन पवित्र देश में ही चित्त प्रसन्न और स्वच्छ होता है। इसलिये विविक्तदेश में आत्मादि की भावना प्रकट होती है। अतः विविक्त देश सेवन करने के स्वभाव को ज्ञान तथा जनसमुदाय में अप्रीति कहा जाता है। यहाँ विनयभावरहित संस्कारशून्य प्राकृत पुरुषों के समुदाय का नाम ही जनसमुदाय है। विनययुक्त संस्कारसम्पन्न मनुष्यों का समुदाय जनसमुदाय नहीं है, क्योंकि वह तो ज्ञानमें सहायक है। प्राकृत जनसमुदाय में प्रीति का अभाव ज्ञानका साधन होने के कारण ज्ञान है।"
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उपरोक्त श्लोक पर हजारों स्वनामधन्य महान भाष्यकारों ने अपने अपने भाष्य लिखे है। सभी का सार यह है कि भगवान की अभीप्सा के अतिरिक्त अन्य किसी भी प्रकार की आकांक्षा नहीं होनी चाहिए। भगवान हमसे हमारा शत-प्रतिशत प्रेम मांगते हैं, वहाँ ९९.९९% भी नहीं चलेगा। भगवान के अतिरिक्त अन्य किसी भी प्रकार की चाहत को भगवान ने "व्यभिचार" की संज्ञा दी है। महाभारत के वनपर्व में भगवान श्रीकृष्ण ने महाराजा युधिष्ठिर को तंडि ऋषि कृत शिव सहस्त्रनाम का उपदेश दिया है, जो उन्हें महर्षि उपमन्यु ने दिया था। उसमें भी एक स्थान पर "अव्यभिचारिणी भक्ति" का उल्लेख है।
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स्वयं में भगवान को नमन करता हुआ मैं इस लेख का समापन करता हूँ। इस विषय पर और लिखने की आवश्यकता अब मुझे नहीं है।
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"त्वमादिदेवः पुरुषः पुराणः त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्
वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्वमनन्तरूप॥
वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च।
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते॥
नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः॥
सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तं हे कृष्ण हे यादव हे सखेति।
अजानता महिमानं तवेदं मया प्रमादात्प्रणयेन वापि॥
यच्चावहासार्थमसत्कृतोऽसि विहारशय्यासनभोजनेषु।
एकोऽथवाप्यच्युत तत्समक्षं तत्क्षामये त्वामहमप्रमेयम्॥
पितासि लोकस्य चराचरस्य त्वमस्य पूज्यश्च गुरुर्गरीयान्।
न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिकः कुतोऽन्यो लोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभाव॥" (श्रीमद्भगवद्गीता)
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ब्रह्मानंदम् परम सुखदम् केवलं ज्ञान मूर्तिम्।
द्वन्द्वातीतं गगन सदृशं तत्वमस्यादि लक्ष्यम्।।
एकं नित्यं विमलं चलम् सर्वधीसाक्षी भूतम्।
भावातीतं त्रिगुण रहितं सद्गुरुं तम् नमामि।। (गुरुगीता)
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सार की बात यह है कि सर्वप्रथम हम अपने निज जीवन में भगवान को प्राप्त करें, फिर उस चेतना में स्थित होकर संसार के अन्य कार्य करें। भूतकाल की विस्मृति हो। कूटस्थ सूर्यमंडल में पुरुषोत्तम का ध्यान निरंतर होता रहे।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१७ सितंबर २०२३

मेरे पास कोई करामात (चमत्कार) नहीं है, अतः लौकिक दृष्टि से संसार के लिए महत्त्वहीन हूँ ---

मेरे पास कोई करामात (चमत्कार) नहीं है, अतः लौकिक दृष्टि से संसार के लिए महत्त्वहीन हूँ। मुझसे किसी को कोई लाभ नहीं हो सकता। मेरी कोई संपत्ति भी नहीं है। मेरी बुद्धि जो कुबुद्धि, कुरूपा और वृद्धा हो गई थी, अब शिव को समर्पित हो गई है जिसे उन्होंने स्वीकार भी कर लिया है। मुझ निर्धन के पास भगवान को देने के लिए कुछ भी नहीं था, अतः स्वयं को ही समर्पित कर दिया है। अब मन, अहंकार और चित्त सब -- शिव के हो गए हैं। मेरा कोई अस्तित्व नहीं है। एकमात्र अस्तित्व परमशिव का है।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
११ सितंबर २०२४
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पुनश्च: --- "हमारा एकमात्र व्यवहार परमात्मा से है।"
युद्धभूमि में सामने शत्रु है तो, भगवान को कर्ता बनाकर बड़े प्रेम से उसका संहार/वध करो, लेकिन मन में घृणा या क्रोध न आने पाये। हमें निमित्त बनाकर भगवान ही उसे नष्ट कर रहे हैं।
मित्र है तो भगवान को ही कर्ता बनाकर उसे अपने हृदय का पूर्ण प्रेम दो। भगवान स्वयं ही सारे सगे-संबंधी, और शत्रु-मित्र के रूप में आते हैं। हमारा एकमात्र व्यवहार परमात्मा से ही है।