Tuesday, 19 June 2018

साधनाकाल की अनुभूतियों को वहीं विसर्जित कर देना चाहिए .....

साधनाकाल की अनुभूतियों को वहीं विसर्जित कर देना चाहिए, वे एक मील के पत्थर की तरह ही होती हैं जो पीछे छूटती जाती हैं, उन के बारे में सोचना ही नहीं चाहिए, अन्यथा आगे की सारी प्रगति रुक जाती है|
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लगभग चालीस-पैंतालिस वर्ष पूर्व गणेशपुरी के स्वामी मुक्तानंद जी की लिखी एक पुस्तक "चित्तशक्तिविलास" पढी थी| उस जमाने में वह पुस्तक बहुत अधिक लोकप्रिय हुई थी| उसमें उन्होंने अपने कुछ दिव्य अनुभव लिखे थे जो एक नए साधक के लिए बड़े प्रेरणादायक होते हैं| मेरे भी मानस में भी कुछ अनुभव लेने की इच्छा जागृत हुई जो सही नहीं थी| कुछ वर्षों बाद मुझे परमहंस योगानंद की पुस्तक "Autobiography of a Yogi" पढने को मिली| उस पुस्तक को पढने मात्र से ही मुझे बड़ी दिव्य और विचित्र अनुभूतियाँ हुईं| फिर साधना काल में ही अनेक विचित्र अनुभूतियाँ होने लगीं| मैंने उत्सुकतावश उन अनुभवों के बारे में एक-दो बार किसी से चर्चा कर ली जो नहीं करनी चाहिए थीं| फिर वे अनुभूतियाँ होनी ही बंद हो गईं| मुझे ध्यान में ही किसी अदृश्य शक्ति ने कड़ी चेतावनी दे दी थी किसी से भी चर्चा न करने के लिए| अब अनेक अनुभूतियाँ होती है जिनका मेरे लिए कोई महत्त्व नहीं रहा है| एक स्वप्न की तरह ही उनकी उपेक्षा कर दी जाती है|
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आध्यात्मिक अनुभूतियाँ ..... दिव्य ज्योति, दिव्य दृश्य, दिव्य ध्वनि व दिव्य स्पंदन जैसे आनंद की अनुभूतियों आदि के रूप में आती हैं| आनंद की अनुभूतियों को तो पकड़ के रखना चाहिए, बाकि सब की उपेक्षा कर देनी चाहिए| इस से कोई भटकाव नहीं होगा|
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हमारा लक्ष्य परमात्मा है, न कि कोई छोटे-मोटे अनुभव| सभी को शुभ कामनाएँ और नमन ! 

ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१८ जून २०१८

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