Wednesday, 5 November 2025

भगवान "है" ..... इस "है" शब्द में ही सब कुछ है ---

 भगवान "है" ..... इस "है" शब्द में ही सब कुछ है|

यही "हंसः" होकर हंस-गायत्री अजपा-जप हो जाता है, यही "सोहं" है, यही और भी गहरा होकर परमात्मा का वाचक "ॐ" हो जाता है| इस "है" शब्द को कभी नहीं भूलें| भगवान निरंतर हर समय हमारे साथ एक है, कहीं कोई पृथकता नहीं है| भगवान है, यहीं है, सर्वत्र है, इसी समय है, सर्वदा है, वह ही वह है, और कुछ भी नहीं है, सिर्फ भगवान ही है|

यह "है" ही सोम है| कुंडलिनी महाशक्ति जागृत होकर सुषुम्ना में ऊर्ध्वगामी भी इस हSSSS शब्द के साथ ही होती है| और भी बहुत कुछ है जो अनुभूतिजन्य है, उसे शब्दों में व्यक्त करना बड़ा कठिन है| भगवान है, यह सार की बात है| इस "है" शब्द को कभी न भूलें|

ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
५ नवंबर २०१९
. पुनश्च: ---
भगवान "हैं", यहीं "हैं", सर्वत्र "हैं", इसी समय "हैं", और सर्वदा "हैं"| जब वे हैं, तो सब कुछ है| उनकी इस उपस्थिति ने तृप्त, संतुष्ट और आनंदित कर दिया है| वे ही वे बने रहें, और कुछ भी नहीं| सारी चेतना उनकी उपस्थिति से आलोकित है| जब वे हैं, तो सब कुछ है| मैं उन के साथ एक हूँ| कहीं कोई भेद नहीं है| मैं उनकी पूर्णता हूँ| मैं उनकी सर्वव्यापकता हूँ| मैं यह देह नहीं, मैं परमशिव पारब्रह्म हूँ|
शिवोहम् शिवोहम् अहं ब्रह्मास्मि ! अयमात्मा ब्रह्म ! ॐ ॐ ॐ !!
५ नवंबर २०१९

जीवन में परमात्मा की पूर्ण अभिव्यक्ति हो ...

 जीवन में परमात्मा की पूर्ण अभिव्यक्ति हो ...

---------------------------------------------
फेसबुक आदि सामाजिक मंचों पर आने का मेरा कोई उद्देश्य विशेष नहीं है| भगवान के प्रति हृदय में कूट कूट कर भरा हुआ प्रेम, व्यक्त होने के लिए स्वतः ही मुझे इन मंचों पर आने को बाध्य कर देता है| मेरी कोई निजी कामना, आकांक्षा या अभिलाषा नहीं है, सिर्फ हृदय में एक तड़प है परमात्मा को व्यक्त करने की| उसके लिए पता नहीं कहाँ-कहाँ किन-किन अज्ञात लोकों में और भी अनेक जन्म लेने पड़ेंगे| पूर्वजन्मों के कर्म अधिक अच्छे नहीं थे, इसीलिए व्यक्तित्व में अनेक कमियों के साथ प्रतिकूलताओं में यह जन्म हुआ| भगवान से प्रार्थना है कि आगे जो भी जन्म मिलें उनमें जन्म से ही वैराग्य और भक्ति हो, व अनुकूल वातावरण मिले|
.
जो भी हो, मुझे अब कुछ भी शिकायत, आलोचना या निंदा करने को नहीं है| इस भौतिक देह से जुड़े रहने के लिए कोई न कोई तो त्रिगुणाधीन वासना रहती ही है, अन्यथा यह शरीर उसी समय छूट जाता है|
.
स्वधर्मानुष्ठान में रत रहने के लिए गीता में भगवान हमें त्रिगुणातीत होने का आदेश देते हैं ...
"त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन| निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्||२:४५||"
विवेक-बुद्धि से रहित कामपरायण पुरुषों के लिए वेद त्रैगुण्यविषयक हैं, परंतु हे अर्जुन, तूँ असंसारी, निष्कामी, निर्द्वन्द्व, और नित्य सत्त्वस्थ हो|
नित्य सत्वस्थ का अर्थ है ... सदा सत्त्वगुण के आश्रित रहना|
निर्द्वंद्व का अर्थ है ... सुख-दुःख के परस्पर विरोधी युग्मों से रहित होना|
निर्योगक्षेम का अर्थ है ... (अप्राप्त वस्तु को प्राप्त करनेका नाम योग है और प्राप्त वस्तु के रक्षण का नाम क्षेम है) योगक्षेमको न चाहनेवाला|
आत्मवान् का अर्थ है आत्म-विषयों में प्रमादरहित रहना|
.
इस जीवन को भगवान ही जी रहे हैं, मैं अकिंचन तो उन के एक निमित्तमात्र उपकरण से अधिक कुछ भी नहीं हूँ| जीवन एक सतत् प्रक्रिया है| कोई मृत्यु नहीं होती| यह शरीर बेकार हो जाने पर या कर्मफलानुसार शांत हो जाता है, और कोई नई देह किसी अन्य परिवेश में मिल जाती है| जब भगवान को समर्पित हो ही गए हैं, तो किसी भी तरह की कोई आकांक्षा, कामना या इच्छा भी नहीं रहनी चाहिए| जीवन में परमात्मा की पूर्ण अभिव्यक्ति हो| इति||
ॐ तत्सत् !! भगवान की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति आप सब महान निजात्मगण को नमन !!
.
कृपा शंकर
झुंझुनूं (राजस्थान)
५ नवंबर २०२०
.
पुनश्च: भगवान ही हमारा उद्धार कर सकते हैं| हमारे में कोई सामर्थ्य नहीं है| एक अबोध बालक जब मल-मूत्र रूपी विष्ठा में पड़ा होता है तब माँ ही उसे स्वच्छ कर सकती है| अपने आप तो वह उज्ज्वल नहीं हो सकता| यह सांसारिकता भी किसी विष्ठा से कम नहीं है| भगवान ही हमारे माता-पिता हैं, उनके सिवाय हमारा अन्य कोई नहीं है|

परमात्मा की सबसे बड़ी कृपा --- .

 परमात्मा की सबसे बड़ी कृपा ---

.
परमात्मा की सबसे बड़ी कृपा हमारे ऊपर यह है कि उन्होंने स्वयं को पाने का मार्ग हमें बता दिया है। यदि फिर भी हम परमात्मा को प्राप्त नहीं करते तो हमारे से बड़ा अभागा और कोई नहीं है। सारे उपनिषदों को देख लीजिए, और श्रीमद्भगवद्गीता को देख लीजिए, उनमें यही बात बार बार समझाई गई है।
.
जो परमात्मा के मार्ग के पथिक हैं, मैं उनके साथ एक हूँ। आप मुझे परमात्मा में अपने साथ एक पाओगे। परमात्मा की प्राप्ति ही सबसे बड़ी सेवा है जो हम समष्टि के लिए कर सकते हैं। यह हमारा प्रथम, अंतिम और एकमात्र कर्तव्य है। आपने निज जीवन में परमात्मा का साक्षात्कार कर लिया है तो आप इस पृथ्वी पर चलते-फिरते देवता हो। जहाँ भी आपके पैर पड़ते हैं, वह भूमि पवित्र हो जाती है। जिस पर आपकी दृष्टि पड़ती है, या जिसकी भी दृष्टि आप पर पड़ती है, वह निहाल हो जाता है। देवता और पितृगण आपको देखकर प्रसन्न होकर नृत्य करने लगते हैं। आपकी उपस्थिति ही इस सृष्टि के लिए वरदान हो जाती है।
.
मैं कोई बड़ी बड़ी बातें नहीं कर रहा। यह वास्तविकता है। अपने दिन का आरंभ भगवान के ध्यान से करें, और दिवस का समापन भी भगवान के ध्यान से करें। हर समय उन्हें अपनी स्मृति में रखें। शास्त्रों के प्रमाण में अनेक बार दे चुका हूँ। बार बार उन्हें उद्धृत करना ठीक नहीं होगा। भगवान को अपने जीवन का कर्ता, भोक्ता और जीवन का केंद्र बिन्दु बनाएँ।
.
सभी को मंगलमय शुभ कामनाएँ और नमन !!
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
५ नवंबर २०२३

Tuesday, 4 November 2025

बिना श्रद्धा के की गई कोई भी साधना निष्फल होती है ---

 बिना श्रद्धा के की गई कोई भी साधना निष्फल होती है। वह समय को नष्ट करना है। हमारी श्रद्धा सात्विक है या राजसिक या तामसिक, इनके भी अलग-अलग फल है। श्रीमद्भगवद्गीता के सत्रहवें अध्याय "श्रद्धात्रय विभाग योग" में इसका स्पष्ट निर्देश है। जिस साधना में श्रद्धा नहीं है वह भूल कर भी नहीं करनी चाहिए। उससे कुछ भी नहीं मिलेगा। परमात्मा (और जगन्माता) के जिस भी रूप में आपकी श्रद्धा है, उसी की साधना करनी चाहिए। गीता के अनुसार जो यज्ञ, दान, तप और कर्म अश्रद्धापूर्वक किया जाता है, वह 'असत्' कहा जाता है; वह न तो इस लोक में, और न ही मृत्यु के पश्चात (उस लोक में) लाभदायक होता है।

.
जिन का उपनयन संस्कार हो चुका है, उन द्विजों को गायत्री जप, प्राणायाम और सविता देव की भर्गः ज्योति का ध्यान नित्य नियमित पूर्ण श्रद्धा सहित करना चाहिए। तत्पश्चात वे किसी उद्देश्य विशेष के लिए इस के साथ साथ अन्य साधना भी कर सकते हैं।
.
गीता के अनुसार परमात्मा का सर्वश्रेष्ठ नाम --"ॐ-तत्-सत्" है। ऊँ, तत् और सत् -- इन तीनों नामों से जिस परमात्मा का निर्देश किया गया है, उसी परमात्मा ने सृष्टि के आदि में वेदों, ब्राह्मणों और यज्ञों की रचना की है। वैदिक सिद्धान्तों को मानने वाले श्रद्धालुओं की शास्त्र विधि से नियत यज्ञ, दान और तपरूप क्रियाएँ सदा -- "ऊँ" --- इस परमात्मा के नाम का उच्चारण करके ही आरम्भ होती हैं। गीता के सत्रहवें अध्याय में इसका स्पष्ट निर्देश है। (गीता के आठवें अध्याय के अनुसार तो हर समय निरंतर हमें मूर्धा में ओंकार का जप करते रहना चाहिये)। ॐ तत्सत्॥
कृपा शंकर
११ अक्तूबर २०२५

जिन की वेदान्त में रुचि है वे स्वामी रामतीर्थ के उपलब्ध साहित्य को अवश्य पढ़ें ---

 लगभग पच्चीस-तीस वर्षों पूर्व वेदान्त के शिखर पुरुष स्वामी रामतीर्थ के लेखों का संग्रह "In woods of God-realization" (आठ खंडों में) पढ़ा था। उस समय मेरी सम्पूर्ण चेतना में वेदान्त ही वेदान्त छा गया था। स्वामी रामतीर्थ के सारे प्रवचन १८वीं शताब्दी में बोली जाने वाली अङ्ग्रेज़ी भाषा में ही उपलब्ध हैं, जिनका संकलन उनके मित्र सरदार पूरण सिंह ने किया था। बाद में लखनऊ के स्वामी रामतीर्थ प्रतिष्ठान ने उनका हिन्दी अनुवाद भी उपलब्ध करवाया था, जो सौलह छोटी पुस्तकों के रूप में उपलब्ध था। अपने स्वयं के हाथों से लिखे गए साहित्य को तो उन्होंने अमेरिका से बापस आते समय समुद्र में, और उत्तराखंड में स्वयं के हाथों से लिखे गए साहित्य को गंगा जी में प्रवाहित कर दिया था। उनका जो भी साहित्य उपलब्ध है वह उनके मित्रों द्वारा संग्रहित है।

.
दीपावली आने वाली है। दीपावली के दिन ही वे पंजाब में (अब पाकिस्तान का भाग) अवतृत हुए थे और दीपावली के दिन ही उन्होने उत्तराखंड में गंगा जी में जीवित समाधि ले ली थी।
अमेरिका जाने से पूर्व वे लाहौर विश्वविद्यालय में गणित के प्रोफेसर थे।
वे पहले और अंतिम ऐसे गैर मुसलमान थे जिन्हें Cairo (Egypt) की मुख्य मस्जिद में प्रवचन देने के लिये निमंत्रित किया गया था। वहाँ फारसी भाषा में उन्होंने वेदान्त पर अपना बहुत प्रसिद्ध भाषण दिया था जो पुस्तक रूप में भी छपा था। भारत में भी वह उपलब्ध था। अब पता नहीं।
जिन की वेदान्त में रुचि है वे स्वामी रामतीर्थ के उपलब्ध साहित्य को अवश्य पढ़ें। धन्यवाद॥

भौतिक देहों में सुख ढूँढने वाला व्यक्ति परमात्मा को कभी भी किसी भी परिस्थिति में प्राप्त नहीं कर सकता ---

 भौतिक देहों में सुख ढूँढने वाला व्यक्ति परमात्मा को कभी भी किसी भी परिस्थिति में प्राप्त नहीं कर सकता ---

(प्रश्न १) कोई व्यक्ति जो अपने परिवार, सगे सम्बन्धियों व मित्रों के साथ रहता है, क्या सत्य यानि ईश्वर का साक्षात्कार कर सकता है?
(प्रश्न २) ऐसी क्या मजबूरी थी जो मुझे इस संसार में जन्म लेना पड़ा?
.
विभिन्न देहों में मेरे ही प्रियतम निजात्मन, मुझे उपरोक्त प्रश्नों का उत्तर मिल चुका है जो आपके साथ साझा कर रहा हूँ। ये अति गहन प्रश्न हैं लेकिन उनका उत्तर मेरे दृष्टिकोण से बड़ा ही सरल है। सबसे अधिक महत्वपूर्ण यह बात है कि भौतिक देहों में सुख ढूँढने वाला व्यक्ति ईश्वर को कभी भी किसी भी परिस्थिति में प्राप्त नहीं कर सकता।
.
विवाह या किसी opposite sex का साथ हानिकारक नहीं होता है, लेकिन उसमें नाम रूप में आसक्ति आ जाये कि मैं यह शरीर हूँ, मेरा साथी भी शरीर है, तब दुर्बलता आ जाती है, और इस से अपकार ही होता है। वैवाहिक संबंधों में शारीरिक सुख की अनुभूति से ऊपर ही उठना होगा। सुख और आनंद किसी के शरीर में नहीं हैं। यह एक अवस्था है। यह अपने अपने दृष्टिकोण पर निर्भर करता है कि हमारा वैवाहिक जीवन कैसा हो। इसमें सुकरात, संत तुकाराम व संत नामदेव आदि के उदाहरण विस्तार भय से यहाँ नहीं दे रहा।
.
हम ईश्वर की ओर अपने स्वयं की बजाय अनेक आत्माओं को भी साथ लेकर चल सकते हैं। ये सारे के सारे आत्मन हमारे ही हैं। परमात्मा के साथ तादात्म्य स्थापित करने से पूर्व हम अपनी चेतना में अपनी पत्नी, बच्चों और आत्मजों के साथ एकता स्थापित करें। यदि हम उनके साथ अभेदता स्थापित नहीं कर सकते तो सर्वस्व (परमात्मा) के साथ भी अपनी अभेदता स्थापित नहीं कर सकते।
.
क्रिया और प्रतिक्रया समान और विपरीत होती है। यदि मैं आपको प्यार करता हूँ तो आप भी मुझसे प्यार करेंगे। जिनके साथ आप एकात्म होंगे तो वे भी आपके साथ एकात्म होंगे ही। आप उनमें परमात्मा के दर्शन करेंगे तो वे भी आप में परमात्मा के दर्शन करने को बाध्य हैं।
पत्नी को पत्नी के रूप में त्याग दीजिये, आत्मजों को आत्मजों के रूप में त्याग दीजिये, और मित्रों को मित्र के रूप में देखना त्याग दीजिये। उनमें आप परमात्मा का साक्षात्कार कीजिये। स्वार्थमय और व्यक्तिगत संबंधों को त्याग दीजिये और सभी में परमात्मा को देखिये। आप की साधना उनकी भी साधना है। आप का ध्यान उन का भी ध्यान है। आप उन्हें ईश्वर के रूप में स्वीकार कीजिये।
.
और भी सरल शब्दों में सार की बात यह है की पत्नी को अपने पति में परमात्मा के दर्शन करने चाहियें, और पति को अपनी पत्नी में अन्नपूर्णा जगन्माता के। उन्हें एक दुसरे को वैसा ही प्यार करना चाहिए जैसा वे परमात्मा को करते हैं। और एक दुसरे का प्यार भी परमात्मा के रूप में ही स्वीकार करना चाहिए। वैसा ही अन्य आत्मजों व मित्रों के साथ होना चाहिये। इस तरह आप अपने जीवित प्रिय जनों का ही नहीं बल्कि दिवंगत प्रियात्माओं का भी उद्धार कर सकते हैं। अपने प्रेम को सर्वव्यापी बनाइये, उसे सीमित मत कीजिये।
.
आप में उपरोक्त भाव होगा तो आप के यहाँ महापुरुषों का जन्म संतान रूप में होगा। यही एकमात्र मार्ग है जिस से आप अपने बाल बच्चों, सगे सम्बन्धियों व मित्रों के साथ परमात्मा का साक्षात्कार कर सकते है, अपने सहयोगी को भी उसी प्रकार लेकर चल सकते है जिस प्रकार पृथ्वी चन्द्रमा को लेकर सूर्य की परिक्रमा करती है। ईश्वर की प्रेरणा से ही मैं यह सब यह लिख पाया हूँ।
आप सब विभिन्न देहों में मेरी ही निजात्मा हैं, मैं आप सब को प्रेम करता हूँ और सब में मेरे प्रभु का दर्शन करता हूँ। आप सब को प्रणाम। ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१३ अक्टूबर २०२५

हमारे मन में छिपी विषयासक्ति ही हमारे सारे संतापों का कारण है ---

हमारे मन में छिपी विषयासक्ति ही हमारे सारे संतापों का कारण है। इसके निवारण के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में दो उपाय बतलाए हैं -- अभ्यास और वैराग्य। विवेक विचार से उत्पन्न हुआ स्वभाविक वैराग्य हमें परमात्मा की ओर ले जाता है, और निराशा व दुःख से उत्पन्न हुआ वैराग्य हमें बापस संसार में ले आता है। अतः अभ्यास करते रहें। दुःख से उत्पन्न हुए वैराग्य की ओर ध्यान न दें। अपना मन केवल भगवान में ही लगायें। आगे के सारे द्वार खुल जायेंगे। निःस्पृह होना भी वैराग्य है।

.

वैराग्य उत्पन्न हो तो किसी भी तरह का दिखावा न करें और न बिना सोच विचार के कोई निर्णय लें। भावुकता एक धोखा है, भावुकता से बचें। अपने पास क्या साधन हैं, और हम उनका क्या सदुपयोग कर सकते हैं इस पर विचार अवश्य करें। ॐ तत्सत्॥
कृपा शंकर
१४ अक्तूबर २०२५