Saturday, 5 July 2025

असत्य का अंधकार दूर हो, अधर्म का नाश हो, धर्म की जय हो। यह राष्ट्र अपने द्वीगुणित परम वैभव के साथ अखंडता के सिंहासन पर बिराजमान हो। .

असत्य का अंधकार दूर हो, अधर्म का नाश हो, धर्म की जय हो। यह राष्ट्र अपने द्वीगुणित परम वैभव के साथ अखंडता के सिंहासन पर बिराजमान हो।

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इस संसार में किस पर विश्वास करूँ, और किस पर न करूँ? कुछ समझ में नहीं आ रहा है। सारी आस्था, श्रद्धा और विश्वास परमात्मा में ही सिमट कर रह गई हैं। वे निकटतम से भी निकट, प्रियतम से भी प्रिय, एकमात्र आश्रयस्थल और मेरी एकमात्र धन-संपत्ति हैं। परमात्मा के अतिरिक्त मेरे पास कुछ भी अन्य नहीं है। इस समय मैं उन्हीं में तैर रहा हूँ, उन्हीं में गोते लगा रहा हूँ, और उन्हीं में लोटपोट कर रहा हूँ। इस भौतिक जन्म से पूर्व वे ही मेरे साथ थे, इस शरीर की भौतिक मृत्यु के पश्चात वे ही मेरे साथ रहेंगे, माता-पिता, भाई-बंधु, शत्रु-मित्र, सगे-संबंधी, सब कुछ वे ही थे। उन परमात्मा का ही प्यार था जो इन सब के माध्यम से मुझे मिला। एकमात्र अस्तित्व उन्हीं का है। उनसे अन्य कुछ भी नहीं है।
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आपके सामने मिठाई रखी है, तो उसको खाने में मजा है, न कि उसकी चर्चा करने में। इसलिए परमात्मा की चर्चा करना व्यर्थ है। वायू के रूप में परमात्मा का ही भक्षण कर रहा हूँ, जल के रूप में उन्हें ही पी रहा हूँ, भोजन के रूप में उन्हीं को खा रहा हूँ, उन्हीं परमात्मा में रह रहा हूँ, और उन्हीं परमात्मा में विचरण कर रहा हूँ। सामने का दृश्य भी परमात्मा है, देखने वाला भी परमात्मा है, और यह दृष्टि भी परमात्मा है। उन के सिवाय कुछ भी अन्य नहीं है। एकमात्र कर्ता वे ही हैं।
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गीता में भगवान कहते हैं --
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥६:३०॥"
अर्थात् -- " जो पुरुष मुझे सर्वत्र देखता है और सबको मुझमें देखता है, उसके लिए मैं नष्ट नहीं होता (अर्थात् उसके लिए मैं दूर नहीं होता) और वह मुझसे वियुक्त नहीं होता॥
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ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
६ जुलाई २०२४

दोनों आँखों के मध्य में स्वर्ग का द्वार है। आज्ञा चक्र का वेधन - स्वर्ग में प्रवेश है ---

 दोनों आँखों के मध्य में स्वर्ग का द्वार है। आज्ञा चक्र का वेधन - स्वर्ग में प्रवेश है।

मेरु दंड को सीधा रखते हुए अपनी चेतना को हर समय भ्रूमध्य में स्थिर रखने का प्रयास करते रहें। जो उन्नत साधक हैं वे अपनी चेतना को सहस्त्रार में रखें।
मैं किसी भी तरह की साधना का उल्लेख अब से भविष्य में कभी भी नहीं करूंगा।
अपनी अपनी गुरु-प्रदत्त साधना करें। कोई कमी होगी तो आपके गुरु महाराज उसका शोधन कर देंगे।
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सांस को स्वाभाविक रूप से चलने दो। ह्रदय को एक अहैतुकी परम प्रेम से भर दो। इस प्रेम को सबके हृदयों में जागृत करने की प्रार्थना करो। जितना हो सके उतना भगवान का ध्यान करो। यह सर्वश्रेष्ठ सेवा है है जो हम समष्टि के लिए कर सकते हैं। जो भी अनुभव होंगे वे आपके निजी अनुभव होंगे।
ॐ तत्सत् !!
६ जुलाई २०२२

जो भी तुमको स्व से दूर करता हो वो पाप है, और जो तुमको स्व की तरफ लाता हो वो पुण्य है ---

 ब्रह्मरंध्रे मनः दत्त्वा क्षणार्द्धमपि तिष्ठति ।

सर्वपाप विनिर्मुक्त्वा स याति परमागति ।।
= ब्रह्मरंध्र में मन देकर क्षणार्द्ध भी कोई रह जाये, सारे पापों से मुक्त होकर वो परमगति को प्राप्त होता है ।
गुरुदेव श्रीलाहिड़ी महाशय ने कहा है , " जो भी तुमको स्व से दूर करता हो वो पाप है और जो तुमको स्व की तरफ लाता हो वो पुण्य है " । अतः निम्न प्रवृत्तियाँ ही पाप हैं । जिसे गीता में श्रीभगवान ने कहा है जघन्य गुण वृत्ति स्थित तामस व्यक्ति नीचे जाता है ।
इससे यह भी पता चलता है, सहस्रार में ध्यान करने से तमस् और रजस् कम होते हैं तथा सत्त्व की वृद्धि होती है ।
बहुत साधन परम्पराओं में सीधा सहस्रार पर ध्यान करने को मना करते हैं । अतः गुरु परम्परा अनुसार आज्ञा प्राप्त करके सीधा सहस्रारमें भी व्यक्ति ध्यान करने का अभ्यास कर सकता है । क्रियायोग में ऐसा नहीं है, सीधा सहस्रार में ध्यान करने का उपदेश भी गुरुवर्गों ने दिया है ।
दूसरी बात ,
एक श्लोक को आधुनिक वैष्णव टिप्पणी करते हैं ।
हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नाम हि केवलम् ।
कलौ नास्तैव नास्तैव नास्तैव गतिरन्यथा ।।
इसका साधरण अर्थ है :- "केवल एक हरि नाम ही है, कलियुग में दूसरी कोई गति नहीं "
इसका यौगिक अर्थ अलग है ।
साधना में कलियुग अर्थात् वह अवस्था जब साधक की चेतना नीचे के चक्रों में निम्न प्रवृतियों में रहती है ।
हरि है श्वास, हरिनाम है श्वास के साथ मन्त्र या इसके प्राकृतिक प्रवाह पर ध्यान (जो बिना जप की हंस की ध्वनि करती है) ।
इसीके उपर लक्ष्य रखना हरि नाम का जप है । गुरुदेव स्वामी श्रीयुक्तेश्वर जी भी साधना में हरि मन्त्र देते हैं , दूसरे पन्थ वाले हरि को ग्रहण नहीं करते हैं, इसलिए ह रि को बदल कर अ एवं इ करदिया ।
इसीसे केवल अवस्था की प्राप्ति होती है । व्यक्ति की चेतना कलि अर्थात् निम्न प्रवृत्तियों से उपर उठती है ।
श्रीलाहिड़ी महाशय भी बार बार कहते थे ।
"हरदम लगे रहो रे भाई,
बनत बनत बनजाई"
इसी को अन्य समय में कहते थे
""हरि से लगे रहो रे भाई,
बनत बनत बनजाई"
दम अर्थ भी श्वास होता है । जैसे कहते हैं " हस हस कर वेदम हो गया " अर्थात्, इतना हँसा की सांसें रुक सी गयी।
हर समय श्वास/ प्राण के उपर लक्ष्य होना चाहिए , या क्षमता अनुसार चेष्टा होनी चाहिए ।
श्वासक्रिया सहजता से होती है , हमारी कोई चेष्टा नहीं होती । अतः यह गीतोक्त सहजकर्म है , जिसे श्रीभगवान कहते हैं कि दोषयुक्त हो भी तो त्याग न करो । सहज अर्थात् साथ साथ जन्म लिया भी है । श्वासक्रिया हमारे जन्म के साथ ही आरम्भ होती है । इस हिसाब से भी यह सहज है ।
बाकी कुछ भी अभ्यास हो अपने गुरु परम्परा अनुसार करना चाहिये ।
६ जुलाई २०२०

दोनों आँखों के मध्य में स्वर्ग का द्वार है ..... (amended) .

 दोनों आँखों के मध्य में स्वर्ग का द्वार है ..... (amended)

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आज्ञा चक्र का वेधन ही स्वर्ग में प्रवेश है| मेरु दंड को सीधा रख कर अपनी चेतना को सदैव भ्रूमध्य में स्थिर रखने का प्रयास करो और भ्रूमध्य से विपरीत दिशा में मेरुशीर्ष से थोड़ा ऊपर खोपड़ी के पीछे की ओर के भाग में नाद को सुनते रहो और ॐ का मानसिक जप करते रहो| दोनों कानों को बंद कर लो तो और भी अच्छा है| बैठ कर दोनों कोहनियों को एक लकड़ी की सही माप की T का सहारा दे दो|
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यह ओंकार की ध्वनी ही प्रकाश रूप में भ्रूमध्य से थोड़ी ऊपर दिखाई देगी जिसका समस्त सृष्टि में विस्तार कर दो और यह भाव रखो की परमात्मा की यह सर्वव्यापकता रूपी प्रकाश हम स्वयं ही हैं, हम यह देह नहीं हैं|
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सांस को स्वाभाविक रूप से चलने दो| जब सांस भीतर जाए तो मानसिक रूप से हंsss और बाहर जाए तो सोsss का सूक्ष्म मानसिक जाप करते रहो| यह भाव निरंतर रखो की हम परमात्मा के एक उपकरण ही नहीं, दिव्य पुत्र हैं, हम और हमारे परम पिता एक ही हैं|
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ह्रदय को एक अहैतुकी परम प्रेम से भर दो| इस प्रेम को सबके हृदयों में जागृत करने की प्रार्थना करो| यह भाव रखो की परमात्मा के सभी गुण हम में हैं और परमात्मा की सर्वव्यापकता ही हमारा वास्तविक शरीर है|
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जितना हो सके उतना भगवान का ध्यान करो| यह सर्वश्रेष्ठ सेवा है है जो हम कर सकते हैं|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
६ जुलाई २०१३
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पुनश्चः :--
आज्ञा चक्र ही स्वर्ग का द्वार है| आज्ञाचक्र का वेधन ही स्वर्ग में प्रवेश है| आज्ञाचक्र और सहस्त्रार के मध्य का क्षेत्र ज्ञानक्षेत्र है| सारा ज्ञान वहीं है|सहस्त्रार के मध्य में श्री बिंदु है, जिससे परे का क्षेत्र परा है| सहस्त्रार में ही ज्येष्ठा, वामा और रौद्री नाम की तीन ग्रंथियां हैं जिनसे सतोगुण, रजोगुण व तमोगुण निःसृत होते हैं|
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अपने सब गुण-अवगुण, सब अच्छाइयाँ-बुराइयाँ और अपनी सब खूबियाँ-कमियाँ सदगुरु के चरण कमलों में अर्पित कर दो|
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सोऽहं और हंस दोनों एक ही हैं| कुछ समय पश्चात हंस ही सोहं बन जाता है| ॐ ॐ ॐ !!

आधुनिक विज्ञान में यहूदियों का योगदान ....,

 आधुनिक विज्ञान में यहूदियों का योगदान ....,

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यह फेसबुक जिसके माध्यम से हम विचार-विमर्श कर रहे हैं, एक यहूदी की ही देन है|
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आज प्रातः वर्त्तमान समय के प्रख्यात वैज्ञानिकों की और उनकी उपलब्धियों की एक सूचि देख रहा था तो उनमें से आधे से अधिक तो यहूदी ही निकले|
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सन १९७१ के बांग्लादेश की मुक्ति के लिए पाकिस्तान से हुए युद्ध के भारतीय फील्ड कमांडर यानी युद्धभूमि में रहते हुए युद्ध के वास्तविक संचालक एक यहूदी सेनाधिकारी मेजर जनरल जैकब थे जो तत्पश्चात लेफ्टिनेंट जनरल होकर सेवानिवृत हुए|
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भारत में यहूदी एक धार्मिक अल्पसंख्यक समुदाय है जिसको अल्पसंख्यक आयोग द्वारा मान्यता प्राप्त नहीं है| अल्पसंख्यक आयोग में एक भी यहूदी नहीं है| मेरी जहां तक जानकारी है कोई पारसी भी नहीं है| जब कि यहूदी और पारसी ही वास्तविक धार्मिक अल्पसंख्यक हैं|
६ जुलाई २०१७

हमारा उद्देश्य है -- ईश्वर यानि परमात्मा को समर्पित होना

 "ईश्वर यानि परमात्मा की प्राप्ति" एक गलत वाक्य है, और ईश्वर को प्राप्त करने की बात ही गलत है, क्योंकि ईश्वर तो हमें सदा से ही प्राप्त है। हम कोई मंगते/भिखारी नहीं, ईश्वर के अमृतपुत्र हैं। जहां भी कोई मांग होती है, वह व्यापार ही होता है। परमात्मा से कुछ मांगना, उनके साथ व्यापार करना है। हमारा उद्देश्य है -- ईश्वर यानि परमात्मा को समर्पित होना, न कि उन के साथ व्यापार करना।

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हम परमात्मा को दे ही क्या सकते हैं? --- परमात्मा को देने के लिए हमारे पास इतना अधिक सामान है कि उसे देने के लिए अनेक जन्म चाहियें। सबसे बड़ा तो हमारा मन है, फिर बुद्धि, फिर चित्त, और फिर अहंकार। परमात्मा को स्वयं का समर्पण ही हमारी आध्यात्मिक साधना का एकमात्र उद्देश्य है। परमात्मा को अपने राग-द्वेष का समर्पण करके ही तो हम वीतराग महात्मा हो सकते हैं, जो हमारी आध्यात्मिक साधना का प्रथम उद्देश्य है। परमात्मा में अपनी प्रज्ञा को स्थित कर के ही हम स्थितप्रज्ञ हो सकते हैं। परमात्मा में अपने अहम् का समर्पण कर के ही हम ब्रह्मविद हो सकते हैं। अतः परमात्मा से कुछ पाने की न सोचें। यह सबसे बड़ा भटकाव है।
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भगवान ने जो कुछ भी दिया है वह हमें उन्हें बापस तो लौटाना ही होगा, अन्यथा प्रकृति बापस हमसे सब कुछ छीन ही लेगी| प्रकृति हमसे छीने उस से पूर्व ही बापस लौटा दें तो अधिक अच्छा है| स्वार्थपूर्ण अधिकार का भाव एक साधक को त्याग देना चाहिए| सब कुछ परमात्मा का है, हमारा कुछ भी नहीं, और सर्वस्व भी परमात्मा ही है|
ॐ तत्सत् ॥ ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
५ जुलाई २०२५

"महात्मा" की पहिचान क्या है? हम किसे "महात्मा" कह सकते हैं?

 (प्रश्न) : "महात्मा" की पहिचान क्या है? हम किसे "महात्मा" कह सकते हैं?

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(उत्तर) : वैसे तो जो महत् तत्व से जुड़ा है, वह महात्मा है। लेकिन इसकी क्या लौकिक पहिचान है? महात्माओं के सत्संग में सुना है, और मेरा निजी अनुभव भी है कि एक वीतराग व्यक्ति ही महात्मा हो सकता है। वीतराग का अर्थ है -- राग, द्वेष और अहंकार से मुक्त। वीतराग महात्मा ही स्थितप्रज्ञ और ब्राह्मी-चेतना में स्थित हो सकता है।
योगदर्शन का एक सूत्र है -- "वीतरागविषयं वा चित्तम्" (१:३७) पतंजलि योगसूत्र॥
रामचरितमानस में "वीतराग" शब्द का उपयोग उन विरक्त संतों व भक्तों के लिए किया गया है जो सांसारिक इच्छाओं और आसक्तियों से दूर हैं। जो वीतराग नहीं है वह कभी महात्मा नहीं हो सकता।
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भारत में एक दिवंगत पूर्व राजनेता को महात्मा कहा जाता है, जो महात्मा कहलाने की अंशमात्र भी पात्रता नहीं रखते। उन्हें महात्मा कहना -- "महात्मा" शब्द का अपमान है।
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
५ जुलाई २०२५

दोनों आँखों के मध्य में स्वर्ग का द्वार है, आज्ञाचक्र का भेदन ही स्वर्ग में प्रवेश है --

 दोनों आँखों के मध्य में स्वर्ग का द्वार है, आज्ञाचक्र का भेदन ही स्वर्ग में प्रवेश है --

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मेरु दंड को सीधा रख कर अपनी चेतना को सदैव भ्रूमध्य में स्थिर रखने का प्रयास करो और भ्रूमध्य से विपरीत दिशा में मेरुशीर्ष से थोड़ा ऊपर खोपड़ी के पीछे की ओर के भाग में नाद को सुनते रहो और ॐ का मानसिक जप करते रहो| दोनों कानों को बंद कर लो तो और भी अच्छा है| बैठ कर दोनों कोहनियों को एक लकड़ी की सही माप की T का सहारा दे दो|
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यह ओंकार की ध्वनी ही प्रकाश रूप में भ्रूमध्य से थोड़ी ऊपर दिखाई देगी जिसका समस्त सृष्टि में विस्तार कर दो और यह भाव रखो की परमात्मा की यह सर्वव्यापकता रूपी प्रकाश हम स्वयं ही हैं, हम यह देह नहीं हैं|
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सांस को स्वाभाविक रूप से चलने दो| जब सांस भीतर जाए तो मानसिक रूप से हंSSS और बाहर जाए तो सःSSS का सूक्ष्म मानसिक जाप करते रहो| यह भाव निरंतर रखो की हम परमात्मा के एक उपकरण ही नहीं, दिव्य पुत्र हैं, हम और हमारे परम पिता एक ही हैं|
ह्रदय को एक अहैतुकी परम प्रेम से भर दो| इस प्रेम को सबके हृदयों में जागृत करने की प्रार्थना करो| यह भाव रखो की परमात्मा के सभी गुण हम में हैं और परमात्मा की सर्वव्यापकता ही हमारा वास्तविक शरीर है|
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जितना हो सके उतना भगवान का ध्यान करो| यह सर्वश्रेष्ठ सेवा है है जो हम समष्टि की कर सकते हैं|
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
६ जुलाई २०१३

कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् --

 "वसुदेवसुतं देवं कंसचाणूरमर्दनम्। देवकीपरमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम्॥"

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गुरु पूर्णिमा पर (जो इस वर्ष सन २०२५ ई. में १० जुलाई को पड़ रही है) गुरु-रूप में मैं जगद्गुरू भगवान श्रीकृष्ण को नमन करता हूँ। उनका ध्यान स्वभाविक रूप से हर समय ऊर्ध्वस्थ, कूटस्थ सूर्यमण्डल में "पुरुषोत्तम" के रूप में होता रहता है। जो "पुरुषोत्तम" हैं वे ही "परमशिव" हैं। उन में कोई भेद नहीं है, केवल अभिव्यक्तियाँ पृथक पृथक हैं। गुरु रूप में वे दक्षिणामूर्ति शिव भी हैं।
अपना सम्पूर्ण अस्तित्व और पृथकता का बोध उन में समर्पित कर, मैं उनके साथ एक हूँ। उनमें और मुझमें कोई भेद नहीं है। सभी जन्मों में मिले सभी गुरु भी उन्हीं के रूप थे, जो मेरे साथ एक हैं। शिवोहं शिवोहं॥ अहं ब्रह्मास्मि॥ ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
५ जुलाई २०२५