Thursday, 25 July 2019

पञ्च मकार साधन रहस्य .......

पञ्च मकार साधन रहस्य .......
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तंत्र साधना में पञ्च मकारों का बड़ा महत्व है| पर जितना अर्थ का अनर्थ इन शब्दों का किया गया है उतना अन्य किसी का भी नहीं| इनका तात्विक अर्थ कुछ और है व शाब्दिक कुछ और| इनके गहन अर्थ को अल्प शब्दों में व्यक्त करने के लिए जिन शब्दों का प्रयोग किया गया उनको लेकर दुर्भावनावश कुतर्कियों ने सनातन धर्म को बहुत बदनाम किया है| मद्य, मांस, मत्स्य, मुद्रा और मैथुन ये पञ्च मकार हैं|
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कुलार्णव तन्त्र के अनुसार --
"मद्यपानेन मनुजो यदि सिद्धिं लभेत वै|
मद्यपानरता: सर्वे सिद्धिं गच्छन्तु पामरा:||
मांसभक्षेणमात्रेण यदि पुण्या गतिर्भवेत|
लोके मांसाशिन: सर्वे पुन्यभाजौ भवन्तु ह||
स्त्री संभोगेन देवेशि यदि मोक्षं लभेत वै|
सर्वेsपि जन्तवो लोके मुक्ता:स्यु:स्त्रीनिषेवात||"
मद्यपान द्वारा यदि मनुष्य सिद्धि प्राप्त कर ले तो फिर मद्यपायी पामर व्यक्ति भी सिद्धि प्राप्त कर ले| मांसभक्षण से ही यदि पुण्यगति हो तो सभी मांसाहारी ही पुण्य प्राप्त कर लें| हे देवेशि! स्त्री-सम्भोग द्वारा यदि मोक्ष प्राप्त होता है तो फिर सभी स्त्री-सेवा द्वारा मुक्त हो जाएँ|
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(1) आगमसार के अनुसार मद्यपान किसे कहते हैं ----
"सोमधारा क्षरेद या तु ब्रह्मरंध्राद वरानने|
पीत्वानंदमयास्तां य: स एव मद्यसाधक:||
हे वरानने! ब्रह्मरंध्र यानि सहस्त्रार से जो अमृतधारा निकलती है उसका पान करने से जो आनंदित होते हैं उन्हें ही मद्यसाधक कहते हैं|
ब्रह्मा का कमण्डलु तालुरंध्र है और हरि का चरण सहस्त्रार है| सहस्त्रार से जो अमृत की धारा तालुरन्ध्र में जिव्हाग्र पर (ऊर्ध्वजिव्हा) आकर गिरती है वही मद्यपान है|
इसीलिए ध्यान साधना हमेशा खेचरी मुद्रा में ही करनी चाहिए|
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(२) आगमसार के अनुसार--
"माँ शब्दाद्रसना ज्ञेया तदंशान रसना प्रियान |
सदा यो भक्षयेद्देवि स एव मांससाधक: ||"
अर्थात मा शब्द से रसना और रसना का अंश है वाक्य जो रसना को प्रिय है| जो व्यक्ति रसना का भक्षण करते हैं यानी वाक्य संयम करते हैं उन्हें ही मांस साधक कहते हैं| जिह्वा के संयम से वाक्य का संयम स्वत: ही खेचरी मुद्रा में होता है| तालू के मूल में जीभ का प्रवेश कराने से बात नहीं हो सकती और इस खेचरीमुद्रा का अभ्यास करते करते अनावश्यक बात करने की इच्छा समाप्त हो जय है इसे ही मांसभक्षण कहते हैं|
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(३) आगमसार के अनुसार --
"गंगायमुनयोर्मध्ये मत्स्यौ द्वौ चरत: सदा|
तौ मत्स्यौ भक्षयेद यस्तु स: भवेन मत्स्य साधक:||"
अर्थान गंगा यानि इड़ा, और यमुना यानि पिंगला; इन दो नाड़ियों के बीच सुषुम्ना में जो श्वास-प्रश्वास गतिशील है वही मत्स्य है| जो योगी आतंरिक प्राणायाम द्वारा सुषुम्ना में बह रहे प्राण तत्व को नियंत्रित कर लेते हैं वे ही मत्स्य साधक हैं|
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(४) आगमसार के अनुसार चौथा मकार "मुद्रा" है --
"सहस्त्रारे महापद्मे कर्णिका मुद्रिता चरेत|
आत्मा तत्रैव देवेशि केवलं पारदोपमं||
सूर्यकोटि प्रतीकाशं चन्द्रकोटि सुशीतलं|
अतीव कमनीयंच महाकुंडलिनियुतं|
यस्य ज्ञानोदयस्तत्र मुद्रासाधक उच्यते||"
सहस्त्रार के महापद्म में कर्णिका के भीतर पारद की तरह स्वच्छ निर्मल करोड़ों सूर्य-चंद्रों की आभा से भी अधिक प्रकाशमान ज्योतिर्मय सुशीतल अत्यंत कमनीय महाकुंडलिनी से संयुक्त जो आत्मा विराजमान है उसे जिन्होंने जान लिया है वे मुद्रासाधक हैं|
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(५) शास्त्र के अनुसार मैथुन किसे कहते हैं अब इस पर चर्चा करते हैं|
आगमसार के अनुसार --
(इस की व्याख्या नौ श्लोकों में है अतः स्थानाभाव के कारण उन्हें यहाँ न लिखकर उनका भावार्थ ही लिख रहा हूँ)
मैथुन तत्व ही सृष्टि, स्थिति और प्रलय का कारण है| मैथुन द्वारा सिद्धि और ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति होती है|
नाभि (मणिपुर) चक्र के भीतर कुंकुमाभास तेजसतत्व 'र'कार है| उसके साथ आकार रूप हंस यानि अजपा-जप द्वारा आज्ञाचक्र स्थित ब्रह्मयोनि के भीतर बिंदु स्वरुप 'म'कार का मिलन होता है|
ऊर्ध्व में स्थिति प्राप्त होने पर ब्रह्मज्ञान का उदय होता है, उस अवस्था में रमण करने का नाम ही "राम" है|
इसका वर्णन मुंह से नहीं किया जा सकता| जो साधक सदा आत्मा में रमण करते हैं उनके लिए "राम" तारकमंत्र है|
हे देवि, मृत्युकाल में राम नाम जिसके स्मरण में रहे वे स्वयं ही ब्रह्ममय हो जाते हैं|
यह आत्मतत्व में स्थित होना ही मैथुन तत्व है| अंतर्मुखी प्राणायाम आलिंगन है| स्थितिपद में मग्न हो जाने का नाम चुंबन है| केवल कुम्भक की स्थिति में जो आवाहन होता है वह सीत्कार है| खेचरी मुद्रा में जिस अमृत का क्षरण होता है वह नैवेद्य है|
अजपा-जप ही रमण है| यह रमण करते करते जिस आनंद का उदय होता है वह दक्षिणा है|
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यह ‪पंचमकार‬ की साधना भगवान शिव द्वारा पार्वती जी को बताई गयी है|
संक्षिप्त में आत्मा में यानि राम में सदैव रमण ही तंत्र शास्त्रों के अनुसार मैथुन है न कि शारीरिक सम्भोग|
(Note: यह साधना उन को स्वतः ही समझ में आ जाती है जो नियमित ध्यान साधना करते हैं| योगी नाक से या मुंह से सांस नहीं लेते| वे सांस मेरुदंड में सुषुम्ना नाड़ी में लेते है| नाक या या मुंह से ली गई सांस तो एक प्रतिक्रया मात्र है उस प्राण तत्व की जो सुषुम्ना में प्रवाहित है| जब सुषुम्ना में प्राण तत्व का सञ्चलन बंद हो जाता है तब सांस रुक जाति है और मृत्यु हो जाती है| इसे ही प्राण निकलना कहते हैं| अतः अजपा-जप का अभ्यास नित्य करना चाहिए|)
ॐ तत्सत्|
‪कृपाशंकर‬
११ जून २०१३
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(AA) उपरोक्त लेख पर मान्यवर श्री मिथिलेश द्विवेदी जी की टिपण्णी ......
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सादर नमन मान्यवर, 'पंच मकार' के रहस्य का अज्ञान भी इसके विषय में अनेक भ्रमों का उत्पादक है। आपके विवेचन के बाद कुछ भी लिखना अटपटा ही लगता है। फिर भी आपके आशीष का लोभ-संवरण नहीं कर पा रहा हूँ। क्षमा करेंगे।
सनातन धर्म में एक खासियत है - तन्त्र विद्या। यह विद्या और किसी धर्म में नहीं पायी जाती। तन्त्र के द्वारा सारी सुख सुविधाओं को भोगते हुए अंतत: परमात्मा को पाना तन्त्र विद्या का सार है। तन्त्र सिद्धियों के द्वारा सारी भौतिक सुख सुविधाएं प्राप्त होती हैं। पंच मकार : मैथुन, मध, मांस, मत्स्य और मुद्रा इन पांचो पर टिका है तन्त्र। मैथुन क्या है? खुद का परमात्मा में रमण करना हीं मैथुन है। आज इसे गलत रूप में दिखाया या समझाया जा रहा है। तन्त्र का गहन अध्यन करने वाले आगम शास्त्रों के आधार पर मैथुन का यही अर्थ बताते हैं, हमेशा परमात्मा के साथ रमण का सुख भोगना हीं मैथुन है। वर्तमान में मैथुन का गलत अर्थ लगाया जाता है।
मध है हमेशा परमात्मा रूपी शराब का नशा करना। आगम तंत्रों के अनुसार मष्तिष्क में बिंदु रूपी स्थान से हमेशा अमृत बरसता रहता है योगी लोग उसी का पान अनवरत करते हैं जो मध से लाख गुना बेहतर और आनन्दायक होता है। वर्तमान में मध का अर्थ भी गलत लगाया जाता है।
मांस आगम तंत्रों के अनुसार मौन को मांस कहा गया है। मौन में अदभुत शक्ति है। मौन स्वयं से साक्षात्कार कराने में सहायक है। स्वयं में परमात्मा का दीदार होता है। मौन की महता समझने के लिए दो चार दिन मौन रह कर अवश्य देखें। वर्तमान में मांस का भी गलत अर्थ लगाया जाता है।
मत्स्य-आगम तंत्रों के अनुसार इडा ( बायाँ नासिका ) और पिंगला ( दायाँ नासिका ) से स्वास का लेना हीं ये दो मत्स्य हैं। योगिगन इन दोनों नासिकाओं के स्वांसो का विलय कर के सुषुम्ना नाडी ( दोनों नासिकाओं से साँसों का साथ साथ चलना ) को चलाते हैं जिससे कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत होने में मदद मिलती है। इसका भी वर्तमान में गलत अर्थ लिया जाता है।
मुद्रा - हांथो की उंगलियों से तथा विभिन्न भाव भंगिमाओं के द्वारा मुद्रा का प्रदर्शन होता है। इसका भी गूढ़ अर्थ है। विशेष मुद्राओं से इष्ट प्रसन्न होतें हैं। इसमें अभी विकृति नहीं आई है जो की प्रसन्नता की बात है।
तन्त्र वैज्ञानिक प्रक्रिया पर आधारित एक गूढ़ विद्या है जिसका उल्लेख किसी अन्य धर्म में मेरे देखने-सुनने में नहीं मिला है। (साभार मान्यवर मिथिलेश द्विवेदी जी)
June 11, 2013 at 10:41pm
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(BB) उपरोक्त लेख पर मान्यवर श्री विकास त्यागी जी की टिपण्णी .......
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पूज्यवर कुछ दिन पहले एक ग्रुप मैं मैंने एक पोस्ट दी थी... आज पुनः उसे यहाँ रखा रहा हूँ....
कई बार मन में जिज्ञाषा उठती है की क्या क्या पञ्च मकार के बिना तंत्र की सिद्धि संभव है... सभी एक मत से मानते है की नहीं पञ्च मकार तंत्र का अकाट्य अंग है... कहा भी गया है....
मध् मासं च मीन च मुद्रा मैथुन्मेव च,
मकार पंचक प्राहुर्योगिना मुक्तिदायाकम...
तो क्या पुर्णतः सात्विक रहकर सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकते... आईये देखते है कुछ प्राचीन तंत्र ग्रन्थ क्या कहते हैं इस विषय मैं...
सबसे पहले मध् के विषय में :-
जिह्वाया गल्संयोगात पिबेत्ताम्रितम तदा,
योगिभि पिबते तत्तु न मध् गोड पेसटीकम .... ( गन्धर्व तंत्र )
यहाँ बताया गया है की मध् ब्रह्म रंध्र से बहकर आता है जिसका योगीजन पान किया करते है (खेचरी मुद्रा के विषय में आप सभी जानते हैं ) न की गुड और पिसटी से बना पेय (सूरा या शराब)
इसी प्रकार मांस के सम्बन्ध मैं कुलार्णव तंत्र में कहा गया है.:-
पुन्यापुन्ये पशु हत्वा ज्ञान खडगएन योगवित,
परे लयम नायेच्चितम मांसाशी सो निगधते ...
पुण्य और पाप रूपी पशुओ की ज्ञान रूपी खडग से हत्या कर उनका भक्षण अर्थात अर्थात उनका अस्तित्व ही समाप्त कर देना...
मीन के सम्बन्ध में आगम सार में लिखा है... :-
मनसादी इन्द्रियगनम संयम यात्मानी योजयेत,
सा मीनाशी भवेद देवी इतरे प्राण घातका,
गंगा यामुन्योर्मध्य द्वो मत्स्यो चरत सदा ,
तौ मतस्यो भक्ष्येस्तु स भवेन मतस्य साधकं ...
अर्थात ध्यान के द्वारा इडा (गंगा ) और पिंगला (यमुना ) में विचरण करने वाली स्वास प्रस्वास पर विजय...
इसी प्रकार मुद्रा के विषय विजय तंत्र मैं कहा गया है... :-
असत संगती मुद्रानम तन मुद्रा परिकीर्तिता,
सतसंगें भावेंमुक्ति असत्संगेनु बन्धनं...
अर्थात दुष्टो की संगती रूपी बंधन से बचे रहना ही मुद्रा है...
यामल तंत्र में मैथुन के विषय में कहा गया है...:-
शहस्त्रारे बिन्दु कुंडली मिलानाछिवे ,
मैथुनम परम दिव्यं यातिनाम परिकीर्तितं ....
अर्थात मूलाधार से उठकर कुंडलिनी रूपी शक्ति का शहस्त्रार स्थित परम ब्रह्म शिव से सायुज्य ही मैथुन है...
इन ग्रंथो मैं उपरोक्त विषय और विस्तार से बताया गया है ... लेकिन मेरा उद्देश्य इतने से ही पूर्ण हो जाता है...
वास्तव मैं इस सागर में मोती ही मोती भरे पड़े है आवश्यकता है तो बस गहरा गोता लगाने की....
(श्लोक टाइप करने में थोड़ी त्रुटी हो गयी है... यहाँ उचित शब्दों का अभाव है... अर्थ भी मैंने अपनी भाषा में ही लिख दिया है...केवल भावार्थ लिख दिया है .... )
इसका अर्थ कृपया ये न लगाएं में वाम मार्गी साधनाओं में उपयोगी पञ्च मकारों का विरोधी हूँ... उनमे भी मेरी पूर्ण सृद्धा है...
जय माँ आदिशक्ति (साभार विकास त्यागी)
११ जून २०१३

Sunday, 14 July 2019

अपरिग्रह .....

अपरिग्रह .....
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अधिकार-मुक्ति, या लोभ-मुक्ति की अवधारणा को हम अपरिग्रह कह सकते हैं| जितना कम से कम आवश्यक है, बस उतने का ही संग्रह, अन्य किसी का भी संग्रह नहीं, अर्थात् कोई भी वस्तु संचित ना करना .... अपरिग्रह कहलाता है| यह योग-दर्शन के पांच यमों में आता है और श्रमण परम्परा में महावीर स्वामी के अनुसार अहिंसा और अपरिग्रह जीवन के आधार हैं| अहिंसा के पश्चात् अपरिग्रह जैन धर्म में दूसरा सबसे महत्वपूर्ण गुण है| सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह, ये पांच यम हैं| ये ही पांच महाव्रत हैं, जितना अधिक हम इनका पालन करते हैं, उतना ही अधिक इनका प्रभाव होने लगता है| अपरिग्रह एक महान व्रत है, जिसका आज के युग में जनकल्याण की दृष्टि से और भी अधिक महत्त्व है| क्योंकि वर्तमान युग में परिग्रह लालसा बहुत बढ़ रही है| परिग्रह पर महावीर स्वामी कहते हैं जो आदमी खुद सजीव या निर्जीव चीजों का संग्रह करता है, दूसरों से ऐसा संग्रह कराता है या दूसरों को ऐसा संग्रह करने की सम्मति देता है, उसका दुःख से कभी भी छुटकारा नहीं हो सकता| ज्ञानी लोग कपड़ा, पात्र आदि किसी भी चीज में ममता नहीं रखते, यहाँ तक कि शरीर में भी नहीं|
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अध्यात्म के साधकों के लिए 'अपरिग्रह' महाव्रत के रूप में रखा गया है। महर्षि पतंजलि ने अपने योगसूत्रों में उसे अष्टांग-योग-साधना के अंतर्गत यम के पांच स्तम्भों में से एक माना है| अपरिग्रह का अर्थ होता है परिग्रह का अभाव और परिग्रह का तात्पर्य है-लेना, स्वीकार करना| इस प्रकार अपरिग्रह वह गुण है, जो किसी से भेंट स्वीकार करने का निषेध करता है|

वासनात्मक कामना विष है .....

वासनात्मक कामना विष है, इसकी काट परमात्मा का निरंतर नियमित चिंतन ही है, अन्य कुछ भी नहीं| थोड़ा-बहुत जितना भी हो सकता है उतना तो विचलित हुए बिना करना ही चाहिए| हिम्मत न हारें, अभ्यास करते ही रहें, भगवान सदा हमारे साथ हैं|

मन में वासनात्मक विचारों का आना यानि विषयों का आकर्षण आध्यात्म मार्ग का सबसे बड़ा शत्रु है| विष तो एक बार ही मारता है पर विषय बार-बार मारते हैं| गीता में जो रजोगुणी लक्षण व कामनाएँ बताई गयी हैं, उनका पूर्णतः परित्याग किये बिना सतोगुण नहीं आयेंगे| तमोगुणी व रजोगुणी विषयों का त्याग निरंतर अभ्यास व वैराग्य द्वारा करना ही होगा, और सतोगुणी विषयों का निरंतर चिंतन करना होगा| अंततः जाना तो तीनों गुणों से परे ही होगा|

अन्तःकरण में उन वृत्तियों को ही लाना होगा जो हमें परमात्मा में स्थित करती हैं| इसके लिए अपने विचारों और आचरण में पवित्रता लानी होगी| मन के साथ साथ बाहरी आचरण को भी शुद्ध करना होगा| आहार शुद्धि, कुसंग-त्याग, सत्संग आदि अति आवश्यक हैं| सबसे बड़ा है ... निज-विवेक| हर कार्य अपने निज-विवेक के प्रकाश में ही करें|

मंगलमय शुभ कामनाएँ ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
१३ जुलाई २०१९
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पुनश्चः :---- 

यह शरीर एक धोखेबाज मित्र है. इसके साथ जुड़ा अंतःकरण
(मन, बुद्धि, चित्त व अहंकार)
भी धोखेबाज है.
इन्हें इतना ही दें जो इनके लिए आवश्यक है, अधिक नहीं.
इन पर नियंत्रण रखें. इन का कोई भरोसा नहीं है.

ब्रह्मचर्य ....

ब्रह्मचर्य
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ब्रह्मचर्य का अर्थ है ब्रह्म यानि परमात्मा का सा आचरण, ब्र्ह्मचैतन्य में स्थिति, और हर उस कर्म से विमुखता जो ब्रह्म यानि परमात्मा से दूर करता है| यह योगदर्शन के पांच यमों में आता है और महावीर स्वामी द्वारा प्रतिपादित पञ्च महाव्रतों में आता है जिन्हें पंचशील भी कहते हैं|
ब्रह्मचर्य का व्रत देवों को भी दुर्लभ है| ब्रह्मचर्य की महिमा को यदि मैं श्रुति, स्मृति, पुराणों व महाभारत से उद्धृत करूँ, या जैन साहित्य से उद्धृत करना आरम्भ करूँ तो इस लेख को कभी भी समाप्त नहीं कर पाऊँगा|
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प्राचीन काल में जब गुरुकुल शिक्षा पद्धति में ब्रह्मचर्य अनिवार्य हुआ करता था, तब वीर, योद्धा, ज्ञानी व तपस्वी लोग होते थे, आज की तरह की घटिया मनुष्यता नहीं| जैसे दीपक का तेल-बत्ती के द्वारा ऊपर चढक़र प्रकाश के रूप में परिणित होता है, वैसे ही ब्रह्मचारी के अन्दर का ओज सुषुम्रा नाड़ी द्वारा प्राण बनकर ऊपर चढ़ता हुआ ज्ञान-दीप्ति में परिणित हो जाता है|
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इस विषय पर अधिक नहीं लिखना चाहता क्योंकि इस विषय पर बहुत अधिक साहित्य और मार्गदर्शन उपलब्ध है| अपने खान-पान में, संगति में, अध्ययन में और वातावरण के प्रति सजग रहें| ऐसे कोई विचार न आने दें जिनसे ब्रह्मचर्य भंग हो| जो आध्यात्मिक साधक हैं, उन्हें इस विषय पर पर्याप्त मार्गदर्शन उपलब्ध है| उन्हें ऐसे लेखों की आवश्यकता नहीं है|
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सभी को शुभ कामनाएँ !
१३ जुलाई २०१९

कूटस्थ चैतन्य .....

कूटस्थ चैतन्य .....
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"कूटस्थ" शब्द का प्रयोग भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में किया है| "कूटस्थ" को अविनाशी 'परम अव्यक्त' भी कह सकते हैं| वह जो सर्वत्र है, जिसने सर्वस्व का निर्माण किया है, पर कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं है, वह "कूटस्थ" है| उसकी चेतना "कूटस्थ चैतन्य" है| एक लघुत्तम जीव से लेकर ब्रह्मा तक का नाश हो सकता है पर "कूटस्थ" का नहीं| योग साधक, ध्यान में दिखाई देने वाले सर्वव्यापक विराट अनंत ज्योतिर्मय ब्रह्म और अनाहत नाद को "कूटस्थ" कहते हैं| जब ज्योतिर्मय चेतना सर्वव्यापक हो जाती है वह "कूटस्थ चैतन्य" कहलाती है| "कूटस्थ चैतन्य" में हम सदा परमात्मा के साथ हैं|
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शिवनेत्र होकर (बिना तनाव के दोनों नेत्रों के गोलकों को नासामूल के समीपतम लाकर भ्रूमध्य में दृष्टी स्थिर कर, जीभ को ऊपर पीछे की ओर मोड़कर) अजपा-जप करते हुए साथ साथ प्रणव यानि ओंकार की ध्वनि को सुनते हुए उसी में लिपटी हुई सर्वव्यापी ज्योतिर्मय अंतर्रात्मा का चिंतन करते रहें| विद्युत् की चमक के समान देदीप्यमान ब्रह्मज्योति ध्यान में प्रकट होगी| ब्रह्मज्योति का प्रत्यक्ष साक्षात्कार करने के बाद उसी की चेतना में रहें| यह ब्रह्मज्योति अविनाशी है, इसका कभी नाश नहीं होता| एक लघुत्तम जीवाणु से लेकर ब्रह्मा तक का नाश हो सकता है पर इस ज्योतिर्मय ब्रह्म का कभी नाश नहीं होता| यही "कूटस्थ" है, और इसकी चेतना ही "कूटस्थ चैतन्य" है| यह योगमार्ग की उच्चतम साधनाओं/उपलब्धियों में से है|
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आज्ञाचक्र योगी का ह्रदय है, भौतिक देह वाला ह्रदय नहीं| आरम्भ में ज्योति के दर्शन आज्ञाचक्र से थोड़ा सा ऊपर होते हैं, वह स्थान कूटस्थ बिंदु है| आज्ञाचक्र का स्थान Medulla Oblongata यानि मेरुशीर्ष के ऊपर खोपड़ी के मध्य में पीछे की ओर है| यही जीवात्मा का निवास है|
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यदि प्रभु के प्रति परमप्रेम, श्रद्धा-विश्वास और निष्ठा होगी तब निश्चित रूप से मार्गदर्शन भी प्राप्त होगा, सहायता भी मिलेगी और रक्षा भी होगी| आवश्यकता है एक गहनतम अभीप्सा और परमप्रेम की|
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ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
१३ जुलाई २०१९

अस्तेय .....

अस्तेय .....
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महावीर स्वामी कहते हैं कि दूसरों की चीज़ों को चुराना और दूसरों की चीज़ों की इच्छा करना महापाप है| जो मिला है उसमें संतुष्ट रहें| अस्तेय का शाब्दिक अर्थ है ..... चोरी न करना| योग-सुत्रों में यह पांच यमों में आता है, और जैन मत के पंचशीलों यानि पंच महाव्रतों में से एक हैं| अस्तेय का व्यापक अर्थ है .... मन, वचन और कर्म से किसी दूसरे की सम्पत्ति को चुराने की इच्छा भी न करना| हम दूसरों के साधनों को हडपने की चेष्टा, इच्छा या प्रयत्न कभी ना करें और अपने निजि सुखों को निजि साधनों पर ही आधारित रख कर संतुष्ट रहें| अपनी चादर के अनुसार ही पाँव फैलायें किन्तु इस का यह अर्थ भी नहीं कि हम अपने साधनों को ही गँवा बैठें या परिश्रम से उन में वृद्धि न करें|
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आज के युग में घूस खाना सबसे बड़ी चोरी है| घूसखोर को अगले जन्मों में ब्याज समेत वह सारी राशि उस व्यक्ति को बापस करनी ही पड़ती है जिस से उसने घूस ली है| चोरी करने वाले का यह जन्म तो बेकार गया, उसे और कई जन्म लेकर उसका दंड भुगतना ही होगा| घूसखोर और उसके घरवाले कितने भी प्रसन्न हो लें पर उन्हें अगले कई जन्मों तक इसका दंड भुगतना पड़ता है| किसी को ठग कर या डरा-धमका कर या अधर्म से उस को विवश कर के उस से कुछ बसूलते हैं तो इस जन्म की तो सारी आध्यात्मिक प्रगति अवरुद्ध हो ही जाती है, अगले जन्म भी कठिनाइयों से भरे हुए आते हैं| जिस कार्य को करने के लिए हमें पारिश्रमिक या वेतन मिलता है, उस कार्य को ईमानदारी से न करना भी श्रम की चोरी है, जिसका भी दंड मिलता है| ऐसे ही परस्त्री/पुरुष गमन भी चोरी की श्रेणी में ही आते हैं|
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अस्तेय विषय पर इतना ही लिखना पर्याप्त है| हरिः ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१२ जुलाई २०१९

दीदार की हविश है तो नज़रें जमा के रख, चिलमन हो या नकाब सरकता जरूर है ....

दीदार की हविश है तो नज़रें जमा के रख, चिलमन हो या नकाब सरकता जरूर है ....
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हृदय की गहनतम अनुभूतियाँ शब्दों से परे हैं| उन्हें कोई व्यक्त नहीं कर सकता| हमारी हसरतें, तड़प और अरमान वर्णनातीत अनुभूतियाँ हैं| बस, "उस" ओर लगातार ताकते रहो| रहस्य अपने आप खुल जायेंगे, और कुछ भी नहीं करना है| ऊपर से कुछ मत थोपो, सारे गुण अपने आप प्रकट हो जायेगे| एक ही गुण "प्रेम" होगा तो बाकी सारे गुण अपने आप आ जायेंगे| पूर्णता तो हम स्वयं हैं, आवरण अधिक समय तक नहीं रह सकता| यहाँ हम बात परमात्मा की कर रहे हैं| समझने वाले सब समझते हैं|
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घर में जब कोई मेहमान आते हैं तो उनको बैठाने के स्थान को बहुत अच्छी तरह से साफ़ करते हैं कि कहीं कोई गन्दगी न रह जाए| पर हम यो यहाँ साक्षात परमात्मा को निमंत्रित कर रहे हैं| देह में या मन में कहीं भी कोई गन्दगी होगी तो वे नहीं आयेंगे| अपने हृदय मंदिर को तो विशेष रूप से साफ़ करना होगा| ह्रदय मंदिर को स्वच्छ कर जब उसमें परमात्मा को बिराजमान करेंगे तो सारे दीपक अपने आप ही जल जायेंगे, कहीं कोई अन्धकार नहीं रहेगा, आगे के सारे द्वार खुल जायेंगे और मार्ग प्रशस्त हो जायेगा| वहाँ उनके सिवा अन्य कोई नहीं होगा| एक बहुत पुरानी और बहुत प्रसिद्ध ग़ज़ल है ....
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"दिल का हुजरा साफ़ कर ज़ाना के आने के लिए,
ध्यान गैरों का उठा उसके ठिकाने के लिए |
चश्मे दिल से देख यहाँ जो जो तमाशे हो रहे,
दिलसिताँ क्या क्या हैं तेरे दिल सताने के लिए ||
एक दिल लाखों तमन्ना उसपे और ज्यादा हविश,
फिर ठिकाना है कहाँ उसको टिकाने के लिए |
नकली मंदिर मस्जिदों में जाये सद अफ़सोस है,
कुदरती मस्जिद का साकिन दुःख उठाने के लिए ||
कुदरती क़ाबे की तू मेहराब में सुन गौर से,
आ रही धुर से सदा तेरे बुलाने के लिए |
क्यों भटकता फिर रहा तू ऐ तलाशे यार में,
रास्ता शाह रग में हैं दिलबर पे जाने के लिए ||
मुर्शिदे कामिल से मिल सिदक और सबुरी से तकी,
जो तुझे देगा फहम शाह रग पाने के लिए |
गौशे बातिन हों कुशादा जो करें कुछ दिन अमल,
ला इल्लाह अल्लाहहू अकबर पे जाने के लिए ||
ये सदा तुलसी की है आमिल अमल कर ध्यान दे,
कुन कुरां में है लिखा अल्ल्हाहू अकबर के लिए ||"
(लेखक: तुलसी साहिब)
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आप सब को शुभ कामनाएँ और नमन ! हरिः ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१२ जुलाई २०१९

सत्य ही नारायण है, सत्य ही परमात्मा है .....

सत्य ही नारायण है, सत्य ही परमात्मा है .....
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हम साधना करते हैं, मंत्रजाप करते हैं, पर हमें सिद्धि नहीं मिलती, इसका मुख्य कारण है.... "असत्यवादन"| झूठ बोलने से वाणी दग्ध हो जाती है और किसी भी स्तर पर दग्धवाणी से किये गए मन्त्रजाप का फल नहीं मिलता| इस कारण कोई साधना सफल नहीं हो पाती| यदि वाणी दूषित, कलुषित, दग्ध स्थिति में हो तो उसके द्वारा उच्चारित मन्त्र भी जल जायेंगे| तब जप, स्तवन, पाठ आदि करते रहने पर भी अभीष्ट सत्परिणाम उपलब्ध न हो सकेगा| परिष्कृत जिह्वा में ही वह शक्ति है जो हमारे जप को सिद्ध कर सकती है|
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सत्य बोलो पर अप्रिय सत्य से मौन अच्छा है| प्राणरक्षा और धर्मरक्षा के लिए बोला गया असत्य भी सत्य है, और जिस से किसी की प्राणहानि और धर्म की ग्लानि हो वह सत्य भी असत्य है| जिस की हम निंदा करते हैं उसके भी अवगुण हमारे में आ जाते हैं|
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जो लोग झूठे होते हैं, चोरी करते हैं, और दुराचारी होते हैं, वे चाहे जितना मंत्रजाप करें, और चाहे जितनी साधना या पूजा-पाठ करें, उन्हें कभी कोई सिद्धि नहीं मिल सकती| सत्य ही परमात्मा है| सत्य से दूर जाकर परमात्मा का बोध नहीं हो सकता|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
झुंझुनू (राजस्थान)

११ जुलाई २०१९
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पुनश्चः :--
“नहि सत्यात्परो धर्मो न पापामनृतात परम, तस्मात् सर्वात्मना मर्त्यःसत्मेकं समाश्रेयत|
सत्यहीना वृथा पूजा सत्यहीनो वृथा जपः, सत्यहीनं तपो व्यर्थमूषरे वपनं यथा”||
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सत्य से बड़ा कोई धर्म नहीं है, न ही झूठ से बडा कोई पाप| इसलिये मनुष्य को सदा एकमात्र सत्य का आश्रय लेना चाहिये| सत्यहीन की पूजा व्यर्थ है| सत्यहीन का जप व्यर्थ है| सत्यहीन तपस्या वैसे ही व्यर्थ है जैसे ऊसर भूमि में बीज बोना|

हम जातिवाद से मुक्त हों, जातिवाद हमारे पर एक अभिशाप है .....

हम जातिवाद से मुक्त हों, जातिवाद हमारे पर एक अभिशाप है .....
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"जाति हमारी ब्रह्म है, माता-पिता हैं राम| गृह हमारा शून्य में, अनहद में विश्राम||"
परमार्थ के मार्ग पर चलने वाले पथिक तो भगवान को समर्पित होते ही जाति-विहीन व वर्ण-विहीन हो जाते हैं, घर से भी बेघर हो जाते हैं, देह की चेतना भी छुट जाती है और मोक्ष की कामना भी नष्ट हो जाती है| उनकी जाति अच्युत है|
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विवाह के बाद कन्या अपनी जाति, गौत्र और वर्ण सब अपने पति की जाति, गौत्र और वर्ण में मिला देती है| पति की इच्छा ही उसकी इच्छा हो जाती है| वैसे ही परमात्मा को समर्पित होने पर अपना कहने को कुछ भी नहीं बचता, सब कुछ उन्हीं का हो जाता है| 'मैं' और 'मेरापन' भी समाप्त हो जाता है| सब कुछ वे ही हो जाते हैं| भगवान् की जाति क्या है ? भगवान् का वर्ण क्या है ? भगवान् का घर कहाँ है ? जो उन का है वह ही हमारा है|
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प्रार्थना :---- तुम महासागर हो तो मैं जल की एक बूँद हूँ जो तुम्हारे में मिलकर महासागर ही बन जाती है| तुम एक प्रवाह हो तो मैं एक कण हूँ जो तुम्हारे में मिलकर विराट प्रवाह बन जाता है| तुम अनंतता हो तो मैं भी अनंत हूँ| तुम सर्वव्यापी हो तो मैं भी सदा तुम्हारे साथ हूँ| जो तुम हो वह ही मैं हूँ| मेरा कोई पृथक अस्तित्व नहीं है| जब मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकता तो तुम भी मेरे बिना नहीं रह सकते| जितना प्रेम मेरे ह्रदय में तुम्हारे प्रति है, उससे अनंत गुणा प्रेम तो तुम मुझे करते हो| तुमने मुझे प्रेममय बना दिया है| जहाँ तुम हो वहीँ मैं हूँ, जहाँ मैं हूँ वहीँ तुम हो| मैं तुम्हारा अमृतपुत्र हूँ, तुम और मैं एक हैं|
शिवोहं शिवोहं अहं ब्रह्मास्मि ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१० जुलाई २०१९

"अहिंसा" पर मेरे विचार .....

"अहिंसा" पर मेरे विचार .....
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उपनिषदों व गीता में 'अहिंसा' को सर्वोच्च नैतिक गुणों में माना गया है| महर्षि पतंजलि द्वारा योगसूत्र में वर्णित पाँच यम ..... अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह हैं| जैन धर्म का तो आधारभूत बिंदु ही 'अहिंसा' है| महाभारत में अनेक बार अहिंसा को परमधर्म कहा गया है| अहिंसा पर मेरे विचार औरों से हटकर कुछ भिन्न हैं| अधिकांश लोग जीवों को न मारने और पीड़ा न देने को ही अहिंसा मानते हैं| पर जैसा मुझे समझ में आया है उसके अनुसार .....
"मनुष्य का अहंकार और मोह" सबसे बड़ी हिंसा है| उसके पश्चात "किसी निरीह असहाय की जिसे सहायता की नितांत आवश्यकता है, सहायता न करना", और "किसी निरपराध को पीड़ित करना" ही हिंसा है|
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हिंसा के साथ साथ सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का भी उतना ही महत्व है| पर मात्र अहिंसा पर ही अत्यधिक जोर देने, यहाँ तक कि आतताइयों, तस्करों और दुष्ट आक्रान्ताओं से भी अहिंसा का व्यवहार करने से दुर्भाग्यवश भारत में एक ऐसी सद्गुण-विकृति आ गयी जिसके कारण विदेशी आतताइयों द्वारा आकमण के द्वार खुल गए, व भारत एक निर्वीर्य असंगठित और कमजोर राष्ट्र बन गया|
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ऐतिहासिक दृष्टी से जिस दिन सम्राट अशोक ने अपनी तलवार नीचे रख दी थी, उसी दिन से भारत का पतन आरम्भ हो गया| भारत में आततायी के लिए जो हमारी स्त्री, संतान, धन, और प्राणों का अपहरण करने, राष्ट्र पर आक्रमण करने, हमें अपने आधीन करने और राष्ट्र को दरिद्र बनाने आता है, के विरुद्ध हिंसा को धर्म माना गया था| आततायी के लिए कहीं भी क्षमा का प्रावधान नहीं था| पृथ्वीराज चौहान जैसे प्रतापी राजाओं द्वारा दी गयी क्षमा का दंड भारत आज तक भुगत रहा है| इस तरह की क्षमा अहंकार-जनित थी और उसका दुष्परिणाम ही हुआ| इसी तरह की अहंकार-जनित अहिंसा के उपासकों के विश्वासघात के कारण सिंध के महाराजा दाहरसेन की पराजय हुई और आतताइयों द्वारा भारत के पराभव का क्रम आरम्भ हुआ| इस तरह के विश्वासघात अनेक बार हुए| सिर्फ भारत में ही नहीं अपितु पूरे मध्य एशिया और दक्षिण पूर्व एशिया में भी| तथाकथित अहिंसा के उपासकों ने आतताइयों का वीरता से निरंतर प्रतिरोध नहीं किया, जिसका परिणाम उन्हें मृत्यु या बलात् हिंसक मतांतरण के रूप में मिला|
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दुर्भाग्य से भारत में ही अहिंसा को परम धर्म मानने वाले लोग सबसे बड़े परिग्रही और भोगी बन गए हैं| अनैतिकता व भ्रष्ट आचारण के साथ-साथ अहिंसा संभव नहीं है| जीवों को न मारना तो अहिंसा है, किसी चींटी के मारने पर तो पछतावा हमें हो सकता है, किन्तु दूसरों को ठगने या उनका शोषण करने में कोई पछतावा हमें क्यों नहीं होता?
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भारत में सभी हिन्दू देवी-देवताओं के हाथ में शस्त्रास्त्र हैं| जब तक भारत में शक्ति की साधना की जाती थी, भारत की और आँख उठाकर देखने का दु:साहस किसी आतताई का नहीं हुआ| गीता में भगवान श्रीकृष्ण के अनुसार हमारा अहंकार ही सबसे बड़ी हिंसा है| वे कहते हैं .....
"यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते| हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते||१८:१७||"
भगवान ने अहिंसा को बहुत बड़ा गुण भी बताया है .....
"अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम्| दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम्||१६:२||"
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आततायियों को दंड देने के लिए जिनके हाथ में धनुष और बाण हैं, वे प्रभु श्रीराम हमारे आराध्य हैं| वे यज्ञ की रक्षा करने के लिए ताड़का को मारना उचित समझते हैं, भक्तों की रक्षा के लिए मेघनाद के यज्ञ के विध्वंस का भी आदेश देते हैं, और धर्म की पुनर्स्थापना के लिए लाखों राक्षसों के संहार को भी उचित मानते हैं| यह है अहिंसा का यथार्थ स्वरूप|
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आज की परिस्थिति में जब धर्म और राष्ट्र की अस्मिता पर मर्मान्तक प्रहार हो रहे हैं, तब धर्म और राष्ट्र की रक्षा के लिए की गयी हिंसा भी अहिंसा है| इस समय राष्ट्र को एक ब्रह्मतेज और क्षात्रबल की नितांत आवश्यकता है| यही है -- 'अहिंसा परमो धर्म:'|
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महाभारत में अनेक स्थानों पर अहिंसा को परमधर्म बताया गया है, कुछ का यहाँ संकलन है .....
"अहिंसा परमो धर्मः स च सत्ये प्रतिष्ठितः| सत्ये कृत्वा प्रतिष्ठां तु प्रवर्तन्ते प्रवृत्तयः||
"अहिंसा परमः धर्मः स च सत्ये प्रतिष्ठितः सत्ये तु प्रतिष्ठाम् कृत्वा प्रवृत्तयः प्रवर्तन्ते|"
"अहिंसा सर्वभूतेभ्यः संविभागश्च भागशः| दमस्त्यागो धृतिः सत्यं भवत्यवभृताय ते||"
"अहिंसा परमो धर्मस्तथाहिंसा परं तपः| अहिंसा परमं सत्यं यतो धर्मः प्रवर्तते||
"अहिंसा परमो धर्मस्तथाहिंसा परो दमः| अहिंसा परमं दानमहिंसा परमं तपः||"
"अहिंसा परमो यज्ञस्तथाहिंसा परं फलम्| अहिंसा परमं मित्रमहिंसा परमं सुखम्||"
"सर्वयज्ञेषु वा दानं सर्वतीर्थेषु वाऽऽप्लुतम्| सर्वदानफलं वापि नैतत्तुल्यमहिंसया ||"
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परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति आप सब महान दिव्यात्माओं को नमन !
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१० जुलाई २०१९

अपनी चेतना में मैं सभी के साथ एक हूँ ....

अपनी चेतना में मैं सभी के साथ एक हूँ| परमात्मा में हम सब एक हैं| जो आनंद भगवान की भक्ति और समर्पण में है, वह अन्यत्र कहीं भी नहीं है| गीता में बताई गयी भगवान की अनन्य अव्यभिचारिणी भक्ति के समक्ष अन्य कुछ भी नहीं है|
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मेरे लिए तो साकार रूप में वे मेरे समक्ष नित्य शाम्भवी मुद्रा में पद्मासन में मेरे सहस्त्रार में समाधिस्थ हैं| वे ही मेरे ध्येय हैं और मेरा समर्पण उन्हीं के प्रति है| मेरे लिए वे ही परमशिव है, विष्णु हैं, नारायण हैं और जगन्माता हैं|
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शाम्भवी मुद्रा में पद्मासनस्थ समाधिस्थ एक छवि पुराण-पुरुष की अनेक साधकों के समक्ष चेतना में उभरती है| समर्पण उन्हीं के प्रति हो|
ॐ ॐ ॐ
९ जुलाई २०१९

श्रमण परम्परा और ब्राह्मण (वैदिक) परम्परा .....

श्रमण परम्परा और ब्राह्मण (वैदिक) परम्परा .....
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भगवान महावीर श्रमण परम्परा के चौबीसवें और अंतिम तीर्थंकर थे| श्रमण परम्परा और ब्राह्मण परम्परा दोनों ही अति प्राचीन काल से चली आ रही हैं| इनमें अंतर यह है कि श्रमण परम्परा नास्तिक है और ब्राह्मण परम्परा आस्तिक| जो श्रुति (वेदों) में आस्था रखता है व श्रुति (वेदों) को अंतिम प्रमाण मानता है, वह आस्तिक है, और जो श्रुतियों में आस्था नहीं रखता वह नास्तिक है| श्रमण परम्परा श्रुति (वेदों) को अपौरुषेय नहीं मानती अतः नास्तिक परम्परा है|
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पर इनमें एक समानता भी है| ये दोनों परम्पराएँ आत्मा की शाश्वतता, पुनर्जन्म और कर्मफलों के सिद्धांत को मानती हैं|
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ब्राह्मण परम्परा में ब्राह्मण वह है जो ब्रह्म को ही मोक्ष का आधार मानता है और वेदवाक्य को ही ब्रह्म-वाक्य मानता है|
श्रमण परम्परा में श्रमण वह है जो निज श्रम द्वारा मोक्ष प्राप्ति के मार्ग को मानता है और जिसके लिए जीवन में ईश्वर की नहीं बल्कि श्रम की आवश्यकता है| श्रमण परम्परा ईश्वर के अस्तित्व को नहीं मानती|
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श्रमण परम्परा का आधार .... श्रमण, समन, शमन .... इन तीन शब्दों पर है| 'श्रमण' शब्द 'श्रमः' धातु से बना है, जिसका अर्थ है 'परिश्रम करना'| श्रमण शब्द का उल्लेख वृहदारण्यक उपनिषद् में 'श्रमणोऽश्रमणस' के रूप में हुआ है| यह शब्द इस बात को प्रकट करता है कि व्यक्ति अपना विकास अपने ही परिश्रम द्वारा कर सकता है| सुख–दुःख, उत्थान-पतन सभी के लिए वह स्वयं उत्तरदायी है| 'समन' का अर्थ है, समताभाव, अर्थात् सभी को आत्मवत् समझना, सभी के प्रति समभाव रखना| जो बात अपने को बुरी लगती है, वह दूसरे के लिए भी बुरी है| ‘शमन' का अर्थ है अपनी वृत्तियों को शान्त रखना, उनका निरोध करना|
जो व्यक्ति अपनी वृत्तियों को संयमित रखता है वह महाश्रमण है| इस प्रकार श्रमण परम्परा का मूल आधार श्रम, सम, शम इन तीन तत्त्वों पर आश्रित है|
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ॐ तत्सत् ! ॐ गुरुभ्यो नमः !
कृपा शंकर
९ जुलाई २०१९

(इस विषय पर आगे और लेखन पाठकों की प्रतिक्रियाओं पर निर्भर है| आगे के विषय अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहआदि हो सकते हैं| स्यादवाद और वेदांत पर भी विचार हो सकता है| साधनाओं पर भी लिखा जा सकता है, पर यह सब परिस्थितियों पर निर्भर है क्योंकि मेरा तो आजकल सर्वप्रिय विषय ही भक्ति है, भक्ति के अलावा अन्य किसी विषय पर लिखने की इच्छा ही नहीं होती|)

हर सांस एक पुनर्जन्म है .....

साधना के मार्ग पर शत-प्रतिशत रहें| अपने हृदय में जो प्रचंड अग्नि जल रही है उसे दृढ़ निश्चय और सतत् प्रयास से निरंतर प्रज्ज्वलित रखिए| आधे-अधूरे मन से किया गया कोई प्रयास सफल नहीं होगा| साधना निश्चित रूप से सफल होगी, चाहे यह देह रहे या न रहे ...... इस दृढ़ निश्चय के साथ साधना करें, आधे अधूरे मन से नहीं|
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परमात्मा का स्मरण करते करते यदि मरना भी पड़े तो वह इस नारकीय सांसारिक जीवन जीने से तो अच्छा है|
परमात्मा मन का विषय नहीं है| "वह" जिसके द्वारा मन स्वयं मनन का विषय बन जाता है, "वह" ही ब्रह्म यानि परमात्मा है| वह मन और बुद्धि की समझ से परे है| उसके गुणों की हम गहरे ध्यान में अनुभूति तो कर सकते हैं, पर अपना रहस्य तो वे स्वयं ही कृपा कर के ही किसी को अनावृत कर सकते हैं|
"सोइ जानहि जेहि देहु जनाई, जानत तुमहिं तुमहि हुई जाई|"
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हर सांस एक पुनर्जन्म है|दो साँसों के मध्य का संधिक्षण वास्तविक संध्याकाल है, जिसमें की गयी साधना सर्वोत्तम होती है|हर सांस पर परमात्मा का स्मरण रहे क्योंकि हर सांस तो वे ही ले रहे हैं, न कि हम|
"हं" (प्रकृति) और "सः" (पुरुष) दोनों में कोई भेद नहीं है| प्रणवाक्षर परमात्मा का वाचक है| कोई अन्य नहीं है, सम्पूर्ण अस्तित्व हमारी ही अभिव्यक्ति है.
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श्रीगुरुभ्यो नमः ! हरिः ॐ !
८ जुलाई २०१९

महावीर का 'जीयोऔर जीने दो' का सिद्धांत .....

महावीर का 'जीयोऔर जीने दो' का सिद्धांत .....
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भगवान महावीर श्रमण परम्परा के चौंबीसवें तीर्थंकर थे| तीर्थंकर का अर्थ है जो स्वयं तप के माध्यम से आत्मज्ञान प्राप्त करते है और संसार-सागर से पार लगाने वाले तीर्थ की रचना करते है| तीर्थंकर वह व्यक्ति है जिसने पूरी तरह से क्रोध, अभिमान, छल, इच्छा, आदि पर विजय प्राप्त की है| महावीर का जन्म ईसा से ५९९ वर्ष पूर्व वैशाली के गणतंत्र राज्य क्षत्रिय कुण्डलपुर में हुआ था| तीस वर्ष की आयु में महावीर ने संसार से विरक्त होकर राज-वैभव त्याग दिया और संन्यास धारण कर आत्मकल्याण के पथ पर निकल गये| १२ वर्षो की कठिन तपस्या के बाद उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ| यह श्रमण परम्परा ही कालान्तर में जैन धर्म कहलाई| जैन का अर्थ होता है जितेन्द्रिय, यानि जिस ने मन आदि इन्द्रियों को जीत लिया है|
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श्रमण परम्परा के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव थे जिनके पुत्र भरत के नाम पर इस देश का नाम भारतवर्ष है| ऋषभदेव का उल्लेख श्रुति में भी है और भागवत में भी| तीर्थंकर महावीर स्वामी ने अहिंसा को उच्चतम नैतिक गुण बताया| उनके पंचशील के सिद्धांत ..... अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह, अचौर्य (अस्तेय) और ब्रह्मचर्य हैं| योग-दर्शन में ये ही 'यम' कहलाते हैं| उन्होंने अनेकांतवाद व स्यादवाद जैसे अद्भुत सिद्धांत दिए|
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हम दूसरों के प्रति वही विचार एवं व्यवहार रखें जो हमें स्वयं को पसंद हो| यही महावीर का 'जीयो और जीने दो' का सिद्धांत है|
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(इस विषय पर अगले लेख में श्रमण परम्परा और ब्राह्मण परम्परा के बारे में लिखूंगा| दोनों में भेद है|) (कृपया कोई भी अशोभनीय टिप्पणी न करें)
कृपा शंकर
८ जुलाई २०१९

सारी साधनाएँ एक बहाना है, असली चीज तो प्रभु की कृपा है .....


Saturday, 13 July 2019

इस शरीर रूपी रथ में जो आत्मा को देखता है, उसका पुनर्जन्म नहीं होता ....

रथस्य वामनं दृष्ट्वा पुनर्जन्म न विद्यते | इस शरीर रूपी रथ में जो आत्मा को देखता है, उसका पुनर्जन्म नहीं होता|
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"पीत्वा पीत्वा पुनर्पीत्वा, यावत् पतति भूतले| उत्थाय च पुनर्पीत्वा, पुनर्जन्म न विद्यते ||"
(तन्त्रराज-तन्त्र)
अर्थात् पीये, पीये और बारंबार पीये, तब तक पीये जब तक पीकर भूमि पर न गिर जाए | उठ कर जो फिर से पीता है, उसका पुनर्जन्म नहीं होता|
(यह तंत्र की भाषा है जिसे कोई अधिकृत योगी गुरु ही समझा सकता है)
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यहाँ भूमि-तत्व के मूलाधार-चक्र में स्थित कुण्डलिनी महाशक्ति के जागृत हो कर सुषुम्ना मार्ग से ऊपर उठ कर सहस्त्रार-चक्र में परमशिव के साथ विहार यानि मिलन का वर्णन है| विहार के पश्चात कुण्डलिनी नीचे मूलाधार-चक्र में पुनश्चः लौट आती है| पुनः बार बार उसे उठाकर सहस्त्रार-चक्र तक लाकर परमशिव से मिलन कराने पर पुनर्जन्म नहीं होता|
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इस क्रिया-योग को बार बार करने पर एक आनंददायी मादकता सी होती है| सौन्दर्य लहरी के नौवें श्लोक में आचार्य शंकर ने महाशक्ति कुण्डलिनी के परमशिव के साथ विहार का वर्णन किया है....

"महीं मूलाधारे कमपि मणिपूरे हुतवहं,
स्थितं स्वाधिष्ठाने हृदि मरुतमाकाशमुपरि |
मनोऽपि भ्रूमध्ये सकलमपि भित्त्वा कुलपथं.
सहस्रारे पद्मे सह रहसि पत्या विहरसे ||९||
हे पराशक्ति कुण्डलिनी रूपे भगवती ! तुम मूलाधार में पृथ्वीतत्व, मणिपूर (संहार क्रम में, स्वाधिष्ठान के बदले) में जल-तत्व, स्वाधिष्ठान में अग्नि-तत्व (मणिपुर), हृदय के अनाहत चक्र में मरुत् रूप में, तथा उसके ऊपर विशुद्धि-चक्र में आकाश-तत्व, तथा भ्रूमध्य के आज्ञा-चक्र में मनस्तत्त्व को पार कर के, कुलपथ (बांस जैसे सुषुम्ना मार्ग) को भेदते हुये सहस्रार-पद्म में पति परमेश्वर के साथ रह कर विहार करती हो|
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ॐ श्रीगुरुभ्यो नमः ! ॐ गुरु ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
६ जुलाई २०१९
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पुनश्चः :----
"सुधाधारासारैश्चरणयुगलान्तर्विगलितैः
प्रपञ्चं सिञ्चन्ती पुनरपि रसाम्नायमहसः|

अवाप्य स्वां भूमिं भुजगनिभमध्युष्टवलयं
स्वमात्मानं कृत्वा स्वपिषि कुलकुण्डे कुहरिणि||१०||  इस मन्त्र में कुण्डलिनी का मूलाधार में आना लिखा है|

Saturday, 6 July 2019

हमारा भोजन .....

10 hrs
हमारा भोजन .....
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हम जो भी भोजन करते हैं वह हम स्वयं नहीं करते बल्कि वैश्वानर के रूप में स्थित परमात्मा को अर्पित करते हैं| हमारा हर आहार स्वयं भगवान ग्रहण कर रहे हैं, इसी भाव से खाना चाहिए, और वही खाना चाहिए जो भगवान को प्रिय है| गीता में भगवान कहते हैं .....
"अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः| प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम्||१५:१४||"
अर्थात् ... मैं ही समस्त प्राणियों के देह में स्थित वैश्वानर अग्निरूप होकर प्राण और अपान से युक्त चार प्रकार के अन्न को पचाता हूँ||
भगवान ही पेट में रहने वाले जठराग्नि होकर वैश्वानर के रूप में प्राण और अपान वायु से संयुक्त हुए (भक्ष्य, भोज्य, लेह्य और चोष्य) चार प्रकार के अन्नों को पचाते हैं| वैश्वानर अग्नि खानेवाला है और सोम खाया जानेवाला अन्न है| इस प्रकार देखनेवाला मनुष्य अन्नके दोषसे लिप्त नहीं होता| सार की बात यह है कि What so ever we eat, it is an offering to the Divine presence within.
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भोजन करना भी एक यज्ञ है जो परमात्मा को अर्पित है| परमात्मा ही हवि हैं, वे ही अग्नि हैं, वे ही आहुति हैं, और भोजन करना भी एक ब्रह्मकर्म है| गीता में भगवान कहते हैं ....
"ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्| ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना||४:२४||"
यानि अर्पण (अर्थात् अर्पण करने का साधन श्रुवा) ब्रह्म है और हवि (शाकल्य अथवा हवन करने योग्य द्रव्य) भी ब्रह्म है ब्रह्मरूप अग्नि में ब्रह्मरूप कर्ता के द्वारा जो हवन किया गया है वह भी ब्रह्म ही है| इस प्रकार ब्रह्मरूप कर्म में समाधिस्थ पुरुष का गन्तव्य भी ब्रह्म ही है||
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भगवान को अर्पित नहीं कर के इन्द्रियों की तृप्ति के लिए स्वयं खाने वाला चोर है, यह गीता में भगवान का कथन है ....
"इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः| तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः||३:१२||"
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अकेला खाने वाला पापी है और बिना भगवान को अर्पित किये कुछ भी खाना पाप है| बिना भगवान को अर्पित किये खाना पाप का भक्षण है| अति धन्य श्रुति भगवती कहती है ....
"मोघमन्नं विन्दते अप्रचेताः सत्यं ब्रवीमि वध इत्स तस्य |
नार्यमणं पुष्यति नो सखायं केवलाघो भवति केवलादी || (ऋग्वेदः सूक्तं १०.११७.६)
अर्थात् मन में दान की भावना न रखनेवाला व्यर्थ ही अन्न प्राप्त करता है| यह यथार्थ कहता हूँ ... इस प्रकार का भोजन उसकी मृत्यु ही है| वह न तो अर्यमा (पित्तरों के देवता) आदि देवों को पुष्ट करता है और न तो मित्र (वेदों में मित्र ही सर्वप्रधान आदित्य माने गए है) को ही| स्वयं भोजन करनेवाला केवल पापी होता है|
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मनु स्मृति कहती है .... "अघं स केवलं भुङ्क्ते यः पचत्यात्मकारणात् |"
{ मनुस्मृति ३ / ११८ }
अर्थात् जो देवता आदि को न देकर केवल अपने लिए अन्न पकाकर खाता है, वह केवल पाप खाता है|
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हे प्रभु, मैं तुम्हारी शरण में हूँ| तुम्हारे समान परम हितकारी कोई अन्य नहीं है| तुम्हारे से पृथक मेरा कोई अस्तित्व नहीं है| मुझे अपने साथ एक करो| Reveal Thyself unto me.
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
६ जुलाई २०१९

भगवान के लिए ही सारे कार्य करना .....

भगवान के लिए ही सारे कार्य करना .....
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मत्कर्मपरायणता यानी भगवान के लिए ही सारे कार्य करना, अपने आप में एक बहुत बड़ी साधना है| गीता में भगवान कहते हैं .....
"अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव| मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन् सिद्धिमवाप्स्यसि||१२:१०||"
अर्थात् यदि तूँ अभ्यासमें भी असमर्थ है तो मेरे लिये कर्म करने में तत्पर हो| अभ्यासके बिना केवल मेरे लिये कर्म करता हुआ भी तूँ परमसिद्धि प्राप्त कर लेगा|
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यदि कोई अभ्यास में भी असमर्थ हो तो मत्कर्म परायण बन कर यानि भगवान के लिये ही सारे कर्म करे|
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पर इस से भी बहुत अधिक ऊँची एक स्थिति है जहाँ साधक स्वयं निमित्तमात्र बनकर यानि भगवान का एक उपकरण बन कर भगवान को ही अपने माध्यम से कार्य करने दे| भगवान कहते हैं .....
"तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्वजित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम् |
मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् ||११:३३||"
अर्थात् .... इसलिए तुम उठ खड़े हो जाओ और यश को प्राप्त करो, शत्रुओं को जीतकर समृद्ध राज्य को भोगो| ये सब पहले से ही मेरे द्वारा मारे जा चुके हैं| हे सव्यसाचिन् तुम केवल निमित्त ही बनो||
(दोनों हाथों से धनुष चलाने में निष्णात होने के कारण अर्जुन सव्यसाची कहलाता है)

ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
५ जुलाई २०१९

भारत एक महाशक्ति बनेगा, चाहे इसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की हो .....

भारत एक महाशक्ति बनेगा, चाहे इसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की हो| यह एक चमत्कार से कम नहीं होगा| विश्व में अनेक चमत्कार हुए हैं| यहाँ मैं पिछले १५० वर्षों में ही हुए कुछ चमत्कारों की बात कर रहा हूँ|
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क्या किसी ने कभी कल्पना की थी कि १९०५ में जापान जैसा छोटा सा देश रूस जैसे विशाल शक्तिशाली देश को हराकर रूस से मंचूरिया छीन लेगा, त्सूशीमा जलडमरूमध्य में रूस की सारी विशाल नौसेना को डूबो देगा, और कोरिया व रूसी सुदूर-पूर्व पर अधिकार कर लेगा? यदि रूस नहीं हारता तो कोरिया भी रूस का ही एक भाग होता, जैसे मंचूरिया था|
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क्या किसी ने कभी कल्पना भी की थी कि अक्टूबर १९१७ में वोल्गा नदी में खड़े रूसी नौसेना के एक युद्धपोत "अरोरा" से आरम्भ हुआ एक नौसैनिक विद्रोह, बोल्शेविक क्रांति में परिवर्तित हो जाएगा और एक अति क्रूर साम्यवादी सता का सोवियत संघ के रूप में जन्म होगा ?
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ऐसे ही चीन में माओ का लॉन्ग मार्च माओ की लोकप्रियता से नहीं, बल्कि रूसी सेना की सहायता से सफल हुआ था| माओ सत्ता में रूस की सैनिक सहायता से आया, न कि अपनी लोकप्रियता से| इसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी| यह भी एक चमत्कार ही था|
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क्या किसी ने कभी कल्पना भी की थी कि सल्तनत-ए-उस्मानिया (Ottoman Empire) बिखर जायेगी और ख़िलाफ़त का अंत हो जाएगा| तुर्की में बुर्के व फैज़ टोपी पर और अरबी भाषा पर प्रतिबन्ध एक चमत्कार से कम नहीं था|
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क्या किसी ने कल्पना भी की थी कि अँगरेज़ लोग भारत के क्रांतिकारियों से, आज़ाद हिन्द फौज व नौसेना विद्रोह से डर कर, और भारतीय सैनिकों द्वारा अँगरेज़ अधिकारियों के आदेश न मानने से उत्पन्न हुई परिस्थिति से डर कर भारत छोड़ने को विवश हो जायेंगे? यह भी एक चमत्कार ही था| अँगरेज़ लोग भारत में अहिंसा व चरखे से डर कर नहीं गए थे| वे भारतीय सिपाहियों द्वारा अँगरेज़ अधिकारियों के आदेश नहीं मानने के कारण उत्पन्न हुई परिस्थिति से डर कर गए थे|
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क्या कभी किसी ने कल्पना भी की थी कि सोवियत संघ टूट कर बिखर जाएगा? यदि अफगानिस्तान में सोवियत सेनाएँ, अमेरिका के मानस पुत्रों .... तालिबान व छद्म वेश में लड़ रहे पाकिस्तानियों से नहीं हारतीं तो सोवियत संघ कभी नहीं बिखरता| मैं तत्कालीन पूरी परिस्थितियों से अवगत हूँ, इसलिए ऐसा लिख रहा हूँ| सोवियत संघ मुख्यतः अमेरिका की सफल कूटनीति से बिखरा था, न कि अन्य किसी कारण से|
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भारत में कांग्रेस की पराजय और भाजपा का सत्ता में आना भी एक चमत्कार था| भारत में ऐसे ही कई चमत्कार होंगे और भारत अंततः एक आध्यात्मिक राष्ट्र होगा| भारत में छायी हुई असत्य और अन्धकार की शक्तियाँ पराभूत होंगी| ॐ तत्सत् !!
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कृपा शंकर
४ जुलाई २०१९

भगवान श्रीकृष्ण परम परात्पर परमेष्ठी आत्मगुरु विश्वगुरु और साक्षात् पारब्रह्म हैं ....

भगवान श्रीकृष्ण परम परात्पर परमेष्ठी आत्मगुरु विश्वगुरु और साक्षात् पारब्रह्म हैं ....
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गुरु आदेशानुसार यह जीवात्मा परमात्मा की विराट अनंतता का ध्यान कूटस्थ में ज्योतिर्मयब्रह्म और नादश्रवण के रूप में परमशिव की ही करती है| आकाश-तत्व और प्राण-तत्व सदा चेतना में रहते हैं| सारे संशयों का निवारण गुरुकृपा से भगवद्गीता के माध्यम से ही हुआ है| पर साकार रूप में जो भी छवि परमात्मा की मेरे समक्ष आती है वह बिल्कुल जीवंत भगवान श्रीकृष्ण की ही आती है| जब जीवन में कभी निराशा आती है, तब भगवान श्रीकृष्ण के ये वचन ध्यान में आते हैं...
"क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते| क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप||२:३||"
अर्थात् "हे पार्थ, क्लीव (कायर) मत बनो| यह तुम्हारे लिये अशोभनीय है| हे परंतप, हृदय की क्षुद्र दुर्बलता को त्यागकर खड़े हो जाओ||"
ये शब्द जीवन में एक नए उत्साह का संचार कर देते हैं| यही भगवान श्रीकृष्ण की शिक्षाओं का सार है|
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"वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूरमर्दनं| देवकी परमानंदं कृष्णं वंदे जगद्गुरुं||"
"वंशी विभूषित करान्नवनीर दाभात् , पीताम्बरा दरुण बिंब फला धरोष्ठात् |
पूर्णेन्दु सुन्दर मुखादरविंद नेत्रात् , कृष्णात परम किमपि तत्वमहंनजाने ||"
"कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने| प्रणत: क्लेशनाशाय गोविंदाय नमो नम:||"
"नमो ब्रह्मण्य देवाय गोब्राह्मण हिताय च| जगत् हिताय कृष्णाय गोविन्दाय नमो नमः||"
"मूकं करोति वाचालं पंगुं लंघयते गिरिम्| यत्कृपा तमहं वन्दे परमानन्दमाधवम्||"
"हरे मुरारे मधुकैटभारे, गोविन्द गोपाल मुकुंद माधव |
यज्ञेश नारायण कृष्ण विष्णु, निराश्रयं मां जगदीश रक्षः ||"
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ॐ तत्सत ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय || ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
४ जुलाई २०१९

परमात्मा के अतिरिक्त संसार में अन्य कुछ भी प्राप्त करने योग्य नहीं है ....

घर, परिवार व समाज का वातावरण यदि नकारात्मक हो तो आध्यात्मिक साधक को उन्हें तुरंत त्याग कर एकांत में ही साधना करनी चाहिए| संसार से कुछ भी अपेक्षा, आसक्ति और स्पृहा अति निराशाजनक व दुःखदायी है| संसार हमें आनन्द का प्रलोभन देकर कष्ट और पीड़ाएँ ही देता है|
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परमात्मा इसी क्षण यहीं हैं और नित्य हैं, उनके प्रति श्रद्धा, विश्वास, परमप्रेम और अभीप्सा हो तो आगे के सारे द्वार स्वतः ही खुल जाते हैं; कहीं अन्धकार नहीं रहता| सर्वप्रथम हम परमात्मा को प्राप्त करें| कूटस्थ में परमात्मा की उपस्थिति गहनतम प्रेम के साथ हो| अन्य कोई भी आसक्ति व स्पृहा न रहे| परमात्मा के अतिरिक्त संसार में अन्य कुछ भी प्राप्त करने योग्य नहीं है| परमात्मा मिल गए तो सब कुछ मिल गया|
कृपा शंकर
१७ जून २०१९

जिसमें कर्ताभाव नहीं है... ऐसा व्यक्ति यदि पूरे संसार को भी नष्ट कर दे यानि मार दे, तो भी उसे कोई पाप नहीं लगता .....

जिसकी चेतना परमात्मा में है, जिसकी कोई आसक्ति नहीं है, जो विगतस्पृह है, , ...जिसमें कर्ताभाव नहीं है... ऐसा व्यक्ति यदि पूरे संसार को भी नष्ट कर दे यानि मार दे, तो भी उसे कोई पाप नहीं लगता .....
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(१) गीता में भगवान कहते हैं .....
"असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः| नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां संन्यासेनाधिगच्छति||१८:४९||"
जो सर्वत्र असक्तबुद्धि है, जो जितात्मा है (जिसका आत्मा यानी अन्तःकरण जीता हुआ है), जो स्पृहारहित है सब कर्मोंको मनसे छोड़कर न करता हुआ और न करवाता हुआ रहता है|
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(२) भगवान कहते हैं ....
"ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः| लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा||५:१०||"
जो पुरुष सब कर्म ब्रह्म में अर्पण करके और आसक्ति को त्यागकर करता है वह पुरुष कमल के पत्ते के सदृश पाप से लिप्त नहीं होता||
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(३) भगवान कहते हैं ....
"यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते| हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते||18.17||"
अर्थात् जिस पुरुष में अहंकार का भाव नहीं है और बुद्धि किसी (गुण दोष) से लिप्त नहीं होती, वह पुरुष इन सब लोकों को मारकर भी वास्तव में न मरता है और न (पाप से) बँधता है||
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ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१७ जून २०१९

एक बहुत पुरानी स्मृति .....

एक बहुत पुरानी स्मृति .....
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पूर्व सोवियत संघ के वे ५ गणराज्य जो मध्य एशिया में हैं, और जहाँ सुन्नी इस्लाम का पूरा प्रभाव था .... काज़ाख़स्तान, किरगिज़स्तान, ताजिकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान और उज़बेकिस्तान, ..... व वर्तमान रूस में ही स्थित एक छोटा सा अर्ध-स्वशासित गणराज्य तातारस्तान ..... वहाँ के लोगों में मैनें यह पाया है कि उन में भारत के बारे में जानने की बहुत अधिक जिज्ञासा है| ५२ वर्ष पूर्व मैनें रूसी भाषा जिस अध्यापिका से सीखी थी वह एक तातार सुन्नी मुसलमान महिला थी जो बाद में कम्युनिष्ट हो गयी| बहुत ही दयालू और अच्छे स्वभाव की महिला थी जिसने जी-जान लगाकर पूर्ण मनोयोग से मुझे ही नहीं, अनेक भारतीयों को रूसी भाषा सिखाई| मेरा रूस व युक्रेन में कई तातार मुसलमान परिवारों से व मध्य एशिया के कई लोगों से मिलना हुआ है| वहाँ की कई लड़कियाँ हिंदी और भारतीय नृत्य भी सीखती हैं| उस क्षेत्र के अधिकाँश लोग सुन्नी मुसलमान हैं जिनकी रूचि अब अपने मत से लगभग समाप्त ही होती जा रही है| वहाँ की भाषा तुर्क भाषा से मिलती जुलती है पर सभी को रूसी आती है| तातारस्तान की राजधानी का नाम काज़ान है जो वोल्गा और काज़ानका नदियों के संगम पर स्थित है| रूस में दो-तीन और भी मुस्लिम बहुल क्षेत्र हैं जिनके बारे में मुझे अधिक जानकारी नहीं है|
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भारत में आक्रमणकारी लुटेरा बाबर उज्बेकिस्तान से आया था| उज्बेकिस्तान के कई प्रसिद्ध नगर .... बुखारा, समरकंद, व ताशकंद .... भारत के मुग़ल काल में भारत में लूटे हुए धन से बहुत अधिक समृद्ध हो गए थे|
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युक्रेन के ओडेसा नगर में मुझे एक बार एक अति विदुषी तातार मुस्लिम बृद्धा महिला ने अपने घर पर निमंत्रित किया| वे वास्तव में बड़ी विदुषी थीं| कई भाषाओं पर उनका जबरदस्त अधिकार था| वे एक राजनीतिक बंदी के रूप में चीन की जेलों में दस वर्षों तक रह चुकी थीं| उन्होंने मुझ से भारत के बारे में, और हिन्दू धर्म के बारे में अनेक प्रश्न पूछे| जितना मैं बता सकता था उतना उन्हें बताया| उनकी इच्छा ज्योतिष के बारे में भी जानने को थी पर ज्योतिष का मुझे कोई ज्ञान नहीं था| उन्होंने मुझे बताया कि पूरे मध्य एशिया में इस्लाम से पूर्व बौद्ध धर्म था| बौद्ध धर्म मध्य एशिया से भी परे तक था| बाद में मुसलमानों ने उस क्षेत्र को जीतकर सबको मुसलमान बना दिया|
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बाद में कभी उस क्षेत्र में जाने का काम नहीं पड़ा| अब तो कहीं जाने की इच्छा ही समाप्त हो गयी है|

हमारा लक्ष्य .....

हमारा लक्ष्य .....
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परमात्मा सदा मौन है| यही उसका स्वभाव है| परमात्मा ने कभी अपना नाम नहीं बताया| उसके सारे नाम ज्ञानियों व् भक्तों के रचे हुए हैं| यह परमात्मा का स्वभाव है जो हमारा भी स्वभाव होना चाहिए| मौन ही सत्य और सबसे बड़ी तपस्या है| जो मौन की भाषा समझता है और जिसने मौन को साध लिया वह ही मुनि है| वास्तव में परमात्मा अपरिभाष्य और अचिन्त्य है| उसके बारे में जो कुछ भी कहेंगे वह सत्य नहीं होगा| सिर्फ श्रुतियाँ ही प्रमाण है, बाकि सब अनुमान| सबसे बड़ा प्रमाण तो आत्म-साक्षात्कार है| जब मनुष्य की ऊर्ध्व चेतना जागृत होती है तब उसे स्पष्ट ज्ञान हो जाता है कि संसार की सबसे बड़ी उपलब्धि कामनाओं पर विजय है| पूर्ण निष्काम भाव मनुष्य का देवत्व है|
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सीमित व अशांत मन ही सारे प्रश्नों को जन्म देता है| जब मन शांत व विस्तृत होता है तब सारे प्रश्न तिरोहित हो जाते हैं| चंचल प्राण ही मन है| प्राणों में जितनी स्थिरता आती है, मन उतना ही शांत और विस्तृत होता है| प्राणों में स्थिरता आती है प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा और ध्यान से| अशांत चित्त ही वासनाओं को जन्म देता है| अहंकार एक अज्ञान है| ह्रदय में भक्ति (परम प्रेम) और शिवत्व की अभीप्सा आवश्यक है| शिवत्व एक अनुभूति है| उस अनुभूति को उपलब्ध होकर हम स्वयं भी शिव बन जाते हैं| शिव है जो सब का कल्याण करे| हमारा भी अस्तित्व समष्टि के लिए वरदान होगा| हमारा अस्तित्व भी सब का कल्याण ही करेगा| हम उस शिवत्व को प्राप्त हों| ॐ तत्सत् !
कृपाशंकर
१६ जून २०१९

'योग' क्या है ? .....

'योग' क्या है ? .....
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भगवान श्रीकृष्ण के मुख से निकली हुई पूरी भगवद्गीता ही "योग" का सर्वश्रेष्ठ प्रामाणिक ग्रन्थ है| उनसे पूर्व 'कृष्ण यजुर्वेद' के श्वेताश्वतर उपनिषद में योग साधनाओं का विस्तृत वर्णन है| उपनिषद समाधि भाषा में हैं जिन्हें कोई सिद्ध ब्रह्मनिष्ठ श्रौत्रीय आचार्य ही समझा सकता है| अतः सामान्य जन के लिए भगवद्गीता ही श्रेष्ठ है| गीता में भगवान कहते हैं .....
"तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः| कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन||६:४६||"
भावार्थ :--- क्योंकि योगी तपस्वियों से श्रेष्ठ है और (केवल शास्त्र के) ज्ञान वालों से भी श्रेष्ठ माना गया है तथा कर्म करने वालों से भी योगी श्रेष्ठ है इसलिए हे अर्जुन तुम योगी बनो||
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यहाँ यह जानना आवश्यक है कि योग क्या है| अधिकाँश लोग हठयोग को ही योग समझते हैं, पर गीता के अनुसार इसका क्या अर्थ है, यह हमें समझना चाहिए| गीता में भगवान कहते हैं....
"योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय| सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते||२:४८||"
अर्थात् हे धनंजय आसक्ति को त्याग कर तथा सिद्धि और असिद्धि में समभाव होकर योग में स्थित हुये तुम कर्म करो| यह समभाव ही योग कहलाता है||
गीता के अनुसार 'समत्व' ही योग है| समत्व में अधिष्ठित होना ही समाधि है|
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हमें जीवन का हर कार्य केवल ईश्वर के लिये करना चाहिए| यह भावना भी नहीं होनी चाहिए कि "ईश्वर मुझपर प्रसन्न हों"| इस आशारूप आसक्ति को भी छोड़ कर, फलतृष्णारहित कर्म किये जाने पर अन्तःकरण की शुद्धि से उत्पन्न होने वाली ज्ञानप्राप्ति तो सिद्धि है, और उससे विपरीत (ज्ञानप्राप्ति का न होना) असिद्धि है| ऐसी सिद्धि और असिद्धि में भी सम होकर, अर्थात् दोनोंको तुल्य समझकर कर्म करना चाहिए| यही जो सिद्धि और असिद्धि में समत्व है इसीको योग कहते हैं।
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योगसुत्रों में ऋषि पतंजलि कहते हैं .... "योगश्चित्त वृत्ति निरोधः"|| उन्होंने चित्तवृत्तियों के निरोध को योग बताया है| चित्त तो अंतःकरण का ही एक भाग है| चित्त क्या है, इसे समझना पड़ेगा| चित्त स्वयं को दो रूपों .... वासनाओं व श्वाश-प्रश्वाश के रूप में व्यक्त करता है| वासनाएँ तो अति सूक्ष्म हैं जो पकड़ में नहीं आतीं| अतः आरम्भ में गुरु-प्रदत्त बीज मन्त्रों के साथ श्वाश पर ध्यान किया जाता है| इससे मेरुदंड में प्राण शक्ति का आभास होता है जिसकी चंचलता शनैः शनैः शांत होने से वासनाओं पर नियंत्रण होता है| सूक्ष्म शक्तियों का जब जागरण होता है तब आचार-विचार में पवित्रता बड़ी आवश्यक है, अन्यथा लाभ की अपेक्षा हानि होती है| इसीलिये यम और नियम योग साधना के भाग हैं| इस मार्ग पर साधक गुरुकृपा से अग्रसर होता ही रहता है| पर पर चित्तवृत्ति निरोध वाला अष्टांग योग एक साधन ही है, साध्य नहीं| साध्य तो परमशिवभाव यानि परमशिव हैं|
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तंत्र शास्त्रों के अनुसार योग साधना का उद्देश्य है --- परम शिवभाव को प्राप्त करना ..... जिसकी सिद्धि अपनी सूक्ष्म देह में अवस्थित कुण्डलिनी महाशक्ति यानि घनीभूत प्राण-चेतना को जागृत कर उसको परम शिव से एकाकार करना है|
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योगी वही हो सकता जो स्वभाव से ही योगी हो| सिद्ध योगी गुरु की कृपा के बिना कभी कोई योगी नहीं बन सकता है| वास्तविक आध्यात्मिक जीवन को पाने के लिए हरेक साधक को हर क्षण गुरु प्रदत्त साधना के सहारे जीना आवश्यक है| जब एक बार स्वभाव में योग साधना बस जाये तब गुरुशक्ति ही साधक को साधना के चरम उत्कर्ष पर पहुँच देती है| इसके लिए आवश्यक है गुरु पर अटल विश्वाश और पूर्ण आत्मसमर्पण| सबसे बड़ी चीज है "भगवान से परमप्रेम यानि भक्ति"| भगवान की कृपा हो जाए तो और कुछ भी नहीं चाहिए|
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"वसुदेव सुतं देवं, कंस चाणूर मर्दनं| देवकी परमानन्दं, कृष्णं वन्दे जगत्गुरुम्||"
"वंशीविभूषितकरान्नवनीरदाभात् | पीताम्बरादरुणबिम्बफलाधरोष्ठात् || पूर्णेन्दुसुन्दरमुखादरविन्दनेत्रात् | कृष्णात्परं किमपि तत्त्वमहं न जाने ||"
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१५ जून २०१९

हिंदुत्व क्या है और हिन्दू कौन है ? .....

हिंदुत्व क्या है और हिन्दू कौन है ? .....
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सौभाग्य से इस विषय पर मुझे बड़े बड़े स्वनामधन्य विचारक मनीषियों के विचार पढ़ने को मिले हैं| मेरा स्वतंत्र चिंतन भी है| अब तक के जीवन में जो भी स्वाध्याय किया है और जो भी अनुभव प्राप्त किये हैं, उनके आधार पर मैं निश्चित तौर पर कह सकता हूँ कि हिंदुत्व के चार आधार हैं....
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(१) परमात्मा से अहैतुकी परमप्रेम (Total and Unconditional love of the Divine).
(२) आत्मा की शाश्वतता.
(३) कर्मफलों का सिद्धांत.
(४) पुनर्जन्म.
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उपरोक्त चार सिद्धांत ही हिंदुत्व के प्राण हैं|
अन्य भी कुछ सिद्धांत हैं पर वे परमात्मा के परमप्रेम में ही समाहित हो जाते हैं|
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सामान्यतः भारतवर्ष को अपनी पुण्यभूमि और पितृभूमि मानने को ही हिंदुत्व कहते हैं| पर विश्व की वर्तमान परिस्थितियों में हिंदुत्व को खंडित व सिकुड़े हुए भारत तक ही सीमित नहीं कर सकते| हिंदुत्व एक जीवन पद्धति है, कोई व्यवस्थित औपचारिक पंथ, मत, मज़हब या Religion नहीं|
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आज के परिप्रेक्ष्य में विश्व का वह हर व्यक्ति हिन्दू है जिसे परमात्मा से परमप्रेम है, और जो आत्मा की शाश्वतता, कर्मफल और पुनर्जन्म को मानता है|
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आप सब निजात्मगण, परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्तियाँ हैं, आप सब को नमन ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१४ जून २०१९

गीता के अनुसार क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म .....

गीता के अनुसार क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म .....
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गीता में भगवान कहते हैं .....
"शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्| दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम्||१८:४३||"
अर्थात् शौर्य, तेज, धृति, दाक्ष्य (दक्षता), युद्ध से पलायन न करना, दान और ईश्वर भाव (स्वामी भाव) ये सब क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं|
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क्षत्रिय को क्षत्रिय इसलिये कहते हैं .... "क्षतात् त्रायत इति" कहीं भी किसी की क्षति हो रही तो वह उसे बचाता है| क्षत्रिय की स्वाभाविक प्रवृत्ति सदा दूसरे की रक्षा के लिये ही है|
"शौर्य" का अर्थ है .....चाहे जितना शक्तिशाली विरोधी हो, बिना घबराये उसके साथ युद्ध करने की तत्परता "शूरवीरता" है, केवल लड़ाई करना मात्र नहीं| जिसमें शूरवीरता नहीं है, वह क्षत्रिय नहीं हो सकता|
"तेज" अर्थात् प्रगल्भता, किसी भी परिस्थिति में दूसरे से पराभूत नहीं होना, यानि दूसरे से दबना नहीं|
"धृति" यानी धैर्य, यानि कभी भी उदास नहीं होना|
"दाक्ष्यम्" यानि दक्षता|
"युद्धे चाप्यपलायनं" .... युद्ध से कभी भागना नहीं|
"दानम्," यानि दान देने में मुक्तहस्तता|
"ईश्वरभावः" ..... जो अधर्म का आचरण करते हैं उनको दण्ड देते समय अपनी प्रभुता को प्रकट करना, अर्थात् दण्ड देने में कभी पीछे नहीं हटना| जिनके ऊपर शासन करना है उन्हें अपराध करने पर दण्ड देना ईश्वरभाव है| जैसे भगवान पापियों को पाप का दण्ड देते हैं, पुण्यात्मा को पुण्य का पुरस्कार देते हैं इसी प्रकार ईश्वर का भाव होने के कारण जो क्षत्रिय होता है वह अधर्माचरण करने वाले को दण्ड देता ही है|
ये क्षत्रिय जाति के स्वभावज कर्म हैं|
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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१३ जून २०१९

ब्राह्मण कौन ? ....

. ब्राह्मण कौन ?
ब्राह्मण वह है जो अपने स्वाभाविक कर्मों में रत है| मनुस्मृति में मनु महाराज ने ब्राह्मणों के तीन स्वाभाविक कर्म बताए हैं, वहीं गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने ब्राह्मणों के नौ स्वाभाविक कर्म बताये हैं|
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भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं .....
"शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च | ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ||१८:४२||
अर्थात् शम? दम? तप? शौच? क्षान्ति? आर्जव? ज्ञान? विज्ञान और आस्तिक्य ये ब्राह्मण के स्वभाविक कर्म हैं||
और भी सरल शब्दों में ब्राह्मण के स्वभाविक कर्म हैं ..... मनोनियन्त्रण, इन्द्रियनियन्त्रण, शरिरादि के तप, बाहर-भीतर की सफाई, क्षमा, सीधापन यानि सरलता, शास्त्र का ज्ञान और शास्त्र पर श्रद्धा|
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मनु महाराज ने ब्राह्मण के तीन कर्म बताए हैं ....."वेदाभ्यासे शमे चैव आत्मज्ञाने च यत्नवान्"| अर्थात अन्य सारे कर्मों को छोड़कर भी वेदाभ्यास, शम और आत्मज्ञान के लिए निरंतर यत्न करता रहे|
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इनके अतिरिक्त ब्राह्मण के षटकर्म भी हैं, जो उसकी आजीविका के लिए हैं| पर यहाँ हम उन स्वभाविक कर्मों पर ही विचार कर रहे हैं जो भगवान श्रीकृष्ण ने और मनु महाराज ने कहे हैं|
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ब्राह्मण के लिए संध्या और गायत्री मन्त्र का जप भी अनिवार्य है| संधिकाल में की गयी साधना को संध्या कहते हैं| चार मुख्य संधिकाल हैं..... प्रातः, सायं, मध्याह्न और मध्यरात्रि| पर भक्तों के लिए दो साँसों के मध्य का संधिकाल सर्वाधिक महत्वपूर्ण है| हर सांस के साथ आत्म-तत्व का अनुसंधान होना चाहिए| इसे हंस-गायत्री और अजपा-जप भी कहते हैं| ब्राह्मण के लिए गायत्रीमंत्र की कम से कम दस आवृतियाँ अनिवार्य हैं|
*****जो ब्राह्मण दिन में एक बार भी गायत्रीमंत्र का पाठ नहीं करता उसका ब्राह्मणत्व से उसी समय पतन हो जाता है और वह शुद्र हो जाता है|*****
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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१३ जून २०१९
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(पुनश्चः :-- यह एक संक्षिप्त लेख है जिसमें कम से कम शब्दों में अपने भावों को व्यक्त किया है)

प्रत्येक सूर्योदय परमात्मा की ओर से एक सन्देश है .....

प्रत्येक सूर्योदय परमात्मा की ओर से एक सन्देश है .....
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प्रत्येक सूर्योदय परमात्मा की ओर से एक सन्देश है, और प्रत्येक सूर्यास्त परमात्मा का हस्ताक्षर है| ब्रह्ममुहूर्त में जगन्माता की गोद से उठकर अपने दिन का आरम्भ परमात्मा के गहनतम ध्यान से करें| पूरे दिन परमात्मा की स्मृति बनाए रखें| जब भी समय मिले परमात्मा का ध्यान करें| रात्री को सोने से पूर्व पुनश्चः परमात्मा का गहनतम ध्यान कर के जगन्माता की गोद में ही निश्चिन्त होकर एक छोटे बालक की तरह सो जाएँ| हम बिस्तर पर नहीं, माँ भगवती की गोद में सोते हैं, सिर के नीचे कोई तकिया नहीं, माँ भगवती का वरद हस्त होता है| जिसने सारी सृष्टि का भार उठा रखा है वह हम अकिंचन की देखभाल करने में समर्थ है| सारी चिंताएँ उन्हें सौंप दें| एकमात्र कर्ता वे ही हैं|
गीता में भगवान कहते हैं ....
"अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते| तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्||९:२२||
अर्थात् "अनन्य भाव से मेरा चिन्तन करते हुए जो भक्तजन मेरी ही उपासना करते हैं, उन नित्ययुक्त पुरुषों का योगक्षेम मैं वहन करता हूँ||"
इस से बड़ा आश्वासन और क्या हो सकता है?
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उन्हें हृदय के गहनतम भावों से नमन है .....
"वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च|
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते||११:३९||"
"नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व|
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः||११:४०||
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भजन .....
मैं नहीं, मेरा नहीं, यह तन किसी का है दिया।
जो भी अपने पास है, वह धन किसी का है दिया।
देने वाले ने दिया, वह भी दिया किस शान से।
"मेरा है" यह लेने वाला, कह उठा अभिमान से
"मैं", ‘मेरा’ यह कहने वाला, मन किसी का है दिया।
मैं नहीं......
जो मिला है वह हमेशा, पास रह सकता नहीं।
कब बिछुड़ जाये यह कोई, राज कह सकता नहीं।
जिन्दगानी का खिला, मधुवन किसी का है दिया।
मैं नहीं......
जग की सेवा खोज अपनी, प्रीति उनसे कीजिये।
जिन्दगी का राज है, यह जानकर जी लीजिये।
साधना की राह पर, यह साधन किसी का है दिया।
जो भी अपने पास है, वह सब किसी का है दिया।
मैं नहीं......
(प्रचलित भजन)
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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१२ जून २०१९