Saturday, 19 October 2019

महामाया से पार हम अपनी शक्ति से नहीं जा सकते .....

महामाया से पार हम अपनी शक्ति से नहीं जा सकते, यह बड़ी दुरूह है| इस से परे भगवान की भक्ति ही ले जा सकती है| एक तो इस के अज्ञान रूपी आवरण को भेदना प्रायः असंभव ही है, दूसरा इसका मोहरूपी विक्षेप बड़ा भयंकर है जो अपनी ओर आकर्षित कर बड़े बड़े ज्ञानियों को भी पतित कर देता है| स्वयं दुर्गासप्तशती कहती है ...
"ज्ञानिनामपि चेतांसि देवि भगवती हि सा| बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति||"

भक्त और भगवान के बीच में यह महामाया ही है जिसके आवरण ने भेद उत्पन्न कर रखा है, यह आवरण जब तक नहीं हटेगा तब तक परमात्मा का बोध नहीं हो सकता| अन्य कोई कारण नहीं है जिसने हमें परमात्मा से दूर कर रखा है| इसका समाधान परमात्मा की कृपा और अनुग्रह प्राप्त कर स्वयं को ही करना पड़ता है| दूसरा कोई कुछ नहीं कर सकता| श्रीमदभगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने इसका समाधान बताया है ....
"दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया| मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते||७:१४||"


भगवान से हमें कुछ भी नहीं चाहिए, क्योंकि कामनाओं व लोभ का कोई अंत नहीं है| कोई भी प्राप्त वस्तु कभी संतुष्ट और तृप्त नहीं कर सकती| जो कुछ भी चाहिए वह तो भगवान दे चुके हैं| जो दें उस से भी संतुष्ट हैं और जो नहीं दें उस से भी संतुष्ट हैं| भगवान से हम प्रेम करते हैं, क्योंकि भगवान ने ऐसा हमारा स्वभाव बनाया है| वे स्वयं ही स्वयं को प्रेम कर रहे हैं, हमारा कोई पृथक अस्तित्व नहीं है| पृथकता का बोध एक भ्रम है| वे अपने इस मायावी आवरण और विक्षेप से मुक्त करें, और कुछ भी नहीं चाहिए|
 
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
१ अक्तूबर २०१९

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