Friday 13 April 2018

दूसरों से ही नहीं, स्वयं से भी अपेक्षाओं ने मुझे सदा निराश ही किया है .....

दूसरों से ही नहीं, स्वयं से भी अपेक्षाओं ने मुझे सदा निराश ही किया है .....
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यह लेख मैं अपने स्वयं के लिए ही लिख रहा हूँ, किसी अन्य के लिए नहीं| इसमें कोई उपदेश है तो वह भी स्वयं को ही है, किसी अन्य को नहीं| यह मेरा स्वयं के साथ ही एक सत्संग है| किसी से भी कोई अपेक्षा अब मुझे नहीं रही है, स्वयं से भी नहीं| स्वयं से अपेक्षाओं ने भी मुझे सदा निराश ही किया है| अपेक्षा प्रकृति से भी नहीं है, क्योंकि प्रकृति भी अपने नियमों के अनुसार ही कार्य करेगी| भगवान भी अपने स्वयं निर्मित नियमों से ही चलेंगे अतः उनके प्रति सिर्फ श्रद्धा और विश्वास ही है, उनसे भी कोई अपेक्षा नहीं रही है|
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दूसरों से मैं कितनी भी ज्ञान की बातें करूँ, दूसरों को मैं कितने भी उपदेश दूँ, उन से कोई लाभ नहीं, बल्कि समय की बर्बादी ही है| हर मनुष्य अपने अपने स्वभाव के अनुसार ही चलेगा| किसी से कुछ भी अपेक्षा, निराशाओं को ही जन्म देगी| परमात्मा से जुड़कर ही अपने दृढ़ संकल्प से मैं कुछ सकारात्मक कार्य कर सकता हूँ, अन्यथा नहीं| यह सृष्टि भी परमात्मा के संकल्प से प्रकृति द्वारा चल रही है| उनके भी कुछ नियम हैं, जिन्हें वे नहीं तोड़ेंगे| मेरी दृढ़ संकल्प शक्ति ही अब मेरी प्रार्थना होगी| प्रचलित प्रार्थनाएँ मेरे लिए अब निरर्थक हैं| क्या जीवन भर प्रचलित प्रार्थनाएँ ही करते रहेंगे? उनका अब कोई उपयोग नहीं है|
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यह सृष्टि परमात्मा के संकल्प से निर्मित है| इसका संचालन भी उनके संकल्प से उनकी प्रकृति ही कर रही है| इसमें अच्छा-बुरा जो कुछ ही हो रहा है, उसके जिम्मेदार परमात्मा स्वयं ही हैं, मैं नहीं| अतः मुझे विचलित नहीं होना चाहिए| उन्हें मेरी सलाह की आवश्यकता नहीं है| मैं प्रयासहीन होकर बैठे बैठे सफलता को अपनी गोद में आकर गिरने की अपेक्षा नहीं कर सकता| एक बार मैनें अपनी दिशा तय कर ली है, तो दृढ़ निश्चय के साथ व्यवहारिक रूप से अग्रसर होने के लिए अनवरत प्रयास करने ही होंगे| किसी से, स्वयं से भी अब कोई अपेक्षा नहीं है|
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गीता में भगवान कहते हैं .....
सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि| प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति|| ३:३३||
अर्थात् ज्ञानवान् पुरुष भी अपनी प्रकृति के अनुसार चेष्टा करता है| सभी प्राणी अपनी प्रकृति पर ही जाते हैं फिर इनमें (किसी का) निग्रह क्या करेगा|
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पूर्वजन्मों के संस्कारों से ही बनी हुई मेरी प्रकृति यानि स्वभाव है| जैसी मेरी प्रकृति है वैसा ही कार्य मेरे द्वारा संपादित होगा| उस से ऊपर उठने के लिए नित्य नियमित ध्यानोपासना द्वारा अपने उपास्य को पूर्णरूपेण समर्पित होना होगा| सिर्फ परमात्मा ही सब बंधनों से परे हैं और उनमें ही समस्त स्वतन्त्रता है| 


शिवोहं शिवोहं शिवोहं ! ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१४ अप्रेल २०१८

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