आसुरी-भाव से हमें परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती ---
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परमात्मा की प्राप्ति के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा हमारा आसुरी भाव है। यह हमारी आध्यात्मिक साधना को निष्फल कर देता है। कर्ताभाव ही आसुरी भाव है। सार रूप में इसका जनक हमारा -- लोभ, राग-द्वेष और अहंकार है। विस्तार से समझने के लिए गीता के १६ वें अध्याय, और केनोपनिषद का स्वाध्याय करें।
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देह को स्वयं से पृथक देखना चाहिए। देहाभिमान बिल्कुल भी न हो। निरंतर परमात्मा के साथ सत्संग करें। उनकी कृपा ही हमें इस आसुरी भाव से मुक्त कर सकती है। जब हमारे में यह भावना आ जाती है कि मैंने इतने दान-पुण्य किए, इतने सेवा-कार्य किए, इतने सद्कार्य किए, इतनी तपस्या की, तो हमारे सारे पुण्य क्षीण होजाते हैं, और हम असुर बन जाते हैं। यह आसुरी भाव देवताओं में भी होता है जो उनके पतन का कारण बनता है।
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भोग हम नहीं भोगते, भोग ही हमें भोगते हैं। तप हम नहीं करते, हम स्वयं ही तप्त हो जाते हैं। काल समाप्त नहीं होता, हम स्वयं ही काल-कवलित हो जाते हैं। तृष्णा कभी जीर्ण नहीं होती, हम स्वयं ही जीर्ण हो जाते हैं।
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महाभारत के आदिपर्व, भागवत पुराण और मत्स्य पुराण में पांडवों के पूर्वज नहुषपुत्र ययाति की कथा आती है। कथा बहुत रोचक और बहुत लंबी है इसलिए महाभारत में ही पढ़नी चाहिए। घोर तपस्या करके ययाति स्वर्ग पहुँचे। एक बार देवताओं ने उनसे पूछ लिया कि इस ब्रह्मांड में सबसे बड़ा तपस्वी कौन है? बहुत सोच-समझ कर ययाति ने उत्तर दिया कि मेरे से बड़ा तपस्वी इस पूरे ब्रह्मांड में कोई अन्य नहीं है। उनके इतना कहते ही उनके सारे पुण्य क्षीण हो गए और देवताओं ने धक्के मार कर उन्हें स्वर्ग से नीचे फेंक दिया। अंतरिक्ष पथ से पृथ्वी को लौटते समय इन्हें अपने दौहित्र -- राजा अष्ट, शिवि आदि मिले और इनकी विपत्ति देखकर सभी ने अपने अपने पुण्य के बल से इन्हें पुनः स्वर्ग लौटा दिया। इन लोगों की सहायता से ही ययाति को अन्त में मुक्ति प्राप्त हुई।
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ऐसे ही एक और राजा की कथा आती है जिनका नाम मैं इस समय भूल रहा हूँ। उन्होंने सौ अश्वमेध यज्ञ किए थे, और उनका यश और कीर्ति सारी पृथ्वी पर फैली हुई थी। अपनी संसारिक मृत्यु के नब्ब वर्ष पश्चात वे अपनी कीर्ति को देखने के लिए इस मृत्युलोक में बापस आए। वे पूरी पृथ्वी पर घूम लिए लेकिन एक भी ऐसा जीवित व्यक्ति नहीं मिला जिसे उनके बारे में कुछ पता हो। अंत में जब वे पूरी तरह निराश हो गए तब लोमश ऋषि ने उन्हें पहिचाना और उपदेश देकर उनका उद्धार किया।
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गीता में भगवान कहते हैं --
"तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम्।
मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्॥११:३३॥"
अर्थात् - इसलिए तुम उठ खड़े हो जाओ और यश को प्राप्त करो; शत्रुओं को जीतकर समृद्ध राज्य को भोगो। ये सब पहले से ही मेरे द्वारा मारे जा चुके हैं। हे सव्यसाचिन्! तुम केवल निमित्त ही बनो॥
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अपने हरेक कार्य का कर्ता परमात्मा को बनाओ, और अपने सारे गुण-दोष उन्हें समर्पित कर दो। वे ही सारे कार्य कर रहे हैं। रामचरितमानस में कहा गया है --
"उमा दारू जोषित की नाईं। सबहिं नचावत राम गोसाईं॥"
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गीता में भगवान कहते हैं --
"ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया..१८:६१॥"
अर्थात - हे अर्जुन (मानों किसी) यन्त्र पर आरूढ़ समस्त भूतों को ईश्वर अपनी माया से घुमाता हुआ (भ्रामयन्) भूतमात्र के हृदय में स्थित रहता है॥
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सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥१८:६६॥"
अर्थात - सब धर्मों का परित्याग करके तुम एक मेरी ही शरण में आओ, मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो॥
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एक बात और बतलाई जा चुकी है --
"मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।
अथ चेत्त्वमहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि॥१८:५८॥"
अर्थात - मच्चित्त होकर तुम मेरी कृपा से समस्त कठिनाइयों (सर्वदुर्गाणि) को पार कर जाओगे; और यदि अहंकारवश (इस उपदेश को) नहीं सुनोगे, तो तुम नष्ट हो जाओगे॥
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यह आसुरी भाव हमें नर्क के द्वार का दर्शन तो करवा ही देगा। आप कुछ भी
कार्य करते हो, तब भाव यही रखो कि उस कार्य को स्वयं परमात्मा ही कर रहे हैं, और उसका श्रेय और फल भी परमात्मा को ही दो। यही हमें आसुरी भाव से मुक्त करेगा।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१२ जनवरी २०२३
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