Wednesday, 19 February 2020

माता और पिता दोनों ही प्रथम पूज्य और प्रत्यक्ष परमात्मा हैं .....

माता और पिता दोनों ही प्रथम पूज्य और प्रत्यक्ष परमात्मा हैं| किसी भी परिस्थिति में संतान द्वारा उनका अपमान नहीं होना चाहिए| उनके अपमान से भयंकर पितृदोष लगता है| पितृदोष जिन को होता है, या तो उनका वंशनाश हो जाता है या उनके वंश में अच्छी आत्मायें जन्म नहीं लेतीं| पितृदोष से घर में सुख-शांति नहीं होती और कलह बनी रहती है| आज के समय अधिकांश परिवार पितृदोष से दु:खी हैं| विवाहिता स्त्री के लिए उसके सास-ससुर भी माता-पिता हैं| उनका सम्मान परमात्मा का सम्मान है| यदि माता-पिता का आचरण धर्म-विरुद्ध और सन्मार्ग में बाधक है तो भी वे पूजनीय हैं| ऐसी परिस्थिति में हम उनकी बात मानने को बाध्य नहीं हैं, पर उन्हें अपमानित करने का अधिकार किसी को भी नहीं है| उनका भूल से भी अपमान न हो| उनका पूर्ण सम्मान करना हमारा परम-धर्म है| वे प्रत्यक्ष रूप से हमारे सम्मुख हैं तो प्रत्यक्ष रूप से, अन्यथा मानसिक रूप से उन के श्री-चरणों में प्रणाम करना हमारा धर्म है| कोई भी ऐसा महान व्यक्ति आज तक नहीं हुआ जिसने अपने माता-पिता की सेवा नहीं की हो| यदि उनकी उपेक्षा करके अन्य किसी भी देवी-देवता की उपासना करते हैं तो हमारी साधना सफल नहीं हो सकती| उपनिषदों में 'मातृ देवो भव, पितृ देवो भव' कहा गया है| उन की सेवा से पित्तरों का आशीर्वाद प्राप्त होता है| पितरों का आशीर्वाद जिसे प्राप्त हो जाता है उसके लिए संसार में कुछ भी असंभव नहीं होता| माता-पिता की सेवा के कारण ही गणेश प्रथम पूजनीय बन गए| गणेश पूजन का संदेश ही माता-पिता की सेवा भक्ति का संदेश है|
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माता और पिता को प्रणाम करने के मंत्र भी हैं| ये मंत्र स्वतः चिन्मय हैं जिनके प्रयोग हेतु अन्य किसी विधि को अपनाने की कोई आवश्यकता नहीं है|
(१) पिता को प्रणाम करने का मंत्र :---
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"ॐ ऐं" .... इस मंत्र को मानसिक रूप से जपते हुए अपने पिता के श्रीचरणों में प्रणाम निवेदित करें| यदि वे नहीं हैं तो मानसिक रूप से करें| "ऐं" पूर्ण ब्रह्मविद्या स्वरुप है| यह बीज मन्त्र है महासरस्वती और गुरु को प्रणाम करने का| गुरु रूप में पिता को प्रणाम करने से इसका अर्थ होता है ... "हे पितृदेव मुझे हर प्रकार के दु:खों से बचाइये, मेरी रक्षा कीजिये|" इसके जप से मूलाधारस्थ ब्रहमग्रन्थि का भेदन होता है|
(२) माता को प्रणाम करने का मंत्र :---
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"ॐ ह्रीं" .... इस मंत्र को मानसिक रूप से जपते हुए अपनी माता के श्रीचरणों में प्रणाम निवेदित करें| यदि वे नहीं हैं तो मानसिक रूप से करें| "ह्रीं" यह महालक्ष्मी व श्रीविद्या और माँ भुवनेश्वरी का बीजमंत्र भी है, जिनका पूर्ण प्रकाश स्नेहमयी माता के चरणों में प्रकट होता है| इसके जप से अनाहतचक्रस्थ विष्णुग्रंथि का भेदन होता है|
"ॐ" तो प्रत्यक्ष परमात्मा का वाचक है|
जैसी भी आपकी श्रद्धा है वैसे ही आप कीजिये| आप सब परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्तियाँ हैं जिनको मैं प्रणाम करता हूँ|
ॐ तत्सत् | मातृ देवो भव: पितृ देवो भव: | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
१५ फरवरी २०२०

सत्य सनातन नियम जो सनातन हिन्दू धर्म के नाम से जाने जाते हैं....

कोई माने या न माने, कुछ सत्य सनातन नियम हैं जो सनातन हिन्दू धर्म के नाम से जाने जाते हैं....
"हम यह देह नहीं, शाश्वत आत्मा हैं| आत्मा कभी नष्ट नहीं होती| हमारी सोच और विचार ही हमारे कर्म हैं जिन का फल भोगने को हम बाध्य हैं| उन कर्मफलों को भोगने के लिए ही बार बार हमें जन्म लेना पड़ता है| ईश्वर करुणा और प्रेमवश हमारे कल्याण हेतु अवतार लेते हैं| जीवभाव से मुक्त हो कर परमात्मा में शरणागति व समर्पण हमें इस जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त करते हैं| यह सृष्टि परमात्मा का एक संकल्प है| परमात्मा की प्रकृति अपनी सृष्टि के संचालन का हर कार्य अपने नियमों के अनुसार करती है| उन नियमों को न जानना हमारा अज्ञान है| परमात्मा से परमप्रेम ही भक्ति है जिस की परिणिती ज्ञान है|"
सरलतम भाषा में यह ही हमारे सनातन हिन्दू धर्म का सार है, बाकी सब इसी का विस्तार है| जो मनुष्य इस में आस्था रखते हैं, वे स्वतः ही हिन्दू हैं, चाहे वे किसी भी देश के नागरिक हैं, इस पृथ्वी पर कहीं भी रहते हैं, व किसी भी मनुष्य जाति में किसी भी देश में उन्होने जन्म लिया हो|
हमारे हृदय में परमप्रेम और अभीप्सा हो तो परमात्मा निश्चित रूप से हमारे माध्यम से स्वयं को व्यक्त करते हैं| परमात्मा के पास सब कुछ है पर एक ही चीज की कमी है जिसे पाने के लिए वे भी भूखे हैं, वह है हमारा प्रेम| हम परमात्मा को अपने प्रेम के सिवाय अन्य दे ही क्या सकते हैं? सब कुछ तो उन्हीं का है| उन्होने हमें पूरी छूट दे रखी है, वे हमारे निजी जीवन में दखल नहीं देते, चाहे हम उन्हें मानें या न मानें| हमारी मान्यता से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता| प्रकृति तो अपने नियमों के अनुसार ही कार्य करती रहेगी|
परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति आप सब को सप्रेम सादर नमन| श्रीहरिः||
ॐ तत्सत् ॐ ॐ ॐ
कृपा शंकर
१४ फरवरी २०२०

मुझे मेरे धर्म, संस्कृति, परंपराओं और राष्ट्र पर अभिमान है ....

मुझे मेरे धर्म, संस्कृति, परंपराओं और राष्ट्र पर अभिमान है| मेरे परम आदर्श भगवान श्रीराम और भगवान श्रीकृष्ण हैं| भगवद्गीता में जिस ब्राह्मी-चेतना, कूटस्थ-चैतन्य, अनन्य-अव्यभिचारिणी भक्ति, व समर्पण आदि की बातें कही गई हैं, वे ही मुझे प्रभावित करती हैं| मेरी चेतना में ऊँची से ऊँची कल्पना और सर्वोच्च व सर्वश्रेष्ठ भाव 'परमशिव' का है, वह ही इस जीवन में पूर्णरूपेण व्यक्त हो, यही मेरा संकल्प और साधना है| मैं और मेरे आराध्य, एक हैं, कहीं कोई भेद नहीं है| उनसे विमुखता ही मृत्यु है, और सम्मुखता ही जीवन| और लिखने को कुछ भी नहीं है|
परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति आप सब को सादर नमन| आप सब का आशीर्वाद बना रहे| ॐ तत्सत् ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
१३ फरवरी २०२०

समाज में निराशा और कुंठा फैलाने का किसी को अधिकार नहीं है .....

समाज में निराशा और कुंठा फैलाने का किसी को अधिकार नहीं है| निराश सिपाही किसी काम का नहीं होता| जीवन में कभी निराश न हों और एक निमित्त मात्र बन कर अपने कर्तव्य का पालन करते रहें| भगवान कहते हैं .....
"तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च| मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्||८:७||"
"इसलिए, तुम सब काल में मेरा निरन्तर स्मरण करो; और युद्ध करो| मुझमें अर्पण किये मन, बुद्धि से युक्त हुए निःसन्देह तुम मुझे ही प्राप्त होओगे||"
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भगवान इस से आगे यह भी कहते हैं .....
"तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम्|
मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्||११:३३||"
इसलिए तुम उठ खड़े हो जाओ और यश को प्राप्त करो; शत्रुओं को जीतकर समृद्ध राज्य को भोगो| ये सब पहले से ही मेरे द्वारा मारे जा चुके हैं| हे सव्यसाचिन्! तुम केवल निमित्त ही बनो||
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हमारे माध्यम से कर्ता तो भगवान स्वयं हैं, हम तो उनके उपकरण मात्र हैं| उन्हें हृदय में रखकर जीवन का हरेक कार्य करें|
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"प्रबिसि नगर कीजे सब काजा। हृदयँ राखि कोसलपुर राजा॥
गरल सुधा रिपु करहिं मिताई। गोपद सिंधु अनल सितलाई॥"
आप सब को शुभ कामनायें और नमन | हरिः ॐ तत्सत् ||
कृपा शंकर
१२ फरवरी २०२०

Thursday, 13 February 2020

हिन्दू, हिन्दुत्व व हिन्दू राष्ट्र .....

हिन्दू, हिन्दुत्व व हिन्दू राष्ट्र .....

(१) हिन्दू :-- जो भी व्यक्ति आत्मा की शाश्वतता, पुनर्जन्म, कर्मफलों व ईश्वर के अवतारों में आस्था रखता है, वह हिन्दू है, चाहे वह पृथ्वी के किसी भी भाग पर किसी भी देश में रहता है|

(२) हिन्दुत्व :-- हिन्दुत्व एक ऊर्ध्वमुखी भाव है जो निज जीवन में परमात्मा को व्यक्त करता है| हिन्दुत्व है हिंसा से दूरी| मनुष्य का लोभ और अहंकार हिंसा हैं, जिनसे मुक्ति अहिंसा है|

(३) हिन्दू राष्ट्र :-- 'हिन्दू राष्ट्र' ऐसे व्यक्तियों का समूह है जो निज जीवन में परमात्मा को व्यक्त करना चाहते हैं, चाहे वे पृथ्वी के किसी भी भाग में रहते हों|

११ फरवरी २०२० 

मेरी पीड़ा का कारण और उस का समाधान .....

मेरी पीड़ा का कारण और उस का समाधान .....
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मेरी पीड़ा का कारण मेरे अपने स्वयं के निज जीवन में व अपने परिवार, समाज, और राष्ट्र में चारों ओर व्याप्त असत्य रूपी घोर अंधकार है| यह बहुत अधिक पीड़ा दे रहा है| भगवान से प्रार्थना की तो अंतरात्मा से उत्तर मिला कि ..... "यह हमारे भीतर का ही अंधकार है जो बाहर व्यक्त हो रहा है| इसे दूर करने के लिए अपने 'लोभ' और 'अहंकार' से मुक्त होकर स्वयं के भीतर ही प्रकाश की वृद्धि करनी होगी, तभी बाहर का यह अन्धकार दूर होगा|"
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जहाँ तक अपनी अति अल्प और अति सीमित बुद्धि से मैं समझा हूँ, इसके लिए हमें आध्यात्मिक साधना द्वारा आत्मसाक्षात्कार कर स्वयं को ही ज्योतिर्मय बनना होगा| यही रामकाज है जिसके बिना कोई विश्राम नहीं हो सकता| हम स्वयं ज्योतिर्मय होंगे तो हमारा संसार भी ज्योतिर्मय होगा|
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गीता का सार उसके इस अंतिम श्लोक में है ...."यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम|" इसका अर्थ अपने आप में स्पष्ट है|
जब धनुर्धारी भगवान श्रीराम, सुदर्शन चक्रधारी भगवान श्रीकृष्ण, और पिनाकपाणी देवाधिदेव महादेव स्वयं हृदय में बिराजमान हैं तब कौन सी ऐसी बाधा है जो हम पार नहीं कर सकते? हमें अपने निज जीवन की बची खुची सारी ऊर्जा एकत्र कर के "प्रबिसि नगर कीजे सब काजा हृदयँ राखि कोसलपुर राजा" करना ही होगा| तभी "गरल सुधा रिपु करहिं मिताई गोपद सिंधु अनल सितलाई" होगी| सदा सफल हनुमान जी हमारे आदर्श हैं जो कभी विफल नहीं हुए| हनुमान जी का ध्येय वाक्य हैं .... "राम काज कीन्हे बिनु मोहि कहाँ बिश्राम|" यही हमारा भी ध्येय वाक्य होना चाहिए| हमारा जन्म ही इस रामकाज के लिये हुआ है| हनुमान जी निरंतर रामजी के काज में लगे हुए हैं बिना विश्राम किए| हमें भी उनका अनुशरण करना होगा ..... "राम काज करिबे को आतुर", तभी हम "रामचन्द्र के काज संवारे" कर सकते हैं|
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आध्यात्म मार्ग के पथिक को निरन्तर चलते ही रहना है| उसके लिए कोई विश्राम हो ही नहीं सकता| वह अनुकूलता की प्रतीक्षा नहीं कर सकता| अनुकूलता कभी नहीं आएगी| न तो समुद्र की लहरें कभी शांत होंगी और न नदियों की चंचलता ही कभी कम होगी| यह संसार जैसे चल रहा है वैसे ही प्रकृति के नियमानुसार चलता रहेगा, न कि हमारी इच्छानुसार| कौन क्या कहता है और क्या करता है, इसका कोई महत्व नहीं है| महत्व सिर्फ इसी बात का है कि हमारे समर्पण में कितनी पूर्णता हुई है| अपनी चरम सीमा तक का प्रयास हमें करना होगा|
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हरिः ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय, ॐ नमः शिवाय, ॐ नमः शिवाय ||
कृपा शंकर
झुंझुनू (राजस्थान)
१० फरवरी २०२०

असत्ये तु वाग्दग्धा मंत्र सिद्धि कथं भवेत ? ....

असत्ये तु वाग्दग्धा मंत्र सिद्धि कथं भवेत ? ....

कुछ दिनों पूर्व मैनें एक प्रस्तुति दी थी ... "हमें साधना में सफलता क्यों नहीं मिलती"? यह लेख उसी के आगे की एक कड़ी है|
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अंग्रेजी राज्य में मध्य भारत के एक प्रसिद्ध अंगरेज़ न्यायाधीश ने जो अंग्रेज़ी सेना के उच्चाधिकारी भी रह चुके थे, अपनी स्मृतियों में लिखा है कि उनके सेवाकाल में उनके समक्ष सैकड़ों ऐसे मुक़दमें आये जहाँ अभियुक्त असत्य बोलकर बच सकते थे, उन्होंने सजा भुगतनी स्वीकार की पर असत्य नहीं बोला| किसी भी परिस्थिति में उन्होंने असत्य बोलना स्वीकार नहीं किया| ऐसे सत्यनिष्ठ होते थे भारत के अधिकाँश लोग|
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'सत्य' सृष्टि का मूल तत्व है| वेदों में सत्य को ब्रह्म कहा गया है| तैत्तिरीय उपनिषद् में .... 'सत्यं ज्ञानं अनंतं ब्रह्म' .... वाक्य द्वारा ब्रह्म के स्वरुप पर पर चर्चा हुई है| यहाँ सत्य की प्रधानता है| इसी उपनिषद् में आचार्य अपने शिष्यों को उपदेश देता है ..... सत्यं वद | धर्मं चर | स्वाध्यायान्मा प्रमदः | आचार्याय प्रियं धनमाहृत्य प्रजानन्तुं मा व्यवच्छेसीः | सत्यान्न प्रमदितव्यम् | धर्मान्न प्रमदितव्यम् | कुशलान्न प्रमदितव्यम् | भूत्यै न प्रमदितव्यम् | स्वाध्यायप्रवचनाभ्यां न प्रमदितव्यम् || .... यहाँ सर्वप्रथम उपदेश "सत्यं वद" है|
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मुन्डकोपनिषद में ..... सत्यमेव जयति नानृत, सत्येन पन्था विततो देवयानः, येनाक्रममन्त्यृषयो ह्याप्तकामा, यत्र तत् सत्यस्य परमं निधानाम् , ....अर्थात
सत्य (परमात्मा) की सदा जय हो, वही सदा विजयी होता है, असत् (माया) तात्कालिक है उसकी उपस्थिति भ्रम है, वह भासित सत्य है वास्तव में वह असत है अतः वह विजयी नहीं हो सकता. ईश्वरीय मार्ग सदा सत् से परिपूर्ण है. जिस मार्ग से पूर्ण काम ऋषि लोग गमन करते हैं वह सत्यस्वरूप परमात्मा का धाम है|
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ऋषि पतंजलि के योग सूत्रों के पाँच यमों में सत्य भी है| पञ्च महाव्रतों में भी सत्य एक महाव्रत भी है|
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"धरम न दूसर सत्य समाना।आगम निगम प्रसिद्ध पुराना" ||
सत्य के समान दूसरा कोई धर्म नहीं है यह सभी आगम, निगम और पुराणों में प्रसिद्द है|
भगवान श्रीराम भरत जी से कहते है ....
राखेऊ राऊ,सत्य मोहिं त्यागी .... राजा दशरथ जी ने प्रभु श्रीराम को त्याग दिया, पर सत्य को नहीं|
राम चरित मानस में जहाँ भी झूठ यानि असत्य है वहाँ भगवान श्रीसीताराम जी नहीं हैं|
प्रमाण .....
झूठइ लेना झूठइ देना | झूठइ भोजन झूठ चबेना ||
इस चौपाई में "र" और "म" यानी " राम" नहीं हैं तथा "स" और "त" यानी "सीता" भी नहीं है| क्यों ? ..... क्योंकि जिसमें असत्य हो उसमें मेरे प्रभु श्रीसीताराम नहीं रह सकते|
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असत्ये तु वाग्दग्धा मंत्र सिद्धि कथं भवेत ? ....... असत्य बोलने से वाणी दग्ध हो जाती है| जैसे जला हुआ पदार्थ यज्ञ के काम का नहीँ होता है, वैसे ही जिसकी वाणी झूठ बोलती है, उससे कोई जप तप नहीं हो सकता| वह चाहे जितने मन्त्रों का जाप करे, कितना भी ध्यान करे, उसे फल कभी नहीं मिलेगा| दूसरों की निन्दा या चुगली करना भी वाणी का दोष है। जो व्यक्ति अपनी वाणी से किसी दूसरे की निन्दा या चुगली करता है वह कोई जप तप नहीं कर सकता|
निर्मल मन जन सो मोहिं पावा | मोहिं कपट छल छिद्र न भावा || ये भगवान श्रीराम के वचन हैं|
जहाँ पर सत्य है वहाँ अभिन्न रूप से श्रीसीताराम जी वास करते हैं| ....
गिरा अरथ जल बीचि सम कहियत भिन्न न भिन्न|
बंदऊँ सीताराम पद जिन्हहिं परम प्रिय खिन्न ||
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हे मेरे मुर्ख मन, अपने भीतर से असत्य को बाहर निकाल कर अपने हृदय के सिंहासन पर परमात्मा को बैठा, क्योंकि ..... 'नहीं असत्य सम पातक पुंजा'| यानि असत्य के सामान कोई पाप नहीं है|
"आचारहीनं न पुनन्ति वेदाः" आचारहीन को वेद भी नहीं पवित्र कर सकते|
असत्यवादी कभी आत्मज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता| .
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
८ फरवरी २०१७
पुनश्चः : ..... हम भगवान सत्यनारायण की पूजा करते हैं, उनकी कथा सुनते हैं, उनका प्रसाद बाँटते हैं, पर इसका अर्थ समझने का प्रयास नहीं करते| सत्य ही नारायण हैं| भगवान् सत्यनारायण हैं| ब्रह्म सत्यं जगत मिथ्या, सत्य ही ब्रह्म है| ॐ ॐ ॐ

मेरा "धर्म" क्या है?

मेरा "धर्म" क्या है?
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हमारे प्रायः सभी धर्मग्रन्थों में धर्म को खूब अच्छी तरह से समझाया गया है, धर्म के लक्षण भी बताए गए हैं| पर गीता में भगवान श्रीकृष्ण जब स्वधर्म और परधर्म की बात कहते हैं तब हम यह सोचने को विवश हो जाते हैं कि हर व्यक्ति का पृथक पृथक स्वधर्म और परधर्म भी होता है| भगवान कहते हैं ....
"श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्| स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः||३:३५||
अर्थात् सम्यक् प्रकार से अनुष्ठित परधर्म की अपेक्षा गुणरहित स्वधर्म का पालन श्रेयष्कर है; स्वधर्म में मरण कल्याणकारक है (किन्तु) परधर्म भय को देने वाला है||
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जहाँ तक मैं समझा हूँ यानि जहाँ तक मेरी समझ है ..... धर्म एक ऊर्ध्वमुखी भाव है जो हमें परमात्मा से संयुक्त करता है|
"यथो अभ्युदय निःश्रेयस् सिद्धि स धर्म"| जिससे अभ्युदय और निःश्रेयस् की सिद्धि हो वही धर्म है| धर्म की यह परिभाषा कणाद ऋषि ने वैशेषिकसूत्रः में की है जो हिंदू धर्म के षड्दर्शनों में से एक है|
"जिससे हमारा सम्पूर्ण सर्वोच्च विकास और सब तरह के दुःखों/कष्टों से मुक्ति हो वही धर्म है|"
यह धर्म की सर्वमान्य हिंदू परिभाषा है| यही वास्तविकता है|
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जिसका भी ऊर्ध्वमुखी भाव है, जिस में भी परमात्मा के प्रति अहैतुकी परमप्रेम है, व उन्हें पाने की अभीप्सा है, वही धार्मिक है| सही अर्थों में वही एक सच्चा भारतीय भी है| ऐसे लोगो का समूह ही अखंड भारत है| ईश्वर ने यही भाव सम्पूर्ण सृष्टि में फैलाने के लिए भारतवर्ष को चुना है| अतः सनातन धर्म ही भारत है और भारत ही सनातन धर्म है| सनातन धर्म का विस्तार ही भारत का विस्तार है, और भारत का विस्तार ही सनातन धर्म का विस्तार है|
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सम्पूर्ण ब्रह्मांड मेरा घर है और समस्त सृष्टि मेरा परिवार| जब सारी सृष्टि साँस लेती है तब ही मेरी भी साँसें चलती हैं| समस्त सृष्टि का प्राण ही मेरा अस्तित्व है| मेरा केंद्र सर्वत्र है, परिधि कहीं भी नहीं| मैं अपने प्रियतम के साथ एक हूँ, यह भाव ही मेरा स्वधर्म है, अन्य सब मेरे लिए परधर्म है|
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ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय, ॐ नमः शिवाय, ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
८ फरवरी २०२०

विदेशी संस्कृति क्यों और कैसे हावी हुई हमारे देश में .....

विदेशी संस्कृति क्यों और कैसे हावी हुई हमारे देश में .....
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सन 1858 ई.में Indian Education Act बनाया गया जिसका प्रारूप लोर्ड मैकाले ने तैयार किया था| उससे पहले उसने भारत की शिक्षा व्यवस्था का सर्वेक्षण कराया था| उससे पहले भी कई अंग्रेजों ने भारत की शिक्षा व्यवस्था के बारे में अपनी रिपोर्ट दी थी| अंग्रेजों का एक अधिकारी था G.W.Litnar और दूसरा था Thomas Munro, दोनों ने अलग अलग इलाकों का अलग-अलग समय सर्वे किया था|
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यह सन 1823 ई.के आसपास की बात है| Litnar , जिसने उत्तर भारत का सर्वे किया था, उसने लिखा है कि यहाँ 97% साक्षरता है, और Munro, जिसने दक्षिण भारत का सर्वे किया था, उसने लिखा कि यहाँ तो 100 % साक्षरता है| उस समय भारत में इतनी साक्षरता थी|
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मैकाले का स्पष्ट कहना था कि भारत को हमेशा-हमेशा के लिए अगर गुलाम बनाना है तो इसकी सांस्कृतिक शिक्षा व्यवस्था को पूरी तरह से ध्वस्त करना होगा और उसकी जगह अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था लानी होगी| तभी इस देश में शरीर से हिन्दुस्तानी लेकिन दिमाग से अंग्रेज पैदा होंगे और जब वे इस देश के विश्वविद्यालयों से निकलेंगे तो हमारे हित में काम करेंगे| मैकाले का कहना था कि जैसे किसी खेत में कोई फसल लगाने के पहले उसे पूरी तरह जोत दिया जाता है वैसे ही इस देश को बौद्धिक रूप से जोतना होगा और अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था लानी होगी|
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इसलिए उसने सबसे पहले '' गुरुकुलों को गैरकानूनी '' घोषित किया,
जब गुरुकुल गैरकानूनी हो गए तो उनको मिलने वाली सहायता जो समाज की तरफ से होती थी वह गैरकानूनी हो गयी|
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फिर ''संस्कृत को गैरकानूनी घोषित'' किया गया|
अँगरेज़ अधिकारियों ने पूरे भारतवर्ष में घूम घूम कर सारे गुरुकुलों को नष्ट कर दिया, उनमे आग लगा दी गयी और उसमे पढ़ाने वाले ब्राह्मण गुरुओं को मारा-पीटा और उनका धन छीन कर जेल में डाला| ब्राह्मणों को इतना दरिद्र बना दिया कि वे अपने बच्चों को पढ़ाने में भी असमर्थ हो गए| उनके ग्रन्थ जला दिए गये| आज जो भी शास्त्र बचे हैं वे वे ही हैं जिनको ब्राह्मणों ने रट रट कर याद रखा था|
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1850 तक इस देश में 7 लाख 32 हजार गुरुकुल हुआ करते थे और उस समय इस देश में गाँव थे 7 लाख 50 हजार| हर गाँव में औसतन एक गुरुकुल था| ये जो गुरुकुल होते थे वे सब के सब आज की भाषा में Higher Learning Institute हुआ करते थे उन सबमे 18 विषय पढाये जाते थे| ये गुरुकुल समाज के लोग मिल कर चलाते थे न कि राजा, महाराजा| इन गुरुकुलों में शिक्षा निःशुल्क दी जाती थी|
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इस तरह से सारे गुरुकुलों को ख़त्म किया गया और फिर सिर्फ अंग्रेजी शिक्षा को ही कानूनी घोषित किया गया| कलकत्ता में पहला कॉन्वेंट स्कूल खोला गया| उस समय इसे फ्री स्कूल कहा जाता था| इसी कानून के तहत भारत में कलकत्ता यूनिवर्सिटी बनाई गयी, बम्बई यूनिवर्सिटी बनाई गयी, मद्रास यूनिवर्सिटी बनाई गयी और ये तीनों गुलामी के ज़माने के यूनिवर्सिटियाँ आज भी इस देश में हैं|
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मैकाले ने अपने पिता को एक पत्र लिखा था जो बहुत प्रसिद्ध पत्र है| उसमें उसने लिखा कि इन कॉन्वेंट स्कूलों से ऐसे बच्चे निकलेंगे जो देखने में तो भारतीय होंगे लेकिन दिमाग से अंग्रेज होंगे| उन्हें अपने देश, अपनी संस्कृति, और अपनी परम्पराओं के बारे में कुछ पता नहीं होगा| उनको अपनी भाषा और अपने मुहावरे नहीं मालूम होंगे| जब ऐसे बच्चे होंगे इस देश में तो अंग्रेज भले ही चले जाएँ इस देश से अंग्रेजियत नहीं जाएगी|
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उस समय लिखी गयी उसकी चिट्ठी की सच्चाई इस देश में अब साफ़-साफ़ दिखाई दे रही है| उस कानून की महिमा देखिये कि हमें अपनी भाषा भी बोलने में शर्म आती है| हम अंग्रेजी में इसलिए बोलते हैं कि इससे दूसरों पर रोब पड़ेगा| हम स्वयं ही इतने हीन हो गए हैं कि हमें अपनी भाषा बोलने में भी शर्म आ रही है, इससे दूसरों पर रोब क्या पड़ेगा? लोगों का तर्क है कि अंग्रेजी अंतर्राष्ट्रीय भाषा है, जो गलत है| दुनिया में 204 देश हैं और अंग्रेजी सिर्फ 11 देशों में बोली, पढ़ी और समझी जाती है, फिर ये कैसे अंतर्राष्ट्रीय भाषा है? शब्दों के मामले में भी अंग्रेजी समृद्ध नहीं दरिद्र भाषा है|
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इन अंग्रेजों की जो बाइबिल है वह भी अंग्रेजी में नहीं थी और इनके भगवान जीसस क्राइस्ट भी अंग्रेजी नहीं बोलते थे| जीसस क्राइस्ट की भाषा और बाइबिल की भाषा अरमेक थी| अरमेक भाषा की लिपि जो थी वो हमारी बंगला भाषा से मिलती जुलती थी| समय के कालचक्र में वह भाषा विलुप्त हो गयी है| संयुक्त राष्ट संघ जो अमेरिका में है वहाँ की भाषा अंग्रेजी नहीं है, वहां का सारा काम फ्रेंच में होता है | जो समाज अपनी मातृभाषा से कट जाता है उसका कभी भला नहीं होता और यही मैकाले की रणनीति थी|
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पर अब एक प्रबल आध्यात्मिक शक्ति भारत का उत्थान कर रही है| भारत फिर से उठ रहा है और परम वैभव के शिखर पर पहुँचेगा|
ओम् तत् सत् | शिवोहं शिवोहं शिवोहं शिवोहं शिवोहं | ॐ ॐ ॐ||
कृपा शंकर
८ फरवरी २०१६

कुण्डलिनी महाशक्ति .......

कुण्डलिनी महाशक्ति .......

मेरे ये शब्द प्रचलित मान्यताओं के विरुद्ध हैं अतः किसी को बुरा लगना भी स्वाभाविक है| कुछ बातों को समझाने के लिए प्रतीकों का सहारा लिया जाता है पर वे प्रतीक ही कालान्तर में रहस्यमय हो जाते हैं| फिर कोई कोई उन पर प्रकाश डालता है वह अपने शब्दों में आकर्षण लाने के लिए उसे और भी अधिक रहस्यमय बना देता है| ऐसा ही एक शब्द है ...'कुण्डलिनी'|
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इस शब्द को इतना अधिक रहस्यमय बना दिया गया है जब कि इसमें कोई रहस्य है ही नहीं| इसे समझना बड़ा सरल है| कोई भी साधक जो नियमित ध्यान साधना करता है वह प्रत्यक्ष अनुभूति से इसे तुरंत समझ जाता है| बिना ध्यान साधना के सिर्फ बौद्धिकता से इस विषय को समझना असंभव है|
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कुछ लोग अपनी मान्यताओं के विरुद्ध कोई बात सुनते ही भड़क जाते हैं और सीधे अभद्र भाषा का प्रयोग करने लगते हैं| ऐसा नहीं होना चाहिए| यह प्रस्तुति ऐसे लोगों के लिए नहीं है| मैं जो लिख रहा हूँ वह मेरा निजी अनुभव है| कोई क्या सोचता है यह उसकी अपनी समस्या है|
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सर्वप्रथम तो मैं यहाँ यह कहना चाहता हूँ कि कुण्डलिनी कोई स्वतंत्र शक्ति नहीं है| यह प्रकृति या मूल प्रकृति भी नहीं है| इसे सिर्फ एक "कुण्डलिनी महाशक्ति" नाम दिया गया है जो मात्र प्रतीकात्मक है| वास्तव में यह सब तरह की शक्तियों से परे बिखरी हुई प्राण ऊर्जा का घनीभूत होकर आरोहण यानि ऊर्ध्वगमन मात्र है| जैसे जैसे इस घनीभूत प्राण ऊर्जा का आरोहण यानि ऊर्ध्वगमन होता है, वैसे वैसे चेतना का और समझ का स्तर बढ़ता जाता है| यह साधक की चेतना को अज्ञान क्षेत्र से ज्ञान क्षेत्र और उससे भी परे परा क्षेत्र में ले जाती है|
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हम कुण्डलिनी को अपने प्रयास मात्र से जागृत नहीं कर सकते, यह चेतना सिद्ध गुरु और परमात्मा के अनुग्रह से स्वयं जागृत होकर हमें ही जागृत करती है|
कुण्डलिनी से सम्बंधित सारी साधनाएँ शिष्य की पात्रता देखकर कोई श्रौत्रीय ब्रह्मनिष्ठ सिद्ध गुरु परमात्मा की इच्छा से कृपा कर के शिष्य को प्रदान करता है| किसी पुस्तक को पढ़कर या किसी से सुनकर इसकी साधना नहीं की जा सकती|
यह चेतना स्वयमेव प्रभुकृपा से ही जागृत होती है| 'क्रियायोग' व इस तरह की कुछ अन्य साधनाओं से चेतना ऊर्ध्वमुखी होती है|
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जब गुरु की आज्ञा से कोई साधक भ्रूमध्य पर दृष्टी स्थिर कर आज्ञा चक्र पर ध्यान करता है तब सूक्ष्म देह की बहिर्मुखी शक्तियाँ अंतर्मुखी होकर मेरुदंड के नीचे मूलाधार चक्र में प्रकट होती हैं इसकी अनुभूति प्रत्येक साधक को होती है| उसे लगता है जैसे कोई पीछे से ठोकर मार रहा है| पर इसमें कोई घबराने की बात नहीं है| यह कुण्डलिनी जागरण का एक side effect है| मुख्य लक्ष्य तो भक्ति है| कुण्डलिनी जागरण कोई लक्ष्य नहीं है|
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प्रभुकृपा से जैसे जैसे यह चेतना सुषुम्ना में ऊर्ध्वमुखी होकर ऊपर के चक्रों को पार करती है साधक की समझ भी विस्तृत होती जाती है| नीचे के तीन चक्रों को पार कर जब यह चेतना ह्रदय के पीछे अनाहत चक्र तक आती है तब विशुद्ध भक्ति जागृत होती है| जिसमें पूर्वजन्मों के अच्छे संस्कारों से विशुद्ध भक्ति है उसकी कुण्डलिनी पहिले से ही जागृत है|
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मूलाधार से आज्ञाचक्र तक का क्षेत्र अज्ञान क्षेत्र है| आज्ञाचक्र से सहस्त्रार तक ज्ञान क्षेत्र है, और उससे आगे परा क्षेत्र है| इससे अधिक यहाँ इस पोस्ट में लिखना एक भटकाव होगा|
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सार की बात यह है कि कुण्डलिनी जागरण कोई लक्ष्य नहीं है| हमारा लक्ष्य भक्ति द्वारा प्रभु की शरणागति और समर्पण है| जब यह कुण्डलिनी चेतना आज्ञा चक्र से ऊपर उठती है तब सिद्धियाँ भी प्राप्त होने लगती हैं जो साधक को परमात्मा से विमुख करती हैं| उस ओर ध्यान देना ही नहीं चाहिए| ध्येय ..... भक्ति द्वारा परमात्मा की शरणागति और समर्पण ही हैं अन्य कुछ भी नहीं|
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ॐ तत्सत् | ॐ नमो भगवते वासुदेवाय | ॐ शिव | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
७ फरवरी २०१६

परमात्मा का निरंतर चिंतन ही सदाचार है, अन्य सब व्यभिचार है .....

परमात्मा का निरंतर चिंतन ही सदाचार है, अन्य सब व्यभिचार है| सारे यम (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह), और सारे नियम (शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर-प्रणिधान), भक्त के पीछे-पीछे चलते हैं, भक्त उन के पीछे नहीं| हृदय में परम-प्रेम होने पर भगवान के सारे गुण भक्त में स्वतः खिंचे चले आते हैं| जैसे एक शक्तिशाली चुंबक लौहकणों को अपनी ओर खींच लेता है, वैसे ही भगवान की भक्ति सारे सदगुणों को अपनी ओर खींच लेती है| प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि भी स्वतः ही उपलब्ध हो जाती हैं| वह भूमि भी धन्य और सनाथ हो जाती है जहाँ उनके पैर पड़ते हैं| वे पृथ्वी पर चलते-फिरते देवता हैं| देवता भी उन्हें देखकर आनंदित होकर नृत्य करने लगते हैं| अपना सर्वश्रेष्ठ प्रेम परमात्मा को दें| फिर एक दिन हम पायेंगे कि कहीं कोई पृथकता नहीं है, हम भगवान के साथ एक हैं|
ॐ तत्सत् | ॐ नमो भगवते वासुदेवाय | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
६ फरवरी २०२०

"अनन्य-अव्यभिचारिणी भक्ति" भगवान का एक बहुत बड़ा आशीर्वाद और बहुत बड़ी उपलब्धि है, कोई सामान्य क्रिया नहीं....

गीता में बताई हुई भगवान की "अनन्य-अव्यभिचारिणी भक्ति" भगवान का एक बहुत बड़ा आशीर्वाद और बहुत बड़ी उपलब्धि है, कोई सामान्य क्रिया नहीं....
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भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में जिस अनन्य-अव्यभिचारिणी भक्ति की बात कही है वह कई जन्मों की साधना के उपरांत प्राप्त होने वाली एक बहुत महान उपलब्धि है, कोई सामान्य क्रिया नहीं| यह अनन्य-अव्यभिचारिणी भक्ति एक क्रमिक विकास का परिणाम है, और परमात्मा को उपलब्ध होने की अंतिम सीढ़ी और उनकी परम कृपा है, जिसके उपरांत वैराग्य होना सुनिश्चित है|
"मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी| विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि||१३:११||"
इस भक्ति को उपलब्ध होने पर भगवान के अतिरिक्त अन्य कहीं मन नहीं लगता| भक्ति में व्यभिचार वह है जहाँ भगवान के अलावा अन्य किसी से भी प्यार हो जाता है| भगवान हमारा शत-प्रतिशत प्यार माँगते हैं| हम जरा से भी इधर-उधर हो जाएँ तो वे चले जाते हैं| इसे समझना थोड़ा कठिन है| हम हर विषय में, हर वस्तु में भगवान की ही भावना करें, और उसे भगवान की तरह ही प्यार करें| सारा जगत ब्रह्ममय हो जाए| ब्रह्म से पृथक कुछ भी न हो| यह अनन्य अव्यभिचारिणी भक्ति है| भगवान स्वयं कहते हैं .....
"बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते| वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः||७:१९||"
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इस स्थिति को हम ब्राह्मी स्थिति भी कह सकते हैं, जिसके बारे में भगवान कहते हैं .....
"विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः| निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति||२:७१||"
"एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति| स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति||२:७२||"
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व्यावहारिक व स्वभाविक रूप से यह अनन्य-अव्यभिचारिणी भक्ति तब उपलब्ध होती है जब भगवान की परम कृपा से हमारी घनीभूत प्राण-चेतना कुंडलिनी महाशक्ति जागृत होकर आज्ञाचक्र का भेदन कर सहस्त्रार में प्रवेश कर जाती है| तब लगता है कि अज्ञान क्षेत्र से निकल कर ज्ञान क्षेत्र में हम आ गए हैं| सहस्त्रार से भी परे ब्रह्मरंध्र का भेदन करने पर अन्य उच्चतर लोकों की और उनसे भी परे परमशिव की अनुभूतियाँ होती हैं| फिर ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय .... एक ही हो जाते हैं| उस स्थिति में हम कह सकते हैं .... "शिवोहम् शिवोहम् अहं ब्रह्मास्मि"| फिर कोई अन्य नहीं रह जाता और हम स्वयं ही अनन्य हो जाते हैं|
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भगवान वासुदेव की अनंत कृपा सभी पर बनी रहे|
ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
६ फरवरी २०२०

धर्म और राष्ट्र की रक्षा हमारा सर्वोपरि दायित्व है .....

धर्म और राष्ट्र की रक्षा हमारा सर्वोपरि दायित्व है .....
सारे उपदेश तभी तक सार्थक हैं जब तक परमात्मा की प्रत्यक्ष अनुभूति न हो जाये| एक बार उनकी प्रत्यक्ष अनुभूति हो जाये तो उन्हीं की शरणागत होकर उन्हीं में समर्पित हो जाना चाहिए| फिर कोई कर्तव्य नहीं रहता| तब तक अपना साधन-भजन नहीं छोडना चाहिए| गीता पाठ, गायत्री जप, प्राणायाम, ध्यान, मंत्रजप आदि का अपनी अपनी गुरु-परंपरानुसार नित्य नियमित अभ्यास अवश्य करना चाहिए|
समाज और राष्ट्र का ऋण हमारे ऊपर है| राष्ट्र है, तभी हम है, तभी हमारा धर्म और हमारा अस्तित्व है| अतः राष्ट्रहित में अपने सभी कर्म करने चाहियें| परमात्मा की व धर्म की सर्वोच्च और सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति भारतवर्ष में ही हुई है| जो हमें परमात्मा का साक्षात्कार करवा सकता है वह सनातन धर्म है| अतः धर्म और राष्ट्र की रक्षा हमारा सर्वोपरि दायित्व है| सनातन धर्म ही हमारी राजनीति हो| ॐ तत्सत् ||
५ फरवरी २०२० 

गीता के निम्न १४ श्लोकों का अर्थ सहित नित्य पाठ, मनन और ध्यान ..... किसी भी श्रद्धालु का परम कल्याण कर सकता है :---

एक महान संत के अनुसार गीता के निम्न १४ श्लोकों का अर्थ सहित नित्य पाठ, मनन और ध्यान ..... किसी भी श्रद्धालु का परम कल्याण कर सकता है :---
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"तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्ितर्विशिष्यते| प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः||७:१७||"
"तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च| मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्||८:७||"
"अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना| परमं पुरुषं दिव्यं यातिपार्थानुचिन्तयन्||८:८||"
"अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते| तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्||९:२२||"
"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु| मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः||९:३४||"
"मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम्| कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च||१०:९||"
"ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्पराः| अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते||१२:६||"
"तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्| भवामि नचिरात् पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्||१२:७||"
"मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय| निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः||१२:८||"
मां च योऽव्यभिचारेण भक्ितयोगेन सेवते| स गुणान्समतीत्यैतान् ब्रह्मभूयाय कल्पते||१४:२६||"
"चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य मत्परः| बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव||१८:५७||"
"मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि| अथ चेत्त्वमहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि||१८:५८||"
"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु| मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे||१८:६५||"
"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज| अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः||१८:६६||"

Sunday, 2 February 2020

हम जहाँ हैं, वहीं भगवान हैं .....

हम जहाँ हैं, वहीं भगवान हैं, वहीं सारे तीर्थ हैं, वहीं सारे संत-महात्मा हैं, कहीं भी किसी के भी पीछे-पीछे नहीं भागना है| भगवान हैं, यहीं हैं, इसी समय हैं, और सर्वदा हैं| वे ही इन नासिकाओं से सांस ले रहे हैं, वे ही इस हृदय में धड़क रहे हैं, वे ही इन आँखों से देख रहे हैं, और इस शरीर-महाराज और मन, बुद्धि व चित्त के सारे कार्य वे ही संपादित कर रहे हैं| उनके सिवाय अन्य किसी का कोई अस्तित्व नहीं है| बाहर की भागदौड़ एक मृगतृष्णा है, बाहर कुछ भी नहीं मिलने वाला| परमात्मा की अनुभूति निज कूटस्थ-चैतन्य में ही होगी|

जब परमात्मा की अनुभूति हो जाये तब इधर-उधर की भागदौड़ बंद हो जानी चाहिए. उन्हीं की चेतना में रहें|
किसी ने मुझ से पूछा कि मेरा सिद्धान्त, मत और धर्म क्या है?
मेरा स्पष्ट उत्तर था .....
मेरा कोई सिद्धान्त नहीं है, मेरा कोई मत या पंथ नहीं है, मेरा कोई धर्म नहीं है, और मेरा कोई कर्तव्य नहीं है| मेरा समर्पण सिर्फ और सिर्फ परमात्मा के लिए है| स्वयं परमात्मा ही मेरे सिद्धान्त, मत/पंथ, धर्म और कर्तव्य हैं| उनसे अतिरिक्त मेरा कोई नहीं है| वे ही मेरे सर्वस्व हैं| मेरा कोई पृथक अस्तित्व भी नहीं है| यज्ज्ञात्वा मत्तो भवति स्तब्धो भवति आत्मारामो भवति||

२ फरवरी २०२० 

किस किस से मिलें? किस किस के पीछे-पीछे भागें? .....

किस किस से मिलें? किस किस के पीछे-पीछे भागें? कहाँ-कहाँ जाएँ? कोल्हू का बैल उम्रभर घूमता है और वहीं-का-वहीं रहता है| कोल्हू के बैल की भांति भटकते भटकते कई जन्म बीत गए, पाया कि वहीं के वहीं है, कहीं भी नहीं पहुंचे| सारे स्थान तो उनके ही हैं| वे वहाँ हैं तो यहाँ भी हैं| कितने लोगों के पीछे पीछे भागे| किसी से कुछ भी नहीं मिला| सब में तो वे ही हैं| अब यह भटकाव समाप्त हो गया है| परमप्रिय तो सदा ही साथ थे, जहाँ भी मैं हूँ वहीं वे स्वयं भी हैं| वे उन्हीं से मिलाते हैं, जो उनकी याद दिलाते हैं| वे वहीं ले जाते हैं जहां उन का स्मरण होता है| कूटस्थ ब्रह्म के रूप में वे सदा समक्ष हैं| उनको छोड़कर जाने को अब कोई स्थान नहीं बचा है| आप की जय हो|

जिन के स्मरण मात्र से भगवान की भक्ति जागृत हो जाए, जिनके समक्ष जाते ही सुषुम्ना चैतन्य हो जाए, हृदय परमप्रेममय हो जाए, और हम स्वतः ही नतमस्तक हो जाएँ, वे ही सच्चे संत हैं| उन्हीं का सत्संग सार्थक है|
जो सिर्फ भगवान की बातें करते हैं, पर जिन में अहंकार, लोभ और असत्य व्यक्त हो रहा हो, उन का संग विष की तरह छोड़ देना चाहिए| वे संत नहीं हो सकते|


ॐ ॐ ॐ ||
२ फरवरी २०२० 

हमारा अन्तःकरण ही कुरुक्षेत्र का मैदान है .....

हमारा अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार) ही कुरुक्षेत्र का मैदान है| यही धर्मक्षेत्र है और यही कुरुक्षेत्र है| महाभारत का युद्ध यहाँ निरंतर चल रहा है| एक ओर भगवान श्रीकृष्ण हैं, और दूसरी ओर दुर्योधन की सेना जिसे जीत पाना दुर्धर्ष है| हम किन के साथ रहें इस की हमें पूरी छूट है| यहाँ धर्म और अधर्म का युद्ध हो रहा है|
अब तो स्थिति ऐसी है कि न तो धर्म से मुझे कोई मतलब है और न ही अधर्म से| सत्य और असत्य, पाप और पुण्य .... ये सब महत्वहीन हो गए हैं| जब से भगवान श्रीकृष्ण हमारे समक्ष हुए हैं तभी से उनके प्रबल आकर्षण से सब कुछ उन ही का हो गया है| कुछ भी अपने पास नहीं बचा है| जैसे एक शक्तिशाली चुंबक लौह धातुओं को अपनी ओर खींच लेता है वैसे ही सब कुछ उन्होने अपनी ओर खींच लिया है| ऐसा प्रबल आकर्षण है उन सच्चिदानंद का| कहीं कोई भेद नहीं है| वे ही पारब्रहम् हैं, वे ही परमशिव हैं और वे ही आदिशक्ति हैं| वे साक्षात् हरिः हैं| अब अपना कहने को कुछ भी नहीं है, सब कुछ उन्हें समर्पित है| उनके सिवाय अन्य कुछ है ही नहीं| कहीं कोई दूरी नहीं है| कूटस्थ में वे नित्य बिराजमान है|
ॐ तत्सत् ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
१ फरवरी २०२०

आकाशस्थ सूर्यमण्डल में परम-पुरुष का सदा ध्यान करें ...

जीवन के सब अभाव दूर होंगे. आकाशस्थ सूर्यमण्डल में परम-पुरुष का सदा ध्यान करें ...
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गीता में भगवान कहते हैं .....
"अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना| परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्||८:८||"
अर्थात् हे पार्थ ! अभ्यासयोग से युक्त अन्यत्र न जाने वाले चित्त से निरन्तर चिन्तन करता हुआ (साधक) परम दिव्य पुरुष को प्राप्त होता है।
उपरोक्त श्लोक पर स्वनामधन्य भाष्यकार आचार्य शंकर कहते हैं ....
हे पार्थ, अभ्यासयोगयुक्त अनन्यगामी चित्त द्वारा अर्थात् चित्तसमर्पण के आश्रयभूत मुझ एक परमात्मा में ही विजातीय प्रतीतियों के व्यवधान से रहित तुल्य प्रतीति की आवृत्तिका नाम अभ्यास है, वह अभ्यास ही योग है| ऐसे अभ्यासरूप योग से युक्त उस एक ही आलम्बन में लगा हुआ विषयान्तर में न जाने वाला जो योगीका चित्त है उस चित्त द्वारा शास्त्र और आचार्य के उपदेशानुसार चिन्तन करता हुआ योगी परम निरतिशय -- दिव्य पुरुषको -- जो आकाशस्थ सूर्यमण्डलमें परम पुरुष है -- उसको प्राप्त होता है।
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इस से आगे भगवान कहते हैं .....
"कविं पुराणमनुशासितार मणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः| सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूप मादित्यवर्णं तमसः परस्तात्||८:९||"
"प्रयाणकाले मनसाऽचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव| भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्||८:१०||"
"यदक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः| यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये||८:११||"
"सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च| मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्||८:१२||"
"ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्| यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्||८:१३||"
"अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः| तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः||८:१४||"
"मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम्| नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः||८:१५||"
अर्थात् .... "जो पुरुष सर्वज्ञ, प्राचीन (पुराण), सबके नियन्ता, सूक्ष्म से भी सूक्ष्मतर, सब के धाता, अचिन्त्यरूप, सूर्य के समान प्रकाश रूप और (अविद्या) अन्धकार से परे तत्त्व का अनुस्मरण करता है, वह (साधक) अन्तकाल में योगबल से प्राण को भ्रकुटि के मध्य सम्यक् प्रकार स्थापन करके निश्चल मन से भक्ति युक्त होकर उस परम दिव्य पुरुष को प्राप्त होता हैे वेद के जानने वाले विद्वान जिसे अक्षर कहते हैं; रागरहित यत्नशील पुरुष जिसमें प्रवेश करते हैं; जिसकी इच्छा से (साधक गण) ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं - उस पद (लक्ष्य) को मैं तुम्हें संक्षेप में कहूँगा|
सब (इन्द्रियों के) द्वारों को संयमित कर मन को हृदय में स्थिर करके और प्राण को मस्तक में स्थापित करके योगधारणा में स्थित हुआ जो पुरुष ओऽम् इस एक अक्षर ब्रह्म का उच्चारण करता हुआ और मेरा स्मरण करता हुआ शरीर का त्याग करता है, वह परम गति को प्राप्त होता है| परम सिद्धि को प्राप्त हुये महात्माजन मुझे प्राप्त कर अनित्य दुःख के आलयरूप (गृहरूप) पुनर्जन्म को नहीं प्राप्त होते हैं|"
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जिनके संकल्प से यह सृष्टि सृष्ट हुई है, जीवन उन परमपुरुष यानि परमशिव को समर्पित हो जाये तो क्या जीवन में कोई अभाव रह सकता है? हृदय विदीर्ण हो रहा है भगवान के बिना| जीवन की सबसे पहली आवश्यकता परमात्मा हैं|
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
३१ जनवरी २०२०

बसंत पंचमी की शुभ कामनायें .....

"ॐ प्रणो देवी सरस्वती वाजेभिर्वजिनीवती धीनामणित्रयवतु|" "ॐ ऐं सरस्वत्यै नमः|"
बसंत पंचमी की शुभ कामनायें, माँ सरस्वती को नमन, और वीर बालक हकीकत राय का पुण्य स्मरण .....
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माघ माह के शुक्ल पक्ष की पंचमी को ‘बसंत पंचमी’, श्रीपंचमी' और 'सरस्वती पूजा' के रूप में देशभर में मनाया जाता है| इस दिन से बसंत ऋतु का आगमन और शरद ऋतु की विदाई होती है| चालीस-पचास वर्षों पूर्व तक इस दिन प्रायः सभी मंदिरों में भजन-कीर्तन होते थे, गुलाल लगाई जाती थी और पुष्प-वर्षा होती थी| अब तो श्रद्धालु इसे सरस्वती पूजा के रूप में ही मनाते हैं, क्योंकि मान्यता है कि इसी दिन विद्या और बुद्धि की देवी माँ सरस्वती अपने हाथों में वीणा, पुस्तक व माला लिए अवतरित हुई थीं| माँ सरस्वती को वागीश्वरी, भगवती, शारदा, वीणावादनी और वाग्देवी सहित अनेक नामों से पूजा जाता है| ये विद्या और बुद्धि प्रदाता हैं| संगीत की उत्पत्ति करने के कारण ये संगीत की देवी भी हैं| ‘बसंत पंचमी’ को गंगा का अवतरण दिवस भी माना जाता है| इस दिन गंगा स्नान करने का भी महत्व है| भारत के विभाजन से पूर्व लाहौर में वीर बालक हकीकत राय की स्मृति में एक मेला भी भरता था, वहीं जहाँ वीर बालक हकीकत राय ने धर्म-रक्षार्थ अपने प्राण दिये थे| अब लाहौर में बसंत पंचमी के दिन पतंगें उड़ाई जाती हैं|
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माघ के महीने में हुई वर्षा को भी शुभ माना जाता है| कहते हैं कि माघ के माह में हुई वर्षा के जल की एक-एक बूंद अमृत होती है| बसंत पंचमी के दिन से प्रकृति का कण-कण खिल उठता है| वसन्त पञ्चमी के समय सरसों के पीले-पीले फूलों से आच्छादित धरती की छटा देखते ही बनती है| प्रकृति इस दिन अपना शृंगार स्वयं करती है|
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बसंत पंचमी के दिन भगवान श्रीराम भीलनी शबरी की कुटिया में पधारे थे|
कुछ लोक-कथाओं के अनुसार बालक श्रीकृष्ण ने बसंत पंचमी के दिन श्रीराधा जी का शृंगार किया था|
राजा भोज का जन्मदिवस वसंत पंचमी को ही आता हैं| राजा भोज इस दिन एक बड़ा उत्सव करवाते थे जिसमें पूरी प्रजा के लिए एक बड़ा प्रीतिभोज रखा जाता था जो चालीस दिन तक चलता था|
बसंत पंचमी के ही दिन पृथ्वीराज चौहान ने तवे पर हुई चोट और चंदबरदाई के संकेत से अनुमान लगाकर जो बाण मारा, वह मोहम्मद ग़ोरी के सीने में जा धंसा था| इसके बाद चंदबरदाई और पृथ्वीराज ने भी एक दूसरे के पेट में छुरा भौंककर आत्मबलिदान दे दिया था|
२३-०२-१७३४ बसंत पंचमी के ही दिन वीर बालक हकीकत राय ने अपना बलिदान दिया और उनकी पत्नी लक्ष्मी देवी सती हुईं|
१८१६ ई.की बसंत पंचमी के दिन गुरु रामसिंह कूका का जन्म हुआ था| उनके ५० शिष्यों को १७ जनवरी १८७२ को मलेरकोटला में अंग्रेजों ने तोपों के मुंह से बांधकर उड़ा दिया, और बचे हुए १८ शिष्यों को फांसी दे दी| उन्हें मांडले की जेल में भेज दिया गया जहाँ घोर अत्याचार सहकर १८८५ में उन्होने अपना शरीर त्याग दिया|
वसन्त पंचमी के ही दिन हिन्दी साहित्य की अमर विभूति महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' का जन्म २८-०२-१८९९ को हुआ था| श्रद्धा से लोग उन्हें 'महाप्राण' कहते थे|
पुनश्च: आप सब को नमन और बसंत-पंचमी की शुभ कामनाएँ| "ॐ ऐं"
२९ जनवरी २०२० 

परमात्मा के लिए "परमशिव" शब्द मुझे बहुत प्रिय है .....

परमात्मा के लिए "परमशिव" शब्द मुझे बहुत प्रिय है .....
मैं परमात्मा के लिए "परमशिव" शब्द का प्रयोग करता हूँ| परमात्मा के सम्बोधन के लिए पता नहीं क्यों "परमशिव" शब्द व्यक्तिगत रूप से मुझे सबसे अधिक प्रिय लगता है| वर्षों पहिले जब से इस शब्द को सुना था तभी से इस शब्द पर और इस से हुई अनुभूतियों पर मैं मोहित हूँ| दर्शनशास्र अति गहन हैं| उनका वास्तविक ज्ञान तो परमात्मा की प्रत्यक्ष अनुभूति से ही होता है| हमें दर्शनशास्त्रों के बृहद अरण्य में विचरण के स्थान पर परमात्मा की प्रत्यक्ष अनुभूति पर ही पूरा ध्यान देना चाहिए| दर्शनशास्त्र हमें दिशा दे सकते हैं पर अनुभूति तो परमशिव की परमकृपा से ही होती है| उनकी परमकृपा होने पर सारा ज्ञान स्वतः ही प्राप्त हो जाता है|
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परमशिव का शाब्दिक अर्थ होता है ..... परम कल्याणकारी| पर वास्तव में यह एक अनुभूति है जो तब होती है जब हमारे प्राणों की गहनतम चेतना (जिसे तंत्र में कुण्डलिनी महाशक्ति कहते हैं) सहस्त्रार चक्र और ब्रह्मरंध्र का भी भेदन कर परमात्मा की अनंतता में विचरण कर बापस लौट आती है| परमात्मा की वह अनंतता ही "परमशिव" है| यह मुझ बुद्धिहीन अकिंचन को गुरुकृपा से ही समझ में आया है| वह अनन्तता ही परमशिव है जो परम कल्याणकारी है|
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जहाँ तक मुझे ज्ञात है, इस शब्द का प्रयोग एक तो स्वनामधन्य आचार्य शंकर ने अपने ग्रंथ "सौंदर्य लहरी" में किया है .....
"सुधा सिन्धोर्मध्ये सुरविटपवाटी परिवृते, मणिद्वीपे नीपोपवनवति चिन्तामणि गृहे|
शिवाकारे मञ्चे परमशिव पर्यङ्क निलयाम्, भजन्ति त्वां धन्यां कतिचन चिदानन्द लहरीम्||"
प्रख्यात वैदिक विद्वान श्री अरुण उपाध्याय के अनुसार अनाहत चक्र में कल्पवृक्ष के नीचे शिव रूपी मञ्च है| उसका पर्यङ्क परमशिव है| आकाश में सूर्य से पृथ्वी तक रुद्र, शनि कक्षा (१००० सूर्य व्यास तक सहस्राक्ष) तक शिव, उसके बाद १ लाख व्यास दूर तक शिवतर, सौर मण्डल की सीमा तक शिवतम है| आकाशगंगा में सदाशिव तथा उसके बाहर विश्व का स्रोत परमशिव है जिसने सृष्टि के लिये सङ्कल्प किया|
कश्मीर शैव दर्शन के आचार्य अभिनवगुप्त ने भी प्रत्यभिज्ञा दर्शन में "परमशिव" शब्द का प्रयोग किया है| "प्रत्यभिज्ञा" कश्मीर शैव दर्शन का बहुत प्यारा शब्द है जिसका अर्थ है ..... पहले से देखे हुए को पहिचानना, या पहले से देखी हुई वस्तु की तरह की कोई दूसरी वस्तु देखकर उसका ज्ञान प्राप्त करना|
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एक शब्द "सदाशिव" है जिसका शाब्दिक अर्थ तो है सदा कल्याणकारी और नित्य मंगलमय| पर यह भी एक अनुभूति है जो विशुद्धि चक्र के भेदन के पश्चात होती है|
ऐसे ही एक "रूद्र" शब्द है जिस में ‘रु’ का अर्थ है .... दुःख, तथा ‘द्र’ का अर्थ है .... द्रवित करना या हटाना| दुःख को हरने वाला रूद्र है|
दुःख का भी शाब्दिक अर्थ है .... 'दुः' यानि दूरी, 'ख' यानि आकाश तत्व रूपी परमात्मा| परमात्मा से दूरी ही दुःख है और समीपता ही सुख है| रुद्र भी एक अनुभूति है जो ध्यान में गुरुकृपा से ही होती है|
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हमारे स्वनामधन्य महान आचार्यों को ध्यान में जो प्रत्यक्ष अनुभूतियाँ हुईं उनके आधार पर ही उन्होंने गहन दर्शन शास्त्रों की रचना की| हमारा जीवन अति अल्प है, पता नहीं कौन सी सांस अंतिम हो, अतः अपने हृदय के परमप्रेम को जागृत कर यथासंभव अधिक से अधिक समय परमात्मा के ध्यान में ही व्यतीत करना चाहिए| वे जो ज्ञान करा दें वह भी ठीक है, और जो न कराएँ वह भी ठीक है| उन परमात्मा को ही मैं 'परमशिव' के नाम से ही संबोधित करता हूँ ..... यही परमशिव शब्द का रहस्य है| उन परमशिव का भौतिक स्वरूप ही शिवलिंग है जिसमें सब का लीन यानि विलय हो जाता है, जिस में सब समाहित है|
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और भी कई बाते हैं जिनको लिखने की अनुमति नहीं है| जो भी ज्ञान मुझे है, उसका पूरा श्रेय मैं गुरुकृपा को देता हूँ| गुरुकृपा ही निजानुभूतियों द्वारा यह सब ज्ञान करा देती है| सहस्त्रार गुरु स्थान है जहाँ उनके चरण कमलों का ध्यान होता है| ब्रह्मरंध्र से परे जो है वह परमशिव है| गुरु तत्व ही शिव तत्व का बोध कराता है|
किसी को विस्तार से सिद्धान्त रूप में ही कुछ जानना है तो शिवपुराण, लिंगपुराण और स्कन्दपुराण जैसे विशाल ग्रन्थ हैं; कश्मीर शैवदर्शन और वीरशैवदर्शन जैसी परम्पराओं के भी अनेक ग्रन्थ है जिन का स्वाध्याय करते रहें|
आप सब में अन्तस्थ परमशिव को मैं साष्टांग दण्डवत् प्रणाम करते हुए अपने सम्पूर्ण अस्तित्व का समर्पण करता हूँ| ॐ तत्सत् ! ॐ नमः शिवाय | ॐ नमः शिवाय |ॐ नमः शिवाय || हर हर महादेव || ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
२९ जनवरी २०२०

शिवो भूत्वा शिवं यजेत् .....

शिवो भूत्वा शिवं यजेत् .....
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श्रुति भगवती कहती है ..... ‘शिवो भूत्वा शिवं यजेत्’ यानि शिव बनकर शिव की उपासना करो| जिन्होने वेदान्त को निज जीवन में अनुभूत किया है वे तो इस तथ्य को समझ सकते हैं, पर जिन्होने गीता का गहन स्वाध्याय किया है वे भी अंततः इसी निष्कर्ष पर पहुंचेंगे| तत्व रूप में शिव और विष्णु में कोई भेद नहीं है| गीता के भगवान वासुदेव ही वेदान्त के ब्रह्म हैं| वे ही परमशिव हैं|
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मेरे इस जीवन का अब संध्याकाल है, बहुत कम समय बचा है, करने को तो बहुत कुछ बाकी है, पर अब कुछ भी स्वाध्याय करने का समय नहीं है| अतः सब कुछ भगवान पर छोड़ दिया है| जो करेंगे सो वे ही करेंगे, स्वयं पर कोई भी भार लेने में असमर्थ हूँ| अब सारी उपासना, उपास्य और उपासक वे ही हैं| स्वयं का पता नहीं जो सांसें चल रही हैं, वे कब तक चलेंगी| अब तो ये सांसें भी वे ही ले रहे हैं| जन्म-जन्मांतरों के सारे कर्म, उनके फल, सारी बुराइयाँ/अच्छाइयाँ सब कुछ उन्हें बापस सौंप दिया है| स्वयं को भी उन्हें समर्पित कर दिया है| मेरी कोई स्वतंत्र इच्छा नहीं है| जो उन की इच्छा है वह ही मेरी इच्छा है|
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जीवन का मूल उद्देश्य है ..... शिवत्व की प्राप्ति| हम शिव कैसे बनें एवं शिवत्व को कैसे प्राप्त करें? इस का उत्तर है ..... कूटस्थ में ओंकार रूप में शिव का ध्यान| यह किसी कामना की पूर्ती के लिए नहीं है बल्कि कामनाओं के नाश के लिए है| आते जाते हर साँस के साथ उनका चिंतन-मनन और समर्पण ..... उनकी परम कृपा की प्राप्ति करा कर आगे का मार्ग प्रशस्त कराता है| जब मनुष्य की ऊर्ध्व चेतना जागृत होती है तब उसे स्पष्ट ज्ञान हो जाता है कि संसार की सबसे बड़ी उपलब्धि है --- कामना और इच्छा की समाप्ति|
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"शिव" का अर्थ शिवपुराण के अनुसार ..... जिन से जगत की रचना, पालन और नाश होता है, जो इस सारे जगत के कण कण में संव्याप्त है, वे शिव हैं| जो समस्त प्राणधारियों की हृदय-गुहा में निवास करते हैं, जो सर्वव्यापी और सबके भीतर रम रहे हैं, वे ही शिव हैं|
अमरकोष के अनुसार 'शिव' शब्द का अर्थ मंगल एवं कल्याण होता है|
विश्वकोष में भी शिव शब्द का प्रयोग मोक्ष में, वेद में और सुख के प्रयोजन में किया गया है|
अतः शिव का अर्थ हुआ आनन्द, परम मंगल और परम कल्याण| जिसे सब चाहते हैं और जो सबका कल्याण करने वाला है वही ‘शिव’ है|
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ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय, ॐ नमः शिवाय, ॐ नमः शिवाय ||
शिवोहं शिवोहं अयमात्मा ब्रह्म | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर बावलिया
झुंझुनूं (राजस्थान)
२७ जनवरी २०२०

भारत को तोड़ने की बात करना एक देशद्रोह है ....

भारत को तोड़ने की बात करना एक देशद्रोह है जिसके लिए देशद्रोहियों को प्रकृति कभी क्षमा नहीं करेगी| जिन्होंने भी इस देश को तोड़ा है, इसका विभाजन किया है, वे सब नर्कगामी नरपिशाच थे|
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मैनें अपने इसी जीवन में इन ग्यारह घोषित रूप से मुस्लिम देशों का भ्रमण किया है ..... मोरक्को, सऊदी अरब, मिश्र, तुर्की, बांग्लादेश, मलयेशिया, इंडोनेशिया, यमन, संयुक्त अरब अमीरात, कुवैत और ईरान| अपने अनुभव से कह सकता हूँ कि भारत में जितनी सुख-शांति है उतनी विश्व के किसी भी मुस्लिम देश में नहीं है, और भारत में मुसलमान जितने सुखी हैं उतने विश्व के अन्य किसी भी मुस्लिम देश में नहीं हैं| घोषित रूप से मुस्लिम देशों में अन्य मतावलंबियों (धार्मिक अल्पसंख्यकों) को कोई नागरिक अधिकार नहीं हैं|
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तीस-बत्तीस वर्ष पूर्व यूक्रेन के ओडेशा नगर में एक वयोवृद्धा विदुषी तातार मुस्लिम महिला और उनके परिवार से मेरी मित्रता थी जिनसे मुझे ऐतिहासिक रूप से बहुत कुछ जानने को मिला| कई भाषाओं की ज्ञाता वह तातार मुस्लिम महिला मूल रूप से मंचूरिया में एक मेडिकल डॉक्टर थी जिसका पति व्यापारी था| मंचूरिया पर चीन के अधिकार के बाद चीन ने उसके पति को मार दिया और उसे जापान समर्थक होने का आरोप लगाकर दस वर्ष तक राजनीतिक बंदी के रूप में कारावास में रखा| अमेरिका के दबाव से वह मुक्त हुई और अपनी खोयी हुई एकमात्र संतान अपनी बेटी की खोज की तो अपनी बेटी को यूक्रेन में पाया जहाँ वह विवाह कर के बस गई थी| वह महिला भी अपनी अमेरिकी नागरिकता को छोड़कर यूक्रेन के ओडेशा नगर में अपनी बेटी के पास ही बस गई थी| गजब का ऐतिहासिक ज्ञान था उन्हें जिस पर मेरे साथ उन्होंने काफी चर्चा की| उन्होने सप्रमाण बताया कि पूरा मध्य एशिया इस्लाम के आगमन से पूर्व बौद्ध मत का अनुयायी था| उन्होने अहिंसा पर इतना अधिक ज़ोर दिया कि इस्लामी तलवार का सामना नहीं कर सके| सब को इस्लाम कबूल करना पड़ा, जिन्होने नहीं किया, वे काट डाले गए|
अपनी रुचि से इतिहास में मैंने सल्तनत-ए-उस्मानिया के इतिहास का, और अन्य कई मत-मतांतरों का अध्ययन भी किया है|
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अपनी अंतर्प्रज्ञा से कह सकता हूँ कि भारत के भीतर और बाहर के शत्रुओं का नाश होगा, और भारत विजयी होगा| मैं उस दिन को देखने जीवित रहूँ या न रहूँ पर एक न एक दिन भारत अवश्य ही अपने द्वीगुणित परम वैभव को प्राप्त कर अखंड होगा| कोई असत्य और अंधकार यहाँ नहीं रहेगा| अमर शहीद पंडित रामप्रसाद विस्मिल की एक बहुत पुरानी कविता प्रस्तुत कर रहा हूँ ....
"भारत जननि तेरी जय हो विजय हो ।
तू शुद्ध और बुद्ध ज्ञान की आगार,
तेरी विजय सूर्य माता उदय हो ।।
हों ज्ञान सम्पन्न जीवन सुफल होवे,
सन्तान तेरी अखिल प्रेममय हो ।।
आयें पुनः कृष्ण देखें द्शा तेरी,
सरिता सरों में भी बहता प्रणय हो ।।
सावर के संकल्प पूरण करें ईश,
विध्न और बाधा सभी का प्रलय हो ।।
गांधी रहे और तिलक फिर यहां आवें,
अरविंद, लाला महेन्द्र की जय हो ।।
तेरे लिये जेल हो स्वर्ग का द्वार,
बेड़ी की झन-झन बीणा की लय हो ।।
कहता खलल आज हिन्दू-मुसलमान,
सब मिल के गाओं जननि तेरी जय हो ।।"
भारत माता की जय | वंदे मातरम् ||
२६ जनवरी २०२०

जय भारतवर्ष .....

भारतवर्ष ..... जिस देश में गंगा, गोमति, गोदावरी, सिन्धु, सरस्वती, सतलज, यमुना, नर्मदा, कावेरी, कृष्णा व ब्रह्मपुत्र जैसी पवित्र नदियाँ बहती हैं; जहाँ हिमालय जैसे अति विस्तृत और उत्तुंग पर्वत शिखर और अनेक पावन पर्वतमालाएँ; सप्त पुरियाँ, द्वादश ज्योतिर्लिंग, बावन शक्तिपीठ; अनगिनत पवित्र तीर्थ, वन, गुफाएँ, वैदिक संस्कृति, सनातन धर्म की परम्परा, अनेक ऊर्ध्वगामी मत-मतान्तर, तपस्वी संत-महात्मा व ऐसे अनगिनत लोग भी हैं जो दिन-रात निरंतर परमात्मा का चिन्तन करते हैं और परमात्मा का ही स्वप्न देखते हैं; हम सब धन्य हैं जिन्होनें इस पावन भूमि में जन्म लिया है| मैं उन सब का सेवक, उन सब को नमन करता हूँ जिन के ह्रदय में परमात्मा को पाने की प्रचंड अभीप्सा है, और जो निरंतर प्रभु प्रेम में मग्न हैं| उन के श्रीचरणों की धूल मेरे माथे की शोभा है|
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हर चौबीस हज़ार वर्षों के कालखंड में चौबीस सौ वर्षों का एक ऐसा समय आता है जब इस भूमि पर अन्धकार व असत्य की शक्तियाँ हावी रहती हैं| वह समय अब व्यतीत हो चुका है| ऐसी शक्तियाँ अब पराभूत हो रही हैं| आने वाला समय सतत प्रगति का है| कोई चाहे या न चाहे अब हमारी चेतना को ऊर्ध्वगामी होने से कोई नहीं रोक सकता| भारतवर्ष निश्चित रूप से एक आध्यात्मिक राष्ट्र होगा और अपने परम वैभव को प्राप्त करेगा, अतः चिंता की कोई बात नहीं है| अपना दृष्टिकोण बदल कर अपना अहैतुकी परम प्रेम परमात्मा को दें| अपने जीवन का केंद्रबिंदु परमात्मा को बनायें| जीवन में अपना सर्वश्रेष्ठ करते रहें| सब अच्छा ही अच्छा होगा|
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गणतंत्र दिवस की पुनश्च: शुभ कामनाएँ और अभिनंदन | ॐ तत्सत् ||
कृपा शंकर
२५ जनवरी २०२०

आध्यात्म में सर्वोपरी महत्व कुछ होने का है, करने का नहीं .....

आध्यात्म में सर्वोपरी महत्व कुछ होने का है, करने का नहीं| हम कुछ होने के लिए ही कुछ करते हैं| योगसूत्रों व आगम ग्रन्थों के अनुसार हम वही हो जाते हैं जैसा हम निरंतर सोचते है| निरंतर परमात्मा का चिंतन करने से परमात्मा के गुण हमारे में आ जाते हैं| तभी शिव-संकल्पों पर ज़ोर दिया गया है| ऐसे ही लोगों के साथ मेलजोल रखें जो सदा परमात्मा के बारे में सोचते हैं| उन लोगों का साथ विष की तरह छोड़ दें जो परमात्मा से विमुख हैं| उनसे मिलना तो क्या उनकी और आँख उठाकर देखना भी बड़ा दुःखदायी होता है|
ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२५ जनवरी २०२०

भारत के राष्ट्रपिता कौन हो सकते हैं ? .....

भारत के राष्ट्रपिता कौन हो सकते हैं ? .....
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पिता वह है जो अपने बच्चों का उचित पालन-पोषण, विकास और रक्षा करे| भारत के राष्ट्रपिता स्वयं भगवान विष्णु ही हो सकते हैं, अन्य कोई नहीं. वे ही हमारा पालन-पोषण और रक्षा कर रहे हैं|
या फिर ऋषभदेव के पुत्र भरत हो सकते हैं जिनके नाम पर इस देश का नाम भारत पड़ा है|
राष्ट्र की अवधारणा वैदिक है जिसके अनुसार इस पृथ्वी पर एकमात्र राष्ट्र सिर्फ भारतवर्ष ही है|
२५ जनवरी २०२०

Saturday, 1 February 2020

व्यक्ति या देश-दोनों की उन्नति का एकमात्र स्रोत आध्यात्मिक शक्ति ही है ....

व्यक्ति या देश-दोनों की उन्नति का एकमात्र स्रोत आध्यात्मिक शक्ति ही है।
मधुसूदन ओझा जी के अनुसार जब पृथ्वी का उत्तरी ध्रुव अभिजित् नक्षत्र की दिशा में था तब भारत विश्व गुरु था, अतः इस नक्षत्र का स्वामी ब्रह्मा हैं। अभिजित से ध्रुव दूर हटने पर भारत का पतन आरम्भ हुआ। अभी पुनः उत्तरी ध्रुव अभिजित नक्षत्र की तरफ बढ़ रहा है। यह भारत की उन्नति का समय है।
भागवत पुराण के अनुसार जब सूर्य, चन्द्र, बृहस्पति पुष्य नक्षत्र में एक राशि में होंगे तो कृत युग का आरम्भ होगा तथा शम्भल ग्राम में विष्णुयश के पुत्र कल्कि द्वारा दुष्टों का संहार होगा और प्रजा सात्विक हो जायेगी-भागवत पुराण, स्कन्ध १२, अध्याय २-
शम्भलग्राममुख्यस्य ब्राह्मणस्य महात्मनः।
भवने विष्णुयशसः कल्किः प्रादुर्भविष्यति॥।१८॥
अश्वमाशुगमारुह्य देवदत्तं जगत्पतिः।
असिनासाधुदमनमष्टैश्वर्यगुणान्वितः॥१९॥
यदावतीर्णो भगवान् कल्किर्धर्मपतिर्हरिः।
कृतं भविष्यति तदा प्रजासूतिश्च सात्विकी॥२३॥
यदा चन्द्रश्च सूर्यश्च तथा तिष्ये बृहस्पती।
एकराशौ समेष्यन्ति भविष्यति तदा कृतम्॥२४॥
१ अगस्त, २०३८ को भारतीय समय ९ बजे सूर्य, चन्द्र. बृहस्पति तीनों ग्रह पुष्य नक्षत्र तथा एक राशि में होंगे। तब भारत सबसे उन्नत होगा, किन्तु उसके पूर्व बहुत हिंसा होगी।
ब्रह्मा के अयनाब्द युग गणना के अनुसार १९९९ से त्रेता युग की सन्ध्या समाप्त हो कर मुख्य त्रेता आरम्भ होगा। महाभारत के अनुसार त्रेता में यज्ञ की उन्नति होती है। यज्ञ द्वारा अन्य यज्ञों के साधन सेही देव उन्नति के शिखर पर पहुंचते हैं।
अयनाब्द युग २४,००० वर्ष का है, जो ३१२,००० वर्ष के दीर्घकालिक मन्दोच्च चक्र तथा विपरीत दिशा में २६,००० वर्ष के अयन चक्र का योग है। इसका प्रथम भाग १२,००० वर्ष का अवसर्पिणी है। इसमें खण्ड युगों का क्रम है-सत्य, त्रेता, द्वापर, कलि, जो ४, ३, २, १ के अनुपात में हैं। उसके बाद १२,००० वर्ष का उत्सर्पिणी काल होगा जिसमें खण्ड युग विपरीत क्रम से होंगे। यह जल प्रलय का वास्तविक चक्र है, जो विश्व इतिहास का दीर्घकालिक चक्र है। अवसर्पिणी त्रेता में जल प्रलय तथा उत्सर्पिणी त्रेता में हिमयुग होता है। अभी तृतीय अयनाब्द चल रहा है, जो वैवस्वत मनु से आरम्भ हुआ था।
प्रथम अयनाब्द-६१,९०२-३७९०२ ईपू.
द्वितीय अयनाब्द-३७९०२-१३९०२ ईपू.
तृतीय अयनाब्द-१३९०२ ईपू. से १०,०९९ ई. तक।
इसमें अवसर्पिणी १३९०२-१९०२ ई.पू. तक-सत्य युग-९१०२ ईपू. तक, त्रेता ५५०२ ईपू. तक, द्वापर ३१०२ ईपू. तक, कलि १९०२ ईपू. तक।
उत्सर्पिणी १९०२ ई.पू. से-कलि ७०२ ई.पू. तक, द्वापर १६९९ ई.पू तक (ईस्वी सन् में ० वर्ष नहीं है), त्रेता १६९९-५२९९ ई. तक, सत्य युग १०,०९९ ई. तक।
इस त्रेता में हिम युग होगा, पृथ्वी की प्रदूषण से गर्मी अल्पकालिक घटना है।
त्रेता में यन्त्र युग का आरम्भ हुआ, ३०० वर्ष की सन्ध्या १६९९ में समाप्त होने के बाद कम्प्यूटर तथा सञ्चार युग आरम्भ हुआ है, जो महाभारत के अनुसार है।
विधिस्त्वेष यज्ञानां न कृते युगे। द्वापरे विप्लवं यान्ति यज्ञाः कलियुगे तथा॥
त्रेतायां तु समस्ता ये प्रादुरासन् महाबलाः। संयन्तारः स्थावराणां जङ्गमानां च सर्वशः॥
(महाभारत, शान्ति पर्व, २३२/३१-३४)
यज्ञेनयज्ञमयजन्तदेवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्।
ते ह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः॥ (पुरुष सूक्त, १६)
(साभार : माननीय पं. अरुण उपाध्याय)
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(माननीय पं. अरुण उपाध्याय ..... प्रखर वैदिक विद्वान, गणितज्ञ और ज्योतिषी हैं| इनकी गणना को भारत के सभी ज्योतिषी और धर्माचार्य अंतिम प्रमाण मानते हैं| वे जो बात कह रहे हैं वह निश्चित रूप से सत्य होगी|)
२ जनवरी २०२०