एक बार राजाभोज की रानी और पंडित माघ की पत्नी दोनों खड़ी-खड़ी बातें कर रही थीं| राजा भोज ने उनके समीप जाकर उनकी बातें सुनने के लिए अपने कान लगा दिए| यह देख माघ की पत्नी सहसा बोलीं -- "आओ मूर्ख!"| राजा भोज तत्काल वहाँ से चले गए| वे जानना चाहते थे कि उन्होंने क्या मूर्खता की है| अगले दिन राजसभा में पंडित माघ पधारे तो राजा भोज ने "आओ मूर्ख" कह कर उनका स्वागत किया| वहाँ उपस्थित किसी भी विद्वान में प्रतिवाद करने का साहस नहीं था| यह सुनते ही पंडित माघ बोले ---
"खादन्न गच्छामि, हसन्न जल्पे, गतं न शोचामि, कृतं न मन्ये |
द्वाभ्यां तृतीयो न भवामि राजन् , किं कारणं भोज! भवामि मूर्ख: ||"
अर्थात् मैं खाता हुआ नहीं चलता, हँसता हुआ नहीं बोलता, बीती बात की चिंता नहीं करता, और जहाँ दो व्यक्ति बात करते हों, उनके बीच में नहीं जाता| फिर मुझे मूर्ख कहने का क्या कारण है?
(O, King! I never eat while standing or walking, speak while laughing, never repent for what is gone in the past, never boast about my achievements, never interfere in other's talk, so how can you say I am a fool?)
राजा ने अपनी मूर्खता का रहस्य समझ लिया| वे तत्काल कह उठे -- "आओ विद्वान!"
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केवल शिक्षण या अध्ययन से विद्वत्ता नहीं आती| विद्वत्ता आती है-- नैतिक मूल्यों को आत्मगत करने से| लगभग सभी समारोहों में आजकल हम लोग खड़े होकर भोजन करते हैं, यह हमारी मूर्खता ही है|
२९ दिसंबर २०२०
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