उपसंहार ---
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मैं इस समय कूटस्थ-चैतन्य (ब्राह्मी-स्थिति) में हूँ, और जो कुछ भी मुझे पता है, उसका उपसंहार कर रहा हूँ। पहली बात तो यह है कि इस सृष्टि के नियामक तीनों गुणों से मेरी कोई शत्रुता नहीं है। वे सब अपने अपने स्थानों पर ठीक हैं। मेरे अवचेतन मन में अनेक जन्मों से बहुत गहरी जड़ें जमाये हुये बैठा तमोगुण भी वहाँ शोभा दे रहा है। रजोगुण और सतोगुण भी अपने अपने स्थानों पर शोभा दे रहे हैं। मैं इन सब से परे हूँ। मेरे में जो भी कमियाँ, बुराइयाँ और अच्छाइयाँ हैं, वे सब अति दुर्धर्ष हैं। उनसे संघर्ष करने की सामर्थ्य मुझमें नहीं है। अतः उन सब को बापस परमात्मा को लौटा रहा हूँ। एक अति प्रबल अभीप्सा मुझे परमात्मा की ओर ले जा रही है। गुरु कृपा से सामने का मार्ग प्रशस्त है, कहीं कोई अंधकार नहीं है।
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मैं शांभवी-मुद्रा में बैठ कर अपनी सूक्ष्म देह के मूलाधारचक्र से सुषुम्ना मार्ग से होते हुए एक सीधी ऊर्ध्वगामी रेखा खींचता हूँ, जो सूक्ष्म देह के सभी चक्रों और ब्रह्मरंध्र को बेंधते हुए सीधी ऊपर जा रही है। लाखों करोड़ प्रकाश वर्ष से भी कई गुणा ऊपर सृष्टि की अनंतता से भी परे एक ज्योतिर्मय लोक है जहाँ क्षीरसागर है। भगवान नारायण स्वयं वहाँ बिराजमान हैं। वे ही परमब्रह्म हैं, वे ही परमशिव हैं, उनके संकल्प से ही यह सृष्टि निर्मित हुई है। सारी श्रुतियाँ और स्मृतियाँ उन्हीं का महिमागान कर रही हैं। समर्पित होकर मैं उनकी अनंतता में उनके साथ एक हूँ। वे ही मेरा अस्तित्व हैं। वहीं से मैं इस सृष्टि और अपनी नश्वर भौतिक देह को भी देख रहा हूँ। मेरी चेतना परमात्मा के साथ अविछिन्न रूप से एक है। सारे कार्मिक बंधन टूट रहे हैं।
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ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
११ सितंबर २०२२
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