क्या भूलूँ, क्या याद करूँ मैं? अब तो जीवन में परमात्मा की पूर्ण अभिव्यक्ति हो!
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जिस जीवन को मैंने जीया है, उसे दुबारा तो जीना असंभव है| जो समय चला गया, वह लौट कर बापस नहीं आ सकता| उस जीवन में पता नहीं कितनी कमियाँ व भूलें थीं, कितने अवसादों के और कितने उन्मादों के क्षण थे! विपरीततायें ही अधिक, और अनुकूलतायें नगण्य थीं|
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जिस समाज में मेरा जन्म हुआ, वह अपने अस्तित्व को बचाने, यानि अपनी आजीविका के अर्जन के लिए ही संघर्ष कर रहा था| समाज अभावग्रस्त था और समाज में तमोगुण का अंधकार अधिक था| उस तमस से बाहर निकलने और आध्यात्मिक व भौतिक दरिद्रता दूर करने के लिए मुझे बहुत ही अधिक संघर्ष करना पड़ा| भगवान ने भी मुझ अकिंचन पर कुछ अधिक ही कृपा की|
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मेरी आस्था तो यही कहती है कि जो कुछ भी हम हैं, और जिन भी अच्छे-बुरे अनुभवों से हम गुजरते हैं, वे हमारे पूर्व जन्मों के कर्मफल हैं| इनमें किसी अन्य का कोई दोष नहीं है| अब तो सारी बुराइयाँ/अच्छाइयाँ दोष/गुण, बुरा/भला सब कुछ परमात्मा को समर्पित कर दिया है| अब परमात्मा के बोध में ही स्वतन्त्रता अनुभूत करता हूँ| परमात्मा का विस्मरण ही मेरे लिए परतंत्रता है| कोई इच्छा/आकांक्षा अब नहीं है, सिर्फ एक ही तड़प/अभीप्सा है कि अब से जीवन में परमात्मा की पूर्ण अभिव्यक्ति हो|
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जीवन शाश्वत है, मृत्यु मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकती, सिर्फ यह शरीर छीन सकती है, जो मैं परमात्मा को अर्पित कर चुका हूँ| मेरे साथ तब तक कुछ भी नहीं हो सकता, कोई मेरा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता, जब तक स्वयं परमात्मा की स्वीकृति न हो|
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समस्या एक ही है कि --- "The spirit indeed is willing, but the flesh is weak". अर्थात् आत्मा में तो परमात्मा को पाने की तड़प है, लेकिन यह अंतःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) बहुत अधिक कमजोर है| और कोई समस्या नहीं है| यह समस्या भी भगवान को अर्पित है|
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२४ फरवरी २०२१
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