एक बार उनके हाथों में डोर देकर तो देखो .......
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महाभारत के महा भयंकर युद्ध में महारथी अर्जुन ने प्रतिज्ञा की थी कि यदि अगले दिन सूर्यास्त से पूर्व उसने जयद्रथ का वध नहीं किया तो वह आत्मदाह कर लेगा| अगले दिन युद्ध में जयद्रथ को कौरव सेना ने रक्षा कवच में घेर लिया और उसकी रक्षा के लिए सारी शक्ति लगा दी| कौरव सेना का संहार करते हुए अर्जुन ने बड़ी वीरता से युद्ध किया पर जयद्रथ कहीं भी दिखाई न दिया| संध्या होने ही वाली थी और सूर्य भगवान अस्ताचल की ओट में छिपने को अग्रसर थे| सारथी बने भगवान श्रीकृष्ण को अपने भक्त की चिंता थी| उन्होंने अपनी माया से सूर्य को बादलों से ढक दिया| सन्ध्या का भ्रम उत्पन्न हो गया| कहते हैं उन्होंने काल की गति ही रोक दी| युद्ध बंद होने की सूचना देने के लिए बाजे बज उठे| पांडव सेना में हाहाकार मच गया| कौरव सेना प्रसन्नता से झूम उठी| अब अर्जुन का आत्मदाह देखने के लिए दुर्योधन आदि कौरव हर्षातिरेक में उछल पड़े| अब तक छिपा हुआ जयद्रथ भी कौरव सेना के आगे आकर अट्टहास करने लगा|
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अर्जुन ने अग्नि में आत्मदाह की तैयारी कर ली| श्रीकृष्ण ने अर्जुन को पूछा कि किसके भरोसे तुमने ऐसी कठोर प्रतिज्ञा की? अर्जुन नतमस्तक हो गया और कहा कि आपके ही श्री चरणों में शरणागति जो ली है उसी का भरोसा है, अब आप ही मेरी गति हैं| शरणागत भक्त की रक्षा के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने अब अपनी माया समेट ली| मायावी बादल छँट गए और कमलिनीकुलवल्लभ भगवान भुवनभास्कर मार्तंड बादलों की ओट से निकलकर प्रखर हो उठे|
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जयद्रथ को सामने खडा देखकर श्रीकृष्ण बोले ..... 'पार्थ ! तुम्हारा शत्रु तुम्हारे सामने खड़ा है, उठाओ अपना गांडीव और वध कर दो इसका| वह देखो अभी सूर्यास्त नहीं हुआ है|' सबकी दृष्टि आसमान की ओर उठ गई थी| सूर्य अभी भी चमक रहा था जिसे देखकर जयद्रथ और दुर्योधन के पैरों तले ज़मीन खिसक गई| जयद्रथ भागने को उद्द्यत हुआ लेकिन तब तक अर्जुन ने अपना गांडीव उठा लिया था| श्रीकृष्ण ने चेतावनी देते हुए बोले ..... 'हे अर्जुन! जयद्रथ के पिता ने इसे वरदान दिया था कि जो इसका मस्तक ज़मीन पर गिराएगा, उसका मस्तक भी सौ टुकड़ों में विभक्त हो जाएगा| इसलिए यदि इसका सिर ज़मीन पर गिरा तो तुम्हारे सिर के भी सौ टुकड़े हो जाएँगे| उत्तर दिशा में यहाँ से सौ योजन की दूरी पर जयद्रथ का पिता तप कर रहा है| तुम इसका मस्तक ऐसे काटो कि वह इसके पिता की गोद में जाकर गिरे|'
अर्जुन ने श्रीकृष्ण की चेतावनी ध्यान से सुनी और अपनी लक्ष्य की ओर ध्यान कर बाण छोड़ दिया| उस बाण ने जयद्रथ का सिर धड़ से अलग कर दिया और उसे ले जा कर सीधा जयद्रथ के पिता की गोद में गिरा दिया| जयद्रथ का पिता चौंक कर उठा तो उसकी गोद में से सिर ज़मीन पर गिर गया| सिर के ज़मीन पर गिरते ही उनके सिर के भी सौ टुकड़े हो गए| इस प्रकार अर्जुन की प्रतिज्ञा पूरी हुई, और भगवान ने अपने भक्त की रक्षा की|
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एक बार हम शरणागत होकर तो देखें| अपने आप को परमात्मा के हाथों में सौंप दो| यह शरणागति ही सबसे बड़ी गति है| हे प्रभु, मैं आपका हूँ, और सदा आपका ही होकर रहूँगा| भगवान के शरणागत हो जाना सम्पूर्ण साधनों का सार और भक्ति की पराकाष्ठा है| इसमें शरणागत भक्त को अपने लिये कुछ भी करना शेष नहीं रहता; जैसे पतिव्रता स्त्री का अपना कोई काम नहीं रहता| वह अपने शरीर की सार-सँभाल भी पति के लिये ही करती है| वह घर, कुटुम्ब, वस्तु, पुत्र-पुत्री और अपने कहलाने वाले शरीर को भी अपना नहीं मानती, प्रत्युत पतिदेव का ही मानती है| उसी प्रकार शरणागत भक्त भी अपने मन, बुद्धि और देह आदि को भगवान् के चरणों में समर्पित करके निश्चिन्त, निर्भय, निःशोक और निःशंक हो जाता है|
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हम अधिक से अधिक भगवान का ध्यान करें और उनके श्रीचरणों में समर्पित होकर शरणागत हों| एक बार जीवन की डोर उनके हाथों में देकर तो देखें|
भगवान श्रीकृष्ण हमारे चैतन्य में निरंतर अवतरित हों, एक क्षण के लिए भी उनकी विस्मृति ना हो| उनसे पृथक हमारा कोई अस्तित्व ना रहे|
."कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने | प्रणत क्लेश नाशाय गोविन्दाय नमो नमः ||"
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सभी को शुभ कामनाएँ और सादर सप्रेम अभिनन्दन !
ॐ ॐ ॐ ||
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महाभारत के महा भयंकर युद्ध में महारथी अर्जुन ने प्रतिज्ञा की थी कि यदि अगले दिन सूर्यास्त से पूर्व उसने जयद्रथ का वध नहीं किया तो वह आत्मदाह कर लेगा| अगले दिन युद्ध में जयद्रथ को कौरव सेना ने रक्षा कवच में घेर लिया और उसकी रक्षा के लिए सारी शक्ति लगा दी| कौरव सेना का संहार करते हुए अर्जुन ने बड़ी वीरता से युद्ध किया पर जयद्रथ कहीं भी दिखाई न दिया| संध्या होने ही वाली थी और सूर्य भगवान अस्ताचल की ओट में छिपने को अग्रसर थे| सारथी बने भगवान श्रीकृष्ण को अपने भक्त की चिंता थी| उन्होंने अपनी माया से सूर्य को बादलों से ढक दिया| सन्ध्या का भ्रम उत्पन्न हो गया| कहते हैं उन्होंने काल की गति ही रोक दी| युद्ध बंद होने की सूचना देने के लिए बाजे बज उठे| पांडव सेना में हाहाकार मच गया| कौरव सेना प्रसन्नता से झूम उठी| अब अर्जुन का आत्मदाह देखने के लिए दुर्योधन आदि कौरव हर्षातिरेक में उछल पड़े| अब तक छिपा हुआ जयद्रथ भी कौरव सेना के आगे आकर अट्टहास करने लगा|
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अर्जुन ने अग्नि में आत्मदाह की तैयारी कर ली| श्रीकृष्ण ने अर्जुन को पूछा कि किसके भरोसे तुमने ऐसी कठोर प्रतिज्ञा की? अर्जुन नतमस्तक हो गया और कहा कि आपके ही श्री चरणों में शरणागति जो ली है उसी का भरोसा है, अब आप ही मेरी गति हैं| शरणागत भक्त की रक्षा के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने अब अपनी माया समेट ली| मायावी बादल छँट गए और कमलिनीकुलवल्लभ भगवान भुवनभास्कर मार्तंड बादलों की ओट से निकलकर प्रखर हो उठे|
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जयद्रथ को सामने खडा देखकर श्रीकृष्ण बोले ..... 'पार्थ ! तुम्हारा शत्रु तुम्हारे सामने खड़ा है, उठाओ अपना गांडीव और वध कर दो इसका| वह देखो अभी सूर्यास्त नहीं हुआ है|' सबकी दृष्टि आसमान की ओर उठ गई थी| सूर्य अभी भी चमक रहा था जिसे देखकर जयद्रथ और दुर्योधन के पैरों तले ज़मीन खिसक गई| जयद्रथ भागने को उद्द्यत हुआ लेकिन तब तक अर्जुन ने अपना गांडीव उठा लिया था| श्रीकृष्ण ने चेतावनी देते हुए बोले ..... 'हे अर्जुन! जयद्रथ के पिता ने इसे वरदान दिया था कि जो इसका मस्तक ज़मीन पर गिराएगा, उसका मस्तक भी सौ टुकड़ों में विभक्त हो जाएगा| इसलिए यदि इसका सिर ज़मीन पर गिरा तो तुम्हारे सिर के भी सौ टुकड़े हो जाएँगे| उत्तर दिशा में यहाँ से सौ योजन की दूरी पर जयद्रथ का पिता तप कर रहा है| तुम इसका मस्तक ऐसे काटो कि वह इसके पिता की गोद में जाकर गिरे|'
अर्जुन ने श्रीकृष्ण की चेतावनी ध्यान से सुनी और अपनी लक्ष्य की ओर ध्यान कर बाण छोड़ दिया| उस बाण ने जयद्रथ का सिर धड़ से अलग कर दिया और उसे ले जा कर सीधा जयद्रथ के पिता की गोद में गिरा दिया| जयद्रथ का पिता चौंक कर उठा तो उसकी गोद में से सिर ज़मीन पर गिर गया| सिर के ज़मीन पर गिरते ही उनके सिर के भी सौ टुकड़े हो गए| इस प्रकार अर्जुन की प्रतिज्ञा पूरी हुई, और भगवान ने अपने भक्त की रक्षा की|
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एक बार हम शरणागत होकर तो देखें| अपने आप को परमात्मा के हाथों में सौंप दो| यह शरणागति ही सबसे बड़ी गति है| हे प्रभु, मैं आपका हूँ, और सदा आपका ही होकर रहूँगा| भगवान के शरणागत हो जाना सम्पूर्ण साधनों का सार और भक्ति की पराकाष्ठा है| इसमें शरणागत भक्त को अपने लिये कुछ भी करना शेष नहीं रहता; जैसे पतिव्रता स्त्री का अपना कोई काम नहीं रहता| वह अपने शरीर की सार-सँभाल भी पति के लिये ही करती है| वह घर, कुटुम्ब, वस्तु, पुत्र-पुत्री और अपने कहलाने वाले शरीर को भी अपना नहीं मानती, प्रत्युत पतिदेव का ही मानती है| उसी प्रकार शरणागत भक्त भी अपने मन, बुद्धि और देह आदि को भगवान् के चरणों में समर्पित करके निश्चिन्त, निर्भय, निःशोक और निःशंक हो जाता है|
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हम अधिक से अधिक भगवान का ध्यान करें और उनके श्रीचरणों में समर्पित होकर शरणागत हों| एक बार जीवन की डोर उनके हाथों में देकर तो देखें|
भगवान श्रीकृष्ण हमारे चैतन्य में निरंतर अवतरित हों, एक क्षण के लिए भी उनकी विस्मृति ना हो| उनसे पृथक हमारा कोई अस्तित्व ना रहे|
."कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने | प्रणत क्लेश नाशाय गोविन्दाय नमो नमः ||"
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सभी को शुभ कामनाएँ और सादर सप्रेम अभिनन्दन !
ॐ ॐ ॐ ||
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