जलाशय को निहारने मात्र से प्यास नहीं बुझती। हृदय में प्रज्ज्वलित प्रचंड अग्नि तो अमृत-कुंड में कूदने से ही शांत हो सकती है। हम परमात्मा के अमृतकुंड में कूद कर स्वयं को उसमें विलीन कर, अमृतमय हो जाएँ।
गीता में भगवान कहते हैं --
"सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्॥१५:१५॥"
अर्थात् - मैं ही समस्त प्राणियों के हृदय में स्थित हूँ। मुझसे ही स्मृति, ज्ञान और अपोहन (उनका अभाव) होता है। समस्त वेदों के द्वारा मैं ही वेद्य (जानने योग्य) वस्तु हूँ तथा वेदान्त का और वेदों का ज्ञाता भी मैं ही हूँ॥
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"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥१८:६६॥"
अर्थात् - सब धर्मों का परित्याग करके तुम एक मेरी ही शरण में आओ, मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो॥"
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सिर्फ वे ही पूर्ण हैं, उनके सिवाय कोई अन्य नहीं है। अपनी सारी कमियों, दोषों, दुःखों, कष्टों, व अस्तित्व का समर्पण उन में कर दीजिये। वे पूर्ण हैं, ध्यान सिर्फ उन की पूर्णता का ही कीजिये। हमारे सारे कष्ट उनके दिये हुए वरदान हैं जो हमारे कल्याण के लिए ही हैं।
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"जिसे तुम समझे हो अभिशाप, जगत की ज्वालाओं का मूल।
ईश का वह रहस्य वरदान, कभी मत इसको जाओ भूल॥
विषमता की पीडा से व्यक्त, हो रहा स्पंदित विश्व महान।
यही दुख-सुख विकास का सत्य, यही भूमा का मधुमय दान॥" (कामायनी)
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गंभीरता से अपनी पूरी अपनी चेतना में सदा परमात्मा के सन्मुख रहें। उन्हें कभी भी न भूलने का अभ्यास करें। ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१८ नवंबर २०२१
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