परमात्मा से 'प्रेम' एक स्थिति है, कोई क्रिया नहीं, यह हो जाता है, किया नहीं जाता ---
परमात्मा से परमप्रेम -- आत्मसाक्षात्कार का द्वार है| यह सबसे बड़ी सेवा है, जो हम समष्टि के लिए कर सकते हैं| यह उन की परमकृपा है जो हमारा परमकल्याण कर रही है| उन में तन्मयता हमारा जीवन है| उन से प्रेम के विचार ही हमारी तीर्थयात्रा हैं| उन से प्रेम ही सबसे बड़ा तीर्थ है| हम अपना हर कर्म उन की प्रसन्नता के लिए, निमित्त मात्र होकर उन्हें ही कर्ता बनाकर करें|
गीता में भगवान दो बार कहते हैं -- "मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु"--
"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु| मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः||९:३४||"
"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु| मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे||१८:६५||
हम भगवान की चेतना में प्रेममय होकर उनके विवेक के प्रकाश में अपना कर्मयोग करते रहें| किसी से घृणा नहीं करें| घृणा करने वाला व्यक्ति, आसुरी शक्तियों का शिकार हो जाता है| अब मन उन के प्रेम में मग्न हो गया है, और कुछ भी लिखना असंभव है|
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२३ फरवरी २०२१
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