जीवन का चरम लक्ष्य भगवत्-प्राप्ति ही है, अन्य कुछ भी नहीं ---
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अपने इस शरीर महाराज की बढ़ी हुई भौतिक आयु के अनुरूप इस जीवन की सम्पूर्ण चिंतन-धारा अब आध्यात्म की ओर उन्मुख हो गई है। इस शरीर महाराज का कोई भरोसा नहीं है, पता नहीं कब साथ छोड़ दें। लेकिन एक ऐसे शाश्वत अमर परम-तत्व का बोध इसी जीवन में हो गया है, जो इस शरीर महाराज के जन्म से पूर्व भी मेरे साथ था, और इसके विसर्जन के पश्चात भी मेरे साथ ही रहेगा। वह परम-तत्व मैं स्वयं हूँ।
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जीवन में धोखा तो मुझे मेरे अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, और अहंकार) से ही मिला। अन्य किसी का कोई दोष नहीं है। कोई कमी थी तो वह इस अन्तःकरण की ही थी। लेकिन वास्तव में इस अन्तःकरण का भी क्या दोष? यह भी विकास की क्रमिक अवस्था में अपरिपक्व और अप्रशिक्षित था।
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मेरी चेतना में द्वैत और अद्वैत के मध्य कोई अंतर नहीं है। द्वैत -- मार्ग है, तो अद्वैत -- परिणति है। बिना भक्ति के आध्यात्म में एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकते। भक्ति का चरमोत्कर्ष द्वैत में ही होता है। आध्यात्म में मेरे परम आदर्श और आराध्य -- भगवान श्रीराम और भगवान श्रीकृष्ण हैं। श्रीमद्भगवद्गीता का भक्तियोग ही मेरे अनुकूल पड़ता है। अतः सारी प्रेरणा मुझे वहीं से मिलती है। कोई कुछ भी कहे अब कोई अंतर नहीं पड़ता। लक्ष्य की प्राप्ति के लिए बेशर्म तो होना ही पड़ता है। यदि आध्यात्म में सफल होना है तो सिर्फ अपने हृदय की ही सुनो, अन्य किसी की भी नहीं। इतना बेशर्म तो होना ही पड़ेगा। हृदय कभी धोखा नहीं देगा, अप्रशिक्षित अन्तःकरण सदा धोखा ही देगा।
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श्रीमद्भगवद्गीता और उपनिषदों में सारा मार्गदर्शन है, लेकिन उन्हें समझने के लिए किन्हीं श्रौत्रीय ब्रह्मनिष्ठ आचार्य की भी आवश्यकता होती है जो हरिःकृपा से ही मिलते हैं। हरिःकृपा भी भक्ति और समर्पण से ही होती है। सभी को मंगलमय शुभ कामनाएँ और नमन !!
सदा याद रखें कि जीवन का परम लक्ष्य भगवत्-प्राप्ति ही है, अन्य कुछ भी नहीं।
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ॐ तत्सत् ! श्रीरामचन्द्रचरणौ शरणं प्रपद्ये ! श्रीमते रामचंद्राय नमः !
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ नमः शिवाय !
कृपा शंकर
२ सितंबर २०२३