Tuesday 16 October 2018

समत्व, अभ्यास, वैराग्य, प्रेम और अभीप्सा .....

समत्व, अभ्यास, वैराग्य, प्रेम और अभीप्सा .....
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"समत्व" की प्राप्ति योग की उच्चतम सिद्धि है, जिसके लिए अभ्यास और वैराग्य दोनों आवश्यक हैं| समत्व यानी समभाव को जिसने प्राप्त कर लिया, वह सिद्ध और ज्ञानी है| भगवान ने गीता में समझाया है कि किस प्रकार हमें कर्मफल की आकांक्षा न रखते हुए कर्म करने चाहियें| भगवान कहते हैं .....
"योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय| सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते||२:४८||
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भगवान हमें यहाँ योग में यानि समत्व में स्थित होकर कर्म करने को कहते हैं| भगवान मुझ पर प्रसन्न हों, यह आशा रूपी आसक्ति भी हमें त्याग देनी चाहिए| फलतृष्णा रहित होकर कर्म करने से अंतःकरण की शुद्धि होती है, जिस से ज्ञान की प्राप्ति होती है|
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ज्ञान की प्राप्ति तो एक सिद्धि है, और ज्ञान की प्राप्ति का न होना असिद्धि है| ऐसी सिद्धि और असिद्धि में भी सम होकर कर्म करने का आदेश भगवान हमें देते हैं| यह सिद्धि और असिद्धि में समत्व ही योग है| आध्यात्मिक ज्ञान का एकमात्र मापदंड है "समभाव"| जो समत्व में स्थित है वह ही ज्ञानी है, और वह ही परमात्मा के सर्वाधिक निकट है.
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उपरोक्त स्थिति की प्राप्ति के लिए मन पर नियंत्रण आवश्यक है| मन पर नियंत्रण कैसे हो? इसके लिए भगवान कहते हैं .....

"असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलं| अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते||६:३५||
मन चञ्चल और कठिनतासे वशमें होनेवाला है, इस में कोई संशय नहीं है| पर चितभूमि में एक समान वृत्ति की बारंबार आवृति यानि अभ्यास करने से चित्त की विक्षेपरूपी चंचलता को रोका जा सकता है| इस के लिए अभ्यास और वैराग्य दोनों ही परम आवश्यक हैं| वैराग्य का अर्थ है रागों से यानि मोह से विरक्ति| इसके लिए भी अभ्यास आवश्यक है|
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पर सब से अधिक तो आवश्यक है भगवान से प्रेम और उन्हें पाने की एक प्रचंड अभीप्सा| बिना भगवान से प्रेम किये तो एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकते|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१४ अक्तूबर २०१८

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