मेरी कमी और विफलता .....
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अगर मुझ में कोई कमी है व मेरी कोई विफलता है तो मुझे वह छिपानी नहीं चाहिए| उस को छिपाना स्वयं को धोखा देना है| मैं भक्ति और आध्यात्म के ऊपर लिखता हूँ, बड़ी बड़ी बातें करता हूँ, पर उसकी कितनी पात्रता मुझमें है, इसका भी विचार मुझे करना चाहिए| मैं अगर अपनी कमियों व विफलताओं का विश्लेषण करूँ तो मेरी सबसे बड़ी विफलता और सबसे बड़ी कमी यह है ...... " मेरी भक्ति अभी भी व्यभिचारिणी है, और अनन्य भक्ति की प्राप्ति मुझे अभी तक नहीं हुई है|"
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भक्ति जब अव्यभिचारिणी और अनन्य हो जाए तभी भगवान उपलब्ध होते हैं| गीता के तेरहवें अध्याय के ग्यारहवें श्लोक में भगवान ने अव्यभिचारिणी भक्ति का उल्लेख किया है| अनेक स्वनामधन्य आचार्यों ने इसके ऊपर भाष्य लिखे हैं| पर भगवान की कृपा से जो मुझे समझ में आया है वह ही यहाँ लिख रहा हूँ|
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भगवान के सिवाय अन्य कहीं भी किसी से भी कोई अनुराग है तो वह भक्ति व्यभिचारिणी है| भगवान के सिवाय हमें अन्य किसी की भावना होनी ही नहीं चाहिए| दूसरी बात यह है कि भगवान से प्रेम करते करते जब पृथकता न रहे, पूर्ण एकत्व हो जाए, व किसी अन्य का कोई बोध ही न रहे तब वह भक्ति अनन्य भक्ति होती है|
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जब तक भक्ति अनन्य व अव्यभिचारिणी न हो तब तक मुझे सब प्रपंचों से दूर असम्बद्ध ,अप्रतिबद्ध, निःसंग और पूर्ण निष्ठापूर्वक अपनी गुरु प्रदत्त उपासना करनी चाहिए| भगवान के प्रति पूर्ण समर्पण के अतरिक्त अन्य कोई लक्ष्य न हो| किसी भी तरह का कोई अहंकार न हो|
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अतः स्वयं को व्यवस्थित करने के लिए वाणी व मन के मौन का अभ्यास व खूब ध्यान साधना करनी चाहिए| वास्तव में कर्ता तो स्वयं भगवान हैं, मैं तो निमित्त मात्र हूँ| पर भगवान को मुझ में प्रवाहित होने का अवसर तो मुझे देना ही पड़ेगा|
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आप सब महान दिव्यात्माओं को नमन ! आप सब परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ साकार अभिव्यक्तियाँ हो| आप सब के हृदय में भगवान नारायण प्रत्यक्ष बिराजमान हैं|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
७ जून २०१८
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अगर मुझ में कोई कमी है व मेरी कोई विफलता है तो मुझे वह छिपानी नहीं चाहिए| उस को छिपाना स्वयं को धोखा देना है| मैं भक्ति और आध्यात्म के ऊपर लिखता हूँ, बड़ी बड़ी बातें करता हूँ, पर उसकी कितनी पात्रता मुझमें है, इसका भी विचार मुझे करना चाहिए| मैं अगर अपनी कमियों व विफलताओं का विश्लेषण करूँ तो मेरी सबसे बड़ी विफलता और सबसे बड़ी कमी यह है ...... " मेरी भक्ति अभी भी व्यभिचारिणी है, और अनन्य भक्ति की प्राप्ति मुझे अभी तक नहीं हुई है|"
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भक्ति जब अव्यभिचारिणी और अनन्य हो जाए तभी भगवान उपलब्ध होते हैं| गीता के तेरहवें अध्याय के ग्यारहवें श्लोक में भगवान ने अव्यभिचारिणी भक्ति का उल्लेख किया है| अनेक स्वनामधन्य आचार्यों ने इसके ऊपर भाष्य लिखे हैं| पर भगवान की कृपा से जो मुझे समझ में आया है वह ही यहाँ लिख रहा हूँ|
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भगवान के सिवाय अन्य कहीं भी किसी से भी कोई अनुराग है तो वह भक्ति व्यभिचारिणी है| भगवान के सिवाय हमें अन्य किसी की भावना होनी ही नहीं चाहिए| दूसरी बात यह है कि भगवान से प्रेम करते करते जब पृथकता न रहे, पूर्ण एकत्व हो जाए, व किसी अन्य का कोई बोध ही न रहे तब वह भक्ति अनन्य भक्ति होती है|
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जब तक भक्ति अनन्य व अव्यभिचारिणी न हो तब तक मुझे सब प्रपंचों से दूर असम्बद्ध ,अप्रतिबद्ध, निःसंग और पूर्ण निष्ठापूर्वक अपनी गुरु प्रदत्त उपासना करनी चाहिए| भगवान के प्रति पूर्ण समर्पण के अतरिक्त अन्य कोई लक्ष्य न हो| किसी भी तरह का कोई अहंकार न हो|
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अतः स्वयं को व्यवस्थित करने के लिए वाणी व मन के मौन का अभ्यास व खूब ध्यान साधना करनी चाहिए| वास्तव में कर्ता तो स्वयं भगवान हैं, मैं तो निमित्त मात्र हूँ| पर भगवान को मुझ में प्रवाहित होने का अवसर तो मुझे देना ही पड़ेगा|
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आप सब महान दिव्यात्माओं को नमन ! आप सब परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ साकार अभिव्यक्तियाँ हो| आप सब के हृदय में भगवान नारायण प्रत्यक्ष बिराजमान हैं|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
७ जून २०१८
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