एक समाधान जो सभी आध्यात्मिक समस्याओं का है, एक उत्तर जो सभी आध्यात्मिक प्रश्नों का है| मैं जो लिख रहा हूँ, वह कोई कपोल-कल्पना नहीं, अपितु मेरे अब तक के सारे निजी अनुभवों का सार है|
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गंभीरता से अपनी पूरी अपनी चेतना में सदा परमात्मा के सन्मुख रहें| उन्हें कभी न भूलने का अभ्यास करें| आज्ञाचक्र से ऊपर सहस्त्रार में, व ब्रह्मरंध्र से बाहर की अनंतता से भी बहुत परे, वे ज्योतिर्मय ब्रह्म के रूप में बिराजमान हैं| उनकी ज्योति से एक अनाहत नाद की ध्वनि भी निरंतर निःसृत हो रही है, उस ज्योतिषांज्योति व दिव्य ध्वनि के प्रति सजग रहें| उन्हीं की चेतना में रहें| वे ही नारायण हैं, वे ही परमशिव हैं, वे ही कूटस्थ पारब्रह्म हैं, और उनकी चेतना में रहना ही कूटस्थ-चैतन्य और ब्राह्मी-स्थिति है|
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गीता में भगवान कहते हैं...
"सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टोमत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च|
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्योवेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्||१५:१५||"
भावार्थ : मैं ही समस्त जीवों के हृदय में आत्मा रूप में स्थित हूँ, मेरे द्वारा ही जीव को वास्तविक स्वरूप की स्मृति, विस्मृति और ज्ञान होता है, मैं ही समस्त वेदों के द्वारा जानने योग्य हूँ, मुझसे ही समस्त वेद उत्पन्न होते हैं और मैं ही समस्त वेदों को जानने वाला हूँ|
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सिर्फ वे ही पूर्ण हैं, उनके सिवाय कोई अन्य नहीं है| अपनी सारी कमियों, दोषों, दुःखों, कष्टों, व अस्तित्व का समर्पण उन में कर दीजिये| वे पूर्ण हैं, ध्यान सिर्फ उन की पूर्णता का ही कीजिये| हमारे सारे कष्ट उनके दिये हुए वरदान हैं जो हमारे भले के लिए ही हैं ...
"जिसे तुम समझे हो अभिशाप, जगत की ज्वालाओं का मूल।
ईश का वह रहस्य वरदान, कभी मत इसको जाओ भूल।
विषमता की पीडा से व्यक्त, हो रहा स्पंदित विश्व महान।
यही दुख-सुख विकास का सत्य, यही भूमा का मधुमय दान।" (कामायनी)
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इस ज्योति व नाद के विषय में मध्य काल के संत कवियों के साहित्य में खूब उल्लेख है| मध्यकाल के एक संत कवि पलटूदास जी ने लिखा है ...
"उलटा कुआँ गगन में, तिसमें जरै चिराग
तिसमें जरै चिराग, बिना रोगन बिन बाती
छह ऋतु बारह मास, रहत जरतें दिन राती
सतगुरु मिला जो होय, ताहि की नजर में आवै
बिन सतगुरु कोउ होर, नहीं वाको दर्शावै
निकसै एक आवाज, चिराग की जोतिन्हि माँही
जाय समाधी सुनै, और कोउ सुनता नांही
पलटू जो कोई सुनै, ताके पूरे भाग
उलटा कुआँ गगन में, तिसमें जरै चिराग"
आसमान में एक उलटा कुआँ लटक रहा है| उस कुएँ में एक चिराग यानि दीपक सदा प्रज्ज्वलित रहता है| उस दीपक में न तो कोई ईंधन है, और ना ही कोई बत्ती है फिर भी वह दीपक दिन रात छओं ऋतु और बारह मासों जलता रहता है| उस दीपक की अखंड ज्योति में से एक अखंड ध्वनि निरंतर निकलती है जिसे सुनते रहने से साधक समाधिस्थ हो जाता है| उस ध्वनी को सुनने वाला बड़ा भाग्यशाली है|
उलटा कुआँ मनुष्य कि खोपड़ी है जिसका मुँह नीचे की ओर खुलता है| उस कुएँ में हमारी आत्मा यानि हमारी चैतन्यता का निवास है| उसमें दिखाई देने वाली अखंड ज्योति ----- ज्योतिर्मय ब्रह्म है, उसमें से निकलने वाली ध्वनि ---- अनाहत नादब्रह्म है, यही राम नाम की ध्वनी है|
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इसी नाद-श्रवण के बारे में मध्यकाल के ही संत कबीर कहते हैं ...
"अवधूत गगन मंडल घर कीजै।
अमृत झरै सदा सुख उपजै, बंक नाल रस पीजै॥
मूल बाँधि सर गगन समाना, सुखमनि यों तन लागी।
काम क्रोध दोऊ भये पलीता, तहाँ जोगिनी जागी॥
मनवा जाइ दरीबै बैठा, मगन भया रसि लागा।
कहै कबीर जिय संसा नाँहीं, सबद अनाहद बागा॥"
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जिनके हृदय में सत्यनिष्ठा, परमप्रेम और अभीप्सा है, वे आध्यात्म की गहराइयों में गहरी डुबकी लगाएंगे तो परमात्मा रूपी मोती अवश्य मिलेगा| आप अब का शुभ ही शुभ और मंगल ही मंगल हो| ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१८ नवंबर २०२०
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