Tuesday, 15 April 2025

"समत्व" ही योग है ....

 "समत्व" ही योग है....

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समत्व ही योग है| समाधि कोई क्रिया नहीं, एक अवस्था का नाम है, जिसमें उपासनारत उपासक समभाव में अधिष्ठित हो जाता है| समभाव में स्थिति ही समाधि है| जब साधक स्थूल, सूक्ष्म, कारण एवं तुरीय भूमियों पर एक ही दशा में अवस्थान करते हैं, उसे समाधि कहते हैं| जब ध्येय ध्याता और ध्यान, ज्ञेय ज्ञाता और ज्ञान, दृष्टा दृश्य और दर्शन ..... इन सब का लय हो जाता है वह समाधि की अवस्था है| यह समत्व ही योग है| तंत्र की भाषा में महाशक्ति कुण्डलिनी का परमशिव से मिलन ... योग है, पर बिना भक्ति के तंत्र भी एक शब्दजाल मात्र है|
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किसी भी तरह के बौद्धिक जंजाल में न पड़कर, जब भी भगवान के प्रति परमप्रेम की अनुभूतियाँ हों तब उस प्रेम में समर्पित होकर स्वयं ही परम प्रेममय हो जाएँ| यही भगवान की भक्ति है| बौद्धिक ज्ञान सिर्फ प्रेरणा दे सकता है पर अंततः काम तो भगवान की भक्ति ही आयेगी| भगवान से इतना प्रेम करो कि उनसे कोई भेद नहीं रह जाय| फिर सब कुछ जो भी आवश्यक है, वह स्वतः ही समझ में आ जाएगा|
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"भगवान मुझ से प्रसन्न हों" ... यह भाव भी छोड़ देना चाहिए| सब तरह की आशाएँ भी आसक्ति हैं जिनका त्याग कर देना चाहिए| अन्तःकरण की शुद्धि से उत्पन्न होनेवाली ज्ञानप्राप्ति तो सिद्धि है, और ज्ञानप्राप्ति का न होना असिद्धि है| ऐसी सिद्धि और असिद्धि में समभाव होने की अवर्णनीय अवस्था "योग" है जहाँ भगवान से कोई भेद नहीं रहता|
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गीता में भगवान कहते हैं....
"योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय | सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ||२:४८||
अर्थात् .... हे धनञ्जय, तूँ आसक्ति का त्याग करके सिद्धि-असिद्धिमें सम होकर योगमें स्थित हुआ कर्मोंको कर, क्योंकि समत्व ही योग कहा जाता है|
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गीता में ही भगवान कहते हैं .....
"ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति | समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम् ||१८:५४||
अर्थात् वह ब्रह्मभूतअवस्थाको प्राप्त प्रसन्न मनवाला साधक न तो किसीके लिये शोक करता है और न किसीकी इच्छा करता है| ऐसा सम्पूर्ण प्राणियोंमें समभाव वाला साधक मेरी पराभक्तिको प्राप्त हो जाता है|
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इस अवस्था में कुछ भी जानने को बाकि नहीं रहता है| यही पराभक्ति है, यही परमसिद्धि है, यही योग है, और यही हमारे जीवन का उद्देश्य है|
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निजात्मगण आप सब महान आत्माओं को नमन | ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१ अप्रेल २०१८

हमारी कोई भी बुराई हो, वह निज प्रयासों से कभी दूर नहीं होती, चाहे कितना भी हम प्रयास करें ---

 हमारी कोई भी बुराई हो, वह निज प्रयासों से कभी दूर नहीं होती, चाहे कितना भी हम प्रयास करें| इसके लिए भगवान का अनुग्रह चाहिए| वे तो इन सब से ऊपर उठने का उपदेश देते हैं, और मार्ग भी बताते हैं| सारी बुराइयाँ और अच्छाइयाँ हमारे अवचेतन मन में अनेक जन्मों के संस्कारों के रूप में छिपी होती हैं जो अवसर मिलते ही प्रकट हो जाती हैं| भगवान की परम कृपा का पात्र हमें बनना होगा जिसके लिए चाहिए ..... परमप्रेम, अभीप्सा और समर्पण|

गीता के अध्याय १८ "मोक्ष-सन्यास योग" का स्वाध्याय एक बार अवश्य करें|
ॐ तत्सत् !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१६ अप्रेल २०२०

जब परमात्मा की प्रत्यक्ष अनुभूति होने लगे, तब सब नियमों से स्वयं को मुक्त कर परमात्मा का ही चिंतन, मनन, निदिध्यासन और ध्यान करना चाहिए।

हम नित्यमुक्त हैं। जब परमात्मा की प्रत्यक्ष अनुभूति होने लगे, तब सब नियमों से स्वयं को मुक्त कर परमात्मा का ही चिंतन, मनन, निदिध्यासन और ध्यान करना चाहिए।

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जब से सृष्टि की रचना हुई है, तब से इस वर्तमान क्षण तक, इतना मधुर और शुभ समय कभी भी नहीं आया। हर क्षण हम सृष्टिकर्ता परमात्मा के साथ एक हैं। चारों ओर आनंद ही आनंद है। हमारी चेतना हर समय पूरी सृष्टि के साथ एक है। पूरी सृष्टि भगवान का ध्यान कर रही है। मैं सारी सृष्टि में हूँ, और सारी सृष्टि मुझ में है। हे सच्चिदानंद परमशिव, तुम कितने सुंदर हो !!
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अब स्वाध्याय और बाहरी सत्संग छूट गया है। इनका कोई महत्व नहीं रहा है, क्योंकि निरंतर परमात्मा से सत्संग हो रहा है। अब परमात्मा के ही चिंतन, मनन, निदिध्यासन, प्राणायाम, ध्यान और समाधि में ही मन लगता है। शरीर को स्वस्थ रखने के लिए हठयोग के कुछ व्यायाम भी करने चाहियें। मैं मुक्त हूँ, किसी नियम से नहीं बंधा हूँ; मेरे लिए कोई नियम नहीं है। इस सृष्टि में कुछ भी निराकार नहीं है। जिसकी भी सृष्टि हुई है, वह साकार है। भगवान के साकार रूप ही मेरे चैतन्य में रहते हैं। यह जीवन अपने अंतिम क्षण तक साकार परमात्मा का ध्यान करते करते ही व्यतीत हो जायेगा।
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जब परमात्मा की अनुभूति होने लगे, तब परमात्मा का ध्यान ही करना चाहिए। पुस्तकों का अध्ययन और बाहरी सत्संग कभी कभी ही आवश्यक है, सदा नहीं। निरंतर परमात्मा का ही सत्संग हो। ज्ञान का स्त्रोत परमात्मा हैं, पुस्तकें नहीं। अगर आप कहीं जा रहे हैं और आप का लक्ष्य आप को दिखाई देना आरंभ हो जाये तो आपको "मार्ग-निर्देशिका" की कोई आवश्यकता नहीं पड़ती। फिर आपका दृष्टि-पथ आपके लक्ष्य की ओर ही हो जाता है। फिर अपने लक्ष्य को व अपने पथ को ही निहारिये, अन्यत्र कहीं भी नहीं। हमारी प्रथम, अंतिम, और एकमात्र आवश्यकता -- परमात्मा है। वे मिल गए तो सब कुछ मिल गया, और जीवन तृप्त हो गया।
परमात्मरूप आप सभी को नमन ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१६ अप्रेल २०२३ . पुनश्च: --- पृथ्वी के उत्तरी गोलार्ध की अंधकारमय रात्री में यदि कोई मुझसे पूछे कि ध्रुवतारा कहाँ है, तो मैं उसे अपनी अंगुली का संकेत कर के ध्रुव तारा और सप्तऋषिमण्डल दिखा दूंगा| एक बार उसने देख लिया और ध्रुवतारे की पहिचान कर ली तो फिर मेरी अंगुली का कोई महत्व नहीं है| यदि मैं यह अपेक्षा करूँ कि वह मेरे अंगुली का भी सदा सम्मान करे तो यह मेरी मूर्खता होगी| उत्तरी गोलार्ध की बात मैंने इस लिए की है क्योंकि ध्रुवतारा और सप्तऋषिमण्डल इस पृथ्वी पर भूमध्य रेखा के उत्तर से ही दिखाई देते हैं, दक्षिण से नहीं| जितना उत्तर में जाओगे उतना ही स्पष्ट यह दिखाई देने लगेगा| भूमध्य रेखा के दक्षिण से ध्रुव तारे व सप्तऋषिमण्डल को नहीं देख सकते|

जहाँ तक ईरान-इज़राइल युद्ध की बात है, इसमें नया कुछ भी नहीं है ---

 जहाँ तक ईरान-इज़राइल युद्ध की बात है, इसमें नया कुछ भी नहीं है। इस युद्ध की घोषणा तो ४५ वरसों पूर्व सन १९७९ में ईरान में इस्लामिक क्रांति के पश्चात सत्ता में आते ही ईरान के तत्कालिक मुल्ला-मौलवी शासकों ने कर दी थी। मैं उन दिनों बीबीसी लंदन से समाचार सुना करता था। यह बीबीसी के समाचारों में ही था कि सत्ता में आते ही ईरान के तत्कालीन शासनाध्यक्ष ने घोषणा की थी कि एक दिन वे इज़राइल को लाल-सागर में दफन कर देंगे।

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हालांकि यहूदीयत, ईसाईयत, और इस्लाम --- तीनों मज़हबों का आरंभ हज़रत इब्राहिम (Prophet Abraham) अलैहिस्सलाम से हुआ है। हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम के बड़े बेटे हज़रत इस्माइल अलैहिस्सलाम के खानदान में हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम हुए जिनसे इस्लाम की शुरुआत हुई। हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम के छोटे बेटे हज़रत इसाक अलैहिस्सलाम से यहूदी मज़हब चला। उन्हीं के खानदान में जन्म लिए हज़रत ईसा ने ईसाई मज़हब चलाया।
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जैसे एक ही खानदान के लोगों में दुश्मनी हो जाती है, वैसे ही यहूदियों और मुसलमानों में शुरू से ही खानदानी दुश्मनी है। इस विषय पर अधिक लिखना उचित नहीं है। जिन को रुचि है वे इंटरनेट से विकिपीडिया पर जाकर पढ़ सकते हैं।
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इज़राइल को जन्म देने के लिए ही इंग्लैंड ने प्रथम विश्व युद्ध में अपने मित्र देशों की सहायता से सल्तनत-ए-उस्मानिया को हराया और उस उस्मानिया सल्तनत के चालीस टुकड़े कर के चालीस नए देश बना दिये, जिन में इज़राइल भी है। उस्मानिया-सल्तनत के अंतिम वर्षों के इतिहास को पढे बिना इस विषय को समझना कठिन है।
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पुनश्च: --- सल्तनत-ए-उस्मानिया के प्रमुख को खलीफा कहते थे। सल्तनत-ए-उस्मानिया (Ottoman Empire) के ३६ वें खलीफा सुल्तान महमूद (छठा) वहिदेद्दीन को कमाल अतातुर्क ने अपदस्थ कर के तुर्की से इटली और फिर फ्रांस भगा दिया था। उसका बेटा अब्दुल मजीद (द्वितीय) २३ अगस्त १९४४ को पेरिस में निर्वासित जीवन जीता हुआ मर गया| भारत में महात्मा गांधी ने इसी अब्दुल मजीद को बापस तुर्की की राजगद्दी दिलाने के किए खिलाफत आंदोलन शुरू किया था जिससे बहुत अधिक हानि हुई| पाकिस्तान की नींव भी इसी आंदोलन से पड़ी। और भी कई बातें हैं जिन्हें पूर्व में लिख चुका हूँ। और अधिक लिखने का अब धैर्य नहीं है।
कृपा शंकर
१६ अप्रेल २०२४