निष्काम कर्म क्या है? ---
भगवान से प्रेम और समर्पण भाव से निरंतर उनका स्मरण ही "निष्काम कर्म" है। प्रेम में कोई कामना नहीं होती। कूटस्थ में हम भगवान के साथ एक हैं। हमारी चेतना हर समय आज्ञा चक्र से ऊपर ही रहे। सहस्त्रार चक्र में ध्यान - गुरु-चरणों का ध्यान है। जब भी समय मिले, गुरु-चरणों का ध्यान करो और वहाँ से निःसृत हो रही प्रणव की ध्वनि को सुनते रहो। अपनी ज्योतिर्मय चेतना का विस्तार करते करते उसे सारे ब्रह्मांड की अनंतता में फैला दो। वह विराट अनंतता ही हम हैं, यह भौतिक देह नहीं। उस विराट अनंतता का ध्यान ही अपरिछिन्न ब्रह्म का ध्यान है।
हमारी हरेक गतिविधि के कर्ता और भोक्ता स्वयं भगवान हों। वे निरंतर हमारे जीवन के केंद्र बिन्दु हों। भगवान की भक्ति (परम प्रेम) ही सार है, अन्य सब निःसार है।
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
१० अगस्त २०२१
"ॐ नमो भगवते वासुदेवाय।"
ReplyDeleteबाँके बिहारी जी की जय ! कितनी मनोहर है यह त्रिभंग-मुरारी मुद्रा की भंगिमा !
इस मुद्रा में भगवान - हमारी अज्ञान रूपी -- ब्रह्मग्रंथि (मूलाधार चक्र), विष्णुग्रंथि (अनाहत चक्र) और रूद्रग्रंथि (आज्ञा चक्र) का भेदन कर रहे हैं।
'ॐ कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने। प्रणतः क्लेशनाशाय गोविंदाय नमो नमः॥'
हमारा स्वभाव है -- "परम प्रेम"। जब तक हम अपने स्वभाव में बने रहते हैं, तब तक हम आनंद में हैं, अन्यथा दुःख और विषाद सदा हमें घेरे रहते हैं। स्वयं में श्रद्धा और विश्वास - ही हमें जीवित रखते हैं। हम अपने स्वभाव में बने रहें, मुझे लगता है, यही हमारी सबसे बड़ी समस्या है।
ReplyDeleteजैसे पृथ्वी अपने साथ चन्द्रमा को लेकर सूर्य की परिक्रमा करती है, वैसे ही सभी गृहस्थ, अपने प्रियजनों के साथ एकत्व स्थापित कर, उन्हें भी अपने साथ लेकर, परमात्मा को प्राप्त हों।
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जो विरक्त हैं उनके लिए तो सारी सृष्टि ही उनका परिवार है। वे सम्पूर्ण सृष्टि रूपी परिवार के साथ एकत्व स्थापित कर, परमात्मा को उपलब्ध हों।
जिनका कभी जन्म ही नहीं हुआ, उन मृत्युंजयी भगवान परमशिव का निवास मेरे कूटस्थ हृदय में हैं, इसलिये मैं जीवन-मुक्त हूँ, और सदा जीवन-मुक्त ही रहूँगा।
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यह शरीर तो लोकयात्रा के लिए मिला हुआ एक वाहन (मोटर साइकिल) मात्र है, जो बेकार होने पर नया मिल जायेगा। ॐ ॐ ॐ !!