उपनिषदों के स्वाध्याय में बड़ा आनंद है। पूरा ब्रह्मज्ञान है उनमें। लेकिन मुझ में भावुकता बहुत अधिक है, भक्ति की जरा-जरा सी बातों पर भावुक हो जाता हूँ। भावुकता में कभी ध्यानस्थ हो जाता हूँ, और कभी आँखों से आंसुओं की झड़ी लग जाती है। सब लोग पूछते हैं कि रो क्यों रहे हो? मेरा एक ही उत्तर होता है कि "बहुत तेज जुकाम लगी हुई है"। आजकल तो भक्ति के अतिरिक्त अन्य कुछ समझ में भी नहीं आता, और अच्छा भी नहीं लगता। मेरा स्वभाव भक्ति-प्रधान है। अनेक ऐसे विषय हैं जो अभी समझ में आ रहे हैं।
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(प्रश्न १) मुझे भारत से प्रेम क्यों है ?
(उत्तर) भारत में ही हर काल-खंड में धर्म व परमात्मा की सर्वोत्तम व सर्वोच्च अभिव्यक्ति हुई है। ईश्वर के सभी अवतारों ने भारत में ही जन्म लिया है। भारत -- त्यागी तपस्वियों, संत महात्माओं, व विरक्त ज्ञानियों की भूमि रहा है। धर्म का प्रचार प्रसार व ज्ञान भारत से ही विश्व को हुआ है। परमात्मा से अहेतुकी परम प्रेम (सम्पूर्ण भक्ति), व अनन्य भक्ति की अवधारणा -- विश्व को भारत की ही देन है।
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(प्रश्न २) मुझे परमात्मा से प्रेम क्यों है?
(उत्तर) इसका कोई उत्तर नहीं है। यह जन्मजात है। भगवान से भक्ति (परमप्रेम) मेरा स्वभाव है। यह परमात्मा की मुझ पर विशेष कृपा है।
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(प्रश्न ३) मुझे सनातन-धर्म से प्रेम क्यों है?
(उत्तर) सनातन धर्म ही एकमात्र धर्म है जो हमें परमात्मा की प्राप्ति ही नहीं, उनके साथ एक कर भी सकता है। धर्म के दस लक्षण हैं, जिन को धारण करने से अभ्युदय (सर्वतोमुखी पूर्ण विकास) और निःश्रेयस (सब तरह के दुःखों और पीड़ाओं से मुक्ति) की सिद्धि होती है। यह धर्म सृष्टि के आदि काल से ही शाश्वत और सनातन है। लिखने को और भी बहुत कुछ है, लेकिन इस समय इतना ही पर्याप्त है।
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ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२७ दिसंबर २०२२
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