निर्मल मन जन सो मोहि पावा, मोहि कपट छल छिद्र न भावा .....
.
परमात्मा का स्मरण, उनकी भक्ति और उनकी उपासना, हम उनके अनुग्रह के बिना नहीं कर सकते| साधना तो एक बहाना यानि साधन मात्र है जिस से हमारा अन्तःकरण शुद्ध होता है, पर मुख्य चीज तो भगवान की कृपा है जो करुणावश वे स्वयं ही करते हैं| हमारे अज्ञान का निराकरण भी उनकी कृपा से ही होता है| भगवान स्वयं ही कहते हैं कि जिनका मन निर्मल होता है वे ही उन्हें पा सकते हैं, उन्हें छल-कपट पसंद नहीं है| साधना से हमारा मन निर्मल होता है| साधना भी बिना प्रेम के नहीं हो सकती अतः सबसे पहिला कार्य तो भगवान के प्रति प्रेम जागृत कर उसे विकसित करना है|
.
ब्रह्मा जी ने जब यह सृष्टि रची तब ब्रह्मज्ञान सर्वप्रथम अपने ज्येष्ठ पुत्र अथर्व को दिया| अब इस पर ज़रा विचार कीजिये कि ब्रह्मा जी के ज्येष्ठ पुत्र अथर्व कौन थे| थर्व का अर्थ होता है .... कुटिलता| अथर्व वे सारे ऋषि-मुनि थे जिनके मन में कोई कुटिलता नहीं थी| अथर्व ने वह ब्रह्मज्ञान सत्यवाह को दिया| सत्यवाह का अर्थ होता है जो सत्य का वहन करते हैं, यानि सत्यनिष्ठ होते हैं| तत्पश्चात वह ब्रह्मज्ञान सत्यवाह ऋषियों को मिला| अतः प्रभु का अनुग्रह पाने के लिए स्वयं को ही अथर्व और सत्यवाह बनना पड़ता है| हमारे मन में कोई कुटिलता नहीं हो और हम सत्यनिष्ठ हों| तभी हम प्रभु की कृपा को पाने के पात्र हैं| वह पात्रता साधना से आती है|
.
परमात्मा के सर्वश्रेष्ठ साकार रूप आप सब को नमन !
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
५ अगस्त २०१८
.
परमात्मा का स्मरण, उनकी भक्ति और उनकी उपासना, हम उनके अनुग्रह के बिना नहीं कर सकते| साधना तो एक बहाना यानि साधन मात्र है जिस से हमारा अन्तःकरण शुद्ध होता है, पर मुख्य चीज तो भगवान की कृपा है जो करुणावश वे स्वयं ही करते हैं| हमारे अज्ञान का निराकरण भी उनकी कृपा से ही होता है| भगवान स्वयं ही कहते हैं कि जिनका मन निर्मल होता है वे ही उन्हें पा सकते हैं, उन्हें छल-कपट पसंद नहीं है| साधना से हमारा मन निर्मल होता है| साधना भी बिना प्रेम के नहीं हो सकती अतः सबसे पहिला कार्य तो भगवान के प्रति प्रेम जागृत कर उसे विकसित करना है|
.
ब्रह्मा जी ने जब यह सृष्टि रची तब ब्रह्मज्ञान सर्वप्रथम अपने ज्येष्ठ पुत्र अथर्व को दिया| अब इस पर ज़रा विचार कीजिये कि ब्रह्मा जी के ज्येष्ठ पुत्र अथर्व कौन थे| थर्व का अर्थ होता है .... कुटिलता| अथर्व वे सारे ऋषि-मुनि थे जिनके मन में कोई कुटिलता नहीं थी| अथर्व ने वह ब्रह्मज्ञान सत्यवाह को दिया| सत्यवाह का अर्थ होता है जो सत्य का वहन करते हैं, यानि सत्यनिष्ठ होते हैं| तत्पश्चात वह ब्रह्मज्ञान सत्यवाह ऋषियों को मिला| अतः प्रभु का अनुग्रह पाने के लिए स्वयं को ही अथर्व और सत्यवाह बनना पड़ता है| हमारे मन में कोई कुटिलता नहीं हो और हम सत्यनिष्ठ हों| तभी हम प्रभु की कृपा को पाने के पात्र हैं| वह पात्रता साधना से आती है|
.
परमात्मा के सर्वश्रेष्ठ साकार रूप आप सब को नमन !
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
५ अगस्त २०१८
मैं नित्य प्रातः का सूर्योदय देख पा रहा हूँ, और भगवान हर पल मुझे अपनी स्मृति में रखते हैं, यह निश्चित रूप से उन कुछ गिनी चुनी महान आत्माओं का पुण्यप्रताप है जो इस पुण्य धरा पर अब भी बिराजमान हैं| उनके पुण्यों और आशीर्वाद से ही मैं जीवित हूँ| मेरी हर सांस उन्हीं का आशीर्वाद है, अन्यथा मेरा अपना कुछ भी नहीं है|
ReplyDeleteॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
बिलकुल सही
ReplyDeleteबिल्कुल सही विचार इस ब्लॉग में लिखे हैं। एक प्रश्न मेरे मन में यदा-कदा उठा करता है कि ह्रदय में जब स्वयं प्रभु का वास है तो फिर हमारे विचार कलुषित क्योंकर होते हैं और फिर हमारे ऊपर बुरे विचारों का प्रभाव क्यों होता है। खैर यह तो एक विचारणीय
ReplyDeleteविषय है। जिसका समाधान विद्वत जनों से अवश्य मिलेगा और मेरे जैसे जिज्ञासु जन को लाभ भी मिलेगा।
लेकिन मेरा मानना है कि यदि हम श्री राम चरित मानस की चौपाइयों का नियमित एवं श्रद्धा और विश्वास के साथ पठन-पाठन करें और उनके भावों को हृदय में धारण करें और उन पर अमल करें तो मनुष्य मात्र की तमाम समस्याओं का निराकरण हो सकता है।