Saturday, 2 June 2018

इस समय हमारा भारतीय समाज गतिहीन और निश्चेष्ट क्यों है ?.....

इस समय हमारा भारतीय समाज गतिहीन और निश्चेष्ट क्यों है ?.....
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यह एक गंभीर चिंतन का विषय है| इस समय कोई पथप्रदर्शक और मार्गदर्शक नहीं है| आत्मा की उन्नति ही वास्तविक उन्नति है ... यह बताने वाला कोई नहीं है| आत्मा की उन्नति होगी तो सारी ही उन्नति होगी| मेरे विचार से सामूहिक उन्नति कभी नहीं हो सकती|
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हर व्यक्ति स्वयं को महत्वपूर्ण समझे| इस भावना से कार्य करे कि मेरे ऊपर ही सारी सृष्टि का भार है| ये सारी भौतिक व्यवस्थाएँ जैसे समाजवाद, सेकुलरवाद आदि भ्रामक हैं| ये व्यक्ति को पिछलग्गू बनाती हैं| इनमें कोई सफल नहीं हो सकता| साम्यवाद और सेकुलरवाद की विफलता मैं प्रत्यक्ष देख चुका हूँ|
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गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने हमें निमित्त मात्र बनकर, परमात्मा को कर्ता बनाकर कर्म करने को कहा है .....

तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम् |
मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् ||११:३३||
शंकर भाष्य के अनुसार इसका अर्थ है ..... "तस्मात् त्वम् उत्तिष्ठ भीष्मप्रभृतयः अतिरथाः अजेयाः देवैरपि अर्जुनेन जिताः इति यशः लभस्व केवलं पुण्यैः हि तत् प्राप्यते। जित्वा शत्रून् दुर्योधनप्रभृतीन् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम् असपत्नम् अकण्टकम् | मया एव एते निहताः निश्चयेन हताः प्राणैः वियोजिताः पूर्वमेव | निमित्तमात्रं भव त्वं हे सव्यसाचिन् सव्येन वामेनापि हस्तेन शराणां क्षेप्ता सव्यसाची इति उच्यते अर्जुनः||"
अर्थात् ..... क्योंकि ऐसा है --, इसलिये तू खड़ा हो और देवोंसे भी न जीते जानेवाले भीष्म द्रोण आदि महारथियोंको अर्जुनने जीत लिया ऐसे निर्मल यशको लाभ कर| ऐसा यश पुण्योंसे ही मिलता है| दुर्योधनादि शत्रुओंको जीतकर समृद्धिसम्पन्न निष्कण्टक राज्य भोग| ये सब ( शूरवीर ) मेरेद्वारा निःसन्देह पहले ही मारे हुए हैं अर्थात् प्राणविहीन किये हुए हैं| हे सव्यसाचिन् तू केवल निमित्तमात्र बन जा| बायें हाथसे भी बाण चलानेका अभ्यास होनेके कारण अर्जुन सव्यसाची कहलाता है|
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यह सोच भारत की प्राण है| पर दुर्भाग्य से धर्मनिरपेक्षता के तुष्टिकरण में हम भारत की आत्मा से दूर जा रहे हैं| इसी कारण हमारा समाज गतिहीन और निःचेष्ट है| हर एक व्यक्ति को अपनी प्रधानता का बोध हो| भगवान की कृपा हम सब पर हो|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१ जून २०१८

1 comment:

  1. इस व्यक्ति के कई मित्र हैं जो नित्य कम से कम छः घंटे या इस से भी अधिक समय तक भगवान के ध्यान में रहते हैं| सप्ताह में एक दिन तो वे यह समय बढ़ा कर कम से कम आठ घंटे या इस से अधिक भी कर देते हैं| भक्ति यानि भगवान से परम प्रेम तो उनमें कूट कूट कर भरा हुआ है| इस व्यक्ति को ऐसे मित्रों पर बहुत अभिमान है|



    वैसे इस व्यक्ति के सबसे बड़े और सबसे परम मित्र तो स्वयं भगवान हैं जो सदा इसे प्रेरणा देते रहते है और इस की रक्षा भी करते हैं| इसे आजकल उनसे सदा प्रेरणा मिलती रहती है अधिक से अधिक उन पर समर्पण में पूर्णता लाने के प्रयास करने की| अपनी जी जान लगाकर निमित्त मात्र बनने की चेष्टा इस व्यक्ति से भी अब होती रहेगी|



    इस व्यक्ति को ध्यान में एक अति प्रबल अनिर्वचनीय दिव्य आकर्षण समय समय पर अपनी ओर खींचता रहता है| वह आकर्षण इस भौतिक जगत का नहीं, बल्कि एक विराट सूक्ष्म जगत का है जो सहस्त्रार से बहुत ऊपर अनंत ब्रह्मांड में है| उसे सिर्फ स्वानुभूति से वे ही साधक समझ सकते हैं जो कूटस्थ में नित्य नियमित ध्यान करते हैं| पहले जब इसे इसके बारे में बताया गया था तब वह इस तरह के किसी अस्तित्व पर विश्वास नहीं करता था, पर अब तो प्रत्यक्ष नित्य ही अनुभूत कर रहा है|



    उसे अनुभूत करने में ही आनंद है| शब्दों में बाँधने का प्रयास निरर्थक होगा| भगवान की सर्वश्रेष्ठ साकार अभिव्यक्तियाँ आप सब को नमन|

    ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
    १ जून २०१८

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