(प्रश्न) : --- समर्पण और शरणागति में क्या अंतर है?
(उत्तर) : -- शरणागति में कर्ताभाव और पृथकता का बोध रहता है, जब कि समर्पण में न तो कर्ताभाव रहता है, और न ही पृथकता का बोध। शरणागति एक कर्म है, जब कि समर्पण उसका फल है। समर्पण -- ब्रह्मज्ञान होता है। समर्पित व्यक्ति ब्रह्मज्ञ होता है, उसकी चेतना में परमात्मा से कोई भेद नहीं होता। धर्म और अधर्म दोनों से ऊपर उठकर, परमात्मा की चेतना में स्थिति -- यानि परमात्मा से अन्य कुछ भी नहीं है, -- समर्पण कहलाता है। यह आत्मज्ञान है। यह आत्मज्ञान ही मोक्ष (केवल्य) यानि परम कल्याण है। समर्पण -- अनुभूति का विषय है, बुद्धि-विलास का नहीं।
बिना किसी पूर्वाग्रह के परमात्मा के प्रति पूर्ण समर्पण हो। यह समर्पण सिर्फ बातों से या संकल्प से नहीं होगा। इसके लिए भक्तिपूर्वक दीर्घकाल तक गहन साधना करनी होती है। परमात्मा को वे ही समर्पित हो सकते हैं, जिन पर परमात्मा की विशेष कृपा हो।
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(प्रश्न) :-- मेरे द्वारा सबसे बड़ी सेवा क्या हो सकती है ?
(उत्तर) :-- प्रकृति ने अपने नियमानुसार जहाँ भी मुझे रखा है, उससे मुझे कोई शिकायत नहीं है। पूर्वजन्मों के कर्मानुसार मेरा यह जीवन निर्मित हुआ। भविष्य की कोई कामना नहीं है। हृदय में यह गहनतम और अति अति प्रबल अभीप्सा अवश्य है कि यदि पुनर्जन्म हो तो मैं इस योग्य तो हो सकूँ कि भगवान को पूर्णरूपेण समर्पित होकर, उनकी अनन्य-अव्यभिचारिणी-भक्ति सभी के हृदयों में जागृत कर सकूँ। भगवान की पूर्ण अभिव्यक्ति मुझ में हो। किसी भी कामना का जन्म न हो।
"मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी। विवक्तदेशसेवित्वरतिर्जनसंसदि॥१३:११॥" (श्रीमद्भगवद्गीता)
कृपा शंकर
२९ दिसंबर २०२३
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