Monday, 6 January 2025

कूटस्थ हृदय में परमात्मा की निरंतर उपस्थिति ही जीवन का सार है, अन्यथा जीवन नर्क है ---

कूटस्थ हृदय में परमात्मा की निरंतर उपस्थिति ही जीवन का सार है, अन्यथा जीवन नर्क है। सर्वप्रथम परमात्मा में स्थायी रूप से स्थित हो जाओ, फिर कुछ और। घर-परिवार व समाज में जिन को हम पूजनीय मान कर पूर्ण सम्मान करते हैं, उन का ही इतना अधिक लोभ और अहंकार देखकर समाज से विरक्ति होती है। स्वयं की कमियों के कारण ही प्रारब्ध कर्मों से बंधे हुए हैं, अन्यथा यह समाज एक क्षण के लिए भी रहने योग्य नहीं है।
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वीतरागता और स्थितप्रज्ञता -- ये सर्वोच्च मानवीय गुण हैं। (गीता के दूसरे अध्याय के ५५वें से लेकर ७२वें तक के श्लोकों का स्वाध्याय करें) इन के पश्चात ही आगे का मार्ग प्रशस्त होता है। परमात्मा की प्राप्ति के लिए कितने भी जन्म लेने पड़ें, वे सभी कम हैं। हे प्रभु, आप ही मेरे एकमात्र हितैषी हैं। यह जीवन सिर्फ आप को ही समर्पित है।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
७ जनवरी २०२२

1 comment:

  1. समाज में मनुष्य का लोभ और अहंकार बहुत गहराई से, और बहुत अधिक व्याप्त है| इसी कारण मुझे समाज से विरक्ति है| कमियाँ मुझ में भी बहुत हैं, इसीलिए अपने प्रारब्ध कर्मों से बंधा हुआ हूँ; अन्यथा एक क्षण भी समाज में नहीं रहना चाहता| यह लोभ और अहंकार उन लोगों में भी दुर्भाग्य से है जिनमें यह नहीं होना चाहिए|
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    आध्यात्म में वीतरागता और स्थितप्रज्ञता -- ये आवश्यक सिद्धियाँ हैं जिन्हें प्राप्त करना ही पड़ता है (गीता के दूसरे अध्याय के ५५वें से लेकर ७२वें तक के श्लोकों का स्वाध्याय करें)| इस के पश्चात ही आगे का मार्ग प्रशस्त होता है| जीवन -- कभी समाप्त न होने वाली एक सतत् प्रक्रिया है| इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म में, शिव-संकल्प तो सभी सिद्ध होंगे| सबसे बड़ा शिव-संकल्प है -- परमात्मा की पूर्ण अभिव्यक्ति, जिस के लिए चाहे कितने भी जन्म लेने पड़ें, वे सभी कम हैं|

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