हमारी भक्ति अनन्य-अव्यभिचारिणी और अनपायनी हो ---
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मैंने एक बार लिखा था कि हमारे भगवान बड़े ईर्ष्यालु प्रेमी हैं, वे हमारा शत-प्रतिशत प्यार माँगते हैं| जरा सी भी कमी हो तो विमुख हो जाते हैं| और प्यार भी वे ऐसा माँगते हैं जिसमें निरंतर वृद्धि होती रहे| जैसे एक छोटे बच्चे को मनाते हैं, वैसे ही उन्हें भी मनाना पड़ता है| अब एक ऐसे विषय पर लिखने को मुझे बैठा दिया है जिस की पात्रता मुझ में बिलकुल भी नहीं है| फिर भी अपनी सीमित और अति-अति-अति-अल्प बुद्धि से कुछ न कुछ तो लिखूँगा ही, इज्ज़त का सवाल है| अपयश, यश और सारी महिमा उन्हीं की है|
"दीनदयाल सुनी जबतें, तब तें हिय में कुछ ऐसी बसी है|
तेरो कहाय के जाऊँ कहाँ मैं, तेरे हित की पट खैंचि कसी है||
तेरोइ एक भरोसो मलूक को, तेरे समान न दूजो जसी है|
ए हो मुरारि पुकारि कहौं अब मेरी हँसी नहीं तेरी हँसी है||"
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इस लेख में जो गीता के श्लोक दिये हैं, उन का स्वाध्याय तो पाठक को स्वयं ही करना होगा| भगवान ने मुझे समझने की योग्यता तो दी है पर समझाने की नहीं| समझ भी भगवान की कृपा से ही आती है| उतना ही लिख पाऊँगा जितना लिखने की प्रेरणा मिल रही है|
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सबसे पहिले गीता की बात करते हैं, फिर मानस की करेंगे| गीता में भगवान कहते हैं .....
"मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी|
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि||१३:११||"
अनन्य का अर्थ है .... जहाँ अन्य कोई नहीं है, जहाँ हमारे में और प्रत्यगात्मा में कोई भेद नहीं है| भगवान कहते हैं .....
"ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाऽहममृतस्याव्ययस्य च|
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च||१४:२७||
अर्थात् मैं अमृत, अव्यय, ब्रह्म, शाश्वत धर्म, और ऐकान्तिक अर्थात् पारमार्थिक सुख की प्रतिष्ठा हूँ||
इसी भाव में स्थित होकर उनका ध्यान करना चाहिए| हम यह नश्वर देह नहीं, शाश्वत आत्मा हैं| उनमें समर्पित होने पर पृथक आत्मा का बोध भी नहीं रहता, वे ही वे रह जाते हैं और कर्ता भाव विलुप्त हो कर उपास्य, उपासना और उपासक वे स्वयं ही हो जाते हैं| ध्यान करते करते उपास्य के गुण उपासक में भी आ ही जाते हैं|
भक्ति में व्यभिचार वह है जहाँ भगवान के अलावा अन्य किसी से भी प्यार हो जाता है| भगवान हमारा शत-प्रतिशत प्यार माँगते हैं| हम जरा से भी इधर-उधर हो जाएँ तो वे चले जाते हैं| इसे समझना थोड़ा कठिन है| हम हर विषय में, हर वस्तु में भगवान की ही भावना करें, और उसे भगवान की तरह ही प्यार करें| सारा जगत ब्रह्ममय हो| ब्रह्म से पृथक कुछ भी न हो| यह अव्यभिचारिणी भक्ति है|
भगवान कहते हैं.....
"बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते|
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः||७:१९||"
इस स्थिति को हम ब्राह्मी स्थिति भी कह सकते हैं, जिसके बारे में भगवान कहते हैं .....
"विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः|
निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति||२:७१||"
"एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति|
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति||२:७२||"
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अब बात करेंगे "अनपायनी" भक्ति की| भक्ति अनपायनी हो, इसका अर्थ है कि उसमें "अपाय" न हो| अपाय का अर्थ .... कम होते होते नाश होना भी होता है, और श्वास भी होता है| हमारी भक्ति में निरंतर वृद्धि हो, कभी भी कोई कमी न हो| भगवान् के चरणों में हमारी भक्ति दिन-प्रतिदिन बढ़ती जाये, कभी घटे नहीं|
"बार बार बर मागउं हरषि देहु श्रीरंग| पद सरोज अनपायनी भगति सदा सतसंग||"
प्रेम ऐसा होना चाहिए जो हर क्षण बढ़े, उसमें भी कोई कमी न आने पाये| यह अनपायिनी भक्ति है| यह भक्ति हर सांस के साथ बढ़ती है| यह परमप्रेम है जिसे ही भक्ति-सूत्रों में देवर्षि नारद ने "भक्ति" कहा है| भक्ति में हमें ..... धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष .... की भी कामना नहीं होनी चाहिए| हमें भगवान का सिर्फ और सिर्फ प्रेम चाहिए, अन्य कुछ भी नहीं| उनके प्रेम के अलावा कुछ भी कामना होने पर पतन प्रारम्भ हो जाता है|
कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभहि प्रिय जिमि दाम|
तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम||
अरथ न धरम न काम रुचि गति न चहउँ निरवान|
जनम–जनम रति रामपद यह वरदान न आन||
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यह अनन्य-अव्यभिचारिणी-अनपायनी भक्ति .... अनंत चैतन्य का द्वार है| वह भक्ति जागृत होती है परमप्रेम और गुरुकृपा सेे| भगवान के प्रति परमप्रेम जागृत होते ही मेरुदंड उन्नत हो जाता है, दृष्टिपथ स्वतः ही भ्रूमध्य पथगामी हो जाता है, व चेतना उत्तरा-सुषुम्ना (आज्ञाचक्र व सहस्त्रार के मध्य) में स्थिर हो जाती है| मेरुदंड में सुषुम्ना जागृत हो जाती है और वहाँ संचारित हो रहा प्राण-प्रवाह अनुभूत होने लगता है| कूटस्थ में ज्योतिर्मय ब्रह्म और अनाहत नाद भी अनुभूत होने लगते हैं|
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गुरु रूप में हे भगवान वासुदेव, आप की कृपा सदैव बनी रहे| मुझ अकिंचन के लाखों दोष व नगण्य गुण ..... सब आप को समर्पित हैं| आप से मेरी कहीं पर भी कोई पृथकता नहीं है| मेरा सर्वस्व आपका है, और मेरे सर्वस्व आप ही हैं| कभी कोई पृथकता का बोध न हो| आप ही मेरे योग-क्षेम हो| आपका यह वाक्य मुझे बहुत अधिक शक्ति देता है जिसमें आपने अनन्य भाव से उपासना करने को कहा है .....
"अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते|
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्||९:२२||"
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अनन्यभाव से युक्त होकर आपकी मैं आत्मरूप से निरन्तर निष्काम उपासना कर सकूँ| इतनी शक्ति अवश्य देना| मेरा सर्वस्व आपको समर्पित है|
ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१ जनवरी २०२०
भगवान की अनन्य भाव से अव्यभिचारिणी भक्ति -- मेरा आदर्श है। यह बड़ी कठिन उपलब्धि है, जो बड़े भाग्य से भगवान की परम कृपा से ही प्राप्त होती है। महाभारत में भगवान श्रीकृष्ण ने इसका उपदेश अलग अलग स्थानों पर युधिष्ठिर को भी दिया है, और अर्जुन को भी। भगवान के अतिरिक्त अन्य कुछ भी अच्छा नहीं लगे, इसे अव्यभिचारिणी भक्ति कहते हैं। मैं भगवान के साथ एक हूँ, और मेरे से (या भगवान से) अन्य कोई भी नहीं है -- इसे अनन्य भाव कहते हैं। अनन्य अव्यभिचारिणी भक्ति ही मेरा आदर्श है।
ReplyDeleteॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२६ अगस्त २०२२