Thursday 12 January 2017

शब्दातीत ज्ञान .....

शब्दातीत ज्ञान .....
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जब शब्दातीत ज्ञान अनुभूत होना आरम्भ हो जाता है, तब शब्दों में रूचि नहीं रहती|
सच्चिदानंद की अनुभूति ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण है, रटे हुए या मात्र पढ़े हुए शब्दों की नहीं| शब्दों का ज्ञान सिर्फ प्राथमिक पाठशाला है| परमात्मा सब शब्दों से परे है| वह अनुभूति का विषय है, शब्दों का नहीं|
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भगवान के प्रति अहैतुकी परम प्रेम और समर्पण के अतिरिक्त अन्य कोई आदर्श, कर्तव्य, आचार-विचार या नियम नहीं है| जिसने उस प्रेम को पा लिया, उसके लिए आचरण के कोई नियम नहीं, कोई अनुशासन नहीं है क्योंकि उसने परम अनुशासन को पा लिया है| वह सब अनुशासनों और नियमों से ऊपर है| यम (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह), नियम (शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्रणिधान) आदि सभी गुण उसमें स्वतः आ जाते हैं| ये गुण उसके पीछे पीछे चलते हैं, वह इनके पीछे नहीं चलता| प्रभु के प्रति परम प्रेम अपने आप में सबसे बड़ी साधना, साधन और साध्य है| यही मार्ग है और यही लक्ष्य है|
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फिर धीरे धीरे साधक का स्थान स्वयं परमात्मा ले लेते हैं| वे ही स्वयं को उसके माध्यम से व्यक्त करते हैं| यहाँ भक्त और भगवान एक हो जाते हैं| उनमें कोई भेद नहीं रहता|
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ॐ तत्सत् |ॐ नमो भगवते वासुदेवाय | ॐ ॐ ॐ ||

1 comment:

  1. ह्रदय का मंथन करो |
    उस से जो नवनीत (मक्खन) निकलेगा, भगवान श्रीहरि उसको हरने (चुराने) अवश्य आयेंगे |
    तभी भगवान के निश्चित दर्शन होंगे |

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