पढ़े फारसी बेचें तेल, देखो यह कुदरत का खेल ---
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जब तेल ही बेचना था तो फारसी क्यों पढ़ी? फारसी पढ़कर भी तेल ही बेच रहे हैं।
विडम्बना है प्रारब्ध की !! परिस्थितियाँ ऐसी हैं कि तेल बेचने को मजबूर हैं।
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जब सांसारिक मोह माया में ही फँसे रहना था तो आध्यात्म में क्यों आये? त्रिशंकु की गति सबसे अधिक खराब होती है। या तो इस पार ही रहना चाहिए या उस पार। बीच में लटकना अति कष्टप्रद है।
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"पढ़ें फ़ारसी बेचें तेल" एक बहुत पुराना मुहावरा है| देश पर जब मुसलमान शासकों का राज्य था तब उनका सारा सरकारी और अदालती कामकाज फारसी भाषा में ही होता था| उस युग में फारसी भाषा को जानना और उसमें लिखने पढने की योग्यता रखना एक बहुत बड़ी उपलब्धी होती थी| फारसी जानने वाले को तुरंत राजदरबार में या कचहरी में अति सम्मानित काम मिल जाता था| बादशाहों के दरबार में प्रयुक्त होने वाली फारसी बड़ी कठिन होती थी, जिसे सीखने के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ती थी| बादशाहों के उस जमाने में तेली और तंबोली (पान बेचने वाला) के काम को सबसे हल्का माना जाता था| अतः यह कहावत पड़ गयी कि "पढ़े फारसी बेचे तेल, देखो यह कुदरत का खेल"| अर्थात जब तेल ही बेचना था तो इतना परिश्रम कर के फारसी पढने का क्या लाभ हुआ?
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किसी को आत्मज्ञान ही प्राप्त करना है तो लक्ष्य की प्राप्ति तक उसे गुरु प्रदत्त आध्यात्मिक साधना के अतिरिक्त अन्य सब कुछ भूल जाना चाहिए| इधर उधर हाथ मारने से कुछ भी लाभ नहीं है| फिर भी परिस्थितियाँ ऐसी हैं कि तेल बेचने को मजबूर हैं|
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