Tuesday 16 October 2018

विवाह का उद्देश्य क्या है ? .....

विवाह का उद्देश्य क्या है ? .....
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आजकल पारिवारिक संबंधों में बहुत अधिक बिखराव हो रहे हैं और विवाह की संस्था शनेः शनेः नष्ट हो रही है जिसे कोई नहीं बचा सकता| हिन्दुओं में विवाह का उद्देश्य काम-वासना की तृप्ति नहीं वरन् मनुष्य जीवन की अपूर्णता को दूर करके पूर्णता की और ले जाना था| आजकल इसका प्रशिक्षण नहीं दिया जाता है| विवाह तो किया जाता है पर इसका उद्देश्य क्या है यह नहीं सिखाया जाता अतः विवाह असफल होंगे ही|
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विवाह कोई संविदा नहीं अपितु एक पवित्र बंधन है जिसका प्रमुख उद्देश्य धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ती है| यह एक पवित्र यज्ञ है जिसमें सहयोग करने वाली ही पत्नी है| जो इस यज्ञ के लिए है वह पत्नी है और जिसके मात्र भरण-पोषण का दायित्व है वह भार्या है| यह पत्नी और भार्या के बीच का अंतर है|
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हिन्दू धर्म के अनुसार .....
बिना पत्नी के कोई व्यक्ति समाज में रहकर धर्माचरण नहीं कर सकता,
बिना विवाह के स्री- पुरुषों के उचित संबंध संभव नहीं हैं,
उचित व योग्य संतानोत्पत्ति द्वारा ही मनुष्य इस लोक और परलोक में सुख प्राप्त कर सकता है,
पत्नी ही धर्म अर्थ काम और मोक्ष का स्रोत है,
और विवाह करके ही मनुष्य देवताओं के लिए यज्ञ करने का अधिकारी है,
यही विवाह करने का उद्देश्य है| अन्य कोई उद्देश्य विवाह का नहीं है|
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जो विवाह चेहरे के कोण व त्वचा का रंग देखकर, और आर्थिक या अन्य किसी अपेक्षा और वासना पूर्ती के लिए ही किये जाते हैं, उनका असफल होना निश्चित है|
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यदि किसी पुरुष को महिला सेक्रेटरी चाहिए, या उसके परिवार वालों को कोई नौकरानी चाहिए तो वे किसी नौकरानी को रख लें पर इस के लिए विवाह करा के अपनी संतानों का या अपने से छोटे भाई बंधुओं का जीवन नष्ट न करें|
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ऐसे ही किसी महिला को यदि कोई गुलाम चाहिए जो उसे खूब घुमाए फिराए, खूब धन दे और उसकी वासनाओं की पूर्ती करता रहे, तो वह ऐसे ही किसी मनोनुकूल आदमी को ढूँढ ले, विवाह कर के किसी भले आदमी का जीवन नष्ट न करे|
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सिर्फ वासनाओं की ही पूर्ती करनी है तो आजकल live in relationship चल पड़ा है, उसी में रहकर वासनाओं की पूर्ती कर लें, विवाह की आवश्यकता नहीं है|
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बाकी सब तो संस्कारों का खेल है, जो प्रारब्ध में लिखा होगा वही होगा|
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पर सफल विवाह वही होता है, और अच्छी आत्माएँ भी उसी परिवार में जन्म लेती हैं जहाँ ....
नाम रूप में आसक्ति न हो,
वैवाहिक संबंधों में शारीरिक सुख की अनुभूति से ऊपर उठना हो,
एक-दुसरे के प्रति समर्पण हो
और परमात्मा से प्रेम हो|
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वेदान्त के दृष्टिकोण से ........
पत्नी को पत्नी के रूप में त्याग दीजिये, पति को पति के रूप में त्याग दीजिये, आत्मजों को आत्मजों के रूप में त्याग दीजिये, और मित्रों को मित्र के रूप में देखना त्याग दीजिये| उनमें आप परमात्मा का साक्षात्कार कीजिये| स्वार्थमय और व्यक्तिगत संबंधों को त्याग दीजिये और सभी में ईश्वर को देखिये| आप की साधना उनकी भी साधना है| आप का ध्यान उन का भी ध्यान है| आप उन्हें ईश्वर के रूप में स्वीकार कीजिये| पत्नी को अपने पति में परमात्मा के दर्शन करने चाहियें, और पति को अपनी पत्नी में अन्नपूर्णा जगन्माता के| उन्हें एक दुसरे को वैसा ही प्यार करना चाहिए जैसा वे परमात्मा को करते हैं| और एक दुसरे का प्यार भी परमात्मा के रूप में ही स्वीकार करना चाहिए| वैसा ही अन्य आत्मजों व मित्रों के साथ होना चाहिए| अपने प्रेम को सर्वव्यापी बनाइए, उसे सीमित मत कीजिये| आप में उपरोक्त भाव होगा तो आप के यहाँ महापुरुषों का जन्म होगा|
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यही एकमात्र मार्ग है जिस से आप अपने बाल बच्चों, सगे सम्बन्धियों व मित्रों के साथ ईश्वर का साक्षात्कार कर सकते है, अपने सहयोगी को भी उसी प्रकार लेकर चल सकते है जिस प्रकार पृथ्वी चन्द्रमा को लेकर सूर्य की परिक्रमा करती है|
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सभी को शुभ मंगल कामनाएँ | ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
झुंझुनू
१३ अक्टूबर २०१७

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