पाकिस्तान के दिवंगत (कर्नल) शायर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ (فیض احمد فیض) (१९११ - १९८४) (फौज में कर्नल के पद से १९४८ में इस्तीफा देकर सेवानिवृत) का मैं समर्थक नहीं हूँ| उनकी शायरी चाहे कितनी भी दमदार रही हो पर उनके जीवन का एक काला अध्याय भी है जिसे बताया नहीं जाता| सन १९७१ के भारत-पाकिस्तान के युद्ध से पूर्व उन्होने पाकिस्तानी फौज द्वारा वर्तमान बांग्लादेश में किए गए वीभत्स नर-संहार का समर्थन किया था और बांग्ला भाषा को उर्दू से हीन बताया था|
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पाकिस्तानी फौज ने १९७१ से पूर्व बांग्लादेश में लगभग २० से २५ लाख हिंदुओं की हत्या की थी| इसके अतिरिक्त लाखों बांग्लाभाषी मुसलमानों की भी हत्याएँ की| लाखों महिलाओं के साथ वहाँ पाकिस्तानी फौज द्वारा बलात्कार हुआ और अनगिनत बच्चों की हत्याएँ भी| वहाँ की अल-बदर नाम की एक संस्था के लोग रात में हिंदुओं के घरों के बाहर एक निशान लगा आते और दूसरे दिन पाकिस्तानी फौज वहाँ जाकर घर के सब पुरुषों को गोली मार देती और महिलाओं व बच्चों को उठा ले जाती| सड़कों पर अचानक सभी पुरुषों को रोक कर उनकी लूँगी खुलाकर चेकिंग होती और जिस भी पुरुष की खतना नहीं हुई होती उसे वहीं गोली मार दी जाती|
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ऐसी हालत थी वहाँ के लोगों की जिसमें भुट्टो के साथ इन्होने ढाका में जाकर बंगाली लोगों से पाकिस्तान के समर्थन की अपील की थी| यह बात दूसरी है कि वहाँ इन की बात किसी ने भी नहीं सुनी| इनकी बीबी एक अंग्रेज़ महिला थी| इन्होने पाकिस्तानी फौज द्वारा किए गए जुल्मों व नर-संहार का कभी विरोध नहीं किया| ये खुद एक पूर्व पाकिस्तानी फौजी कर्नल थे, और लियाकत अली ख़ाँ की सरकार के तख़्तापलट की साजिश रचने के जुर्म में वे १९५१ से १९५५ तक पाकिस्तान में सजायाफ़्ता भी रहे थे| भारत के साथ १९६५ के पाकिस्तान से युद्ध के समय वे पाकिस्तान के सूचना मंत्रालय में वरिष्ठ अधिकारी थे|
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सन १९७१ की सारी घटनाएँ मुझे अभी तक याद हैं| मैंने भी उस युद्ध में भाग लिया था| उस समय की बातें मैं नहीं करता| अनेक लोगों से भी मेरा मिलना हुआ था जो वहाँ की हालत के प्रत्यक्षदर्शी थे| वहाँ के बारे बहुत कुछ जानता हूँ| वे एक अच्छे कवि थे यह बात दूसरी है पर साथ साथ एक कट्टर जिहादी भी थे| उनका मार्क्सवाद एक दिखावा था|
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