Saturday, 8 March 2025

मंदिर में हम भगवान से कुछ मांगने नहीं, उनको समर्पित होने जाते हैं ---

 मंदिरों की संरचना ऐसी होती है जहाँ का वातावरण साधना के अनुकूल होता है, जहाँ जाते ही मन समर्पण और भक्तिभाव से भर जाता है। मंदिर में हम भगवान से कुछ मांगने नहीं, उनको समर्पित होने जाते हैं। यह समर्पण का भाव ही हमारी रक्षा करता है।

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द्वैत-अद्वैत, साकार-निराकार, और सगुण-निर्गुण --- ये सब बुद्धि-विलास की बातें हैं। इनमें कोई सार नहीं है। अपने स्वभाव और प्रकृति के अनुकूल जो भी साधना संभव है, हो, वह अधिकाधिक कीजिये। भगवान को अपना परमप्रेम पूर्ण रूप से दीजिये, यही एकमात्र सार की बात है। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
१६ फरवरी २०२५

भगवान का स्मरण हम कैसे, किस रूप में, और कब करें?

 (प्रश्न) : भगवान का स्मरण हम कैसे, किस रूप में, और कब करें?

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(उत्तर) : यह बहुत ही व्यक्तिगत प्रश्न है जो स्वयं से ही प्रत्येक व्यक्ति को पूछना चाहिए। यदि स्वयं पर विश्वास नहीं है तो जिन को हमने गुरु बनाया है, उन गुरु महाराज से पूछना चाहिए। यदि फिर भी कोई संशय है, तो भगवान पर आस्था रखते हुए स्वयं भगवान से ही पूछना चाहिए। इसके लिए श्रीमद्भगवद्गीता का और उपनिषदों का स्वाध्याय स्वयं करें, और जैसा भगवान ने बताया है, वैसे ही करें। किसी भी तरह का कोई भी संशय निज मानस में नहीं रहना चाहिये।
मेरा अनुभव है कि हरेक आध्यात्मिक प्रश्न का उत्तर निश्चित रूप से भगवान से मिलता है। आध्यात्म में कुछ भी अस्पष्ट नहीं है। सब कुछ एकदम स्पष्ट है। मंगलमय शुभ कामनाएँ और नमन॥ ॐ तत्सत्॥
१७ फरवरी २०२५

अजपा-जप --- ज्योतिर्मय ब्रह्म का ध्यान है

अजपा-जप :--- यह ज्योतिर्मय ब्रह्म का ध्यान है। वेदों में इसका नाम हंसवती ऋक है, योग-शास्त्रों में यह हंसयोग है, और सामान्य बोलचाल की भाषा में अजपा-जप कहलाता है। हंस नाम परमात्मा का है। कम से कम शब्दों का प्रयोग यहाँ इस लेख में मैं कर रहा हूँ।

प्रातःकाल उठते ही लघुशंकादि से निवृत होकर, रात्रि में शयन से पूर्व, और दिन में जब भी समय मिले, ध्यान के आसन पर सीधे बैठ जाएँ, मेरूदण्ड उन्नत, ठुड्डी भूमि के समानान्तर, दृष्टिपथ भ्रूमध्य में से अनंत की ओर, व मुंह पूर्व या उत्तर दिशा में रखें। भ्रूमध्य में उन्नत साधकों को एक ब्रह्मज्योति यानि ज्योतिर्मय ब्रह्म के दर्शन होंगे। जिन्हें ज्योति के दर्शन नहीं होते, वे आभास करें कि वहाँ एक परम उज्ज्वल श्वेत ज्योति है। उस ज्योति का विस्तार सारे ब्रह्मांड में कर दें। सारी सृष्टि उस ज्योति में समाहित है, और वह ज्योति सारी सृष्टि में है। वह शाश्वत ज्योति आप स्वयं हैं, यह नश्वर भौतिक देह नहीं।
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अपनी सर्वव्यापकता का ध्यान कीजिये। आप यह शरीर नहीं, वह परम ज्योति हैं। सारा ब्रह्मांड आपके साथ सांसें ले रहा है। जब सांस अंदर जाती है तब मानसिक रूप से सो SSSSSSS का जाप कीजिये। जाव सांस बाहर जाती है तब हं SSSSS का जाप कीजिये।
यह जप आप नहीं, सारी सृष्टि और स्वयं परमात्मा कर रहे हैं। इस साधना का विस्तार ही शिवयोग और विहंगमयोग है। यह साधना ही विस्तृत होकर नादानुसंधान बन जाती है। क्रियायोग में प्रवेश से पूर्व भी इसका अभ्यास अनिवार्य है, नहीं तो कुछ भी समझ में नहीं आयेगा। पुनश्च: कहता हूँ कि "हंस" नाम परमात्मा का है।
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यह लेख केवल परिचयात्मक है। इस अजपा-जप साधना का अभ्यास अन्य कुछ साधनाओं के साथ समर्पित भाव से मैं तो सन १९७९ ई. से कर रहा हूँ। इसका वर्णन अनेक ग्रन्थों में है जिनका स्वाध्याय मैंने किया है। , लेकिन सबसे अधिक स्पष्ट "तपोभूमि नर्मदा" नामक पुस्तक के पांचवें खंड के मध्य में है। वहाँ इसे अति विस्तार से समझाया गया है। गूगल पर ढूँढने से यह पुस्तक मिल जाएगी। यह खंड मैंने गत वर्ष ही पढ़ा था। फिर भी किसी अनुभवी ब्रहमनिष्ठ आचार्य से मार्गदर्शन अवश्य प्राप्त करें। यह साधना ब्रह्मांड के द्वार साधक के लिए खोल देती है। इस लेख में जो लिखा है वह केवल परिचय मात्र है।
ॐ तत्सत् !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१८ फरवरी २०२५
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पुनश्च: -- कुछ गुरु-परम्पराओं में हंसबीज "सोहं" के स्थान पर "हंसः" का प्रयोग होता है। दोनों का फल एक ही है। अङ्ग्रेज़ी में इसका अनुवाद होगा -- "I am He"। यह साधना आध्यात्म में प्रवेश करवाती है, और सभी उन्नत साधनाओं का आधार है। कम से कम शब्दों में जो लिखा जा सकता है वह मैंने यहाँ लिखा है। इससे अधिक जानने के लिए ग्रन्थों का स्वाध्याय करना होगा, या किसी ब्रह्मनिष्ठ महात्मा से उपदेश लेने होंगे। ॐ तत्सत् !!

भारत ही सनातन धर्म है, और सनातन धर्म ही भारत है ---

 भारत ही सनातन धर्म है, और सनातन धर्म ही भारत है। हम अपनी आध्यात्मिक साधना परमात्मा को पूरी तरह समर्पित होने के लिए ही करते हैं। इससे धर्म और राष्ट्र की रक्षा स्वतः ही होती है। यह हमारा सर्वोपरी कर्तव्य और स्वधर्म है।

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अनेक महान आत्माएँ भारत में जन्म लेना चाहती हैं, लेकिन उन्हें सही माता-पिता नहीं मिलते, जिनके यहाँ वे गर्भस्थ हो सकें। युवाओं को इस योग्य होना पड़ेगा कि वे महान आत्माओं को जन्म दे सकें। अनेक महान आत्माएँ भारत में जन्म लेंगी और भारत का उद्धार करेंगी। उसके लिए यह सर्वोपरी आवश्यक है कि हमारा जीवन परमात्मा को पूर्णतः समर्पित हो। इस विषय पर मैं पहले भी अनेक बार लिख चुका हूँ। इसी क्षण से हम परमात्मा के साथ एक हों।
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परमात्मा हैं, इसी समय, हर समय, यहीं पर और सर्वत्र हैं। हम निःस्पृह, वीतराग व स्थितप्रज्ञ होकर ब्राह्मी-स्थिति में निरंतर बने रहें। हम उनके साथ एक हैं। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१८ फरवरी २०२५

समर्पण ---

 समर्पण ---

यह मन बुद्धि चित्त व अहंकार रूपी अन्तःकरण, ये भौतिक सूक्ष्म व कारण शरीर, अपनी तन्मात्राओं सहित सारी इंद्रियाँ, सारी विद्याएँ, सारा ज्ञान, पाप-पुण्य, धर्म-अधर्म, सम्पूर्ण अस्तित्व और पृथकता का समस्त मिथ्या बोध -- परमात्मा को समर्पित है। अब निंदा प्रशंसा शिकायत व आलोचना करने को कुछ भी शेष नहीं रहा है। स्वयं परमात्मा ही यह नौका, इसके कर्णधार, व इसके लक्ष्य हैं। वे ही यह महासागर, उसकी अनंतता व एकमात्र और सम्पूर्ण व्यक्त/अव्यक्त अस्तित्व हैं। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१९ फरवरी २०२५

परमात्मा के महासागर में वैसे ही तैरिये, जैसे जल की एक बूंद महासागर में तैरती है (द्वैत में अद्वैत की साधना) ---

 

🙏(१) : परमात्मा के महासागर में वैसे ही तैरिये, जैसे जल की एक बूंद महासागर में तैरती है (द्वैत में अद्वैत की साधना)।
🙏(२) परमशिव की अनुभूति उत्तर दिशा में ही क्यों होती है? उन का मुंह दक्षिण दिशा में क्यों है ?
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परमात्मा समभाव में सर्वत्र व्याप्त हैं। ध्यान करते करते उनमें समर्पित होकर उनसे एकाकार होना अद्वैत साधना है, जिसमें स्वयं का कोई पृथक अस्तित्व नहीं रहता। अद्वैत भाव में साधक मौन और आनंदमय हो जाता है व सारे शब्द तिरोहित हो जाते हैं। अद्वैत में प्रवेश द्वैत से ही होता है। द्वैत भाव में ही कुछ लिखा जा सकता है, अन्यथा अनिर्वचनीय मौन और आनंद ही शेष रहता है।
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"परमात्मा के महासागर में वैसे ही तैरिये, जैसे जल की एक बूंद महासागर में तैरती है। हर ओर परमात्मा है, हम परमात्मा के मध्य में हैं, उनके सिवाय अन्य कुछ भी नहीं है। हमारी पृथकता का बोध भी इसी तरह एक दिन स्वतः ही समाप्त हो जाएगा।" जब तक पूर्णता की प्राप्ति नहीं होगी तब तक पुनर्जन्म होते रहेंगे। यह शाश्वत सत्य है जिसे समझने के लिए ही यह वर्तमान मनुष्य जन्म हमें मिला है।
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दूसरी बात मैं यह कहना चाहता हूँ कि परमशिव का मुंह दक्षिण दिशा में क्यों है? इसके लिए यह समझना होगा कि परमशिव और दक्षिण दिशा से हमारा क्या तात्पर्य है। मेरी बात को वे ही समझ पाएंगे जो नित्य नियमित ध्यान साधना करते हैं। दूसरों के लिए यह एक गल्प मात्र ही होगा।
सहस्त्रारचक्र उत्तर दिशा है, मूलाधारचक्र दक्षिण दिशा है, भ्रूमध्य पूर्व दिशा है, और मेरुशीर्ष (Medulla) पश्चिम दिशा है जहाँ मेरूदण्ड की सारी नाड़ियाँ मष्तिक से मिलती हैं। भ्रूमध्य पर ध्यान पूर्व दिशा में, और सहस्त्रार पर ध्यान उत्तर दिशा में ध्यान है।
परमशिव -- एक अनुभूति है, जो बहुत गहरे ध्यान में होती है। इसे शब्दों में व्यक्त करना कम से कम मेरे लिए तो असंभव है। अपरिछिन्न प्रत्यगात्म भाव में ही हम परमशिव को समझ सकते हैं, अन्यथा यह कनक-कसौटी पर हीरे को कसने का सा प्रयास है।
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परमात्मा से कुछ लिखने की क्षमता, और आदेश मिलेगा तो ही आगे और लिख पाऊँगा। अन्यथा मैं अब और उपलब्ध नहीं हूँ। सभी को नमन। ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२१ फरवरी २०२५

यह जीवन स्वधर्म और राष्ट्र के प्रति समर्पित है ---

यह जीवन स्वधर्म और राष्ट्र के प्रति समर्पित है ---
जो निरंतर दिन-रात परमात्मा का चिंतन करते हैं, परमात्मा का ही स्वप्न देखते हैं, और परमात्मा को ही निज जीवन में व्यक्त करते हैं, मैं उनके साथ एक हूँ; वे चाहे इस पृथ्वी या सृष्टि के किसी भी भाग में रहते हों। हम शाश्वत आत्मा हैं, जिन का स्वधर्म -- परमात्मा की प्राप्ति है। परमात्मा को भूलना ही परधर्म है।
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पूरे भारत में राष्ट्रभक्ति जागृत हो। सभी भारतीय सत्यनिष्ठ, कार्यकुशल और धर्मावलम्बी बनें। भारत में कहीं भी अधर्म न रहे। धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो, प्राणियों मे सद्भावना हो, और विश्व का कल्याण हो। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२२ फरवरी २०२५